- तो आइए, देखें कि हम हिन्दुस्तानियों की भावनायें और इच्छायें ऑस्ट्रेलिया में बसने के बाद पाश्चात्य संस्कृति से टकराती हैं; इसके बावज़ूद...
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तो आइए, देखें कि हम हिन्दुस्तानियों की भावनायें और इच्छायें ऑस्ट्रेलिया में बसने के बाद पाश्चात्य संस्कृति से टकराती हैं; इसके बावज़ूद हम अपनी पहचान, अपनी अस्मिता को नहीं भूलते इसका जायज़ा लें – ऑस्ट्रेलिया की अपने क़िस्म की प्रथम पुस्तक ‘बूमरेंग’ से - जिसमें यहां के ११ कवियों ने अपने उद्गार व्यक्त किये हैं।
इस किताब को आप चाहे जैसे भी खोलिये; जैसे कि चलो, उल्टी खोल कर सिडनी की नीरजा नीना बधवार से मुलाकात करते हैं जो वर्तमान में ’द इण्डियन डाउन अंडर’ का संपादन करती हैं। आपकी कविता में सहज सरल भाषा में भी गहराइयां देखने को मिलती हैं। आप कविता शुरू कुछ इस प्रकार करती हैं कि “तू अपनी समझ से मुझे न समझ / तेरी समझ में तो हुँ मैं नासमझ” तो यह महज शब्दों का खेल नहीं – कविता में नारी के दमन के विरूद्ध आक्रोश है। ‘अदालत तुम्हारी’ में भी यही भाव विद्यमान है।
यहाँ से चलते हैं पर्थ के प्रेम माथुर के पास। आपकी कविताओं में ‘फक़ीर’ की वह मस्ती है जो धर्मान्धता के ‘ताण्डव’ को आड़े हाथों लेती है और भारतीय संस्कृति में अपनी जड़ें तलाशती हैं। इनका एक बिम्ब देखिये – “रेगिस्तान के आकाश में/ वादल का इकलौता टुकड़ा / टपका गया एक बूँद पानी / एकाकी आदम का इकलौता आँसू“। आपके भीतर का कवि “दुनियादारी की परतों में लिपटे/ छुपे मनोभावों को” समझने का प्रयास भी करता हैं।
पर्थ के ही अनिल वर्मा ’दर्पण’ तलाशने को कहते हैं क्यों कि “इसकी छायाएँ ही तुम्हारी अभिव्यक्ति हैं”। आपकी चेतावनी है कि “अफ़वाहों के पंख नहीं होते” फिर क्यों लोगों ने जानबूझ कर उन्हें “बिना कोई नाम दिये / चाय की चुस्कियों में जीया है।“ आप उस ’अरूप’ से प्रश्न करते हैं “दूर क्षितिज के सौ अधरों पर/ किसके नामों का उच्चारण/ और बहकती पुरवाई में/ किसके प्राणों का सम्मोहन”। मंजा हुआ शिल्प आपकी कविताओं की विशेषता है।
केनबेरा के किशोर नंगरानी का व्यंग्य अनूठा है “एक फ़्यूनरल डायरेक्टर ने / पचास परसेंट ऑफ़ की सेल लगाई / मारे खुशी/ सेल का फ़ायदा उठाने/ बुढ़िया उसी वीकएंड चल बसी”। एक अन्य कविता है ‘आज़ादी की सालगिरह’ जो गांधी और नेहरू का दम भरने वाले नेताओं के मुख पर करारा तमाचा है। ’दिल की रानी’ में हसीना की उपमा “ऑस्ट्रेलियन इकोनॉमी” से देखते ही बनती है।
व्यंग्य की श्रृंखला में आईये, मेलबर्न के सुभाष शर्मा से मिलिये। ‘मातृभाषा’ और ‘मेरी मिट्टी’ आदि गंभीर कविताओं के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य में आपका अद्भुत समोसा-जलेबी का संवाद कोई सानी नहीं रखता “अक्ल में तेरी अगर आलू न होता / तो तू भी मेरी प्लेट में ही साथ सोता/ मैं भी तेरे प्यार में कोई गीत गाती / दूध जैसे तुझमें ही मैं डूब जाती” या फिर “पेट काट बाप ने पाले थे पाँच पूत/ उन सब के बीच में हम ही पढ़ि पाये हैं…”
अब वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में बसी रेनू शर्मा से मिलते हैं। आप ‘कुछ तो फ़र्क है’ में कतिपय भारतीयों की अहंवादी मानसिकता पर करारा तमाचा लगाती हैं।’समुद्र’ की शोर मचाती खोखली लहरों में उन्हें आईना दिखाती हैं। आपका भावुक मन ’बिसरी यादों’ में अब तो लुप्त से हो गये आतिथ्य-भाव को उभारता हैं तो दूसरी ओर बेटी की विदाई पर स्वयं को संतुलित रखने का प्रयास करता है।
अब मिलिये सिडनी की शैलजा चतुर्वेदी से। आपका समाज-सुधारक चिन्तन ‘अयोध्याकांड’ व ‘दहेज की बेटी’ में स्पष्ट दिखाई देता है। “मैं कफ़न ओढ़ कर गीतों का तेरी तलाश में भटक रही/ फिर तेरा यह आरोप कि मैं दुल्हन बनकर / इस रंगमहल की मादकता से जुड़ी रही।“ इस ‘प्रश्नोत्तरी’ से स्वार्थ में ही पुरूषत्व का दंभ भरने वालों की पैरों तले जमीन खिसकने लगेगी।
इसके बाद मिलते हैं एडीलेड के राय कूकणा से। ’ख़याल सी ये जिन्दगी’ में इनका उपमान देखने लायक है – “अस्थिर रिश्तों के तार पर/ नटनी की चाल-सी ये जिन्दगी” या फिर ’उम्मीद की बुढ़िया’ ने “इक तड़के जब कुण्डी खोली / कोहरे में इक छवि थी डोली / उषा गगरी से छलका सपना / भोर रश्मियाँ लाई उपहार “। आपका ’स्वप्न सृजन’ ’स्मृतियों के सागर के मोती’ ढूंढ लाता है।
अब मिलते हैं सिडनी के अब्बास रज़ा अलवी से। आपके मन में छिपे सृजनशील बालक को ‘फूलों के आँगन’ में जो नीम का पेड़ है उससे ऊँचा उठने की तमन्ना है; नीले अंबर को छूकर चाँद-सितारे तोड़ लाने की ख़्वाहिश है। आप ‘अपने देश का एक कवि’ में उसकी दुर्दशा का चित्रण करते हैं साथ ही ईश्वर से दुआ मांगते हैं कि “ ’रज़ा’ गीत लिख दो ऐसा, जो सदा रहे ज़हन में / जिसे खा न सके कीड़े, वह किताब मुझे दे दो।“
आपने ग़ज़ल के एक शेर में अर्ज़ किया है :“हमने ख़ुद अपने जुर्म का इकरार कर लिया / अब क्यों ’रज़ा’ से इस कदर कतरा रहे हैं लोग”।
अब बात करते हैं बूमरैंग की संपादक रेखा राजवंशी की। आपका कवि ह्रदय पुरानी यादों के ’संदूक’ में ‘ख्वाहिश की कतरन’ देख कर तड़प उठता हैं। ’दीप रातों में’ जलाने के पीछे एक मनमोहक विचार है - “कोई हमदम न कहीं मिल जाय/ चाँद-तारों को बिछाके रखिये” तो दूसरी ओर ‘कंगारुओं के देश’ में आकर जो ’बदलाव’ आते हैं व यहाँ पले ’आज के बच्चे’ जिस ’भटकाव’ का शिकार होते हैं उसका बहुत अच्छा चित्रण है।
कवियों ने व्यंग्य, गीत-ग़ज़ल, आधुनिक अतुकान्त कविता आदि विभिन्न शैलियों में भावनात्मक या विचारोत्तेजक – हर वर्ग के पाठक के लिये लिखा है ताकि कविता की परिभाषा के विषय में कोई एक धारणा हावी न हो जाय। क्या विद्वान और क्या सामान्य जन – कविता से मिलता आनन्द, उसकी प्रेरणा किसी एक गुट की बपौती नहीं।
अंत में मुझे अपनी कविताओं के बारे में भी लिखना होगा। केवल किताबी ज्ञान पर जीने वाले सैयाँ की बीवी कहती है “गिनी चुनी लकड़ियाँ / भाई लोगों ने इकठ्ठा की / जलती होली देख कर / पर्यावरण की बात करने लगा।“ (’ऐसा बोर सैया’)। शक होता है कहीं वह मैं तो नहीं ? क्योंकि जब ‘दिल का दर्द’ लिखने बैठा तो दिमाग में कोस्मोलोजी घूम रही थी तो लिख बैठा – “झांझर झमझम बजी, सृष्टि का मूल / तारे, ग्रह नक्षत्र, चितवन की धूल / मेघ काले छिद्र से, नैन के काजल / युग-युगान्तर निकल गये, कि जैसे पल / कल के बहते आँसुओं का ’समन्दर’ आज है / क्या करें दिल का दर्द लाइलाज है /”
मैं झूठी कसम खाकर कहता हूँ कि न तो Big Bang का अर्थ झांझर बजने से है और न “काले-छिद्र” का अर्थ black hole से। पर इतना अवश्य कहूँगा कि इस धरती पर जो “समन्दर” है वह प्रियतम के चिर वियोग में बहते आँसुओं का परिणाम है इसमें कोई संदेह नहीं।
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-हरिहर झा
मेलबर्न ( आस्ट्रेलिया )
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