नकटू अब दस साल का हो गया था। अपने नाम के ही अनुरूप वह बेशरम था, बल्कि यों कहा जाए कि उसका नाम उसके जन्म के कारण ही नकटू पड़ गया था ...
नकटू अब दस साल का हो गया था। अपने नाम के ही अनुरूप वह बेशरम था, बल्कि यों कहा जाए कि उसका नाम उसके जन्म के कारण ही नकटू पड़ गया था तो ज्यादा व्यावहारिक होगा। वह अपनी विधवा मां का नाजायज पुत्र था। मां ने गांव के लोगबागों के गिले शिकवे और विष बुझे वाणों की भार से घायल होते रहने से हमेशा के लिए निजात पाने के लिए खारे कुंए में कूद कर आत्महत्या कर ली थी। घर में नकटू की नानी के अलावा और कोई था नहीं। नानी ने ही जैसे-तैसे उसे पाला पोसा, बड़ा किया। नकटू का पिता कौन है ठीक-ठीक किसी को ज्ञात नहीं है। बताते हैं एक बार उसकी मां का देवर यानि कि उसका काका अपनी विधवा भाभी भुर्रो की सुधबुध लेने के बहाने गांव आया था और अर्से तक रूका था। उसके जाने के बाद से ही भुर्रो के शरीर में परिवर्तन शुरू हो गए थे और पूरे गांव में यह काना-फूंसी होने लगी थी कि भुर्रो के पैर भारी हो गए हैं।
अवैध संतान होने के कारण ही उसे उच्च जाति का होने के बावजूद जाति-बिरादरी सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदारों और गांव में वह आदर नहीं मिला जिसका वह हकदार था। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, नानी की पकड़ से बाहर होता चला गया था। ब्राह्मणों की बस्ती उपरेंटी के बच्चे उसके साथ इसलिए नहीं खेलते क्योंकि उनकी मांओं ने बच्चों को जता दिया था कि यह नकटू नासमिटा पाप की औलाद है। कुछ बच्चे उसे पाप की, औलाद कहकर चिढ़ाते भी। हालाँकि नकटू यह नहीं समझता था कि 'पाप की औलाद‘ के मायने क्या होते है ? लेकिन अपने प्रति हम उम्र बच्चों की हीनता देख उसका बाल सुलभ मन यह जरूर ताड़ गया था कि पाप की औलाद कोई बुरी बात होती है, जिसके चलते गांव के लागे उससे नफरत करते हैं और हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। जबसे उसमें इस समझ का अंकुरन हो आया था कि पाप की औलाद होना एक तरह की गाली है, तब से उसने आक्रामक रूख अपना लिया था। अब, जब भी कोई बच्चा उसे पाप की औलाद कहकर चिढ़ाता, वह उसे पीटने लग जाता। उसमें बला की फुर्ती थी। शरीर में उम्र से ज्यादा ताकत थी। उसके स्वभाव में भरपूर निडरता थी। उसके द्वारा आक्रामक रूख अपनाने के बाद से बच्चे उससे भय खाने लगे थे। अब उनकी हिम्मत उसके मुंह पर पाप की औलाद कहने की न होती।
चूंकि उच्च वर्ग नकटू उपेक्षित था इसलिए वह सहराने के बच्चों में ज्यादा हिलमिल गया था। सुबह वह सायकल का पुराना टायर दौडा़ता हुआ तलैया पर पहुंच जाता। वहीं सहरियों के बच्चे आ जाते। उन्हीं के साथ वह गुल्ली-डंडा, सितोलिया, होलक-डंडा खेलता रहता। कभीकभा वे पिड़कुलए मारने, पठार से नीचे जंगल में भी उतर जाते। पिड़कुलए मारने के लिए उन्होंने गिलोलें बना ली थीं। नकटू की कुछ किरार के लड़कों और चमारों के लड़कों से भी दोस्ताना हो गया था। चूंकि इस दल का संगठक नकटू था और नकटू का कहा ही सब मानते थे इसलिए वह एक तरह से दल का अघोषित नेतृत्वकर्ता बन बैठा था।
उसमें बहस-मुवाहिसा करने का माद्दा था। प्रबल हठी था। अपने दोस्तों के प्रति उसका समर्पित भाव था। कोई साथी अगर गलत काम कर दे, झूठी बात कह दे तो भी वह खुलकर उसी का साथ देता। सद्गुणों और दुर्गुणों का उसके चरित्र में अनुपातिक सम्मिश्रण था। वह पढ़ने में भी होशियार था। स्कूल रोजाना जाता और सब विद्यार्थियों में पढ़ने में अव्वल रहता। पढ़ाई में अव्वल होने के कारण गांव के जो समझ रखने वाले लोग थे वे नकटू के प्रति दया और स्नेह का भाव रखते थे।
गर्मियों की छुटि्टयां हो गईं थीं। गांव की एक मात्र हवेली जो पूरे साल वीरान पड़ी रहती थी, उसकी साफ-सफाई शुरू हो गई थी। चौकीदार पहरा देने लगा था और उसने गांव के बच्चों को हवेली की लंबी-लंबी दहलानों में खेलते रहने पर रोक लगा दी थी। गोधूलि वेला के समय दहलानों में आइस-पाइस खेलना बच्चों की दिनचर्या थी। नकटू भी खेलता था पर अब वह भी वंचित हो गया था।
हवेली की रंग-बिरंगी सभी बत्तियां जलने लगी थीं। तीन दिन में ही हवेली राजमहल के माफिक जगमगा उठी थी। सिंधिया स्टेट के जमाने में अटलपुर के जमींदार की यह हवेली राजमहल सा ही वैभव भोगती थी। पर वे जमाने लद गए, अब न राजे-रजवाड़े रहे न जमीदार और जागीरें। अटलपुर के जमीदार ने जागीरें खत्म होने के तत्काल बाद ही मुंबई और इंदौर में व्यापार खोल लिए और अपने दोनेां लड़कों को वहीं जमा दिया। व्यापार अच्छा चल निकला जमीदारी में लखपती थे तो व्यापार में करोड़पति हो गए। सामंतशाही के दौर में जो रूतबा था वह लोकतंत्र में भी बरकरार रहा। जमींदारी नहीं रहने के बावजूद उनके पास बावन कमरों की हवेली थी और एक हजार बीघा का लंबा-चौड़ा कृषि फार्म था। अटलपुर वे साल में एक मर्तबा ही आते, गर्मियों में। यह पूंजीपति परिवार अपने देवताओं से बड़ा खौफ खाता था। इसलिए वे प्रत्येक वर्ष बेनागा देवताओं पर सत्य नारायण भगवान की कथा कराने के बहाने यहां आते और पंद्रह बीस दिन रूककर लौट जाते।
तीन गाड़ियों में लदकर वे अटलपुर आए। परिवार के सदस्य वातानुकूलित गाड़ी में थे बाकी दो गाड़ियों में सामान था। उनके आते ही गांव के लोगों की हवेली के सामने भीड़ जुट गई। बड़े बुर्जुग उन्हें झुककर प्रणाम करने लगे। कईयों ने जमींदार साहब के पैर छूते हुए अपने छोटे-छोटे बच्चों से भी जमींदार साहब के पैर छुलाए। नकटू भी गांव वालों के साथ था लेकिन उसने न जमींदार साहब के पैर छुए और न ही नमस्कार! वह उनके साथ आए उस गोरे-चिट्टे भरे हुए बदन वाले लड़के को देखता रहा जो उसकी ही उम्र का था। वह जमींदार साहब के छोटे लड़के का लड़का था। उसका नाम डिंपल था। कईयों ने जमींदार साहब को अन्नदाता और माई-बाप कहते हुए उनके चरणों में सिर रखकर आशीर्वाद लिया तो कई बेवजह जमींदारों के जमाने में सुखचैन बरपा रहने का गुणगान करते हुए उनकी तारीफों के पुल बांधने लगे। नकटू चुपचाप सब देखता-सुनता रहा। उसे जमींदार साहब को अन्नदाता व माईबाप कहना अटपटा लग रहा था। वह यह अच्छी तरह जानता था कि किसानों के अन्नदाता तो खेत हैं, खलिहान हैं, गाय-बैल हैं, नदी-नाले हैं। जमीदार अन्नदाता कैसे हो गए ?
डिंपल के गांव में आने के साथ ही अजब परिवर्तन होना शुरू हो गए थे, जो नकटू के लिए नागवार थे। डिंपल जब भी हवेली से उतरता तो अजीबो-गरीब खेल-खिलौनों के साथ प्रगट होता। उसकी पेंट और शर्ट की जेबें तरह-तरह के बिस्किट्स और चॉकलेट पैकेटों से भरी होती। हवेली के द्वार पर उसके लिए सवारी सजी रहती। कभी वह बैटरी वाली कार, कभी तीन पहिए, दो पहिए और चार पहिए की सायकल पर सवार होकर हवेली के सामने वाले गलियारे में अपनी सवारी दौड़ाता। दौ नोकर आजू-बाजू उसके साथ होते। अटलपुर के आभिजात्य मोहल्ले के उच्च जातियों के बच्चे विस्मयपूर्वक डिंपल की सवारियों, कपड़ों और बिस्किट्स चॉकलेट्स की चर्चा करते हुए डिंपल की खुशामद-मलामद करते हुए उसे घेर लेते। इस वक्त उनके मुखों में लार होती और वे थूंक का घूंट गटक रहे होते। जब कुछ बच्चों की डिंपल से निकटता बढ़ गई तो वे उसकी सवारी में धक्का लगाने का अधिकार प्राप्त कर गए। क्रमानुसार एक-एक लड़का उसकी सायकल में धक्का लगाता हुआ बंसी सेठ की हवेली तक ले जाता और फिर वहां से लौटकर हवेली के दरवाजे तक छोड़ देता। धक्का लगाने का चांस जिस लड़के को मिल जाता वह अपने को धन्य समझता। अन्य लड़के उसे भाग्यशाली कहते। डिंपल को जिस लड़के का धक्का लगाना सुखदायक लगता उसे वह इनाम स्वरूप एक-दो बिस्किट्स या एक-दो चॉकलेट दे देता। पुरस्कृत लड़का इनाम पाकर पुलक उठता उसका चेहरे प्रगल्भता से भर जाता। बहुत देर तक वह उस चीज को निहारता रहता। अपने मित्रों को दिखाता। फिर दौड़ी लगाता हुआ घर पहुंचकर मां-बहनों को दिखाता। चॉकलेट कहीं छिन न जाए इसलिए वह धीर गंभीर इत्मीनान के साथ उसकी पन्नी उतारता और पन्नी को संभालकर पाठ्य पुस्तक के पन्नों में छिपा देता। डिंपल का बिस्किट्स का डिब्बा जब खाली हो जाता तो वह आनंद के लिए उसे बच्चों के बीच उछाल देता। बच्चे उस डिब्बे को लूटने के लिए कटी पतंग की तरह झपट पड़ते। जो लड़का डिब्बा पा जाता वह उसे छाती से चिपकाये घर की ओर दौड़ी लगा देता। और डिंपल अपने वाहन पर उछल-उछल कर इस खेल का आनंद ले रहा होता।
यह सारा मन बहलाने का खेल नकटू दूर खड़ा तमाशे की तरह देखता और मन ही मन ईर्ष्यावश चिढ़ता रहता। उसके भी मुंह में कैडबरी चॉकलेट् और पारले बिस्किट् देखकर लार आ जाती। जीभ चखने के लिए मचलने लगती। ऐसा ही हाल उसका तब होता जब वह सरपंच के यहां टीवी में विज्ञापन देख रहा होता। टीवी की यह विज्ञापनी दुनिया उसे स्वप्न की तरह छलावा लगती। वह सोच ही नहीं पाता था गांव की चाहर दीवारी के बाहर वास्तव में ही ऐसी ही थिरकती हुई मनमौजी बच्चों की दुनिया है। कभी-कभी वह सोचता टीवी के पर्दे पर पत्थर मारे और उछलते-कूदते लड़के के हाथ से बिस्किट पैकेट छुड़ाकर ले भागे। लेकिन वह जानता था इस बक्सानुमा डिब्बे में लड़का-बड़का कोई नहीं होता यह तो सब पर्दे पर विज्ञान का करतब भर है। किंतु जबसे डिंपल गांव आया था तब से उसे यह विश्वास हो गया था कि गांव के बाहर शहरों में एक दुनिया बच्चों की जरूर ऐसी है जो टीवी के बच्चों की तरह मनमौजी है। अल्हड़ है। यदि नहीं होती तो यह डिंपल कहां से खा पाता कैडवरी.....पारले.......? कहां घूम पाता सायकल और बैटरी वाली गाड़ी पर.....? नकटू की तरह ही उसके सहराने और चमराने वाले मित्रों को डिंपल की शान पर विस्मय होता।
ऐसे ही एक दिन चम्पेबारी की दल्लान में बैठा नकटू डिंपल की सायकल का इधर से उधर, उधर से इधर आना जाना देख रहा था कि एकाएक नकटू के सामने बीच गलियारे में डिंपल ने सायकल रोक दी और धक्का लगाने वाले व बेवजह पीछे दौड़ते रहने वाले बच्चे वाडीगार्डो की तरह डिंपल के दाएं-बाएं खड़े हो गए। डिंपल सगर्व ललकार भरे लहजे में बोला, '' अबे.....नकटू इधर आ.....‘‘
नकटू को अव्वल तो डिंपल के बोलने का लहजा एकदम असहनीय लगा लेकिन वह डिंपल का मंतव्य समझने के लिए चुपचाप आगे बढ़कर डिंपल की सायकल के पास खड़ा हो गया और बोला‘‘ का......?‘‘
डिंपल का विनम्र अनुनय होता तो नकटू कुछ सोचता भी ? किंतु वह तो हुक्म था और नकटू यह बखूबी समझता था कि हुक्म का पालन एक तो नौकर करते हैं दूसरे चमचे। जबकि नकटू डिंपल का न नौकर है और न ही चमचा! फिर वह इस रईसजादे की सायकल में धक्का क्यों लगाए ?
''जल्दी कर वे.......‘‘ इस बार डिंपल थोड़ा गर्जा था।
नकटू को काटो तो खून नहीं। नाक पर गुस्सा चढ़ाए रखने वाले नकटू को इतना सहन कैसे होता ? और उसने
पूरी ताकत से सायकल में एक लात दे मारी। दाएं-बाएं खड़े लड़के दूर छिटक गए और डिंपल औंधे मुंह गिरा धूल खा रहा था। सायकल उलटकर डिंपल के पैरों पर थी। डिंपल अंग्रेजी में गालियां बकता हुआ रोने लगा था। नकटू अगला मोर्चा संभालता इससे पहले हवेली के द्वार पर खड़े दरबान दौड़े-दौड़े आए और नकटू के दोनों हाथ पकड़कर हवेली की ओर घसीटते हुए ले गए। नकटू हाथ-पैर पटकता हुआ छुड़ाने का असफल प्रयास करता रहा। एक दरबान ने डिंपल को उठाया। उसके कपड़ों से धूल झड़ाई और उसे गोदी में लादकर हवेली की ओर ले गया। धक्का लगाने वाले लड़के पीछे-पीछे सायकल धकियाते हुए चल दिए।
डिंपल के रोने की आवाज सुनकर उसकी मम्मी, उसके बाबा और हवेली के सभी नौकर-नौकरानियां दौड़े-दौड़े, क्या हुआ ? क्या हुआ कहते हुए नीचे आए और डिंपल को घेरकर उसकी सुध लेने लगे। नौकरों और चाटूकारों ने सारा माजरा कह सुनाया। लड़कों ने सोचा नकटू बेटा आज बड़ी मुश्किल से अंटी में आया है इसलिए इसे आड़े हाथों लेकर क्यों न पुरानी कसर निकाल ली जाए। फिर क्या था, प्रतिद्वंद्वियों ने कुढ़नवश सारा दोष नकटू के सिर मढ़ दिया।
डिंपल की मम्मी ने आव देखा न ताव और चार-छैः चांटे नकटू के गालों पर जड़ दिए। क्रोधांध मम्मी और भी मारती किंतु प्रतिकार स्वरूप नकटू ने गालियां बकते हुए उनकी ओर लातें फेंकना शुरू कर दी थीं। और वे प्रत्युत्पन्न मति से काम लेते हुए नकटू कुछ ऐसी-वैसी हरकत न कर दे जिससे उनकी जग हंसाई हो, इस अनुभूति के साथ चार कदम पीछे हट गई थीं।
जब मम्मी हट गईं तो डिंपल के बाबा नकटू के सामने आकर बोले, '' तूने क्यों मारा बच्चे को‘‘ ?
'' मैंने डिंपल को नहीं मारा। खाली सायकल में लात दी थी, वह गिर पड़ा तो मैं क्या करूं ?‘‘
नकटू के दोनों हाथ नौकर पकड़े हुए थे। वह अपने वजूद के पूरे रौब के साथ छाती ताने खड़ा था। उसकी आंखों में न आंसू थे और न ही पछतावा था, न भय था और न ही बेइज्जती हो जाने की शर्म थी।
''तूने सायकल में लात क्यों मारी ?‘‘
'' उसने मुझसे नौकरों की तरह क्यों कहा कि मेरी सायकल में धक्का लगा ? मैं क्या उसके बाप का नौकर हूं या उसका दिया खाता हूं ? मैं क्यों लगाऊं धक्का ? ‘‘
अटलपुर जागीर के भूतपूर्व जमींदार उस लड़के के दो टूक जवाब को सुनकर सन्न रह गए। अस्सी वर्ष की उम्र में उनकी इतनी बेइज्जती अंग्रेज अधिकारियों के अलावा किसी ने नहीं की थी। वे सोचने लगे काश आज जमींदारी का जमाना होता तो वे इस लड़के को हाथी के पैर के नीचे कुचलवाकर, लाश तलैया पर चील-कौवों को खाने डाल देते। किंतु वे विवश थे अब न अटलपुर जागीर थी और न वे जमींदार। इस बीच काफी भीड़ इकठ्ठी हो गई थी। बच्चों से लेकर किशोर, जवान प्रौढ़ और बुजुर्ग। गांव के एक प्रौढ़ शिक्षक आगे आकर बोले, ''बेटा जरा धक्का लगा देता तो तेरा क्या जाता.....बदले में बिस्किट, गोली खाने को मिलती.....‘‘
-'' मैं क्या बिस्कुट चॉकलेट का भूखा हूं जो धक्का लगाऊं....? खाने को इतनी ही जीभ लपलपा रही है तो तुम्हीं धक्का लगाओ माटसाब.....।‘‘
मास्टर साहब की एक झटके में ही बोलती बंद हो गई। फिर लोगों में यह खुसर-फुसर होने लगी कि वह थोड़े ही किसी की मान रहा है, वह तो नम्बर एक का बेशरम है तभी तो उसका नाम नकटू पड़ा। कहें भी तो किससे कहें डुकरिया भी बेचारी परेशान रहती है।
इस बीच डुकरिया (नानी) को भी खबर लग गई। वह बेचारी हाथ में खजूर की टान लिए भागी-भागी आई। उसने आते ही नकटू को नौकरों के हाथ से छुड़ाया और उसकी गालियां देते हुए सुतउअल पिटाई लगाना शुरू कर दी, ''धुआंलगे, नासमिटे, नकटा! तू का मेरे करमन में लिखो तो.....? जाने मुरहू कौन पापी को बीज जनके अपन तो चलती भई और मेरे प्राण खावे जाए छोड़ गई।‘‘
नानी जब पीटकर लस्त हो गई तो जमींदार साहब के पास जाकर हाथ जोड़कर बोली, ''महाराज जो तो ऐसोई पापी है, जाए माफ कर देईओ....., मैं तुमरे पांव पड़तों।‘‘ और नानी ने जमींदार के पैरों में सिर रख दिया था।
उस दिन जैसे-तैसे नानी द्वारा मिन्नत चिरौरी करने से मामला सुलट गया था। किंतु नकटू के अंदर आहत सर्प की तरह प्रतिहिंसा रह-रहकर प्रज्वलित होती रही थी। उसने अंतर्मन में संकल्प ले लिया था कि वह अपनी बेइज्जती का बदला जरूर लेगा। दूसरे दिन से ही वह मौके की तलाश मं रहने लगा कि डिंपल को कब मजा चखाया जाए ? हालांकि नकटू के पीटे जाने के बाद से डिंपल का रूतबा थोड़ा बढ़ गया था फिर भी डिंपल नकटू की सकल देखते ही सहम जाता और नकटू से दूर रहने का प्रयास करता। हालांकि उस घटना के बाद से डिंपल ने कंधे पर नकली बंदूक लटकाना शुरू कर दी थी और वह अपने दोस्तों में यह कहकर रौब पेलता कि अबकी मर्तबा बोलेगा तो साले में गोली मार दूंगा।
नकटू की सार्वजनिक तौहीन हो जाने की वजह से उसके सहराने और चमराने के मित्र भी उससे कन्नी काटने लगे थे। उन्हें यह भय सताने लगा था कि यदि वे नकटू का साथ देंगे तो नौकर उन्हें पकड़कर भी डिंपल की मम्मी के हाथों पिटवा सकते हैं। किंतु उन्होंने अपनी असलीयत नकटू पर जाहिर नहीं की थी। दिखाने को तो वे नकटू के भी दोस्त बने रहे और नकटू के साथ डिंपल को पीटने की मोर्चाबंदी साधने में भागीदारी भी करते रहे। दरअसल वे कुटिल बुद्धि से काम लेते हुए नकटू के भी साथ थे और डिंपल के भी।
वह दिन भी आया जब देवताओं पर कथा हुई। आज के दिन हवेली के सभी नौकर, पंडितों और गांव के सवर्ण जाति के लोगों को खान-पान की व्यवस्था में लगे थे। बारह बजे के करीब कथा समाप्त हुई। कथा में डिंपल देवताओं के सामने जिजमान बनकर बैठा। उसी के हाथ से पंडित को दक्षिणा दिलाई गई और नारियल फुड़वाया गया। प्रसाद बंटने के बाद भोज संपन्न हुआ। डिंपल और उसके साथियेां ने तुरत-फुरत भोजन किया और चुपचाप सायकल घुमाने के लिए चल दिए। आज डिंपल के हाथ में एक बड़ा बिस्कट्स का पैकेट था जो उसने अभी खोला नहीं था।
देवताओं का स्थान गांव से बाहर हवेली के पिछवाड़े की ओर था। वहां से थोड़ी दूर चलकर तलैया थी और तलैया के पीछे पठारी जंगल था। डिंपल ने आज अपने मित्रों से तलैया तक घूम आने की इच्छा प्रकट की। उसके दोस्त सायकल धकियाते हुए तलैया की आर चल दिए।
नकटू अपने सहराने के मित्रों के साथ बरगद के नीचे होलक-डंडा खेल रहा था। सायकल की चींची चर्र....चर्र की आवाज सुनकर एकाएक वे चौंके और कान खड़े करके गैल की तरफ देखने लगे। डिंपल की सायकल पर नजर पड़ते ही नकटू धीरे से बोला, ''छिप जाओ डिंपल का बच्चा इधर ही आ रहा है। नौकर भी कोई नहीं है। अब देखता हूं बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी।‘‘
और सभी लड़के बरगद के पीछे छिप गए। नकटू के हाथ में होलक खेलने का बांस का डेढ़ हाथ लम्बा तेल पिलाया डंडा था। जैसे ही सायकल बरगद क्रास करके तलैया की ओर बढ़ी कि नकटू सायकल की ओर झपट पड़ा। नकटू को देखते ही डिंपल के दोस्त सायकल छोड़ गांव की ओर भाग खड़े हुए। अविलंब नकटू ने डिंपल की गिरेबान पकड़कर उसे सायकल से खींच लिया। डिंपल के हाथ से बिस्कुट का डिब्बा छीनकर नकटू ने एक मित्र को दे दिया। और फिर वह डिंपल पर पिल पड़ा। डिंपल के पौदों, टखनों में दस बीस डंडे मारे जब वह रोता बिलखता मम्मी....मम्मी.... चिल्लाता धरती पर लोटपोट होने लगा तो उसमें लातें, घूंसे मारने लगा। नकटू के दोस्तेां ने जब देखा कि अब बाजी पूरी तरह नकटू के हाथ में है तो वे भी बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने डिंपल में लाते मारने लगा। डिंपल के मुंह और नाक से जब उन्होंने खून बहता देखा तो वे सहम गए और वे सब डिंपल को वहीं छोड़कर पठारी जंगल की ओर भाग निकले। नकटू ने जब पीछे पलटकर देखा तो देखा गांव की तरफ से डिंपल के नौकर बेसाख्ता भागे चले आ रहे हैं।
नौकर डिंपल को लादकर भागे-भागे हवेली जाए। डिंपल की मम्मी और उसके बाबा ने नौकरेां को जलीकटी सुनाते हुए गालियां दीं, चांटे भी मारे। फिर फौरन डिंपल को कार में लिटाकर उपचार के लिए इंदौर रवाना हो लिए।
इधर नकटू और उसके मित्र पठारी जंगल पार कर सिआंखेड़ी गांव के गेंत भी पार कर गए थै यहां से भरखा का जंगल शुरू होता था। यहां रूककर वे सुस्ताए फिर बिस्किटों को चार बराबर हिस्सों में बांटा। बिस्किुटों का स्वाद लेते ही उनकी दौड़ने की थकान जाती रही। सिआंखेड़ी के टपरों पर रहने वाले सहरिए अटलपुर के सहरियों के नातेदार थे। अतः नकटू अपने मित्रों के साथ सहरियों के टपरों में रूक गया।
जब चार दिन गुजर गए तब उन्होंने गांव की सुध ली। अटलपुर के पठारी जंगल में पहुंचने पर उन्हें अटलपुर के ग्यारें (ग्वाले) मिल गए। ग्यारें सब सहराने के सहरिए थे। यह सुनकर उन्हें तसल्ली हुई कि डिंपल उसकी मम्मी, उसकी बाबा उसके नौकर सब माल-असवाब गाड़ियों में लादकर उसी दिन अटलपुर से कूच कर गए थे। नकटू अब पूरी जिंदादिली के साथ निर्भय होकर गांव में घूमता। ब्राह्मण और बनियों के जो लड़के उससे कतराते थे वे अब डिंपल के हुए हश्र से सहमकर उसकी चिरौरी में अपनी भलमनसाहत समझने लगे। नकटू जैसे-जैसे उम्र के सोपान चढ़ रहा था, वैसे-वैसे जिंदादिली के साथ उसमें अद्भुत नेतृत्व क्षमता का उभार होता जा रहा था।
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लेखक परिचय:
नाम ः प्रमोद भार्गव
पिता का नाम ः स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव
जन्म दिनांक ः 15 अगस्त 1956
जन्म स्थान ः ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म. प्र.)
शिक्षा ः स्नात्कोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रूचियां ः लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रूचि।
प्रकाशन ः प्यास भर पानी (उपन्यास), मुक्त होती औरत, पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास) सोन चिरैया सफेद शेर, चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है पानी(जल समस्या) इन पुस्तकों के अलावा हंस, समकालीन भारतीय साहित्य,वर्तमान साहित्य, प्रेरणा, संवेद, सेतु, कथाबिंब परिकथा, धर्मयुग, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नईदुनियां, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, लोकमत समाचार, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति,पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून, रांची एक्सप्रेस, नवभारत, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता, सुमन सौरभ, मेरी सहेली, मनोरमा, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, आदि पत्र पत्रिकाओं में अनेक लेख एवं कहानियां प्रकाशित।
सम्मान ः 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य
के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश जायसवाल सम्मान। 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान।
3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'।
4. म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकरी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिंधु सम्मान'।
5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
6. भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्मानित।
अनुभव ः जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता।
नईदुनियां ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख, शिवपुरी।
उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
संप्रति ः जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल)
संपादक -शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी
दूरभाष ः 07492-232007 मोबा. 09425488224
संपर्क ः शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म. प्र.)
ईमेल - PramodSVP997@rediffmail.com
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प्रमोद भार्गव
शाही निवास, शंकर कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) 473-551
नकटू के मनोविज्ञान को बताती अच्छी कहनी
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