जब भी मैं गरमी या सरदी के दिनों में अपनी नानी के गाँव जाती तो कभी रेल से या कभी बस से, गाँव के बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पास-पास है वहा...
जब भी मैं गरमी या सरदी के दिनों में अपनी नानी के गाँव जाती तो कभी रेल से या कभी बस से, गाँव के बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पास-पास है वहाँ से कोई ताँगा या बैलगाडी से हम पाँच या सात किलोमीटर चलकर धूल भरे रास्ते से नानी के गाँव पहुंचते, वही गाँव की टूटी फूटी सडकें, सड़क के दोनों ओर खेत, छोटी सी पगडन्डीनुमा सड़क.......रास्ते में मिलने वाला हर व्यक्ति हमें नमस्ते जरूर करता, चाहे वह हमें जानता हो या न जानता हो, शायद यही गाँव का अपनापन होता है! रेल से उतरते ही एक लड़का मुझे जरूर मिलता उसका नाम था 'पोची' यह उसके प्यार का नाम था वैसे उसका असली नाम था ''मदन''
गाँव भर में मेरे पहुंचने की जितनी खुशी पोची को होती उतनी शायद मेरी नानी को भी नहीं होती, पोची मुझसे उम्र में बड़ा था, उम्र होगी उसकी कोई 15-16 साल, वहीं गाँव के बच्चों जैसा कुरता पायजाता, साधारण सी चप्पल और हमेशा हंसता हुआ चेहरा, जैसे ही हम स्टेशन/बस स्टैण्ड से बाहर निकलते हमारे स्वागत के लिये वह हमेशा खडा मिलता, हमारे सामान को बिना हमसे इजाजत लिये वह ताँगे या बैलगाडी में रखता हमारे बैठने के बाद वह हमारे ताँगे के साथ साथ भागता, जब मैं उससे कहती ''भैया तुम हमारे साथ बैठ जाओ तो मानों उसे खजाना मिल जाता और वही वहीं ताँगे के पिछले हिस्से में हमारे पैरों के साथ बैठ जाता और फिर बताता जाता गाँव भर की बातें, किसके खेत में गन्ने है, किसके घर बिजली लग गई, किसकी शादी हो गई, कौन पैदा हो गया, कौन मर गया, कितने मकान पक्के बन गए, गाँव की पंचायत का मुखिया कौन है, गाँव में कितने नल लग गए कितनों में पानी आता है कितनों में नहीं आता,..........मतलब यह कि उस पाँच-सात किलो मीटर के रास्ते में मुझे गाँव की सारी खबरों को बता देना उसका पहला काम था ।
पोची के न कोई भाई था, न बहन, न माँ, न बाप। एक बार नानी ने बताया था कि पोची के माँ-बाप एक बार गाँव में लगी आग के शिकार हुए थे जिसमें उसके माँ बाप दोनों ही मर गये थे, उस समय पोची की उम्र कोई 5 या 6 माह की रही होगी, गाँव की ही एक बुढिया ने उसे पाला पोसा था, अब वह भी मर चुकी है,। कहते है जो किसी के काम का नहीं वह सबके काम का....... अब पोची पूरे गाँव का था जिसने काम बताया उसका काम कर दिया जिसने खाने को दिया खा लिया, जिसने शादी में बुलाया चले गये जिसने नहीं बुलाया नहीं गए, गाँव का शायद ही कोई आदमी हो जिसका वास्ता पोची न पड़ता हो वह हिन्दू हो या मुसलमान, लोहार हो या सुनार सब पोची के रिश्तेदार थे, सब से उसका नाता था कोई चाचा तो कोई मामा, कोई नाना तो कोई नानी, भाई भाभी सभी रिश्तेदार थे पोची के............मतलब यह कि गाँव था तो पोची था, पोची था तो गाँव था, साम्प्रदायिक सौहार्द का जीता जागता उदाहरण था पोची ।
जब हम नानी के धर पहुंचते तो वह हमारा सामान दौड़-दौड़ कर अन्दर रखता, हमें ठण्डा पानी पिलाता, सर्दी में हमारे लिये धूप में चारपाई डाल देता और फिर उसका टेप चालू हो जाता, न जाने कहाँ से उसके पास बातों का खजाना आ जाता ।
जब हम आराम कर लेते तो मुझे और मेरे भैया को वह सारे गाँव में धुमाता और गाँव के लोगों को बडे शौक से बताता कि मैं सुबह ही रेलवे स्टेशन चला गया था वहाँ से ये लोग मेरे ही साथ आयें, मैं भी इनके साथ ताँगे में बैठा था मानों तांगे में बैठना उसके लिये कोई बहुत बडी उपलब्धि हो, फिर कभी हमें अमरूद खिलाता, कभी आम, कभी आँवला तोड़कर लाता, हमें खुश करने का भरसक प्रयास करता, उसे डर था कि अगर हम उससे नाराज हो गए तो उसकी दुनिया सूनी हो जायेगी। बडी मुश्किल से रात को नानी या मम्मी पापा उसे कहते कि जाओ अब आराम करो तो वह चला जाता और सुबह हमारे उठने से पहले हाजिर हो जाता ।
मुझे गाँव के जोहड़ (पानी का कच्चा तालाब) में लगे कमल के फूल से बहुत प्यार था, जब भी मैं गाँव जाती तो पोची के साथ जोहड़ पर जरूर जाती और जितने फूल वह तोड़ सकता तुड़वा लेती, यह हमारा हमेशा का काम था गाँव के और बच्चे भी हमारे साथ होते और पोची होता हमारा नेता ।
एक दिन हमेशा की तरह हम लोग जोहड़ पर गए, हमसे पहले वहाँ कुछ और बच्चे जो शायद किसी और गाँव के थे फूल तोड़ रहे थे आस पास लोग अपने अपने खेतों में काम कर रहे थे, जोहड़ में एक फूल किनारे से काफी दूरी पर था एक छोटा सा लड़का उस फूल को तोडने लगा तो तब भी फूल उसकी पहुंच से काफी दूरी पर था उसने हाथ बढ़ाया लेकिन फूल उसके हाथ नहीं लगा, वह पानी में उतर गया और धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा जोहड़ में कीचड़ था और वह बच्चा उस जोहड़ के दलदल में घॅंसने लगा साथ के बच्चे चिल्लाये बच्चा डूब रहा है, बच्चा डूब रहा है...........बचाओ............................ बचाओ, हम लोग भी दौड़कर वहाँ पहुंचे, आसपास के लोग भी पहुंच गये लेकिन उस दलदल में धॅसते बच्चे को बचाने के लिये कोई भी आगे नहीं आया............. और पोची उसने तुरन्त अपने कपड़े उतारे और उसे बचाने के लिये कूद पड़ा, किसी तरह से हाथ पैर मारकर वह बच्चे को किनारे ले आया बाकी लोगों ने उसे बाहर निकाल लिया........पोची भी जोहड़ से बाहर आ गया लेकिन उसकी टाँग से खून बह रहा था लोग उस बच्चे की बात पूछने लगे और पोची चुपचाप अपना खून साफ करने लगा लेकिन इसी बीच पोची का शरीर नीला पड़ने लगा शायद पानी के किसी ज़हरीले कीड़े या साँप ने उसे काट लिया था जहर इतनी तेजी से चढ़ा कि जब तक लोगों का ध्यान उसकी ओर जाता तब तक पोची जा चुका था......जहाँ से कोई वापस नहीं आता ।
...........फिर मैं वापस शहर आ गयी, अपनी पढ़ाई में लग गयी, लेकिन पोची को अब कोई याद नहीं करता न गाँव में न शहर में, उसे किसी की जान बचाने के लिये मरणोपरान्त न कोई पुरस्कार मिला न उसके नाम से कोई मेमोरियल बना,......... बस पोची की याद मुझे हैं और शायद अब वह भी धुंधली पड़ती जा रही है।
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RK Bhardwaj
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(चित्र – प्रहलाद मोहराना की कलाकृति – साभार : मानव संग्रहालय, भोपाल)
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