अशोक गौतम का व्यंग्य - हल्‍ले को हल्‍ला

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वे मेरे बरसों से जाने हैं। मेरे ही नहीं कई दलों के। जब इस दल में दाल नहीं गलती तो बिना किसी संकोच के गर्व से सिर ऊंचा किए दूसरे दल की टोप...

ashok gautam

वे मेरे बरसों से जाने हैं। मेरे ही नहीं कई दलों के। जब इस दल में दाल नहीं गलती तो बिना किसी संकोच के गर्व से सिर ऊंचा किए दूसरे दल की टोपी सिलवा लाते हैं। आज की डेट में उनको भी पता नहीं उनके पास घर में कितनी टोपियां हो गई होंगी। रही बात विचारधारा की, वह तो सभी दलों की एक सी है। मसलन खाना पीना, जनता का उल्‍लू बनाना और सुअवसर मिलते ही एक दूसरे पर लात-घूंसे बरसाना।

वे फिर झक सफेद कुरता पाजामा पहने निकले थे। तय था पार्टी बैठक में ही जा रहे होंगे। उनकी चाल ढाल भी उस वक्‍त सौ फीसदी नेता लग रही थी। उन्‍होंने मुझे देखते ही चेहरे पर पूरे देश की चिंताएं लेबेड़ी मानो वे मुहल्‍ले के बित्‍ता भर नेता न होकर राष्ट्रीय स्‍तर के नेता हों। असल में मेरे देश की प्राब्‍लम भी यही है। मैंने यो ही टाइम पास करने के लिए उनसे पूछ लिया,‘ और देश चिंतक, कहां जा रहे हो?'

‘ पार्टी कार्यालय जा रहा हूं।' कह उन्‍होंने ऐसी मुद्रा बनाई ज्‍यों वे संसद में जा रहे हों।

‘क्‍या कुछ खास मुद्‌दे को लेकर पार्टी मंथन होने जा रहा है?'

‘खास कहां यार! मंथन को पार्टी में बचा ही क्‍या है? जो अपने को फन्‍ने खां समझते थे उन सबको तो हमने पिछली बैठक में ही मथ कर किनारे फेंक दिया था।'

‘तो कमसे कम ये नया कुरता पाजामा पहन कर बैठक में तो न जाते। आना तो इसने वहां से हर हाल में तार तार होकर ही है। पुराना ले जाते तो ........ कम से कम मुझे पाजामा कुरता फटने का दुख तो न होता।' मैंने कहा तो वे कुछ देर खड़े होकर कुछ सोचते रहे फिर अपने चिंतन को लगाम दे बोले,‘ अबकी बार शायद मीडिया की नजरों में आ जाऊं। अगर जनता ने गंदे कपड़े देख लिए तो ... बस इसीलिए मन से तो सभी हम लोगों को गंदा कहते ही हैं पर कपड़ों से तो कम से कम उजले लगने ही चाहिए न।‘ यार! मैं तो बंदे को आज तक अंडर इस्‍टीमेट ही करता रहा ।

‘ आज बैठक में मुद्‌दा क्‍या है ?'

‘हल्‍ला!' कह वे चहके और चार बार जोर से थूका। शुक्र है मेरे ऊपर नहीं पड़ा।

‘ तभी तो आपका गला इतना साफ लग रहा है।'

‘ आठ दिन से बिना नागा दिए नमक के गरारे कर रहा हूं कि हल्‍ला करते हुए जुबान फटे कनस्‍तर सी न निकले।'

‘पर पार्टी बैठकों में तो हल्‍ला बैठक शुरू होने से पहले शुरू होता है। वे हल्‍ले के बाद शुरू होती हैं और हल्‍ले से पहले खत्‍म । ऐसे में इस मुद्‌दे को लेकर बैठक करना क्‍या सही है? यह तो सरासर वक्‍त की बरबादी नहीं लगती?'

‘भैया, बैठकें होती ही वक्‍त की बराबदी के लिए हैं। पर अबकी बार मुद्‌दा सबसे खास है। दिल्‍ली में हल्‍ला करने जाना है। इसलिए मुहल्‍ले स्‍तर से पार्टी हल्‍ले के लिए रणनीति बना रही है ताकी हल्‍ला अबके हिलाने वाला हो।‘

‘ पर दिल्‍ली तो पहले ही हल्‍लों से भरी पड़ी है। वहां के लोग चौबीसों घंटे बिजली को लेकर हल्‍ला करते रहते हैं, पानी को लेकर हल्‍ला करते रहते हैं, सरकार के मंत्री और बड़े पदों के लिए हल्‍ला करते रहते हैं। सड़कों पर मोटरों का हल्‍ला है, आटो रिक्‍षा वालों का हल्‍ला है, विपक्ष के भारी नेताओं का हल्‍ला है, गांव में रोजगार न मिलने पर गांव से पलायन करने वालों का हल्‍ला है। ऐसे में तुम लोग वहां जाकर हल्‍ला बोलोगे तो हल्‍ला कुछ ज्‍यादा नहीं हो जाएगा? पहले ही दिल्‍ली पर हल्‍ले का बोझ क्‍या कम है? बेचारी अगर वह बहरी हो गई तो?'

‘वैसे भी वह सुनती कहां है? विपक्ष महंगाई -महंगाई चिल्‍लाता मर गया, पर वह नहीं सुनती। विपक्ष बेरोजगारी- बेरोजगारी चिल्‍लाता मर गया, पर वह नहीं सुनती। विपक्ष जंगल राज चिल्‍लाता- चिल्‍लाता मर गया, पर वह सुनती ही नहीं। हम चिल्‍लाते- चिल्‍लाते मर गए कि वर्तमान सरकार खाने कमाने के हमारे ही कार्यक्रमों को नाम बदलकर चला रही है, पर वह सुनती ही नहीं। क्‍या यहां पर जब कोई दल सत्‍ता में काबिज हो जाता है तो अपने कानों में रुईं डाल लेता है और आंखों पर पट्‌टी बांध लेता है? अब तुम ही कहो? विपक्ष हल्‍ले से अधिक और कर भी क्‍या सकता है? हमारे भी तो हाथ बंधे हैं भैया।'

‘नेता हो तुम्‍ही जानो। यहां तो आटे दाल से ही फुर्सत नहीं। पर....'

‘यही तो साली आफत है। दिल्‍ली में हल्‍ले के लिए डेट सिर पर आ चुकी है पर अभी तक पार्टी में दिल्‍ली से लेकर मुहल्‍ले स्‍तर तक रोज हल्‍ला हो रहा है कि हल्‍ले की अगुआई कौन करेगा? हल्‍ले के लिए हल्‍ला है कि रूकने का नाम नहीं ले रहा। हर स्‍तर पर बीसियों बैठकें हो चुकी हैं पर नतीजा शून्य। डर है , कहीं ऐसा न हो कि.....' कह वे चिंता के सागर में डूबने लगे तो मैंने उनका कालर पकड़ उन्‍हें डूबने से बचाने का कुप्रयास करते कहा,‘यह हक तो आला कमान के मुखिया का ही बनता है।'

‘पर दूसरे कहते फिर रहे हैं कि अब उनके गले में हल्‍ला करने की ताकत नहीं रही। वे हल्‍ला बोलेंगे तो लगेगा कि बिल्‍ली म्‍याऊं-म्‍याऊं कर रही है। ऐसे में..... चलो देखते हैं, क्‍या होता है...'

‘ पूरे देश में हल्‍ले के लिए आपका गला बिल्‍कुल फिट लग रहा है। मेरे हिसाब से आप हल्‍ला बोलें तो.... आप हल्‍ला करोगे दिल्‍ली में, तो सुनेगा कन्‍याकुमारी में।‘

‘यही तो आज फैसला करने जा रहा हूं।' कह वे इतने जोष में आए, इतने जोष में आए कि हे भगवान! बैठक से वे बिन कुरता पाजामा फड़वाए सकुशल लौट आएं। अब क्‍या कहूं! ये जो कुरता पाजामा पहन कर वे गए हैं मेरा है। दो महीने पहले ले गए थे कि पार्टी की जिला स्‍तरीय बैठक में जाना है। सांप के मुंह में हाथ डालने की ताकत मुझमें नहीं।

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रचनाकार: अशोक गौतम का व्यंग्य - हल्‍ले को हल्‍ला
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