महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर

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  भगवान महावीर प्रोफेसर महावीर सरन जैन भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने...

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भगवान महावीर

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्‍मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्‍मुख बनाकर, भारतीय साधना परम्‍परा में कीर्तिमान स्‍थापित किया। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रान्‍ति सम्‍पन्‍न की। आपने उद्‌घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ़ि नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, किसी के भी प्रति घृणा एवं द्वेषभाव नहीं है। आपने धर्मों के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाई। धर्म को कर्म-कांडों, अन्‍ध विश्‍वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्‍यवाद की अकर्मण्‍यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाला। आपने घोषणा की कि धर्म उत्‍कृष्‍ट मंगल है। धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्‍ठान है जिससे आत्‍मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में, बल्‍कि वह तो अन्‍तरात्‍मा में होता है। साधना की सिद्धि परमशक्‍ति का अवतार बनकर जन्‍म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्‍मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्‍मा के अन्‍तरात्‍मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्‍वयं परमात्‍मा हो जाने में है। वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को ‘अवतारी' वर्णित किया जा रहा है। यह मिथ्‍या ज्ञान का प्रतिफल है। वास्‍तव में भगवान महावीर का जन्‍म किसी अवतार का पृथ्‍वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्‍म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्‍म शक्‍ति का आकाश से पृथ्‍वी पर अवतरण नहीं है। कारण-परमात्‍मास्‍वरूप का उत्‍तारण द्वारा कार्य-परमात्‍मस्‍वरूप होकर सिद्धालय में जाकर अवस्‍थित होना है। भगवान महावीर की क्रान्‍तिकारी अवधारणा थी कि जीवात्‍मा ही ब्रह्‌म है। आत्‍मा ही सर्वकर्मों का नाश कर सिद्ध लोक में सिद्ध पद प्राप्‍त करती है। इस अवधारणा के आधार पर उन्‍होंने प्रतिपादित किया कि कल्‍पित एवं सर्जित शक्‍तियों के पूजन से नहीं अपितु अन्‍तरात्‍मा के सम्‍यग्‌ ज्ञान, सम्‍यग्‌ दर्शन एवं सम्‍यग्‌ चारित्र्य से ही आत्‍म साक्षात्‍कार सम्‍भव है, उच्‍चतम विकास सम्‍भव है।

भगवान महावीर ने सभी के लिए धर्माचरण के नियम बनाए। आपने ने पहचाना कि धर्म साधना केवल सन्यासियों एवं मुनियों के लिए ही नहीं अपितु गृहस्‍थों के लिए भी आवश्‍यक है। इसी कारण आपने संयस्‍तों के लिए महाव्रतों के आचरण का विधान किया तथा गृहस्‍थों के लिए अणुव्रतों के पालन का विधान किया। धर्म केवल पुरुषों के लिए ही नहीं, स्‍त्रियों के लिए भी आवश्‍यक है।। चन्‍दनबाला को आर्यिका/ साध्‍वी संघ की प्रथम सदस्‍या बनाकर आपने स्‍त्रियों के लिए अलग संघ बनाया । उनके युग में नारी की स्‍थिति सम्‍भवतः सम्‍मानजनक नहीं थी। भगवान महावीर के संध में मुनियों एवं श्रावकों की अपेक्षा आर्यिकाओं / साध्‍वियों एवं श्राविकाओ की कई गुनी संख्‍या का होना इस बात का प्रमाण है कि युगीन नारी- जाति महावीर की देशना से कितना अधिक भावित हुई।

भगवान महावीर का संदेश प्राणी मात्र के कल्‍याण के लिए है। उन्‍होंने मनुय-मनुष्‍य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्‍वस्‍त किया। उन्होंने जन्‍मना वर्ण व्‍यवस्‍था का विरोध किया। इस विश्‍व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्‍य के महत्‍व का प्रतिपादन किया। ऊँच-नीच, उन्‍नत-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं। जातिवाद अतात्‍विक है। सभी समान हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। भगवान की दृष्‍टि समभावी थी- सर्वत्र समता-भाव। वे सम्‍पूर्ण विश्‍व को समभाव से देखने वाले साधक थे, समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था - जो व्‍यक्‍ति अपने संस्‍कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी है। उनकी वाणी ने प्राणी मात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया।

जब भगवान से यह जिज्ञासा व्‍यक्‍त की गई कि आत्‍मा आँखों से नहीं दिखाई देती तथा इस आधार पर आत्‍मा के अस्‍तित्‍व के सम्‍बन्‍ध में शंका व्‍यक्‍त की गई तो भगवान ने उत्‍तर दिया ः ‘ भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियाँ बन्‍द करने के बाद भी जब भवन के अन्‍दर संगीत की मधुर ध्‍वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। आँखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की मधुर ध्‍वनि बाहर खड़े श्रोताओं को आच्‍छादित करती है। संगीत की ध्‍वनि पौद्‌गलिक (भौतिक द्रव्‍य) है। आत्‍मा अरूपी एवं अमूर्त्तिक है। आँखें अरूपी आत्‍मा को किस प्रकार देख सकती हैं? अमूर्त्तिक आत्‍मा का इन्‍द्रिय दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है। प्रत्‍येक आत्‍मा में परम ज्‍योति समाहित है। प्रत्‍येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति स्‍वयं में स्‍वतंत्र, मुक्‍त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्‍येक आत्‍मा अपने पुरुषार्थ से परमात्‍मा बन सकती है। शुद्ध तात्‍विक दृष्‍टि से जो परमात्‍मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्‍मा हैं। मनुष्‍य अपने सत्‍कर्म से उन्‍नत होता है। भगवान महावीर ने स्‍पष्‍ट रूप में प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को मुक्‍त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्‍ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति का जन्‍म सिद्ध अधिकार है। जो आत्‍मा बंध का कर्ता है, वही आत्‍मा बंधन से मुक्‍ति प्रदाता है। मनुष्‍य अपने भाग्‍य का निर्माता है। मनुष्‍य अपने भाग्‍य का नियंता है। मनुष्‍य अपने भाग्‍य का विधाता है। भगवान महावीर का कर्मवाद भाग्‍यवाद नहीं है, भाग्‍य का निर्माता है। भगवान महावीर ने अहिंसा की परिधि को विस्‍तार दिया। आपकी अहिंसा दया एवं करुणा पर आधारित नहीं है, मैत्री भाव पर आधारित है। आपकी अहिंसा का चिन्‍तन प्राणी मात्र के प्रति आत्‍म -तुल्‍यता एवं बंधुभाव की सहज प्रेरणा प्रदान करता है।

आपने अहिंसा को परम धर्म के रूप में मान्‍यता प्रदान कर, धर्म की सामाजिक भूमिका को रेखांकित किया। आर्थिक विषमताओं के समाधान का रास्‍ता परिग्रह-परिमाण-व्रत के विधान द्वारा निकाला। वैचारिक क्षेत्र में अहिंसावाद स्‍थापित करने के लिए अनेकांतवादी जीवन दृष्‍टि प्रदान की। व्‍यक्‍ति की समस्‍त जिज्ञासाओं का समाधान स्‍याद्‌वाद की अभिव्‍यक्‍ति के मार्ग को अपनाकर किया। प्रत्‍येक वस्‍तु में अनेक गुण धर्म होते हैं। इस कारण हमें किसी वस्‍तु पर ‘एकांत' दृष्‍टि से नहीं अपितु अनेकांत दृष्‍टि से विचार करना चाहिए। अनेकांत एकांगी एवं आग्रह के विपरीत समग्रबोध एवं अनाग्रह का द्‌योतक है। इसी प्रकार ‘स्‍याद्‌वाद' के ‘स्‍यात्‌' निपात का अर्थ है - अपेक्षा से। स्‍याद्‌वाद का अर्थ है - अपेक्षा से कथन करने की विधि या पद्धति। अनेक गुण-धर्म वाली वस्‍तु के प्रत्‍येक गुण-धर्म को अपेक्षा से कथन करने की पद्धति। प्रतीयमान विरोधी दर्शनों में अनेकांत दृष्‍टि से समन्‍वय स्‍थापित कर सर्वधर्म समभाव की आधारशिला रखी जा सकती है।

मानव की मूलभूत भौतिक आवश्‍यकताओं एवं मानसिक आकांक्षाओं को पूरा करने वाली न्‍यायसंगत विश्‍व व्‍यवस्‍था की स्‍थापना अहिंसा मूलक जीवन दर्शन के आधार पर सम्‍भव है। भौतिकवादी दृष्‍टि है - योग्‍यतम की उत्‍तरजीविता। इसके विपरीत भगवान महावीर की दृष्‍टि है - विश्‍व के सभी पदार्थ परस्‍पर उपकारक हैं। भौतिकवादी दृष्‍टि संघर्ष एवं दोहन की वृत्‍तियों का संचार करती है। अहिंसा की भावना पर आधारित विश्‍व शान्‍ति की प्रासंगिकता, सार्थकता एवं प्रयोजनशीलता स्‍वयंसिद्ध है। विश्‍व शान्‍ति की सार्थकता एक नए विश्‍व के निर्माण में है जिसके लिए विश्‍व के सभी देशों में सद्‌भावना का विकास आवश्‍यक है। सह-अस्‍तित्‍व की परिपुष्‍टि के लिए आत्‍म तुल्‍यता एवं समभाव की विचारणा का पल्‍लवन आवश्‍यक है। अन्‍तर्राष्‍ट्रीय सद्‌भावना के लिए विश्‍व बंधुत्‍व की भावना का पल्‍लवन आवश्‍यक है। आज के युग ने मशीनी सभ्‍यता के चरम विकास से सम्‍भावित विनाश के जिस राक्षस को उत्‍पन्‍न कर लिया है वह किसी यंत्र से नहीं, अपितु ‘अहिंसा-'मंत्र' से ही नष्‍ट हो सकता है। भगवान महावीर ने प्राणी मात्र के कल्‍याण के लिए आत्‍मतुल्‍यता एवं अनेकांतवाद की लेखनी से अहिंसा, सत्‍य एवं अपरिग्रह के पृष्‍ठों पर स्‍याद्‌वाद की स्‍याही से धर्म-आचरण का जो प्रतिमान एवं कीर्तिमान प्रस्‍थापित किया है वह सर्वोद; का कारक बने - मेरी यही मंगल कामना है।

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  1. महावीर चार अक्षर -एक शब्द ! लाखो व्यक्ति का नाम महावीर हो सकता है. हर गाव में दो चार महावीर मिल सकते. मेरा भी नाम महावीर है. किन्तु चार अक्षर वाले इस महावीर नाम के साथ अढाई हजार वर्ष पूर्व का वः चित्र उभरता है जिसमे राज,पाट, सुख एश्वर्य , भोग - विलास को त्याग क्र तिस वर्ष का राजकुमार मुनि बनता है. महावीर के नाम सही उनके जीवन की सारी स्थितिया , घटनाए एवम प्रेरक प्रसंग चल चित्र की तरह नयनो के सामने उतरने लगते है. जिसमे उनकी वीरता , क्षमा, घैर्य, द्रढ़ मनोबल त्याग एवं कैवल्य आदि के अनेक प्रसंग भरे पड़े है. प्रोफेसर महावीर सरन जैन साहब ने सही लिखा है . वर्तमान में भगवान महावीर युवा पीढ़ी के लिए एक आदर्श है . अढाई हजार वर्ष के बाद भी महावीर ने अपने जीवन दर्शन के द्वारा जो मार्ग प्रसस्त किया वः आज उस युग से भी सम्भवत: ज्यादा उपयोगी है-एवम आवश्यक है.

    राम गये, नाम का आधार रह गया है...

    श्याम गये, गीता का सार रह गया है,

    महावीर का आदर्श कंहा है जीवन में,

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रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर
महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर
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