इधर शहर में साहित्य, संस्कृति-कला का तो अकाल है, मगर सभापतियो अध्यक्षों और संचालको की बाढ़ आई हुई है। जहां जहां भी सभा होगी वहां वहां...
इधर शहर में साहित्य, संस्कृति-कला का तो अकाल है, मगर सभापतियो अध्यक्षों और संचालको की बाढ़ आई हुई है। जहां जहां भी सभा होगी वहां वहां पर सभापति या सभा पिता या सभा पत्नी अवश्य होगी। हर भूतपूर्व कवि कलाकार, राजनेता, सेवानिवृत्त अफसर, दूरदर्शन, आकाशवाणी, विश्वविधालयों के चाकर सब अध्यक्ष बन रहे हैं। जो अध्यक्ष नहीं बन पा रहे हैं वे संचालक बन रहे हैं। कुछ तो बेचारे कुछ भी बनने को तैयार है। अध्यक्ष बना दो तो ठीक नहीं तो संचालक, मुख्य अतिथि, विशिप्ट अतिथि बनने से भी गुरेज नहीं करते। एक स्थायी अध्यक्ष से मैं ने पूछा-आज कल क्या कर रहे हैं। क्या लिख रहे हैं ?
लिखने का समय ही नहीं मिल रहा है। अध्यक्षता से ही फुरसत नहीं मिलती जहां भी जाता हूँ मुझे अध्यक्ष बना देते है या संचालक बना देते हैं या फिर मुख्य अतिथि विशिप्ट अतिथि आदि का गुरूतर भार वहन करना पड़ता है।
आप अध्यक्षता के लिए मना क्यों नहीं कर देते। कैसे मना कर दूं यार। इतने दिनों की मेहनत से अध्यक्षता मिली है। वे मुझे छोड़कर किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करने चल दिये। उनके पास सफेद कुर्ता, नेहरू जी वाली जाकेट और महगां चश्मा है वे अध्यक्षता करने के लिए ही पैदा हुए थे। वैसे भी मीडिया में अच्छे सम्बन्धों के कारण उन्हें अध्यक्ष या संचालक या मुख्य अतिथि बनाने मात्र से ही कार्यक्रम मीडिया में सफल हो जाता है। शानदार कवरेज मिल जाता है। रपट छप जाती है।
अध्यक्षों का आकाश अनन्त होता है वे कहीं भी अध्यक्षता कर सकते हैं। काका हाथरसी के अबसान पर शमशान में आयोजित कवि सम्मेलन में भी अध्यक्ष और संचालक मौजूद थे। कुछ अध्यक्षो के पास रेडीमेड भापण होते हैं जो वे कहीं भी कभी भी दे सकते हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी के समारोह में जयशंकर प्रसाद पर शानदार भापण दे कर श्रोताओ को कृतार्थ कर देते हैं।
दूरदर्शन के एक सेवा निवृत्त अधिकारी तो हर समय अध्यक्षता के लिए समितियों, सभाओ, कार्यक्रमों का ध्यान रखते हैं वे सुबह अखबार पढ़कर कार्यक्रमों में पहुँच जाते हैं। उनकी भव्य वेशभूषा देख कर उन्हें आगे बैठा दिया जाता है और वे स्वयं अध्यक्षता करने लग जाते हैं। अध्यक्षता के बिना खाना हजम नहीं होता। यदि एक दो सप्ताह तक अध्यक्षता नहीं मिले तो वे संचालक या मुख्य अतिथि का पद भार भी ग्रहण कर लेते हैं।
वैसे अध्यक्षो की दुनिया बहुत विस्तृत होती है। लोकसभा अध्यक्ष, राज्य सभा अध्यक्ष विधानसभा अध्यक्ष, अकादमी अध्यक्ष, नगर पालिका, नगर निगम के अध्यक्ष जाति संस्थाओं के अध्यक्ष और भी सैंकड़ो अध्यक्ष हमारे आपके आस-पास हर समय उपलब्ध है। जब जैसे अध्यक्ष या संचालक चाहिये, काम में लीजिये। अक्सर अध्यक्ष कार्यक्रमों की शान होते हैं। उनको कार्यक्रमों के अन्त तक बैठना पड़ता है। भापण देना पड़ता है। गम्भीर मुद्राओ में पोज देने पड़ते हैं। कभी ठेाडी पर हाथ रखना, कभी माथे पर सलवट डालना, कभी मुस्कराना पड़ता है। अध्यक्ष चुपचाप-गुमसुम छत को ताकते रहते हैं। शुद्ध अध्यक्ष किसी की नहीं सुनता कई नये अध्यक्ष तो बेचारे पुराने अनुभवी अध्यक्षों से टेनिगं लेते देखे गये है। कई संचालक जब नये नये अध्यक्ष बनते हैं तो काफी दिनों तक अभ्यास करते देखे गये हैं। कवि सम्मेलनो में तो पता ही नही चलता की कब अध्यक्ष संचालक हो जाता है और कब संचालक अध्यक्ष।
कई बार संचालक की बात से अध्यक्ष अपनी असहमति व्यक्त कर देते हैं। ऐसी स्थिति में अध्यक्ष और संचालकों के बीच गाली-गलौच, जूतमपैजार भी हो जाती है। माईक और कुर्सियां तोड दी जाती हैं। महिलाओं के वस्त्र हरण का कार्यक्रम सम्पन किया जाता है और कार्यक्रम काल कवलित हो जाता है। कई बार टेंट हाउस से ही अध्यक्ष भी बुक कर लिये जाते हैं। मेरे एक मित्र ने टेंट हाउसो से सम्पर्क बना रखा है, अक्सर वे अध्यक्ष बन जाते हैं।
कई बार अध्यक्षीय आसनो पर महिलाओं को आसीन कर दिया जाता है। वे शान्ति से अध्यक्षता कर सकती है मगर संचालक उन्हें ऐसा नहीं करने देते। अध्यक्ष विपय का विद्वान हो यह कतई जरूरी नहीं है मगर आयोजको से अच्छे सम्बन्ध होना बहुत जरूरी है। कुछ स्थायी अध्यक्ष अस्थायी और नये अध्यक्षों को आगे बढने से रोकने के लिए आयोजको-संयोजको को गुमराह करने के भी प्रयास करते हैं।
वास्तव में कार्यक्रम करना एक बिमारी है और बिमारी के लिए अध्यक्ष डाक्टर, वैध, हकीम, कम्पाउण्डर का काम करता है।
शहर में अध्यक्ष रोज बढ़ रहे हैं। हर व्यक्ति अध्यक्ष बनना चाहता है, मगर श्रोताओं का अभाव है। अध्यक्षता करना आसान काम नहीं है। नानी याद आ जाती है। नये नये अध्यक्ष तो कई बार जान बचा कर भाग जाते हैं। राजनीतिक पार्टियो के अध्यक्ष तो बेचारे नाको चने चबाते रहते हैं।
कुछ अध्यक्ष सफाचट होते हैं। कुछ फ्रेंच दाढी से रोब जमाते हैं। कुछ शेरवानी, बन्दगले का जोधपुरी कोट पहनते हैं। कुछ कलफदार कुर्त्ता-पायजामा पहनते हैं, कुछ महिला अध्यक्ष तो अध्यक्षता से पहले ब्यूटी पार्लर जाना पसन्द करती है ताकि सौन्दर्य पर जिज्ञासा बनी रहे। संचालक भी अपने आपको अध्यक्ष से कम नहीं समझता। जांच आयोग के अध्यक्ष का तो कहना ही क्या, समिति का कार्य काल बढाते जाओ। बस।
इधर मुझे भी अध्यक्षता के बुलावे आने लग गये हैं। सोचता हूँ अध्यक्ष बन जाउ, इस लिखने-लिखाने में क्या रखा है। भाईयों मैं निशुल्क अध्यक्षता करने के लिये हाजिर हूँ, बस टीवी वालों को बुला लेना।
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वाह। अध्यक्ष भी इतनी तरह के होते हैं पता ही नही था। जानकारी के लिये धन्यवाद।
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