सीलन भरा स्टोर महीनों से खाली पड़ा था। उसमें सीलन इतनी थी कि सीलन को भी सीलन में बू आती थी। सोच रहा था कोई अच्छा सा किराएदार मिल जा...
सीलन भरा स्टोर महीनों से खाली पड़ा था। उसमें सीलन इतनी थी कि सीलन को भी सीलन में बू आती थी। सोच रहा था कोई अच्छा सा किराएदार मिल जाता तो चार पैसे की आमदनी हो जाती। कमबख़्त जब से शहर में गांव छोड़कर बसा हूं कि भूख अधिक ही हो गई है। पेट है कि भरता ही नहीं। रोज उठते ही सबसे पहले इधर उधर हाथ पाँव मारता हूं। गांव की सदियों पुरानी परंपरा को लात मार गाय को रोटी देना मैंने छोड़ दिया है। कुत्ते को भी रोटी नहीं देता। कौवे को भी नहीं। रोज दो रोटियां बच जाती हैं। रोज की दो रोटियां बचीं तो महीने की कितनी हो गईं? साठ! मतलब एक आदमी तीन रोटियां खाए तो उसका दस दिन का राशन।
उस रोज लगा ज्यों उसने मेरी ताज़ी ताज़ी स्वयंवरी बीवी का ढूँढते के बहाने के साथ पूछा,‘ एक किराएदार लैंड लार्ड ढूंढ रहा है। कहो तो उसे कहूं?‘
‘पर बंदा करता क्या है?बंदा अच्छा हो बस! बुरी नजर वाला न हो। बड़ी मुश्किल से तो तलाकी इतिहास पुरुष का स्वाँग कर स्वयंवर रचा, अपनी प्रापर्टी दिखा किसी को फंसाने में कामयाब हुआ है।'
‘ कट-पेस्टजीवी है। वैसे भी स्टोर से ऊपर की उसकी हैसियत नहीं। '
‘कट-पेस्टजीवी बोले तो??
‘ माडर्न राइटर! बीवियों से उसे सख़्त नफ़रत है।'
‘ अपनी या दूसरों की? दूसरों की बीवियों से तो देवता भी प्यार करने में अपनी शान समझते हैं। देखो, मुश्किल से काम बना है। तुम उसकी गारंटी लेते हो? बार -बार स्वयंवर रचाने की मुझमें और लाइव दिखाने की मीडिया में हिम्मत नहीं। ‘
‘मुँह में कीड़े पड़ें जो झूठ बोलूं तो! अपने कैरेक्टर की तो मैं गारंटी नहीं दे सकता पर हां, उसके कैरेक्टर की फुल गारंटी देता हूं।'
‘अकेला है या․․․․ इन कट-पेस्टजीवियों के लफड़े ही लफड़े होते हैं! मरने के बाद भी इनकी ग़ैर क़ानूनी बीवियाँ , बच्चे मिलते रहते हैं। मुझे सब कुछ पसंद है पर शोरशराबा क़तई पसंद नहीं।'
‘उसकी चिंता न करो। शोर तो वह तब करे जो शोर करने के लिए उसकी हडि्डयों में दम हो। और उसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि जब चाहो उसे निकाल दो। कुछ नहीं कहेगा। कट-पेस्टजीवी शरमवाला होता है, इज़्ज़त के लिए मरता है। जैसे ही लगे स्टोर खाली करवाना है, बिजली बंद कर देना,चुपचाप चला जाएगा। उसके पास उठाने के लिए होता ही क्या है? वह तो यार दुनिया से भी चुपचाप चला जाता है। किसी को पता भी नहीं लगने देता। मीडिया को भी तब पता चलता है जब उसकी बरसी हो चुकी होती है। और हां! कट-पेस्टजीवी बहुधा अकेला ही रहता है और अकेला ही मर जाता है। वह लाख घर बसाने की कोशिश करे, उसके घर कम सम ही बसते हैं। बस ही गए तो चौथे दिन उजड़ भी जाते हैं। ऐसा निरीह किराएदार भला कहां मिलेगा?'
और वह मेरा किराएदार हो गया। या कि दूसरे शब्दों में मैं उसका लैंड लार्ड । सच्ची को, कहीं कोई हो हल्ला नहीं। कमरा दिनोंदिन बंद रखता। कई बार तो सोचा बंदे को सूरज की रोशनी से परहेज़ तो नहीं? बंदे को ताज़ी हवा से डर तो नहीं लगता?
कल महीने बाद वह मुझे दिखा। बातों ही बातों में उसने पूछा,‘ भाई साहब! एक बात पता करनी थी।'
‘जी कहिए! सोचा, पूछ रहा होगा कि शहर में कितने अख़बार निकलते हैं। कितनी पत्रिकाएँ निकलती हैं, पैसे देने वाली?'अरे साहब मुझे क्या पता? कोई मुआ पढ़े तब ना! ज्यादा ही पढ़ने को मन हुआ तो पड़ोसी के यहां से अख़बार ले पढ़ लिया आज का दिन। खरीद कर पढ़ने का बेकार का शौक कौन पाले? महँगाई वैसे ही सिर के बाल पकड़े बैठी है। पर उसने कुछ और ही पूछा,' साहब! यहां किस बैंक में लॉकर आसानी से मिल जाता है? एक लॉकर चाहिए था।' हद है यार! ये कट-पेस्टजीवी तो मेरा भी बाप निकला। कटिंग-पेस्टिंग से लॉकर! पहला बंदा देखा! यहां तो हिंदी राइटर भूख से, प्रकाशकों के शोषण से आत्महत्या करते ही आज तक सुने। मतलब, राइटर जुगाड़ू है। चलो ऐसा कटर-पेस्टर मुझे किराएदार के रूप में नसीब हुआ। मैं सहमा तो वह भांप गया। मुझे सहज करने के लिए बोला,‘ क्या आपने कोई लॉकर नहीं रखा है?'
‘यार! मेरे पास है ही क्या लॉकर में रखने के लिए? शहर में अमीर है ही कौन?'
‘सही,पर आज के चोर बाजारी, झूठ फरेब, मक्कारी, चापलूसी के दौर में ईमानदारी, प्रेम ,सच, नैतिक मूल्य लॉकर में रखने वाली चीज ही तो हो गए हैं। कोई चुरा कर ले गया तो आने वाली पीढ़ी के लिए क्या देंगे हम?' यार ये कट-पेस्टजीवी तो अपने कद से चार फुट ऊँची बातें करता है। हफ्ता हफ्ता कमरे का दरवाजा भी नहीं खोलता उसके बाद भी भीतर से इतना उजला! इसके साथ सच शेयर किए जा सकते हैं सो कह बैठा,'गांव से शहर आया था तो मां ने जबरदस्ती अपने रूप में मुसकुराहट, ईमानदारी , प्रेम, दया साथ भेज दिए थे। कहा था- इनके साथ रहते तुझे मेरी बुरी नहीं लगेगी। कुछ दिन साथ रखे। लगा ,ये शहर में जीने नहीं देंगे। सो महीने बाद ही गांव गया और चुपचाप मां के पास छोड़ आया। उन्हें गांव छोड़कर आया तो जीना आसान हुआ। अब मजे में हूं। शहर में इनको साथ लेकर जीना उल्लू होकर जीना है। पर तुम्हें लॉकर क्या करना?'
‘ मुझे लॉकर इसलिए चाहिए कि समाज की तरह साहित्य में भी चोरी की वारदातें दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं।'
‘तो??? पुलिस है ना! दिन रात नागरिकों को चोरों से मरवाने के लिए, सॉरी बचाने के लिए! तुम काहे को बेकार की टेंशन लेते हो? ईमानदारी से कटिंग-पेस्टिंग में जुटे रहो भैया! आज के राइटर का सबसे बड़ा धर्म यही है। जो रचनाओं को वारदातियों के हाथों लगने नहीं दोगे तो खाओगे क्या??'
‘लेखकों ने अब हवा पानी पर रहने की कला सीख ली है।'
‘और किराया देने की भी ना?'आखिर मैं पता नहीं क्यों हट फिर कर फिर अपनी पर आ ही गया तो एकदम संभलने की पुरजोर कोशिश करते कहा,‘यार! छोड़ परे! चोरी आज के युग का धर्म है। यहां तो साधो की आत्माएं भी तबतक मोक्ष नहीं पातीं जब तक वे चोरी नहीं कर लेतीं।'
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अशोक गौतम
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सोलन-173212 हि․प्र․
आपका व्यंग्य पढ़ा, कुछ नया कहने का प्रयास किया है। लेकिन ताजी स्वयंवरी बीबी का प्रकरण कुछ ठूंसा हुआ सा लगा। यदि इसी पर कोई व्यंग्य होता तो बात अलग थी।
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