फरियादिया का बयान - मेरा नाम विमला है हुजूर । स्वर्गीय मास्टर जी गोविंद सिंह मेरे पति थे । मेरी उम्र पच्चीस साल...
फरियादिया का बयान
- मेरा नाम विमला है हुजूर । स्वर्गीय मास्टर जी गोविंद सिंह मेरे पति थे । मेरी उम्र पच्चीस साल नौ महीने है ।
- जी हां, इन सब लोगों को अच्छी तरह से जानती हूं मै । ये सब मेरे ही गांव के लोग है ।
- जी हां मैंने या किसी दूसरे आदमी ने इन लोगों को मेरे पति पर हमला करते नहीं देखा ।
- जी हां, इन लोगों की मेरे पति से रंजिश थी और गांव के सरपंच पद के पिछले चुनाव से यह लोग मेरे पति को परेशान करते रहते थे ।
- कारण तो यही था जज साहब, कि मेरे पति चुनाव में खुद उम्मीदवार थे, और इन लोगों को ये बात नागवार गुजरी थी, क्योंकि दलपत सिंह पिछले बीस वर्ष से इस गांव के तानाशाह सरपंच थे, मेरे पति ने उन्हें पहली बार चुनौती दी थी ।
- जी नहीं, और कोई कारण नहीं था ।
- ये गलत है हुजूर, इन लोगों में से किसी भी आदमी से मेरे कोई संबंध नहीं रहे हैं ।
- जी हां, हम लोग यहां के रहने वाले नहीं है । मेरे पति बहुत दूर के रहने वाले थे । उन्होंने घरवालों की मर्जी के बिना मुझसे ब्याह किया था, इसलिये अपना गांव छोड़कर यहां आ गये थे । अपने गांव में वे बच्चों को पढ़ाते थे । इसलिये यहां आकर उन्होंने स्कूल डाला था । सारे गांव वालों से मेरे पति के अच्छे संबंध थे, बस दलपत के आदमी उनको अपना दुश्मन मानते थे ।
- मैंने बताया न मुख्य कारण तो वहीं सरंपची का चुनाव था । हुजूर इनके सताये लोग मेरे पति के पास आकर दुखड़ा रोते थे, तो वे उन्हें सही रास्ता बताते थे, इस कारण भी उनसे दलपत वगैरह ने बैर बांध लिया था । इसी वजह से एक दिन.............
(टीप - इसके बाद फरियादी बिलख-बिलख कर रो उठी थी और उससे आगे बयान लेना संभव नहीं था - प्रथम श्रेणी जज)
- जी हाँ मेरे पास आज की तारीख में कोई सम्पत्ति नहीं बची है क्योंकि मेरे पति ने कभी इतना नहीं कमाया कि वे जोड़ कर रखते । मैं गाँव छोड़ते वखत अपने सारे गहने-गुरिये और थाली बासन संग में लेती आई थी । एक-एक करके वे ही तो बेच रही हूँ नहीं तो मैं और मेरे दोनों बच्चे भूखों मर जाते हुजूर ।
- जी नहीं मेरा यहाँ कोई रिश्तेदार नहीं है मैं तो एक धर्मशाला में ठहरी हूँ बस आपसे न्याय की फरियाद है ।
- जी हाँ कल क्या होगा ? इसका मुझे कोई पता नहीं । अब तो राम ही रखवाला है ।
(टीप - फरियादी इतना कहकर फिर से रो पड़ी थी और चुप हो गई थी - प्रथम श्रेणी जज)
मुल्ज़िम का बयान
-मेरा नाम दलपत सिंह तनय गिरवर सिंह है सरकार । मेरी उम्र पचपन वर्ष है । मेरा धंधा खेती पाती करना है सरकार ।
-जी हां मैं मास्टर गोविंद सिंह को जानता था सरकार । ईश्वर झूठ न बुलवाये, वे चाल- चलन के अच्छे आदमी नहीं थे । गाँव की औरतें उनसे दूर रहतीं थीं । इस औरत को भी मास्टर भगा के लाया था ।
-जी नहीं सरकार मैं किसी औरत के बयान नहीं करवा सकता । भले घर की औरत अदालत काहे आयेगी ।
-मेरी विनती सुने सरकार, मेरे कहने का मतलब अदालत की तौहीन करना नहीं था ।
-यह गलत है सरकार । मेरी मास्टर से कोई अदावत और रंजिश नहीं थी । एक छोटे से मास्टर से मेरी क्या लड़ाई होती । मैं बीस बरस से गाँव का निर्विरोध सरपंच था, और मास्टर मेरी झूठी सच्ची शिकायतें करता रहता था मेरे खिलाफ चुनाव में उसकी कोई हैसियत नहीं थी, उसकी तो जमानत जब्त हो जाती ।
-अब मैं किसका नाम लूं सरकार, मास्टर के घर पर गाँव भर के उचक्के लड़के इकटठे होते थे, सुना है उनमें से कुछ लोगों के साथ मास्टर की भीतर वारी के गलत सम्बंध थे । उनमें से ही किसी ने मास्टर को बीच से हटा दिया होगा ।
यह भी हो सकता है सरकार कि मुझ निरपराध बूढ़े के साथ जिन छः लोगों को मुल्जिम बनाया गया उनमें से किसी के साथ इस बदचलन औरत की ऑखें लड़ गई हो । पुलिस से भी पूछ सकते हैं हजूर ।
-जी नहीं सरकार इन छः लोगों में सिर्फ सिमरन सिंह से मेरा रिश्ता है, यह मेरा बेटा है । बाकी से मेरा कोई रिश्ता नहीं है । न ये मेरे नौकर हैं न साझीदार । यह पाँचों लोग मेरे गाँव के सीधे-सादे लोग हैं । ये लोग मेरे लठैत नहीं हैं सरकार ।
-अब बड़ी बड़ी मूँछे रख लेने ओर गठीले बदन वाला हो जाने से कोई लठैत या गुण्डा तो नहीं हो जाता सरकार । वे चाकू और फरसा तो पता नहीं कहां से पुलिस उठा लाई थी ।
हाँ ज्यों ही मुझे पता लगा कि मास्टर की किसी ने हत्या कर दी है तो में अपने मामा सिरदार सिंह के घर से तुरंत गाँव लौट पड़ा । मेरा बेटा और ये पांचों भी मेरे मामा के यहाँ नाती का जन्म होने के मौके पर खुशी मनाने गये थे । गाँव से लौटते में ही पुलिस ने हम लोगों को गिरफ्तार कर लिया और बहुत पीटा हुजूर ।
-हाँ सरकार मास्टर ने हमारे गाँव में बहुत पैसा कमाया । हो सकता है इस लुगाई ने कुछ गहने गुरिया बनवा लिये हों ।
-यही अर्जी है हुजूर कै हम बेगुनाहों को छोड़ दिया जाये ।
बचाव पक्ष के गवाह का बयान
-मेरा नाम सिरदार सिंह तनय कीरत सिंह है सरकार मैं अस्सी बरस का हूं । खेती करता हूं ।
जी हां मेंरे पु़त्र गोपाल सिंह की घर वाली के शादी के बारह साल बाद बेटा हुआ था और उसी दिन मेरा भांजा दलपत सिंह अपने बेटे और इन छह भले आदमियों के साथ मेरे घर आया था सरकार ।
-अब मुझे क्या पता सरकार, कै इन लोगों को मेरे घर उसी दिन नाती होना है यह अंदाज कैसे लग गया ।
हां सरकार इन लोगों में से मेरा भांजा दलपतसिंह बन्दूक लिये था और बाकी सब लोग फरसा या लाठी लिये थे ।
-जी नहीं किसी के पास चाकू नहीं था ।
-हथियार ले के तो इस लिये चले होंगें सरकार कै कोई जंगली जानवर टकरा जाये या मौका देख के कोई बैरी दुश्मन इन पर हमला कर देय तो अपनी रक्षा कर सकें ।
तफ्तीश अधिकारी का बयान
मेरा नाम राम अवध सिंह है सर में इस प्रकरण का जांच अधिकारी हूं । मैं पुलिस में सब इंसपेक्टर के पद कर कर्यरत हूं सर ।
-जी सर पहली बार में हमको मृतक की पत्नी ने यही बताया कि मास्टर गोविंद सिंह की हत्या सरपंच दलपत सिंह ओर उसके लठैतों ने कर दी है इसलिये हमने उन्हें गिरफ्तार करके बयान लिये थे ।
-जी सर, सत्य तो ईश्वर जाने, पर सरपंच दलपत सिंह का पुराना कोई अपराध का रिकॉर्ड मेरे थाने में मौजूद नहीं है हुजूर ।
-जी सर, गाँव के कुछ लोगों ने दबे स्वर में शंका प्रकट की थी कि मास्टर की पत्नी के अनेक प्रेमी हैं । हो सकता है उनमें से ही किसी ने मास्टर का कत्ल कर दिया हो । इस औरत का चरित्र ठीक नहीं है सर । यह औरत अपने माँ-बाप की मर्जी के खिलाफ इस मास्टर के साथ भाग कर आई थी । ये भी पता नहीं कि इन्होंने बाकायदा ब्याह किया है या नहीं ।
- नहीं सर मैं अपने प्रतिवेदन से पलट नहीं रहा । भाग के प्रेम विवाह करने का मतलब बदचलनी नहीं होता और यह भी सही है सर कि पुराना चरित्र कोई साक्ष्य नहीं होता । मैं तो यही कहूँगा सर कि प्रमाण तो ऐसे ही मिले हैं कि हत्या मिल-जुल कर की गई है । जुर्म सरपंच पर आयद होता है ।
- जी सर, उस रात दलपत के मामा के यहाँ नाती पैदा हुआ था और जब हमने इन सातों को गिरफ्तार किया था । उस वक्त ये लोग उसी गाँव में थे । गाँव लौटकर गवाहों के समक्ष इन लोगों ने सूखे नाले से चाकू और फरसा बरामद कराये थे ।
यह थे वो बयान, जिन्हें चंड प्रद्योत सिंह शाम से लिये बैठे थे । शायद बयानों में से कहीं फरियादी की भावनाओं में और, आहत मन में प्रकरण की सच्चाई खोलते से । प्रकरण का यथार्थ ढूंढते से । उनके सामने प्रकरण के सारे कागजात फैले पड़े थे और वे कहीं भीतर ही भीतर गुम थे ।
अजित जब उनके पास पहुँचा तो छुट्टी होने के बावजूद वे व्यस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें गुम-सुम देखकर अजित भी सन्न रह गया - ऐसा तो कभी नहीं हुआ । उन जैसा जज ऐसा चुप्पा बनकर बैठ जाये यानि जरूर कोई बड़ी बात है ।
चंड प्रद्योत सिंह तो उसके आदर्श हैं ।
चंड प्रद्योत सिंह, यानि कि जिले के मसीहा ।
चंड प्रद्योत सिंह, यानि कि कानून के रखवाले ।
चंड प्रद्योत सिंह, यानि कि डी.जे. अर्थात डिस्ट्रिक्ट जज, उर्फ जनपद न्यायाधीश ।
चंड प्रद्योत सिंह यानि देश सेवा को समर्पित एक चिर कुंवारे दार्शनिक । अजित नया नया वकील था अदालत में, पर सिंह साहब बहुत कृपालु थे उस पर, और उसे इस बात की अनुमति थी कि वह टाइम बे टाइम कभी भी उनके बंगले पर आ जा सके, इस कारण उसे कम डर लगता था, अन्यथा तो हालत यह थी कि घर की बात दूर इजलास में भी फौजदारी का जो मुकदमा चंड प्रद्योत सिंह की अदालत में आता, वकीलों व अपराधियों के दिलों में धड़कने बढ़ जातीं । झूठे या होस्टाइल (अदालत में बदलने वाले गवाह) उनके सामने पेश होने से थर्राते थे । पुलिस के कर्मचारी इजलास में प्रवेश करने से पहले ठण्डा पानी पीते थे। लोग कहते हैं कि सिंह साहब के पास एक तीसरी आंख भी है, जिसे खोलकर वे अपने सामने मौजूद मुकदमे की असलियत जान जाते हैं । यहां इस जिले में आते ही बड़े अदभुत काम किये हैं उन्होंने । तिवारी और शर्मा बन्धुओं के बीच विरासत का मुकदमा पिछले चालीस साल से अदालत में चल रहा था । स्वर्गीय दाताराम तिवारी पुत्र हीन रहकर स्वर्ग सिधारे थे । उनकी दो पुत्रियों और छोटे भाई के दो पुत्रों के बीच एक करोड़ की अचल सम्पत्ति के उत्तराधिकार का यह दिलचस्प मुकदमा शहर में लम्बे अरसे से चर्चित था और सुप्रीम कोर्ट तक हो आया था और अब फिर से जिला न्यायालय में विचाराधीन था ।
अपनी अदालत में कार्यभार संभालते ही चंड प्रद्योत सिंह जी ने सबसे पहले इसी मुकदमे को हाथ में लिया । दूसरे ही दिन सारे पक्षों को बुलाया और दरवाजे बन्द करवा दिये । वकील बाहर थे । उन्होंने दोनों पक्षों को सख्त भाषा में समझा दिया कि बहुत हो गया अब इस मुकदमे में उलझा कर वे लोग अदालत का कीमती समय नष्ट न करें । बेहतर होगा कि वे तीन दिन में आपसी राजीनामा कर लें, अन्यथा सारी सम्पत्ति राजसात कर ली जायेगी ।
चमत्कार हुआ ।
तीन दिन के भीतर उस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया था जो चालीस साल में नहीं निपट पाया था । दोनों पक्ष वकीलों के लाख समझाने के बावजूद जिद पर अड़ गये थे और उनने बैठकर आपस में राजीनामा लिख लिया था । अदालत की चहारदीवारी के बाहर यह बात उछली थी और सारे शहर में फैल गई थी । जज साहब का नाम कुछ ही दिनों में शहर में चर्चित हो गया था । लोगों को न्याय की दुनिया का यह नया अनुभव था । मुकदमे को छोटे-छोटे मुद्दों पर लटकाने के बजाये कोई जिला जज आपसी रजामन्दी से निपटाने के लिए खुद पहल कर रहा था - यह तो गाँधी जी के सपने जैसा था ।
बाद के छः महीनों में जज साहब ने कई अजीब फैसले दिये - हत्या के अंधे केस में मुल्जिमों को सजा देने से लेकर कई राजनीतिज्ञों के विरूद्ध दिये गये उनके फैसलों ने शहर में हड़कम्प मचा दिया था । हर हफ्ते नये प्रकार के फैसले आते रहते थे उनके ।
शहर में व्याप्त अतिक्रमण को लेकर जिला उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने नगर पालिका के सी.एम.ओ. व नजूल इन्सपेक्टर को दंडित किया था, तो खम्भों के बल्ब खराब होने से शहर के कुछ हिस्सों में रात को हो जाने वाले अंधेरे को लेकर प्रस्तुत एक प्रकरण में उन्होंने विद्युत मण्डल पर जुर्माना ठोंक दिया था । जिले में जहां भी अन्याय था, भ्रष्टाचार था, वहां चंड प्रद्योत सिंह अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद थे । आम आदमी को उन पर इतना विश्वास जम गया कि लोगों ने चिट्ठी लिखकर उन्हें अपना दुःख-दर्द बताना शुरू कर दिया था और यह सच भी था कि लोग तकलीफों से निजात पाने भी लगे थे। जिला उपभोक्ता फोरम से लेकर जिला न्यायालय तक, जहां भी वे उपयुक्त समझते, लोगों की चिटिठयों को वाद-पत्र मानकर प्रकरण खोल देते थे ।
अजित से उनने ज्यादा बातचीत नहीं की, बस हाँ हूँ करते रहे । अजित समझ गया कि आज वे किसी गहरे अंतर्द्वन्द्व में हैं । वह उनसे अनुमति लेकर घर लौट आया ।
रात बीतती जा रही थी, पर सिंह साहब की आंखों में नींद न थी, मास्टर जी की हत्या का जो मुकदमा उनके इजलास में था उसका कल फैसला सुनाना था । वे एक बार फिर फाइल में उलझ गये।
इस हत्याकांड के सातों मुलजिमों ने शुरू में अपने बयान में इस हत्या के बारे में साफ अनभिज्ञता जाहिर की थी । उनके मतानुसार मृतक की पत्नी का चरित्र संदिग्ध था और यह हत्याकांड विमला के किसी प्रेमी का ही काम है । हत्या वाले दिन सातों मुल्जिम अपनी उपस्थिति दूसरे गांव में दलपत सिंह के मामा के यहां एक शादी में दर्शा रहे थे । जज साहब ने देखा कि हालांकि पुलिस और शासकीय अभियोजक के क्रॉस-एग्जामिनेशन में वे लोग बिखर से गये थे, न तो विमला के किसी प्रेमी का वे नाम बता पाये थे और न ही दलपत के मामा का यह बयान विश्वस्त था कि सरपंच दलपत सिंह और उसके आठों गुर्गे शादी में मौजूद थे और फिर गोविंद सिंह के शव पर पाये गये डेढ़-डेढ़ इंच की गहराई के सत्तावन घाव यह बताते थे कि यह कत्ल किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है, बल्कि मिल कर कई लोगों ने यह जघन्य हत्या की है । पिछले साफ रिकॉर्ड के कारण जज साहब को शुरू में मुल्जिमों को जमानत पर छोड़ना पड़ा था । इस कारण मुलजिम सीना ताने घूम रहे थे । हालांकि पुलिस के वकील ने शंका जाहिर की थी - सरपंच साहब आप लोग ज्यादा न उछलें, इस जज का भरोसा नहीं, पता नहीं कब क्या फैसला दे दे ।
इस समय जज साहब के मस्तिष्क में जो बात फनफनाती घूम रही थी वो यह थी कि छब्बीस साल की मासूम, सीधी और अनाथ इस विमला का भविष्य क्या होगा ?
उन्हें हरिपुर का मानसिंह हत्याकांड खूब याद है । उन दिनों प्रथम श्रेणी जज थे वे । हरिपुर के चौकीदार मानसिंह की हत्या गांव के ताकतवर जमींदार ने कर दी थी । वह केस दो वर्ष तक चला था। चौकीदार की विधवा पत्नी चम्पा दो साल तक खूब भागती-दौड़ती रही थी थानों-अदालतों में और इन दो सालों में चम्पा को खूब सारे प्रलोभन दिये गये थे धमकियाँ दी गई थी । न मानने पर उत्पीड़ित किया गया तो अंततः वह टूट गयी थी ।
वे तो यह देखकर चकित रह गये थे कि चम्पा उस दिन तक बिल्कुल बदल चुकी थी, जिस दिन उसके पति के कत्ल के मुकदमे का फैसला होना था। अदालत में वह खूब सज-धज कर आयी थी । न चेहरे पर दुःख की छाया थी और न बातचीत में कातरता । बाद में पता चला कि गांव में अब उसका चरित्र भी संदिग्ध हो चुका है । फरियादी की ढील व पुलिस की लापरवाही से अपराधी बेदाग छूट गये थे
तब उन्होंने तय किया था कि अदालती लेट-लतीफी के कारण अपना वश चलते वे अब किसी को चम्पा की तरह बर्बाद नहीं होने देंगे ।
हालांकि अदालती लेट-लतीफी के शिकार तो सक्सेना बाबू भी हुए थे । सक्सेना जी किसी दफ्तर में बाबू थे और कहीं बाहर पदस्थ थे । कस्बे का अपना खानदानी मकान, उन्होंने एक आदमी को किराये से रहने को दिया था । बाद में वह आदमी मकान पर ऐसा काबिज हुआ था कि किराया देना तो दूर मकान ही खाली करने से इन्कार कर दिया था । बेचारे सक्सेना रिटायर होकर अपने कस्बे में लौटे तो रहने को जगह भी नहीं मिली । परिणाम यह हुआ कि किरायेदार ठप्पे से मकान में जमा रहा । सक्सेना जी खुद किराये के मकान में रहकर मुकदमा लड़ते रहे और अंततः किराये के मकान में ही चल बसे थे ।
चंड प्रद्योत सिंह के संपर्क में आकर अजित ने जाना था कि अदालती ताम-झाम और न्यायिक गरिमा के घटाटोप के भीतर एक उजला-उजला निष्पाप सा मन जज साहब के भीतर आज भी मौजूद है । बचपन में उन्होंने अदालती झंझटों की जाने, कौन सी पीड़ा सही थी कि उनके मस्तिष्क में यह बात पूरी तरह से बैठ गयी थी, कि देर से न्याय मिलना अन्याय के समान है ।
जब वे मुक्त मन से बातचीत करते, तो अजित को समझाते- ‘‘देखो अजित आज हर वकील व्यावसायिक दिमाग का हो गया है । जो जितने ज्यादा समय तक मुकदमा खींचेगा, उसको उतनी ज्यादा फीस मिलेगी । पर मानवता के नाते यह गलत है । आज जो पारस्परिक झगड़े और हिंसा बढ़ रही है न हमारे समाज में, इसका मूल कारण अदालतों की, न्याय की लेट-लतीफी है । भला आज के जमाने में इतना सबर है किसके पास कि वो दस-पांच साल न्याय का इंतजार करे सो आदमी कानून हाथ में ले लेता है । इसलिये यदि वकालत के धंधे में ही तुम सारी जिंदगी गुजारना चाहते हो, तो मेरी एक बात गांठ बांध लो, कि हर मुकदमा जित्ती जल्दी हो सके निपटाने का यत्न करना।''
कुछ संकोच और कुछ दुविधा में फंसा अजित हां-हूं करता । पर वे अपनी धुन में जाने क्या-क्या कहते रहते । अपने मन की प्रायः हरेक बात वे उससे कहते ।
अजित ने देखा था कि जब अदालत में वकीलों की गर्मा-गर्म बहस चल रही होती, सिंह साहब गहरी नजरों से फरियादी और मुल्जिम को घूर रहे होते । अपनी ओर से वे दोनों पक्षों से अनेक सवाल पूछा करते थे, मसलन उन लोगों का रोजगार क्या है? परिवार में कितने लोग हैं ? वे कहां तक पढ़े-लिखे हैं, वगैरह-वगैरह ।
गोविंद सिंह हत्याकांड में उन्होंने फरियादी विमला से जब यह सब पूछा, तो वह फूट पड़ी थी और बताती चली गई थी । अदालत ने उसकी मुंह जुबानी पिछला इतिहास जाना था ।
मास्टर गोविंद सिंह दरअसल पिछड़ी जाति में से थे, और उनका स्वभाव शुरू से ही बड़ा उदार और मस्त था । विमला के पिता शिक्षा विभाग के अधिकारी थे सो इनके परिवार में उनका आना-जाना था । विमला से परिचय हुआ, दोनों में प्रगाढ़ता बढ़ी और दोनों ने साथ-साथ जिंदगी बिताने का निर्णय ले लिया । घर वालों ने अनुमति नहीं दी, तो उन्होंने अपना कस्बा छोड़ दिया और इस गांव में आकर रहने लगे । गाँव में मास्टर की लगातार बढ़ती लोकप्रियता से दलपत सिंह को खुटका हुआ तो उसने गोविंद सिंह को रोका था कि वह अपने घर पर गांव के आवारा लड़कों को इकट्ठा न किया करें, क्योंकि नयी नवेली दुल्हन घर में रहती है । वहाँ भीड़ लगाना उचित नहीं है । तो गोविंद सिंह ने खुले मन से कह दिया था कि उसके यहां सब उम्र के लोग इकट्ठे होते हैं, नया और आवारा कोई लड़का नहीं आता, इसलिये सरपंच साहब बेफिक्र रहें । तो दलपत चिढ़ गया था । सरकारी धन के गबन की शिकायतें भी मास्टर साहब ने दलपत के खिलाफ कराई थीं । फिर खुद भी चुनाव लड़ बैठे थे ।
पंचायत चुनाव के तीन दिन पहले की बात है । गोविंद सिंह पास के गाँव से जनसम्पर्क करके लौट रहे थे, कि दलपत और उसके आदमियों ने उन पर कातिलाना हमला बोल दिया और गोविंद सिंह के बदन में ऐसे घाव हो गये थे कि वे मौके पर ही खत्म हो गये ।
कल जज साहब ने गौर से विमला को देखा था । एक पुरानी सूती साड़ी में अपने तन को ढके वह अपने दो बच्चों के साथ पेशी पर मौजूद थी । छब्बीस साल की उम्र में भी वह पचास साल की प्रौढ़ा लगने लगी थी । उसकी आँखों में निराशा का गहरा समंदर लहराता दिखा था जज साहब को, पर उन्हें इस बात की हल्की सी खुशी हुई कि न्याय के नाम पर अब भी विमला के मन में आशा का दीप टिमटिमा रहा है ।
उन्होंने विमला से पूछा कि इस समय वह क्या कर रही है तो उसने बताया कि वह गांव छोड़ते वक्त अपने हाईस्कूल के सर्टिफिकेट ले आई थी जिनको लेकर यहाँ वह तमाम स्कूलों में हो आई है - किसी नौकरी के लिये । पर हर जगह निराशा ही मिली उसे । अब एक ही रास्ता बचता है कि वह कहीं मजदूरी करे । उसने अपने पिता के घर लौटने का सोचा तो उसे विश्वास नहीं हुआ था कि ऐसी स्थिति में पिता उसे आसरा देंगे ।
अजित से सीधा प्रश्न किया था सिंह साहब ने कि ‘‘बताओ अजित, यदि इन सातों मुल्जिमों को मैं सजा-ए-मौत भी दे दूं तो विमला को क्या मिलेगा ? ''
अजित ने तपाक से कहा था - ‘‘ न्याय ''
‘‘इस न्याय को विमला ओढ़ेगी कि बिछायेगी ? भला उसे और बच्चों को क्या फायदा होगा इस सजा से ?''
‘‘तो'' अजित ने प्रश्न उछाला था और इस ‘‘तो'' का जवाब वे नहीं दे सके थे ।
अदालत में विमला के साथ हर पेशी पर आने वाले उसके दोनों बेटों को उन्होंने कई बार देखा था । पांच और सात वर्ष के वे नन्हें बालक भयाक्रांत हरिण-छौनों की तरह मां की गोद में बैठे रहते थे और सजल नेत्रों को झुकाये विमला, हर पेशी पर कैसी दारूण यातना झेलती होगी, इसका कुछ अंदाजा भी उन्होंने लगाया था । हर पेशी उसे पीड़ा देती थी और हर पेशी पर अदालती कार्यवाही के विवरणों के कारण उसका पति एक बार फिर कत्ल होता था, ।
गांव में विमला जिस मकान में पति के साथ किराये में रहती थी, वह किराये का था । उनके पास कोई अचल संपत्ति नहीं थी और पति का अब तक का जोड़ा थोड़ा सा पैसा भी खर्च में चुक गया था अपने एक आवेदन में विमला ने उन्हें यह लिखकर दिया था जो फाइल में लगा हुआ था ।
सातों मुल्जिमों की तरफ से शहर के कई बड़े और नामी वकील मौजूद थे, जबकि विमला व सरकार की तरफ से मात्र सरकारी वकील प्रकरण में अभियोजन पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहा था । सरकारी वकील यानी कि राजनैतिक दल का कार्यकर्ता ! यानि कि अनप्रोफेशल प्लीडर । केस अंधा था ।
वे देर रात तक जागते रहे, बल्कि यूं कहें वे आधी से ज्यादा रात तक वे जागते रहे । डेढ़ बजे वे बिस्तर पर पहुंचे ।
जज साहब ने ठीक पहचाना, वह विमला ही थी जो रेड लाइट एरिया के एक कोठे के दरवाजे पर सस्ते से मेकप में लिपी-पुती खड़ी थी । उसे देखकर वे अपना आपा नहीं रख पाये और नाराज होते हुये उसे डांटने के लिए उधर ही लपके । अभी वे सीढ़ियों पर ही थे कि सारा दृश्य धुंधला उठा । उनकी नींद टूट रही थी । उफ, तो सोते समय भी वे इस मुकदमे के मानसिक दबाव से मुक्त नहीं हो पाये ।
वे उठे और सिर थाम कर बैठ गये । बैठे-बैठे देर तक अपने-आपको उन्होंने यह समझाने का यत्न किया कि ये राजकाज है और उन्हें नौकरी की समस्याओं में अपने-आपको इस सीमा तक लिप्त नहीं करना चाहिये कि रात की नींद और दिन का चैन हराम हो जाये ।
उन्होंने वेलियम-5 की एक गोली ली और पानी के साथ गटक गये । थोड़ी ही देर में उन्हें सुस्ती सी आ गयी थी और तन्द्रा में डूबे हुये वे पुनः बिस्तर पर लेट गये ।
स्वप्न ने अब भी पीछा नहीं छोड़ा था, विमला और उसके दोनों बच्चे इस बार भिखारियों के रूप में दिखे थे उन्हें और उनका स्वप्न जल्दी ही टूट गया था । नींद भी जल्दी ही आ गयी थी । ताज्जुब कि तीसरी बार विमला उन्हें दलपत की हवेली में दिखी थी - चम्पा जैसी सजी-धजी । सपने में ही झुंझलाते हुये उन्होंने उसे डांटने का यत्न किया तो फिर से नींद खुल गयी थी और इस बार उनको सिर में हल्का सा दर्द महसूस हुआ था । घड़ी देखी तो पता चला कि चार बज रहे हैं ।
कुछ देर बैठे रहकर उन्हें फिर नींद आती लगी, तो वे लुढ़क गये, और इस बार उन्हें सचमुच नींद आ गई ।
सुबह वे देर तक सोते रहे ।
उस दिन वे कुछ विलम्ब से अदालत पहुँचे, पर डाइस बैठते ही पहला मुकदमा उन्होंने गोविंद सिंह हत्याकांड का लिया ।
आवाज लगी । मुल्जिम आये । वकील आये ।
पुलिस आयी । विमला आयी। दोनों बच्चे भी आये ।
अदालत में सन्नाटा था और जज साहब ने अपना फैसला पढ़ना शुरू कर दिया । लोग दत्तचित्त होकर सुनने लगे ।
एक पंक्ति के फैसले में जज साहब ने सातों मुल्जिमों को उम्र कैद की सजा सुनायी और चुप हो गये । फिर उनने वहाँ मौजूद लोगों पर एक नजर डाली और वे अगला पैराग्राफ पढ़ने लगे - ‘‘अदालत सातों मुल्जिमों पर पच्चीस हजार रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से अर्थदण्ड भी आरोपित करती है । यह राशि अदालत खुद वसूल करेगी और मृतक की विधवा को सौंप देगी, ताकि वह अपना और बच्चों का अगला जीवन सुरक्षित और निश्चित तरीके से गुजार सके । ''
वकीलों की कानाफूसी ने सन्नाटा भंग कर दिया ।
ये फैसला किस धारा के तहत है ? पत्रकार लोग अपनी निगाहों में प्रश्न लिये एक-दूसरे को ताकने लगे थे और मुल्जिमों पर तो जैसे साँप लोट गया था ।
जज साहब संतुष्ट थे, जबकि विमला अपने दोनों बच्चों के साथ दूर से उनकी आसंदी को प्रणाम करती हुयी रोये जा रही थी । उसे कहाँ विश्वास था कि इतनी महंगी न्याय प्रणाली, वकीलों के अनाप-शनाप खर्चे, लम्बी-लम्बी तारीखें और पुलिस के बदल जाने वाले तफ्तीश अधिकारी तथा गवाहों के धुरंधर कागजी युद्ध में उस जैसी निहत्थी, गरीब, ईमानदार अबला को न्याय मिलेगा ।
और यह हुआ । बीसवीं सदी का अन्त हो रहा था । माननीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय अपने सीधे निर्देशों के द्वारा लोकतन्त्र की रक्षा में जुटे हुए थे । तमाम राजनैतिक घोटालों ने कार्यपालिका पर लगातार विश्वास कम किया था । लेकिन न्यायपालिका के सर्वोच्च मंच से लेकर चण्ड प्रद्योत सिंह की जिला अदालत ने भी न्याय को कायम रखा था । यह कम नहीं था । एक आश्चर्य ही तो था । विमला का भीतरी विश्वास और ताकतवर हो उठा । अब वह इस समाज के दुष्टों से जूझ ही लेगी ।
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अच्छी कहानी....
जवाब देंहटाएंआगे से थोड़ी छोटी कहानी लिखें...बस एक निवेदन है...
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यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
यही साहित्य की असली सेवा है।
जवाब देंहटाएंकाश कि सचमुच ऐसा जज हो..
जवाब देंहटाएंdhanyvad,
जवाब देंहटाएंek behad shndar shilp ki kahani ke liye badhai. asi hi kahani likhte rahe.
dr.padmaa sharma
shivpuri
आमीन...
जवाब देंहटाएं- आनंद