कोई कहता है बजट अच्छा है। कोई कहता है खराब है। एक ही चीज अच्छी और खराब दोनों कैसे हो सकती है ? मतलब साथ-साथ अच्छी और खराब कैसे हो सकती है...
कोई कहता है बजट अच्छा है। कोई कहता है खराब है। एक ही चीज अच्छी और खराब दोनों कैसे हो सकती है ? मतलब साथ-साथ अच्छी और खराब कैसे हो सकती है ? कभी अच्छी और कभी खराब दिखे ऐसा हो सकता है। जैसे प्रेमियों को प्रेमिकाएं कभी अच्छी तो कभी खराब दिखती हैं। अपना खुद का अनुभव तो कुछ भी नहीं है फिर भी सुनी-सुनाई बातें रख रहे हैं। उदहारण के लिए शुरुआती दौर में अच्छी और कुछ दिन बाद खराब दिखने लगती हैं। अथवा यदि गलती बस शादी हो गयी तो शादी के बाद। वैसे गलती तो कोई करना नहीं चाहता। फिर भी ये हो जाया करती है। खैर अनुभव बढ़ता है। अच्छाई-बुराई का ज्ञान तो हो जाता है।
अगर बजट अच्छा है तो महँगाई और बढ़नी ही चाहिये। अखरता तो तब है जब बजट खराब हो। जब बजट अच्छा हो तो क्या महंगा और क्या सस्ता ? कौन देखता है ? मुझे तो लगता है क्या अच्छा और क्या खराब है । इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे देखा जाता है ? बजट के मामले में देखने वाले का बजट कैसा है ? उसी हिसाब से वह प्रतिक्रिया भी देता है। आज के समय में तर्क का बोलबाला है। लोग हर बात का प्रमाण चाहते हैं। यहाँ तक कि आज के कुछ लड़के बाप से भी बाप होने का सबूत मांगते हैं। ऐसे में अपने कथन की पुष्टि में यदि कुछ उदाहरण ही मिल जाये तो बात बने और सबके समझ में अच्छी तरह आये।
हमने इस मुद्दे पर भ्रष्टश्रेष्ठ जी से मुलाक़ात किया जिन्हें लोग स्नेह बश भ्रष्टभूषण भी कहते हैं। ये राजनीति के महारथी हैं। आजीवन देश सेवा करके यह उपाधि प्राप्ति किया है। जीवन तो अब भी शेष है। लेकिन देश-भक्त उस जीवन को जीवन नहीं मानते जो देश के काम न आये। जनता ने इन्हें वोट दिया। इन्होंने नोट लिया। किससे और कैसे क्या मतलब ? बजट वाली गुत्थी सुलझ जाये बस। मैंने कहा आप देश के महान राजनीतिज्ञ हैं। आज के नेता आपको ही अपना गुरु व पथप्रदर्शक मानते हैं। आप कितनों के रोल मॉडल हैं। आपकी बराबरी न कर सकें तो भी आपके समकक्ष पहुँचने की सबकी ललक है। ऐसे में आप अपने अनुभव से बताएं कि किसी को बजट अच्छा तो किसी को खराब क्यों लगता है ?
इन्होंने पहले हमारी राय जाननी चाही। हमारे बिचारों से थोडा सहमत दिखे और बोले मैं खुद अपना उदाहरण आपको बताऊँगा। लेकिन पहले आपकी बात सुनेंगे। मैंने बताया कि आपने आजीवन आम जनता की सेवा किया है। जो बन पड़ता है आज भी करते हैं। न कभी चूके हैं और न चूकेंगे। फिर भी आम लोगों को जानने का अवसर आपको नहीं मिला। आपने सेवा तो किया लेकिन जिन लोगों का सेवा किया उनके बारे में आपको कुछ पता तक नहीं। इसी को कहते हैं निर्लिप्त भाव की सेवा यानि नेकी। अपनी इच्छा से आप आम लोगों से जुड़े और मुड़े भी आवश्यकता न रहने पर। देश का एक ऐसा बर्ग जो गावों में या झुग्गी-झोपड़ियों में रहता है। उससे कोई जाकर पूछे कि बजट कैसा है तो क्या बतायेंगे ? शायद पूछेंगे कौन सा बजट या किसका बजट ? इनके लिए बजट न ही अच्छा है और न ही खराब। अर्थात इनके लिए बजट कुछ नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि इनमें समता आ गयी है। ये मोह-माया से ऊपर उठ चुके हैं। बल्कि बजट से इनका कभी पाला ही नहीं पड़ा। न कभी देखा न ही महसूस किया सुना जरूर होगा। ये हमेशा महरूम रहे हैं।
इन्हे यह उदाहरण जादा रुचा नहीं। बोले इसके लिए ये लोग खुद ज़िम्मेदार हैं। इन लोगों की देश में कोई रूचि ही नहीं है। देश रहे या भाड़ में जाये क्या मतलब ? इसलिए इन्हें बजट के बारे में कुछ पता नहीं। ये खुद अपना तथा देश का बजट बिगाड़ते हैं। देश के विकास में बाधा हैं। अब तक देश कब का विकसित हो गया होता। लेकिन न इनका विकास होगा न देश का। मैंने कहा यह तो सच है।
लोग चिल्लाते हैं कि महँगाई बढ़ी है। बढ़ी तो है लेकिन क्या पहली बार बढ़ी है ? देश में हजारों नेता हैं उनका अपना रहन-सहन, चाल-चलन हैं। देश में चुनाव होते हैं कई करोड़ों का खर्चा आता है। तब जाकर सरकार बनती है। धीरे-धीरे महँगाई बढ़ती है। फिर बजट आता है थोड़ी और बढ़ जाती है। नये कर लग जाते हैं। कर न लगे तो विकास कैसे हो ? अगर नेता के कर न लगे तो सच में विकास हो। लोग कहते हैं कि महँगाई घटने का नाम ही नहीं लेती। आप खुद बताएं कि क्या कोई बढ़कर घटना चाहता है ? लोग खुद बढ़ने के लिए लोगों को घटाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर हटाते भी हैं। ऐसे में महँगाई क्यों घटे ? अपना गौरव किसे प्यारा नहीं होता । लेकिन अपनी नीयति ही खराब है। खुद तो बढ़ना चाहते हैं। लेकिन जो बढ़ भी गया उसे घटाना चाहते हैं।
श्रेष्ठ जी आगे बोले दालों के दाम बढ़े। पूरे सौ रूपये प्रति किलोग्राम पहुँच गया । लेकिन यदि खेत में केवल दस किलो ही पैदा हो जाये तो ये किसान लोग जिन्हें आप आम में भी आम बताते हैं। सबसे पहले दाल ही बेच देंगे। क्योकि ये सूखे खाने के आदी हो चुके हैं। टीवी, रेडियो आदि के माध्यम से जागरूकता लायी जाती है तथा हमारे डॉक्टर भी सलाह देते हैं कि पौष्टिक, विटामिन युक्त भोजन लो। लेकिन यदि घर में दो लीटर दूध ही हुआ तो उसे लेकर बाजार में पहुँच जाते हैं। कोई लाख बताये-समझाये कि दूध सम्पूर्ण भोजन है। लेकिन कुछ नहीं वही भैंस के आगे बीन बजाओ भैंस खड़ी पगुराय वाली बात होती है। शायद ये खाएं भी तो पचे न। दरअसल यह इनका सरकार के साथ विद्रोह है।
मैंने कहा शायद मैं ही गलत हूँ। मैं समझता था कि आप को इन लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन आजीवन आप ने इनके भले के लिए काम किया है। इनके बीच रहे हैं। तो भला आप से ज्यादा उनके बारे में तथा उनकी समस्याओं को कौन जान सकता हैं ? शायद खुद ये लोग भी नहीं। अब आप जो बताने वाले थे बता दें तो हम चलें।
इन्होंने जो बताया वह सार रूप में यही था कि एक बार चुनाव में इन्होंने करोड़ों रूपये खर्च किये। चुनाव का खर्चा कोई घाटे का सौदा तो होता नहीं। बशर्ते जीत जाएँ। एक के बदले जहाँ दो मिलने की आशा हो और कौन सब अपने घर का रहता है ? लेकिन चुनाव में इनकी
हार हो गई। विरोधी की सरकार बनी। बजट आया। अब चूँकि इनका बजट पहले से ही खराब था तो इन्हें बहुत खराब लगा। इन्होंने बहुत आलोचना किया। दूसरी बार भी संयोग बश इनकी फिर हार हो गई। अब तक इनका ही नहीं सारे सहयोगियों का भी बजट काफी बिगड़ चुका था। जो खरबपति हैं उनका बजट बिगड़ा तो बहुत होगा अरबपति हो जायेंगे। अरबपति से करोडपति हो जायेंगे और क्या होगा ? परेशानी तो उन्हें होती है जो हजारपति भी नहीं है सिर्फ पति होते हैं। सैकड़े के लिए भी मोहताज होते हैं। कुछ भी हो सागर भी लहरों से जो जल बाहर फेंकता है। उसे समेट भी लेता है। लुटाते थोड़े रहता है। अतः बजट आने पर बहुत बुरा लगा। काफी चिल्लाये, हो हल्ला किया। वहीं सत्तारूढ़ दल बजट की प्रशंसा में पुल बांधते नहीं थकते थे। जाहिर सी बात है उनका बजट काफी अच्छा था।
चुनाव में हारने के बाद विपक्ष में बैठना लाजिमी हो ही जाता है। इससे ऐसे नेताओं का बजट बिगड़ता जाता है। और बजट आने पर अपनी खीझ निकालते हैं। यही कारण है आज तक किसी भी विपक्षी ने बजट को अच्छा नहीं कहा। चूंकि सत्ता में आते ही धीरे-धीरे नेताओं का बजट अच्छा हो जाता है इसलिए ही किसी भी सत्ताधारी ने आज तक बजट को बुरा नहीं कहा। इतिहास साक्षी है।
चूंकि नेता बाज नहीं आते। इसलिए गाज आम जनता पर गिरती है। इससे किसानों और मजदूरों की कमर टूटते-टूटते टूट चुकी है। इतना ही कह सकते हैं कि-
बंदर जब फल खाए साथ में तोड़े डाल।
नेता तोड़े रीढ़ को जिनका खाए माल।।
अंत में यही कहना है कि हमें संकीर्णता वादी नहीं होना चाहिये। खुद न बढ़ सकें तो क्या हुआ ? कोई तो बढ़े। हम किसी के घटने की कामना क्यों करें ? इसलिए महँगाई बढ़नी ही चाहिये। जब घटेगी नहीं तो बढना तय है। क्योंकि यह स्थिर नहीं रह सकती। चंचला होती है। आधुनिक प्रेमिकाओं की तरह। बजट अच्छा है। इसमें दो राय जरूर है। लेकिन सबका अपना-अपना नजरिया है। सत्य एक है। सदा वास्तविकता एक ही होती है। बजट से आम आदमियों को लाभ होगा। डीजल और उर्वर्कों के दाम बढ़े जरूर हैं लेकिन किसानों के हित में है। उद्योगपतियों को राहत दी गई है। उन्होंने बजट को सराहा है। इसलिए बजट अच्छा है। कुलमिलाकर यही कहा जा सकता है-
नेता का अच्छा बजट जो उनकी सरकार।
नहीं तो सहते बजट की सबसे जादा मार।।
उन लोगों की बात क्या जो बन बैठे आम ?
नेता खाते आम को ले गुठली का दाम।।
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- डॉ एस के पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.)।
URL: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
शानदार व्यंग्य रचना.
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