बीच बहस में हंस में प्रकाशित शीबा असलम फहमी के लेख से शुरु हुई बहस अभी थमी नहीं है। अप्रेल 2010 अंक में मोहतरम कृष्ण बिहारी ने एक...
बीच बहस में
हंस में प्रकाशित शीबा असलम फहमी के लेख से शुरु हुई बहस अभी थमी नहीं है। अप्रेल 2010 अंक में मोहतरम कृष्ण बिहारी ने एक बार फिर मुसलमानों के जानिब अपना ‘प्यार' उड़ेला है। अपने जबाव में कृष्ण बिहारी ने वही सब कुछ दोहराया है, जो वे पहले कह चुके हैं। हां, कुछ अपनी ओर से सफाई भी पेश की है। लेकिन जैंसे कमान से निकले तीर और मुंह से निकले अल्फाज वापिस नहीं आते, कुछ इसी तर्ज पर कृष्ण बिहारी अपने इस लेख से पूरी तरह बेनकाब हो गए हैं। अब वे जो भी काम करेंगे, वह सब लीपा-पोती ही होगा। खैर ! रचनाकार के पाठकों के लिए पेश है, मेरा जनवरी अंक में आया लेख। जो न जाने किस वजह से हंस में पूरा प्रकाशित नहीं हुआ। मुझे यकीन है, गर यह लेख पूरा प्रकाशित होता तो मोहतरम कृष्ण बिहारी ओर भी लाजबाव हो जाते। बहरहाल, अब तय पाठक करेंगे, कि क्या सही है और क्या झूठ। साथियों मुझे आपके रद्दे अमल का इंतजार रहेगा।
संघी मानसिकता के पहलू
-जाहिद खान
हंस के अक्टूबर अंक में शीबा असलम फहमी के मई अंक में प्रकाशित लेख की एक लाईन से नाइत्तेफाकी जताते हुए प्रवासी हिंदी साहित्यकार कृष्ण बिहारी का हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज को लगभग खिताब करता हुआ लेख पढ़ने को मिला। लेख को पढ़कर ताज्जुब हुआ, कि ये वही कृष्ण बिहारी हैं, जिनकी कहानियां प्रगतिशील और जनवादी पत्रिकाओं में अहमियत के साथ शाया होती हैं। कृष्ण बिहारी के नाम की बजाय अगर इस लेेख पर तरुण विजय, बलवीर पुंज या अरुण शौरी का नाम चस्पां होता तो शायद इतना रंजो मलाल न होता। क्योंकि इन संघी बौद्धिकों की पूरी सियासत खुली किताब है। लेकिन कृष्ण बिहारी जैसा लेखक जब संघी तर्कों से हिंदोस्तानी मुसलमानों को जांचता हैं, तो बेहद अफसोस होता है। अफसोस इसलिए भी होता है कि ये सब जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक हंस में छपता है। उस हंस में, जिसके पन्नों पर पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों और कट्टर तालिबानियों से एक साथ लोहा लेते हैं। हां, राजेन्द्र जी ये बात पक्की मानिए कि अगर ये लेख हंस की जगह ओर कहीं छपता तो ये जबाव के काबिल भी नहीं था।
खैर ! कृष्ण बिहारी ने शीबा असलम फहमी के लेख के जिस खास नुक्ते ‘हिंदु साम्प्रदायिकता और हेट-क्राइम' से अपना लेख उठाया है। गोया कि उनका पूरा लेख भी हिंदू साम्प्रदायिकता और हेट-क्राइम का घटिया नमूना बनकर रह गया है। मुस्लिम समाज के अंदर जेंडर जिहाद पर काबिले तारीफ और क्रांतिकारी कलम चलाने वाली शीबा फहमी के लेख की महज एक लाईन की बिना पर कृष्ण बिहारी ने जो ‘सद्वचन' उगले हैं, उससे उनकी मुसलमानों की जानिब मानसिकता का परिचय मिलता है। कृष्ण बिहारी के लेख को पढ़कर ऐसा अहसास होता है, कि उन्होंने शीबा के पूरे लेख को सही तरह से पढ़ा ही नहीं है। और यदि पढ़ा भी है तो, उस पूरी लाईन को संदर्भ से काटकर। जाहिर है कि जब हम किसी बात को संदर्भ से काटकर इस्तेमाल करते हैं, तो उसको मनचाहे तरीके से व्याख्यायित कर सकते हैं।
शीबा के जिस लेख ‘संविधान और कबीला' की एक लाईन पूज्यनीय कृष्ण बिहारी को नागवार गुजरी है। आईए, उस लाइन को पूरे पैराग्राफ के साथ पढ़ें और आगे इसका विश्लेषण करें ‘‘सवाल यह है कि भारत में मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, राजनीतिक जीवन के प्रति उदासीन क्यों रहीं ? इसका एक कारण यह भी रहा कि आजादी की पूर्व संध्या और फिर उसके बाद लगातार साम्प्रदायिकता का जो जहर समाज में घुला उसका शिकार गरीब व निचला तबका तो हुआ ही लेकिन ऊंचे-नीचे हर तबके की सभी मुसलमान महिलाएं इसका शिकार हुंई। हिंदू साम्प्रदायिकता व हेट-क्राइम ने न सिर्फ इन्हें घर व पर्दे में सुरक्षा लेने पर मजबूर किया बल्कि, पुरुष वर्ग के आगे अपने सभी अधिकार भी डालने पर मजबूर किया। महिलाओं के हिस्से के सारे फैसले पुरुष लेते रहे, परिवार के मर्द की मर्जी ही पूरे परिवार की मर्जी मानी गई। कालांतर में उसे यह पट्टी पढ़ा दी गई कि परिवार के पुरुषों के हित में ही स्वयं उसका हित है। औरत की अपनी न कोई जरुरत है न उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व। उसका फायदा-नुक्सान, उसके अधिकार सब मर्द के व्यक्तित्व में समाहित हो गए।''
लेख के इस छोटे से हिस्से को पढ़कर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि शीबा ने हिंदुस्तान में मुस्लिम महिलाओं की मौजूदा बदहाली के लिए जिम्मेदार तमाम वजहों में से एक वजह हिंदु साम्प्रदायिकता और हेट क्राइम को भी माना है। कौन नहीं जानता कि आजादी के पूर्व हुए साम्प्रदायिक दंगो से लेकर गुजरात दंगो तक, यदि इन दंगो का सबसे ज्यादा बुरा असर पड़ा, तो वह है औरत जात। हर साम्प्रदायिक दंगा औरत के ऊपर कई नासूर छोड़ जाता है। वह पहले से और कहीं ज्यादा अपने आप को गैर महफूज समझने लगती है। और जाने-अनजाने वह मर्द के साये में पनाह ले लेती है। जाहिर है शीबा जब ये लिखतीं हैं तो उनका ये इशारा कतई नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं की दुर्गति सिर्फ और सिर्फ हिंदु साम्प्रदायिकता व हेट-क्राइम की वजह से है। बल्कि वे अपने पूरे लेख में औरत की बदहाली के लिए मुस्लिम समाज और उसमेें भी मर्दों को सबसे बड़ा जिम्मेदार मानती हैं। अपनी बात का खुलासा करते हुए, वे एक जगह साफ-साफ लिखती हैं ‘‘एक तरफ भारतीय संविधान में समान अधिकार दिए गए तो, दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के नाम पर मुसलमान पुरुषों को औरतों पर हुकूमत करने के अधिकार प्राप्त हो गए। अतः भारतीय मुस्लिम महिलाएं पहले अपने मर्दों के अधीन हैं, बाद में संविधान के। और यही कारण है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों का उपयोग कर ससम्मान नागरिक जीवन जी पाना मुसलमान महिलाओं के लिए संभव नहीं हो पा रहा।'' यानी शीबा हिंदुस्तान में महिलाओं के पिछड़ेपन को मर्दों की मानसिकता से जोड़ती हैं। और ये पुरुषवादी मानसिकता ही है, जो आज भी औरतों को उनका हकीकी दर्जा नहीं देना चाहती। शीबा के मुताबिक औरतों की बदहाली के लिए मर्द गुनहगार हैं, जो उनके सारे हक छीने बैठे हैं। जबकि हिंदुस्तानी संविधान ने मुस्लिम औरत को उनके बिना मांगे दीगर औरतों की तरह ही सारे नागरिक अधिकार प्रदान कर दिए हैं। शीबा अपने लेख में हिदुस्तानी मुस्लिम समाज में पितृसत्ता के खिलाफ औरतों को एकजुट होने, संघर्ष करने का आहवान करती हैं। यही नहीं वे बड़ी बहादुरी से इस्लाम में घर कर गई, कबीलाई व्यवस्था की मुखालफत भी करती हैं। शीबा के मुताबिक ये कबीलाई व्यवस्था इस्लाम या पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने नहीं बनायी बल्कि बाद में मर्दों ने अपने फायदे के लिए बनायी, जिससे औरतों को उनके हक से महरुम किया जा सके।
जाहिर है, शीबा ने अपनी एक उंगुली यदि साम्प्रदायिकता व हेट-क्राइम की ओर उठाई है, तो बाकी सारी उंगुलियां मुस्लिम समाज की तरफ की हैं। लेकिन कृष्ण बिहारी की दिक्कत ये है कि वे बाकी सब बातें छोड़कर इस नुक्ते का इस्तेमाल इस्लाम व मुसलमानों को गरियाने के लिए करते हैं। शीबा को समझाईश देते हुए कृष्ण बिहारी अपने लेख में इतने लाउड हो गए हैं कि उनके मुसलमानों के जानिब, जो पूर्वाग्रह हैं वो सरे आम हो गए हैं। लेख में उन्होंने जो चुन चुनकर दलीलें दी हैं, वे उन्हें खुद-ब-खुद हिंदु राष्ट्रवादियों के पाले में ला खड़ा कर देती हैं। खास तौर पर जब, वे संघ के अहम सिद्धांतकार गुरु गोलवलकर की इस थ्योरी को मुसलमानों पर जबरन थोपने की कोशिश करते हैं कि ‘‘भारत मुसलमानों की जन्मभूमि नहीं है, वे विदेशी हैं, लिहाजा उनका देश से भावनात्मक संबध नहीं है।''कृष्ण बिहारी यहीं नहीं रुक जाते बल्कि संघी अंदाज में वंदे मातरम् गीत के बहाने मुुसलमानों की वतनपरस्ती को कटघरे में ला खड़ा कर देतें हैं। यहां तक की भारत-पाक विभाजन के लिए भी मुसलमानों को जिम्मेदार करार देतें हैं।
कृष्ण बिहारी और उनके संघी जमाती भले ही आज भी मुसलमानों की हिन्दोस्तानियत और उनकी वतनपरस्ती पर सवाल उठाएं लेकिन हिंदुस्तानी मुसलमानों ने गुजिश्ता 60 सालों में ये साबित कर दिखाया है कि वे उतने ही हिंदुस्तानी हैं, जितने कि हिंदुस्तान में दीगर कौमें। हिंदुस्तानी सरहदों पर मुस्लिम नौजवान फौजी भी उतना ही लहु बहाते रहें हैं, जितना कि दीगर। कृष्ण बिहारी ने साहित्य सिद्धांतो से इतर यदि दीगर समाज विज्ञान भी पढ़े होते, तो उन्हें ये अच्छी तरह से मालूम होता कि पाकिस्तान किसने मांगा था ? लेकिन अफसोस ! पांचजन्यी साहित्य विचार पढ़ने से तो इसी तरह के ख्याल उपजेंगे। यहां हंस के पाठकों को एक बात और वाजेह करना जरुरी है कि शीबा ने अपना लेख हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज को टारगेट कर लिखा था, जबकि कृष्ण बिहारी हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज को अरब मुल्कों और पाकिस्तान, बांग्लादेश से जोड़कर अपनी बात करते हैं। जाहिर है हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज और अरब मुस्लिम समाजों के बीच जमीन-आसमान का फर्क है। जिसे जान बूझकर हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज पर नहीं थोपा जा सकता। कृष्ण बिहारी, सऊदी अरब की एक खातून जो मूलतःहिंदुस्तान की हैं, कि मिसाल से अपने लेख में यह साबित करते हैं कि भारतीय मुसलमान परिवारों में हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझा जाता है। बीते 25 साल से लगातार अरब मुल्कों में निवास करने पर ऐंसा लगता है कि कृष्ण बिहारी भी अल्पसंख्यक ग्रंथी से जूझ रहे हैं। वरना वे बिना सोचे समझे हिंदुस्तानी मुस्लमानों पर ये बेबुनियाद इल्जाम नहीं लगाते, कि मुसलमान हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझते हैं। दरअसल, कृष्ण बिहारी का सामान्य ज्ञान इतना कमजोर है कि उनकी दलीलों का जबाव देते हुए मुझे उनकी अक्ल पर तरस ज्यादा आता है। कृष्ण बिहारी जी आपकी जानकारी के लिए बता दें, कि हिंदुस्तान के स्कूल-कॉलेजों में हिंदी और दीगर मातृ भाषाओं के जरिए ही फिलवक्त 50 फीसद मुसलमान तालीमयाफता हुए हैं। शीबा और मेरे जैसे लाखों मुस्लिम परिवार अपने घरों में जो भाषा बोलतें हैं, वह हिंदी ही है न कि ओर कोई।
कृष्ण बिहारी अपने लेख में बड़ी बड़ी बातें करते हुए कई हास्यास्पद बातों पर उतर आते हैं। और ये बातें करते हुए उनका अंदाजे बयां बिल्कुल मीनमेख निकालने वाली उस औरत जैसा होता है जो, छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगती है। वे कहते हैं कि ‘‘मुसलमान हिंदुस्तान में शुक्रवार की नमाज के लिए 2 घंटे का अवकाश ले लेतें हैं, जबकि इस्लामी हुकूमतों में दूसरे धर्मों के संबध में बात करने तक की इजाजत नहीं है। आदरणीय बिहारी जी, पहली बात तो आप ये जान लीजिए कि हिंदुस्तान में ऐंसा कोई अॉफिस-कार्यालय नहीं है, जो मुसलमानों को शुक्रवार की नमाज की वास्ते 2 घंटे की छुट्टी देता हो। दूसरी बात, आप जिन मुल्कों की तुलना हिंदुस्तान से कर रहे हैं, उनमें कहीं भी जम्हूरियत नहीं है। आप जिस मुल्क के जजिया वसूलने के किस्से को बड़ी तल्खी से बयां करते हैं वहां भी तानाशाह सरकारें हुकूमत करती रहीं हैं। जहां तक मजहबी कट्टरता का सवाल है, ये कट्टरता आज हर मजहब में दिखाई देती है और इस कट्टरता का कोई भी तरक्कीपसंद इंसान हिमायत नहीं कर सकता। मजहबी कट्टरता आज इस्लाम के मानने वालों में ही नहीं घर कर गई है, बल्कि दीगर मजहबों में भी पैर पसार रही है। तस्लीमा नसरीन यदि मजहबी कट्टरता का शिकार हुई हैं, तो एम.एफ. हुसैन भी 94 साल की उम्र में उसी कट्टरता का शिकार होकर अपने मुल्क से दूर रहने को मजबूर हैं। फिर शीबा असलम फहमी भी इस लेख और अपने दीगर लेखों में कहीं भी मजहबी कट्टरता की हिमायत नहीं करतीं।
कृष्ण बिहारी , लेख में अपना पूरा जोर इस बात पर लगाने की नाकाम कोशिश करते हैं, कि ‘‘हिंदुस्तान में मुसलमान हिंदु साम्प्रदायिकता या हेट-क्राइम के शिकार नहीं हुए हैं। मुसलमानों के आज जो भी हालात हैं, वे सब उन्हीं के बनाए हुए हैं। मुसलमानों की बदहाली के लिए मुसलमान ही जिम्मेेदार हैं।''हिंदुस्तानी मुसलमानों पर बिना सोचे समझे कोई भी तोहमत लगाने से पहले, आबूधावी में कयाम करने वाले कृष्ण बिहारी को मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और श्ौक्षणिक दशा को बयान करने वाली सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को जरुर देख लेना चाहिए। जिसमें, हिंदुस्तानी हुकूमत द्वारा नियुक्त कमेटी ने मुसलमानों के साथ हर विभाग में भेद-भाव होने की बात को माना है। फिर कृष्ण बिहारी जी आप तो खुद एक इस्लामिक मुल्क में रहते हैं, जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं और दीगर कौम अल्पसंख्यक। शीबा जिस हेट-क्राइम की बात करती हैं, उसे आपने भी तो खुद खाड़ी मुल्कों में झेला-भोगा होगा। इस्लाम और हिंदुस्तानी मुसलमानों को नसीहत देने की बजाय अगर आप अल्पसंख्यकों की आवाज वैश्विक परिपेक्ष्य में उठाते तो उसका हर जगह समर्थन मिलता। लेकिन आपने लेख में अपनी सारी ऊर्जा मुसलमानों को गरियाने में लगा दी। हिंदुस्तानी मुसलमानों पर इससे बड़ा कोेई इल्जाम हो नहीं सकता, कि ‘वे लोकतंत्र को पसंद नहीं करते।' कृष्ण बिहारी जी, हिंदुस्तानी मुसलमानों को आपके सामने ये साबित करने की बिल्कुल जरुरत नहीं है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन रखते हैं। हिंदुस्तानी मुसलमान और तरक्कीपसंद, धर्मनिरपेक्ष बहुसंख्यक ही हैं जिनकी वजह से हिंदुस्तान में अभी तक तानाशाही स्थगित है। वरना कभी के आप और आप जैसी सोच की संघी जमात मुल्क में भगवा लहरा देती।
कुल मिलाकर बरसों से पिछड़े हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में आज जो आत्मावलोकन प्रक्रिया की शुरुआत हुई है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। औरत के लिए चारों तरफ से बंद माने जाने वाले मुस्लिम समाज में यदि शीबा असलम फहमी जैसी लेखिका आवाज उठा रही है तो ये अच्छा संकेत है। कृष्ण बिहारी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार को शीबा की इस मुहिम की हिमायत करना चाहिए, न कि बिला वजह ही किसी कौम पर जहर उगलना चाहिए। कृष्ण बिहारी का पूरा लेख इस्लाम और मुसलमानों के जानिब उनकी तंग नजर सोच को दर्शाता है। मुसलमानों के बारे में कृष्ण बिहारी ने कुछ पूर्वाग्रह बना रखे हैं, जो उन्हें लगातार परेशान करते हैं। अच्छा है, ये लेख लिखने के बाद कृष्ण बिहारी अपने को कुछ हल्का महसूस करेंगे। कृष्ण बिहारी जी आपके तमाम इल्जामों के बावजूद दर हकीकत हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज उतना ही तरक्कीपसंद है जितने कि मुल्क के दूजे समाज। हिंदुस्तान में समरस समाज की संरचना में मुस्लिम समाज बटवारे का दर्द भुलाकर आज उतना ही योगदान दे रहा है, जितने कि दीगर समाज। फिर आप इस बात से इत्तेफाक रखें या न रखें।
----
संपर्क:
महल कॉलोनी, शिवपुरी मप्र
(1) साम्प्रदायिकता दो प्रकार की होती है: हिन्दू और ग़ैर हिन्दू।
जवाब देंहटाएंहिन्दू साम्प्रदायिकता से मुस्लिम औरतों को बहुत नुकसान हुआ और वे पर्दे में शरण लेने लगीं (पहले वे बिना बुरके के घूमती थीं। :)
ग़ैर हिन्दू साम्प्रदायिकता से हिन्दू औरतों को कोई नुकसान न हुआ और न होता है।
(2) औरतों के भी दो प्रकार होते हैं - हिन्दू और मुस्लिम। दोनों की समस्याएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि साम्प्रदायिकता हिन्दू है या ग़ैर हिन्दू।
(3) 25 करोड़ की संख्या अल्पसंख्यक होती है। तब तक रहेगी जब तक आधे मार्के से 1 कम रहेगी।
(4)एम.एफ. हुसैन नामक एक मनचले ने भोलेपन और उदारता के साथ हिन्दू देवियों और देवों को नग्न चित्रित किया। हिन्दू कट्टर हैं क्यों कि कुछ ने उसका विरोध किया और वह न्यायालय को झेलने के डर से भाग खड़े होने पर मज़बूर हो गया। बेचारा 94 साल का भोला भाला मासूम बच्चा जिसे हिन्दू देवियाँ नंगी नज़र आती हैं और ग़ैर हिन्दू औरतें कपड़े पहने हुई। बहुत नाइंसाफी है।
(5) @ हिंदुस्तान में ऐंसा कोई अॉफिस-कार्यालय नहीं है, जो मुसलमानों को शुक्रवार की नमाज की वास्ते 2 घंटे की छुट्टी देता हो। - उसकी ज़रूरत ही क्या है जब सामने वाला ऐसे ही पा जाता हो और छीन लेता हो।
(6)@मुसलमानों के साथ हर विभाग में भेद-भाव होने की बात - राष्ट्रपति तक बना दिया। गैर हिन्दू देशों में किसी हिन्दू के वहाँ तक पहुँचने की नौबत आएगी तो हम भी सेकुलर हो जाएँगे। अभी तो ये बातें कह कर साम्प्रदायिक हो ही चुके हैं।
(7)@शीबा के मुताबिक ये कबीलाई व्यवस्था इस्लाम या पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने नहीं बनायी बल्कि बाद में मर्दों ने अपने फायदे के लिए बनाया - इस 'खोज' के लिए तो उन्हें कोई पुरस्कार मिलना चाहिए। हमारा भी ज्ञानवर्धन हो गया।
आभार।
गिरिजेश जी की टिप्पणी को दुहराता हूं...
जवाब देंहटाएंलीगी मानसिकता क्या भारत के लिये अधिक अच्छी है???
कमी यह है कि हिन्दू दुष्प्रचार करना तो दूर जवाब देना भी नहीं जानता..
मुस्लिम महिलाओं को जागना ही होगा। उन्हें पता नहीं है कि आज वे जिस स्थिति में जी रही हैं वे समाज का बहुत बड़ा नुकसान कर रही हैं।
जवाब देंहटाएंवाह गिरिजेश जी ।छा गये हो आप ।लेख बहुत और बहुत पुराना है पर टिप्पणी किए बिना नहीं रह सका।पर गलती शीबा जी जैसों की नहीं है।इन्हें अपनी गलती भी गैरों के सर मढना तो खुद हामारे हिंदू सेकुलर भाईयों ने ही सिखाया है।
जवाब देंहटाएं