ऽ परीक्षा के दिनों में प्रायोगिक परीक्षा के नित-नए प्रयोग होते हैं। यदि आप विज्ञान या तकनीकी विषयों के अध्येता रहे हैं तो आपको प्रायोग...
ऽ परीक्षा के दिनों में प्रायोगिक परीक्षा के नित-नए प्रयोग होते हैं। यदि आप विज्ञान या तकनीकी विषयों के अध्येता रहे हैं तो आपको प्रायोगिक परीक्षा के सब लटके-झटके याद आते होंगे। मैं आज कुछ ऐसे ही मजेदार प्रयोगों का जिक्र करूँगा।
वास्तव में, अधिकतर अध्यापक वर्ष भर प्रायोगिक परीक्षक बनने की जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं। विश्वविद्यालयों में बड़े मजे हैं। एक-एक अध्यापक दस-दस विश्वविद्यालयों, बोडरें, स्वायत्तशासी संस्थाओं में परीक्षक होता है। परीक्षक को परीक्षा-कार्यों हेतु शैक्षणिक अवकाश मिलता है, अतः वह दौड़-दौड़कर प्रायोगिक परीक्षा लेने जाता है, ताकि अध्यापन कार्यों से मुक्त रहे। प्रायोगिक परीक्षा परीक्षक तृतीय श्रेणी में यात्रा करता है, प्रथम श्रेणी या वातानुकूलित टिकट का किराया भत्ता उठाता है। विश्वविद्यालय के अतिथि-कक्ष में ठहरता है, मुफ्त का खाता-पीता है और ऐश करके अगले पड़ाव की ओर चल पड़ता है।
एक परीक्षक को जानता हूँ, जो एक ही शहर में दो अलग-अलग कॉलेजों में एक ही समय परीक्षक बनते हैं और दोनों संस्थाओं से टी.ए.,डी.ए. वसूल करते हैं। अजमेर में बोर्ड की परीक्षा ले ली। दूसरे दिन कॉलेज में प्रायोगिक परीक्षा ले ली। अलग-अलग होने से कोई जाँच का भी खतरा नहीं होता है। कुछ लोग पूरे देश का भ्रमण प्रायोगिक परीक्षाओं के माध्यम से ही करते हैं। कुछ महावीर परीक्षक सपत्नीक यात्रा करते हैं। बेचारे आंतरिक परीक्षक और छात्रों को दोहरी मार झेलनी पड़ती है। पत्नी को शॉपिंग कराओ और परीक्षकजी का टी.ए.डी.ए. भी दो। बोर्ड या विश्वविद्यालय से टी.ए.डी.ए. पता नहीं कब पास होगा, अतः छात्रों को ही भरना पड़ता है।
प्रायोगिक परीक्षकों के कई प्रकार होते हैं। कुछ परीक्षक किसी भी स्तर की परीक्षा लेने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। उत्तर प्रदेश के एक परीक्षक प्रथम वर्ष से लेकर पी-एच.डी. तक की परीक्षा लेने को आते रहते है। एक अन्य परीक्षक केवल पी-एच.डी. की परीक्षा लेते हैं। एक और महान् परीक्षक हैं, जो केवल छात्राओं की प्रायोगिक परीक्षा या मौखिक परीक्षा लेने में रुचि रखते हैं। एक बार गजब हो गया ! वे गेस्ट हाउस में छात्रा की प्रायोगिक परीक्षा ले रहे थे और उनकी पत्नी पहुँच गई। वह हंगामा हुआ कि मत पूछिए। एक अन्य परीक्षक थे, जिनका पेन तभी चलता था जब पेट में मुरगा, शराब और कैश पहुँच जाता था। एक मित्र परीक्षक तो और भी गजब थे। उन्होंने हर छात्र को स्पष्ट कह दिया-मेरी पुस्तक की दो-दो प्रतियाँ खरीदकर लाओगे तो पास होओगे।
एक और सज्जन परीक्षक थे, जिन्होंने पास होने वाले छात्रों से फीस तय कर ली। जिन छात्रों ने फीस जमा नहीं कराई, उन्हें फेल कर दिया गया। फेल होने पर बोर्ड, अखबारों में बड़ा बावेला मचा और परीक्षा रद्द करके उक्त परीक्षक महोदय को परीक्षा-कार्यों से मुक्त कर दिया गया। आप कहेंगे-एकाध मछली भ्रष्ट है, मगर मैं अनुभव से कहता हूँ, एकाध मछली भी ईमानदार नहीं है।
कई बार परीक्षक की योग्यताएँ भी प्रश्नवाचक हो जाती हैं। रसायन विज्ञान की परीक्षा लेने वाले अध्यापक सामान्य विज्ञान के व्याख्याता होते हैें। हिंदी में प्रेमचंद की थीसिस की परीक्षा रीतिकाल के विशेषज्ञों द्वारा ले ली जाती हैं। 'गाइड शरण गच्छामि' की तर्ज पर कोई कुछ नहीं बोलता है। ऐसे हजारो उदाहरण विश्वविद्यालयों में मिल जाएँगे, जिनमें मौखिक परीक्षा या प्रायोगिक परीक्षा का स्तर हमेशा से ही विवादों के घेरे में रहा है। मेडिकल में पी.जी. परीक्षा तो परीक्षक की दया पर ही निर्भर करती है। इंजीनियरिंग के छात्रों से पूछो कि प्रायोगिक परीक्षा का हौवा कितना बड़ा होता है!
परीक्षा में बैठ जाना ही काफी नहीं होता। विषय के ज्ञान से कोई मतलब नही है, आप सैद्धांतिक परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर ले सकते हैं, मगर प्रायोगिक परीक्षा में अच्छे नंबर हेड की बेटी, दामाद, पुत्र, मंत्री के रिश्तेदार, रजिस्ट्रार के मित्र के बेटे या इलाके के थानेदार के बेटे के ही आते हैं। जो छात्र साल भर मेहनत से पढ़ता है, वह प्रायोगिक परीक्षा में पास मार्क्स लाता है और जो साल भर गुरुजी के घर पर दूध, सब्जी, छाछ ले जाता है, वह प्रायोगिक परीक्षा में टॉप करता है। मैं स्वय भुक्तभोगी हूँ। यह अनुभव सिद्ध बयान है।
प्रायोगिक परीक्षा में क्या प्रयोग आएगा, यह भी पूर्व में ही तय कर दिया जाता है। कई बार प्रयोगशाला सहायक ही सब कुछ कर देता है। छात्र को करने के लिए कुछ नहीं बचता है। बस छात्र का पौवा जोरदार होना चाहिए। अंतरंग परीक्षकों का मुख्य कार्य बाह्य परीक्षक को घुमाना-फिराना, खिलाना-पिलाना होता है। वे इन कार्यों को छात्रों से चंदा वसूल करके पूरा करते हैं। निजी संस्थाओं में इस नाम से अलग से फीस वसूल की जाती है। सरकारी स्कूलों में मनोरंजन के लिए पैसा वसूल किया जाता है। पास होने से लगाकर टॉप करने तक का रेट फिक्स कर दिया जाता है। हाँ, इतनी ईमानदारी अवश्य होती है कि टॉप कराने की राशि एक ही छात्र से ली जाती है और यदि दो छात्रों से ले लेते हैं तो दोनों को बराबर टॉप अंक दिए जाते हैं। लेकिन इन सबका मतलब यह नहीं कि सभी प्रायोगिक परीक्षक ऐसे ही होते हैं। कुछ ईमानदार भी हैं, मगर उन्हें बुलाया नहीं जाता या वे खुद कहीं नहीं जाते हैं। खाकसार भी इसी श्रेणी का परीक्षक है।
प्रायोगिक परीक्षकों की रँगरेलियों पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है, खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त शैक्षणिक भ्रष्टाचार पर; लेकिन कौन सुनता है! कुएँ में भाँग पड़ी हुई है। एक उच्च अधिकारी ने कहा था-ये सब छोटी बातें हैं। छोटे भ्रष्टाचार हैं। जहाँ करोड़ों-अरबों के भ्रष्टाचार चल रहे हैं वही यदि किसी अध्यापक ने हजार-दो हजार मार लिये तो कोई खास बात नहीं है। वह सीमित ईमानदार है। पैसे लिये, पास किया, किस्सा खत्म। तो पाठको, प्रायोगिक परीक्षा का किस्सा भी खत्म।
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 फोनः-2670596 e_mail: ykkothari3@yahoo.com
हकीकत यही है, लेकिन कोई कहना नहीं चाहता.
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