राजस्थानी पर्व "गणगौर " को दीनदयाल शर्मा के जन्मदिन पर कुछ लेखक मित्रों ने उन पर संस्मरणात्मक आलेख लिखें हैं - प्रखर व्यक्त...
राजस्थानी पर्व "गणगौर " को दीनदयाल शर्मा के जन्मदिन पर कुछ लेखक मित्रों ने उन पर संस्मरणात्मक आलेख लिखें हैं -
प्रखर व्यक्तित्व के धनी: दीनदयाल शर्मा
मझली कद काठी, सरल लेकिन सुग्राही दृष्टि के सामान्य चेहरा लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि के धनी श्री दीनदयाल शर्मा में बच्चों का सा उत्साह और उन्हीं का सा हठ है। हँसने-हँसाने को हमेशा आतुर अति संवेदनशील, जल्दी रूठने और मानने वाले। लम्बे संघर्ष के बाद भी युवकों जैसा जीवट लिए, युवाओं व प्रौढ़ों के मित्र, वृद्धजन के स्नेही और बच्चों के सखा। हृदय में उठी बात को आखिर कह देने को बेबस।
उनके पूरे व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना, उफनती नदी पर बांध बनाने के समान है। कहना मुश्किल है कि बाल साहित्य उनका लेखन है या जुनून। अपने घेरे से बाहर जाकर दूसरों की सहायता कर देना अथवा किसी $गलत बात का तीव्र विरोध कर देना उनकी स्वआवृतियाँ हैं। बच्चों के साहित्य लेखन के लिए जैसा मन और स्वभाव चाहिए उसी के धनी श्री दीनदयाल शर्मा इस यज्ञ में अपनी आहुतियाँ निरंतर दे रहे हैं। मैं इनके उ''वल भविष्य की कामना करता हूं।
राजेंद्रकुमार डाल,
आई-242, न्यू सिविल लाइन्स,
हनुमानगढ़ जं.-335512
मो. 9950815190
तारीख: 27 फरवरी 2010
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जीवन को उत्सव में बदल देता है दीनदयाल
राजस्थान के रेतीले गांव जसाना में जन्मे हिन्दी और राजस्थानी के वरिष्ठ रचनाकार जिन्होंने हास्य व्यंग्य, हास्य कविताओं से हमें गुदगुदाया। लेकिन बाल सुलभ मन ने बच्चों को उसका बचपन में हारसिंगार के फूल देना व वाणी में मधु टपकाना ज्यादा उचित समझा।
तीन दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता व कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित दीनदयाल शर्मा ने बालकों के खिलंदड़पन व बाल सुलभ मन को तितली की तरह उडऩे के लिए एक पाक्षिक पत्रिका टाबर टोल़ी का संपादन आरम्भ किया। आज यह टाबर टोल़ी बच्चों का एकमात्र अ$खबार है जो अपनी एक अलग पहचान रखता है।
अखिल भारतीय स्तर पर बाल साहित्यकारों में अपनी पहचान बना चुके दीनदयाल शर्मा बाल मनोविज्ञान के मर्मज्ञ तथा बाल चेष्टाओं के कुशल चितेर ही नहीं बालक मन की उलझन चंचलता और उल्लास की अभिव्यक्ति में अग्रणी रचनाकार है। यह रचनाकार लम्बे समय से निरंतर शब्दों में मधु टपका रहा है। वीणा की तरह शब्दों का सत्य बता रहा है। जिसे कोई गुमान या मुगालता नहीं है। एक सीधा-साधा सा रचनाकार जो जीवन में टाबर टोल़ी का अंक हाथ में लेकर जीवन को एक उत्सव में बदल देता है। दीनदयाल शर्मा वह रचनाकार है जो एक बालक को अपने भीतर हमेशा से रखते आए हैं तभी तो बच्चों को सहज और सरल शब्दों में बाल मन को भाने वाला साहित्य देते हैं। बाल साहित्य में बहुत लिखा गया है परन्तु किशोरों के लिए बहुत कम लिखा गया है। लेकिन दीनदयाल प्रशंसा के पात्र हैं। जिन्होंने इसी उद्देश्य के लिए सपने व अंग्रेजी में द ड्रीम्स की रचना की।
बालमन के पारखी दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखा गया साहित्य आज के समाज के लिए एक अमूल्य धरोहर है।
एक विशेषता और है कि वह अपना निजी सुख-दुख पाठकों का सुख-दुख एक समान मानते हैं। वह भी बहुत सहजता से जब भी कोई बच्चा हंसता मुस्कुराता खेलता और रोता मिलता है तो वे झट से अपना कैमरा निकाल कर बच्चे बन जाते हैं। मेरी दुआ है वह हमेशा बच्चे बने रहे बच्चों के लिए।
- नरेश मेहन
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एक हंसता हुआ बेचैन आदमी: दीनदयाल शर्मा
आम पाठक जिस कदर रचना के माध्यम से किसी साहित्यकार से रूबरू होते हैं शायद उससे भिन्न तरह से साक्षात्कार की कल्पना सहज ही नहीं हो सकती। औचक एक प्रतिबिम्ब तारी हो आता है जैसे ! धीर-गम्भीर चेहरा और भारी-भरकम शब्दावली ! पर नहीं भाई दीनदयाल जी का नाम आते ही बरबस एक पुलक दौड़ आती है भीतर। सामने होता है एक हंसता हुआ जिन्दादिल आदमी।
हिन्दी और राजस्थानी में दशकों से सृजनरत दीनदयाल जी जाने अपने भीतर कहीं न केवल पाठकों को बल्कि मित्रों को खोजते रहतें हैं। बच्चों के लिए लिखते हुए भी बड़ों को अपने साथ मिलाते चलना उनकी साधना ही तो है। तभी तो उनकी सृजन-गंगा में बराबर दोस्ती का पानी बहता रहा है ! लेखकीय विचारधारा की प्रांसगिकता के दुमुंही दिशा से इतर वे जीवन की दिशा तय करते होंगे शायद ! हनुमानगढ़ जिले के एक छोटे से गांव जसाना में जन्मे दीनदयाल जी की रचनाएँ न केवल हनुमानगढ़-गंगानगर या राजस्थान में बल्कि पूरे उत्तरी भारत में जिस प्यार से पढ़ी जाती हैं वह सब उनकी प्यारी-न्यारी रचनाओं के साथ-साथ उनके स्वयं के नमनशील, हंसमुख, प्रकृति व प्रवृति के संयोजन तथा मनुष्यत्व के उन्नयन में गहरी आस्था रखने का ही बायस है। वैसे बाल-सृजन उनके लिए कोई लक्ष्मणरेखा नहीं है। कहानी, कविता, नाटक और व्यंग्य भी उनके चहेतों की संख्या में इजाफा करते हैं।
कवि गोष्ठियों में दीनदयाल जी न हों ऐसा कम ही होता है। उनकी नन्हीं-नन्हीं कविताएँ एक-दूसरे का हाथ थामे दूर तक निकल जाती हैं, जो कभी-कभी तो चुटकलों के कलेवर को उतार कर चुपके-से गम्भीर व और चुटीली होकर श्रोताओं के भीतर किसी खाली कोने को तलाश कर लेतीं हैं। यही तो है उनकी सृजन-सरणी, जहां किसी प्रकार का साहित्यिक जंजाल नहीं है बल्कि एक स्पेस है, सहेजन है जिसे किसी औपचारिक प्रकाशन की दरकार है। ठीक यहीं उनकी हंसती हुई अभिव्यक्ति की बेचैनी साफ झलक पड़ती है। यह बेचैनी वैयक्तिक नहीं है, यह वेदना हंसीयुक्त प्रलाप भी नहीं है। यह तो वह बुनियाद है जहां सामाजिक चिन्ता साझा हो जाना चाहती है।
वैसे यदि प्रकाशन की ही बात की जाए तो सन् 1975 से लेकर अब तलक प्रकाशित दसियों पुस्तकों के एक से अधिक संस्करण जिस तस्वीर को प्रकाशित करते हैं वह किसी से छुपी नहीं है।
राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा साहित्य एँव संस्कृति अकादमी बीकानेर की बात हो चाहे उत्तराचंल से श्रेष्ठ बाल-साहित्य के राष्ट्रीय पुरस्कार की, ढेरों पुरस्कार मिलने के बावजूद भी मिलते ही आपको लगेगा अभी आप उन्हीं 1975 वाले दीनदयाल जी के सामने बैठे हैं। मिल-बैठते हैं, बतियाते हैं ! और वही भी बिना किसी सेतु के, बिना किसी अबोलेपन-अनजानेपन को महसूसते। एक खयाल आएगा, शायद आप ही का इन्तजार था उन्हें। बातों ही बातों में चुटकले, कविताएँ और क्षणिकाओं का ऐसा समां बंधता चला जाएगा कि आप स्वयं को एकबारगी उनकी जगह बैठा महसूस करेंगे। शब्द उनके लिए एक काठ का टुकड़ा हो जैसे , और वे एक कुशल-समर्पित कारीगर की नांई तराशते जाते हों जैसे। वैसे देखा जाए तो उनकी हर एक रचना, चाहे वह हो किसी भी विधा में, सम्पूर्ण काव्यात्मक आभास लिए होती है। जहां हास्य कविताओं या क्षणिकाओं के तेवर में समकालीन कविता की बेचैनी साफ महसूसी जा सकती है, वहीं बच्चों के लिए उनकी पीड़ा ‘टाबर टोली’ अखबार के रूप में चिन्हित की जा सकती है। जिस बुनियादी लड़ाई की बात आज हर एक कोने से बुलंद किए जाने की कोशिश की जा रही है, उसमें ‘टाबरटोली’ को एक नींव का पत्थर ही कहा जा सकता है। सही बात तो यह है कि दीनदयाल जी ‘टाबरटोली’ में बाल रचनाएँ या बच्चों द्वारा रचित रचनाएँ देकर तथाकथित किन्हीं बड़े प्रश्नों या समय के कठोर सत्यों को उद्घाटित करने के प्रामाणिक व विश्वसनीय माध्यमों को चीन्हते नहीं लगते बल्कि गोमुख से साहित्य-गंगा के ओज बहाव को सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं। उनका यही समर्पण, निष्ठा और एकला चलो रे जैसी जिजीविषा उन्हें हमारे समय का एक महत्वपूर्ण (बाल) कवि बनाती है।
-पूर्ण शर्मा ‘पूरण’
प्रा0 स्वा0 केन्द्र रामगढ़
09828763953
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निरंतर लेखन में कार्यरत दीनदयाल शर्मा
- दर्शन सिंह ’आशट’ (डॉ)
जब हम बाल साहित्य की बात करते हैं तो बचपन खुद ब खुद आंखों के सामने आ जाता है लेकिन दादा दादी या नाना नानी और मां, जो लम्बी लम्बी दिलचस्प कहानियाँ सुनातीं थीं, वह धरोहर अब कहीं लुप्त होती जा रही है। कहां गईं दूध मलाई जैसी लोरियाँ ? कहां गईं देर रात तक सुनाई जाने वाली कहानियाँ ? हम यह कहते हुए नहीं थकते कि वर्तमान सदी में बच्चा’ केन्द्र में रहेगा। यूनीसेफ का भी ऐसा ही मानना है। लेकिन वास्तव में बच्चे की स्थिति क्या है? उसके मनोरंजन के लिए कैसा साहित्य लिखा जा रहा है ? जो कुछ ’बाल साहित्य’ के नाम पर धड़ाधड़ लिखा जा रहा है क्या सही मायनों में वही बाल साहित्य है ? इस विषय पर चिंता व्यक्त करने वाले मुट्ठी भर लोग हैं जिन्हें अपनी कौम के बच्चों के भविष्य की चिंता है। ऐसे लोग बिना किसी स्वार्थ-भावना के अपनी कलम को साधना समझकर काम कर रहे हैं। उर्दू जुबान का एक शे’र है:
परिंदों को मिलेगी मंजिल एक दिन,
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं।
वही लोग खामोश रहते हैं अकसर,
जमाने में जिनके हुनर बोलते है।
कुछ ऐसे लोगों को मैं भी नजदीक से जानता हूं जो खामोशी के आलम में अपने काम में जुटे रहते हे। और उनके सृजनात्मक कार्यों के हुनर की चर्चा कहीं न कहीं जरुर कानों में पड़ती रहती है। निरंतर कार्य साधना में जुटे ऐसे ही कर्मठ व्यक्तियों में एक नाम है श्री दीनदयाल शर्मा। हंसमुख चेहरा। चुटकुलों और हास्य भरी बातों से वातावरण में ठहाकों का रंग बिखेरना उनकी फितरत का हिस्सा है। यह शख्स बाल साहित्य और बाल पत्रकारिता के क्षेत्रों में पिछले दो दशकों से भी ज्यादा अर्से से कार्यशील है।
श्री दीनदयाल शर्मा से उनकी रचनाओं के माध्यम से परिचित तो पहले ही था लेकिन पहली बार उनसे मेरी मुलाकात लगभग आठ वर्ष पूर्व हरिद्वार हुई थी जहां हम भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर द्वारा आयोजित समागम में भाग लेने के लिए गए हुए थे। डॉ राष्ट्बन्धु जी और नंदन के भूतपूर्व संपादक श्री जयप्रकाश भारती समेत भारत के बहुत से प्रान्तों के काफी लोग वहां पर मौजूद थे। अचानक मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा। मैंने मुड़कर पीछे देखा, एक खूबसूरत शख्स मुसकुराता हुआ पूछ रहा था, पहचाना ? दीनदयाल शर्मा।’’
अरे वाह !’’ मैंने कहा और फिर एक दूसरे को बगल में ले लिया। समागम में उसने अपनी रचनाओं का पाठ भी किया। जब मैंने पंजाबी में अपनी बाल कविताएँ सुनाईं तो राजस्थान के एक और बालसाहित्य लेखक भाई को पता नहीं क्या हुआ। लगे बोलने, “मैं आशट जी की इन कविताओं को बाल साहित्य नहीं मानता। इन में यह बात नहीं, इन में वह कमी है। कविता ऐसी होनी चाहिए, वैसी होनी चाहिए। फलां फलां ।’’
मैं सुनता रहा। काव्य गोष्ठी समाप्त हुई तो दीनदयाल शर्मा जी ने मुझे संकेत करके एक तरफ बुलाया बोले, “वास्तव में कई लेखकों में दूसरों की रचनाओं की प्रशंसा बरदाश्त करने का हाजमा खराब होता है। ये भाई साहब भी उनमें से एक हैं। जानबूझ कर दूसरों के साहित्य में खामियाँ निकालना इनकी पुरानी आदत है। ऐसा करके खुद दूसरों की हल्की फुल्की प्रशंसा और ध्यान खींचना चाहते हैं। ऐसे लोगों की परवाह मत करो। हमने अपनी डगर पर चलते जाना है। मेरे साथ अकसर ऐसा होता है।’’ दीनदयाल शर्मा के इन बोलों से मुझे कुछ धैर्य मिला और एक बात यह भी सीखने को मिली कि जो लोग सही आलोचना करते हैं उनकी आलोचना को ध्यानपूर्वक अपना कर अपने लेखन में और सुधार लाना चाहिए लेकिन जो लोग जानबूझ कर फोकट आलोचना का रौब डालकर अपने आप को तीस मार खां समझने की कोशिश करते हैं उनकी परवाह न करके अपने सफर की ओर चलते रहना चाहिए जैसे देवेन्द्र सत्यार्थी ने कहा है, ’’चरैवेती चरैवेती’ अर्थात चलते रहो चलते रहो।
इस मुलाकात के बाद दीनदयाल शर्मा के साथ भारत के विभिन्न प्रान्तों और शहरों में मुलाकातें होती रहीं। कभी दिल्ली, कभी श्रीगंगानगर, कभी राष्ट्रपति भवन, कभी... । और नहीं तो गोविंद शर्मा जी के माध्यम से उनका जिक्र चलता रहता है।
वास्तव में दीनदयाल शर्मा एक सृजनात्मकता का नाम है। 1975 से वह हिन्दी व राजस्थानी में सतत् सृजन करते आ रहे हैं लेकिन आज से सात वर्ष पूर्व जब उन्होंने बच्चों के लिए देश के पहले पाक्षिक अखबार ’’टाबर टोली’’ का प्रकाशन आरम्भ किया था तो उस अखबार ने न केवल हिन्दी या राजस्थानी भाषाओं के बाल साहित्यकारों को ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्यकारों और बच्चों से भी गहरा नाता जोड़ लिया। नई पुरानी पीढ़ी के बहुत से स्थापित बालसाहित्य लेखक ’टाबर टोली’ में प्रकाशित हो चुके हैं। टाबर टोली भले ही सीमित पृष्ठों का अखबार है लेकिन दूर दूर तक पैगाम देने की दृष्टि से इस अखबार की अपनी प्राप्ति है। शर्मा का समस्त परिवार भी इस अखबार में अपने कालमों और विभिन्न रचनाओं के माध्यम से पाठक गण तक पहुंचता रहता है। सबसे बड़ी बात यह कि अपने सीमित साधनों के बावजूद भी दीनदयाल ने इस का प्रकाशन नियमित बनाया हुआ है।
कुछ समय पूर्व मेरी नजर में एक ऐसा पूर्णतः: बाल मनोवैज्ञानिक एकांकी ’सपने’ आया जिस के माध्यम से हमारे महामहिम पूर्व राष्ट्रपति डा ए पी जे अब्दुल कलाम साहब अनोखे किस्म का सार्थिक सामाजिक वातावरण पैदा करने का सपना लेते हैं। इस बाल एकांकी में जागृति, विकास, हनीफ, मस्तान सिंह, डेविड, आशा, विनोद और सपना जैसे छोटी आयु के बच्चों के माध्यम से अभिभावकों के सामने एक गम्भीर प्रश्न रखा गया है कि यदि समाज को एक अच्छे और नमूने का बनाने की तमन्ना दिलों में है तो उन्हें बच्चों द्वारा लिए गए सार्थिक सपनों को हकीकत में बदलने के लिए प्रयास जुटाने होंगे। जैसे हमारे महामहिम राष्ट्रपति कलाम साहब ने कहा है कि सपने वो नहीं होते जो हमें नींद में आते हैं,
सपने तो वह होते हैं जो हमें सोने न दें। एक दूरदृबिट बाल एकांकी का पंजाबी में अनुवाद करके मुझे खुशी अनुभव हुई।
मैं दीनदयाल शर्मा के साहित्यिक और बाल पत्रकारिता हेतु किए जा रहे नेक कार्यों की प्रशंसा करके उनके रास्ते में रुकावट पैदा नहीं करना चाहता, क्योंकि मैं जानता हूं अभी दीनदयाल शर्मा ने बहुत आगे जाना है। अनेक मान सम्मानों से पुरस्कृत और सम्मानित शर्मा के लिए मैं इतना जरुर कहना चाहूंगा कि बच्चों के साहित्य में जो उम्मीदें मैंने उन से लगाईं हैं, वे उनको जरुर पूरी करेंगे। श्लोक है
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतंगमय।
अर्थात हे ईश्वर् मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जाएँ। अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाएँ। मृत्यु से अमरता की ओर ले जाएँ।’ इसी प्रसंग में मैं अपने दोस्त के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हुआ कहना चाहूंगा कि भगवान उनकी कलम को इतना सम्बल प्रदान करे कि वह अज्ञान रुपी अंधेरे को चीरती हुई ज्ञान विज्ञान की रोशनी विश्व के बच्चे बच्चे में बांटने में सफल हो।
-ई टाईप, पंजाबी विश्वविद्यालय कैम्पस, पटियाला-147 002 (पंजाब)
मोबाइल नंबर 09814423703
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दीनदयाल शर्मा शिक्षक और पत्रकार अर्थात् सोने पर सुहागा
शिक्षक जो बच्चों को ज्ञान देता है, वह स्वभावत: विनम्र और मननशील होता है। वह देख के भावी नागरिक तैयार करता है। यदि वह देश के भावी नागरिक तैयार करता है। यदि वह पत्रकार भी हो तो उसकी पैठ समाज और देश की हलचलों में भी हो जाती है और वह देश और समाज का प्रहरी और निर्माता बन जाने की राह का राही भी हो जाता है। हुई न सोने पर सुहागा वाली बात।
श्री दीनदयाल शर्मा मूलत: शिक्षक हैं। उनका कार्य क्षेत्र पाठशाला तक सिमट कर रह जाता यदि उनमें समाज का सेवक बनकर काम करने की लगन न होती। तब उनसे मेरी भेंट भी कैसे होती। मेरा निवास जयपुर और उनका हनुमानगढ़ जं.। कुछ मैं चला अपने क्षेत्र से बाहर, लेखक बनने का सपना लेकर, कुछ उन्हें ललक हुई लेखन कला पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ाने की। तब संयोग बना कि हम दोनों पहली बार वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में बालवाटिका पत्रिका के एक साहित्यिक आयोजन में मिले और वह परिचय परवान चढ़ता गया। कई वर्ष बाद मुझे दीनदयाल जी से दोबारा पिलानी के एक बालसाहित्य कार्यक्रम में दो दिन के लिए मिलना हुआ। उसमें हिन्दी बाल जगत के कई दिग्गज लेखक और विद्वान पधारे थे, जैसे कानपुर से बाल साहित्य के पुरोधा डॉ.श्रीकृष्णचन्द्र तिवारी ‘राष्ट्रबन्धु’ और दिल्ली से नन्दन के संपादक डॉ.जयप्रकाश भारती जी, भीलवाड़ा से भी कई साहित्यकार बन्धु इस सम्मेलन में भागीदारी के लिए आए थे। उनमें डॉ. भैरूंलाल गर्ग संपादक बालवाटिका भी थे। उस समय भाई दीनदयाल जी अपने लेखकीय मार्ग पर अग्रसर हो चुके थे।
श्री दीनदयाल जी से समय-समय पर मिलने का सिलसिला चलता रहा और एक बार बाल गंगा, जयपुर के एक स्मृति सम्मान समारोह में पधारकर उन्होंने मुझे आनंदित किया। वे वर्ष 2008 , 4 अगस्त को इलाहाबाद में हुए मीरा स्मृति सम्मान समारोह में भी मुझे मिले, जो साहित्य भंडार, प्रयाग के एक बड़े प्रकाशक श्री सतीशचन्द्र अग्रवाल ने अपनी दिवंगत पत्नी पुण्यात्मा मीरा अग्रवाल की स्मृति में डॉ.राष्ट्रबन्धु की संस्था बाल कल्याण संस्थान, कानपुर के सहयोग से 4 अगस्त 2008 को आयोजित किया था। उल्लेखनीय है कि उस सम्मेलन में बाल काव्य कृति ‘बाल गीत गंगा’ तथा मीरा स्मृति प्रथम सम्मान पुरस्कार मुझे प्रदान किया था। उस समय श्री दीनदयाल शर्मा (मानद साहित्य संपादक ) ने अपने पाक्षिक अखबार टाबर टोली की वहां खूब सारी प्रतियाँ बंटवाई। जिसे देशभर से पधारे साहित्यकारों-पत्रकारों ने सराहा।
श्री शर्मा की प्रगति का रथ उनके टाबर टोल़ी के नियमित प्रकाशन के साथ निरंतर अग्रसर है।
इनमें शिक्षक, लेखक, संपादक और प्रकाशक के साथ-साथ अच्छे समीक्षक के गुण मुझे प्रसन्नता होती है। जब मैं उनके अ$खबार में अपनी कविताएँ और पुस्तक समीक्षाएँ छपे हुए देखता हूं। यह पाक्षिक अखबार अब बच्चों की मैगज़ीन का रूप ले चुका है। इसमें कविताएँ, कहानियाँ, चुटकुले, पहेलियाँ, बूझो तो जाने, दिमागी कसरत, शुद्ध शब्द लेखन आदि स्तंभ बच्चों का भरपूर मनोरंजन करने क लिए पर्याप्त बालोपयोगी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। इस कारण टाबर टोल़ी समाज, शिक्षण संस्थाओं, पंचायतों और ग्राह्य विकास कार्यकर्ताओं से सभी से गहराई से जुड़ गया है। इसको श्रेय भाई दीनदयालजी के प्रतिभावान एवं कर्मठ व्यक्तित्व को है। मैं उनकी निरंतर प्रगति और समृद्धि की कामना करता हूं। -
सीताराम गुप्त, जयपुर, दिनांक : 26/2/2010
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ऊर्जावान रचनाकार : दीनदयाल शर्मा
पांच मार्च, 2006 : मैं जयपुर के अजमेर रोड क्षेत्र के एक होटल जैसे गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। सुबह-सुबह कमरे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो चुस्त-दुरुस्त व्यक्ति के दर्शन हुए। बोले, ‘‘मैं दीनदयाल शर्मा, हनुमानगढ़ से....आप?’’
मैं भगवतीप्रसाद गौतम कोटा से....आइए। मेरे आग्रह पर वे पास के बेड पर बैठ गए और कहने लगे, ‘‘कैसा संयोग है कि स$फर के दौरान जिनके बारे में सोचता आया, सबसे पहले उन्हीं से भेंट हुई।’’
यह प्रसंग जुड़ा था ‘बाल चेतना’...के वार्षिक सम्मान समारोह से। बाल चेतना...बाल साहित्यकारों की राष्ट्रीय संस्था, जिसके सचिव हैं जाने माने हस्ताक्षर डॉ.तारादत्त निर्विरोध। मुझे भगवतीप्रसाद गौतम, दीनदयाल शर्मा हनुमानगढ़, डॉ.दर्शनसिंह आशट पटियाला, डॉ.अजय जनमेजय बिजनौर, डॉ.उदयवीर शर्मा बिसाऊ और कमला रत्न जयपुर को यहां सम्मानित किया जाना था। इस मुलाकात से पहले भाई दीनदयाल शर्मा का नाम ही सुना था। उनकी पुस्तक भी नहीं देखी थी। लेकिन उस दिन उनकी सक्रिय संवाद-पटुता ने मुझे बरबस ही छू लिया था। किसी भी रचनाकार को पढऩे-लिखने की प्रेरणा भले ही कहीं से भी मिले। मगर जब तक भीतर की ऊर्जा जागृत नहीं होती, रचनाकार क्या रचेगा। कैसे रचेगा-लिखेगा। किन्तु शर्मा जी की ऊर्जा ने तो उन्हें लेखक ही नहीं, कवि भी बना दिया। ...और वही केवल हिन्दी का नहीं बल्कि राजस्थानी का भी।
1975 से सतत् सृजन करते हुए उन्होंने कहानी, कविता व नाटक जैसी विधाओं में दो दर्जन के लगभग कृतियाँ बाल पाठकों के लिए रचीं। वे इतने सामर्थ्यवान साबित हुए कि बाल कथा संग्रह चिंटू-पिंटू की सूझ पर उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी के शंभूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार 1988-89 से नवाज गया। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर द्वारा भी शंखेसर रा सींग बाल नाटक पर जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार 1998-99 दिया गया। यों देखा जाए तो दीनदयाल विशिष्ट व्यक्तित्व और अद्भुत कृतित्व के धनी हैं, समय की रफ्तार को समझते हैं और उसके अनुकूल ही पांव बढ़ाते चलाते हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम की सोचके अनुरूप रचित उनका बाल नाटक द ड्रीम्स का विमोचन भी महाहिम के कर-कमलों से होना एक गरिमामयी उपलब्धि रही।
शर्मा जी बाल पाक्षिक टाबर टोल़ी के मानद साहित्य संपादक भी हैं। इनकी मिलनसारिता के कारण देश के अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार अपनी कलम से सतत् सहयोग देते रहते हैं। वैसे भी वे बच्चों की मानसिकता को समझते हैं। और उनकी जरूरतों पर पैनी नज़र रखते हैं। इसीलिए उनकी रचनाएँ बालकों के स्तरानुकूल बन पड़ती हैं। जैसा सहज सरल उनका व्यक्तित्व है, वैसा ही पठनीय-सराहनीय है उनका कृतित्व। चाहे चिंटू-पिंटू की सूझ व पापा झूठ नहीं बोलते जैसी कथा पुस्तकें हों या कर दो बस्ता हल्का व सूरज एक सितारा है जैसे बाल काव्य संग्रह। चाहे द ड्रीम्स जैसा अंग्रेजी बाल नाटक हो या चंदर री चतराई जैसी राजस्थानी कथा कृति। जहां उनमें कथ्य की मौलिकता पाठकों को आकृष्ट करती है, वहीं शिल्प भी प्रभावित किए बिना नहीं रहता। बोधगम्य एवं प्रवाहमयी भाषा के साथ आंचलिक शब्दों तथा प्रचलित मुहावरों-लोकोक्तियों का प्रयोग उनकी रचनात्मकता को अधिकाधिक रोचक व सार्थक बना देता है।
सच तो यह है, एक विशेष बोझिल गांभीर्य ओढक़र जीने की आदत दीनदयाल ने पाली ही नहीं। वे मुस्कराते हैं, हँसते हैं और खिलखिलाते हैं तो अपनी कलम के बूते वैसी ही जीवंत रचनाएँ भेंट करने का दायित्व भी ईमानदारी से निभाते हैं। चुस्त- सूरत और मस्त सीरत के स्वामी का सान्निध्य आज भी प्राप्त है। प्रत्यक्ष नहीं तो कम से कम सप्ताह में दो-तीन बार फोन पर बात हो ही जाती है। सफर जारी रहे....हार्दिक मंगल कामनाएँ।
-भगवतीप्रसाद गौतम, 1-त-8, दादाबाड़ी, कोटा, राजस्थान, फोन : 0744-2504165, मोबाइल: 9461182571
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खुशी के हर मौके पर बधाई देने वालों में सबसे अग्रणी
एक व्यक्ति बहुत अच्छा कवि, साहित्यकार, डॉक्टर, नेता, अध्यापक हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह एक बहुत अच्छा इंसान भी हो। लेकिन मैं एक ऐसे कवि व बाल साहित्यकार को जानता हूं, जिसमें अच्छे इंसान के गुण भी शामिल हैं, और वो हैं श्री दीनदयाल शर्मा।
इस साहित्यकार ने बाल साहित्य को सिर्फ लिखा ही नहीं है बल्कि उसे समाज में बच्चों की पीड़ा उजागर करने के वास्तविक प्रयास से भी जोड़ा है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण 1986 में ‘राजस्थान बाल कल्याण परिषद्’ की स्थापना करना है।
इनका एक असाधारण गुण जो मैंने देखा है वो हर समय नये साहित्यकारों की सहायता करना। प्राय: एक साहित्यकार नये साहित्यकारों को मन से सहयोग नहीं करते हैं। लेकिन श्री शर्मा इसके बिल्कुल अपवाद हैं। जब भी कोई नया साहित्यकार अपनी रचना के सन्दर्भ में इनसे बात करता है, ये पूरे मन से उस रचना की खूबियाँ एवं कमियाँ उस साहित्यकार को बताते हैं। उसमें प्रोत्साहन का संचार करते हैं और पूरे मन उसकी प्रशंसा करते हैं। बाल मनोविज्ञान को समझकर ही कोई व्यक्ति बाल साहित्य का सृजन कर सकता है और बाल मनोविज्ञान को समझना, किसी साधारण व्यक्ति के स्तर का कार्य नहीं होता है। परन्तु दीनदयाल शर्मा जो एक ऐसी पृष्ठ भूमि के व्यक्ति हैं, जहां परिवार में साहित्य से जुड़ा कोई व्यक्ति नहीं था, ऐसे गांव में बचपन बीता, जहां साहित्य का कोई वातावरण नहीं था। फिर भी बाल-साहित्य में इन्होंने जिस बाल-मन का वर्णन किया है वह बाल साहित्य का सर्वोच्च सोपान है और यह बात इससे सिद्ध होती है कि इनको बाल साहित्य के देश के लगभग सभी पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। जिसमें राजस्थान साहित्य अकादमी का शंभुदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार (1988-89) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार (1998-99) चन्द्रसिंह बिरकाली राजस्थानी बाल साहित्य पुरस्कार चित्तौडग़ढ़ (1999) सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य पुरस्कार देहरादून (2001) आदि। दर्जनों साहित्य की पुस्तकें, आकाशवाणी से अनेक नाटकों का प्रसारण, हर काव्य मंच पर काव्य पाठ, ऐसी अनेक उपलब्धियाँ हैं, जो श्री शर्मा का नाम सारे देश में प्रसिद्ध कर रही हैं। इनकी पुस्तक ‘‘द ड्रीम्स’’ जो देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की थीम पर आधारित है। जिसका विमोचन स्वयं डॉ. कलाम ने किया था। बाल साहित्य में एक मील का पत्थर है।
बाल साहित्य ही नहीं बल्कि नाटक, झलकी, हास्य कविताएँ, गंभीर कविताएँ आदि में भी इनका अमूल्य योगदान है। मंच पर जब श्री शर्मा अपनी हास्य क्षणिकाओं को प्रस्तुत करते हैं तो वृद्ध व जवान भी बच्चों जैसी निश्छल हंसी से लोट-पोट हो जाते हैं। माइक पर बार-बार श्री शर्मा को आमंत्रित करने का आग्रह किया जाता है। अनेकों उपलब्धियाँ प्राप्त यह व्यक्ति मिट्टी से जुड़ा रहना ही पसन्द करता है। साहित्यकार को थोड़ी सी प्रशंसा या छोटा सा एक पुरस्कार घमण्डी बना डालता है। लेकिन आप अगर दीनदयाल शर्मा से मुलाकात करते हो तो आपको कहीं भी यह आभास नहीं होगा कि आप एक राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार के साथ बैठे बातें कर रहे हैं। यह बाल साहित्यकार अपनी इतनी ऊंची उड़ान के बावजूद भी, अपने मित्रों अपने गांव को हमेशा अपने दिल के करीब रखता है, और मैं तो यह कहूंगा कि यह अपने-आप में एक अजूबा है कि आज इस स्वार्थी युग में दीनदयाल शर्मा अपने हर मित्र, रिश्तेदार, साहित्यकार को उसके खुशी के हर मौके पर, चाहे जन्मदिन हो, विवाह की वर्षगांठ हो, साहित्य की कोई उपलब्धि हो उसे सुबह-सुबह शुभकामना देना नहीं भूलते। यह बात इस व्यक्ति के मन की निश्छलता को व्यक्त करती है। जो आज के युग में ढूंढऩा कितना मुश्किल है। सभी जानते हैं।
जो बातें मैंने कही है उनमें कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि सहयोग और सेवा, साहित्य के अतिरिक्त इनका एक गुण है, जो भी इनके सम्पर्क में आता है इनके सरल, सहज साहित्य की तरह इनके सरल, सहज व्यवहार का भी कायल हो जाता है। अत: मैं इनकी प्रतिभा से, साहित्य जगत के लिए, समाज के लिए और भी बहुत सी अपेक्षाएँ करता हूं और मुझे पूरा विश्वास है ये अपनी कलम से समाज व बाल साहित्य को नित नई ऊंचाइयाँ प्रदान करते रहेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
- सतीश गोल्यान, जासना
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चाचा नेहरू की ही भांति,
तुम बच्चों के प्यारे हो: दीनदयाल
नव उल्लास, विश्वास लेकर, शिक्षक दिवस आज है आया।
अरुणिम सूरज की किरणों ने, अवनि पर प्रकाश फैलाया।।
भोर का सूरज उदित हुआ, लिए हुए इक नूतन लाली।
श्रद्धा दीप ले आई परियाँ, संग लायी पूजन की थाली।।
मंगलगान का दौर चला है, कभी नहीं जो थमने वाला।
तुम ही हो वो कुशल-निर्माता, जिसने सबको सांचे में ढाला।।
तराश-तराश पाषाणों को, तुम देते हो सुधड़ आकार।
तलाश-तलाश प्रतिभाओं को, तुम देते हो उन्हें निखार।।
कर्मयोग के सुन्दर पथ पर, तुम आगे चलने वाले हो।
भाग्य की रेखाओं को तुम, कर्म से बदलने वाले हो।।
भाव-विचार के सुमनों से, पुष्पित-पल्लवित उपवन है।
और उन्हीं की सौरभ से, सुरभित सबका जीवन है।।
थामी अंगुली जिनकी तुमने, वही आगे चल पाते हैं।
शब्द दिये थे उनको तुमने, तभी तो कुछ कह पाते हैं।।
चाचा नेहरू की ही भांति, तुम बच्चों के प्यारे हो।
भावों से हो ओत-प्रोत तुम, रचना-कौशल में न्यारे हो।।
आज के दिन बस यही दुआ है, खुशियों का वरदान मिले।
हर मन्जिल पर राज तुम्हारा, वैभव मिले और मान मिले।।
साहित्य के आकाश में गुरुवर, सदा चमकना बन के दिनकर।
सबके पथ को उजला करना, जलते रहना दीपक बनकर।।
- कमला, 5 सितम्बर 2004 को सृजित रचना
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बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा
बाल साहित्य नाम सुनते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐ ऐसा साहित्य जो बालमन, बाल मस्तिष्क एवं बाल हृदय के अनुरूप लिखा जाता हो। कहने को तो भारतभूमि में बाल साहित्यकारों की बाढ़ आयी है। आज की स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि हर कोई बाल साहित्य रूपी मन्दाकिनी में प्रविष्ट होना चाहता हे। इस सन्दर्भ में अच्छी बात यह है कि इससे बालसाहित्य की लोकप्रियता का आभास होता है। वर्तमान युग में बालसाहित्य काफी चर्चित एवं लोकप्रिय हुआ है। किन्तु बुरी बात यह है कि हर कोई कलम कागज के साथ बाल साहित्य में अपनी सहभागिता निभाने के लिए उतावला हो रहा है। यही कारण है कि बालसाहित्य जिस स्तर का आना चाहिए वह स्तर नहीं बन पा रहा है, इससे बाल साहित्य के अग्रणी पुरोधाओं के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक है। उन अग्रणी बाल-साहित्यकारों में एक नाम हनुमानगढ़ के दीनदयाल शर्मा का है। श्री शर्मा ल�बे समय से बालसाहित्य की सेवा कर रहे हैं। कई संगोष्ठियाँ, सम्मेलनों एवं कॉन्फ्रेंसों में उन्हें सुनने को मिला है। जिससे उनकी खूबियों का अहसास हुआ है।
श्री शर्मा बच्चों के लिए लिखते हैं तो बाल मन, बाल मस्तिष्क एवं बाल हृदय को मानो आत्मसात कर लेते हों। लोग कहते हैं बच्चों के लिए लिखने में क्या है? संभवत: ऐसे कथन एवं ऐसे लोगों द्वारा सचेत बालसाहित्य ही बालसाहित्य जगत के खण्डित कर रहे हैं। बिना बालमनोविज्ञान को समझे बच्चों के लिए लिखना हवा में तीर चलाने जैसा है। श्री शर्मा की खूबी है कि वे बच्चों के लिए लिखते समय बच्चा बनकर ही सोचते हैं और उस चिन्तन से बच्चों के अनुसार शब्द देकर बालसाहित्य का सृजन करते हैं। हम सभी जानते हैं कि बालक का हृदय मोम की तरह होता है उसे जैसा चाहें पिघला सकते हैं अत: ऐसे मुलायम हृदय पर प्रहार करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए अपितु उस पर मरहम लगाने की कोशिश होनी चाहिए। यों तो श्री शर्मा जी बालमन एवं बालहृदय को समझकर उनके अनुरूप ही बालसाहित्य का सृजन करते हैं किन्तु उनकी एक विलक्षण खूबी है कि वे उसे अन्तिम रूप देने के पूर्व 25-50 बच्चों को सुनाकर तब अन्तिम रूप देते हैं। यह खूबी .............................. बाल-साहित्यकारों में ही दृष्टव्य है उनमें श्री शर्मा जी अग्रणी है। यही कारण है कि उनकी बाल कविताएँ, क्षणिकाएँ, कहानियाँ बच्चे बड़े चाव से पढ़ते हैं। प्रत्येक कवि एवं लेखक की यह आचार संहिता होनी चाहिए कि वह जिसके लिए लिख रहा है उस रचना को अन्तिम रूप देने के पूर्व उस वर्ग से सन्तुष्ट हो लें। इसके लिए शर्मा जी को आदर्श माना जाता है। उनकी इसी खूबी के कारण उनकी रचनाओं के पाठक अच्छी संख्या में हैं और उन्हें उनकी नवीन कृति का सदैव इन्तज़ार रहता है। यह स्थिति किसी भी लेखक के लिए सुखद कही जा सकती है।
श्री शर्मा जी बालसाहित्य के स्तर को बढ़ाने की दृष्टि से एक पथ टाबर टोल़ी भी निकाल रहे हैं जिसके माध्यम से समय-समय पर बाल-साहित्यकारों को स्तरीय साहित्य परोसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अपने इस पथ के माध्यम से बच्चों की सृजन क्षमता को वृद्धिंभत करते हुए उन्हें लिखने के लिए एक प्लेटफार्म भी देते हैं। टाबर टोल़ी में प्राय: बच्चों की रचनाएँ देखकर प्रसन्नता होती है और हृदय बाग-बाग होकर कह उठता है- ‘धन्य हैं आप और धन्य है आपकी सेवाएँ ।’ आप बालसाहित्य की सेवा कई दृष्टियों से कर रहे हैं। बाल साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर लेखनी चलाकर जहां बच्चों के लिए उपयोगी सामग्री परोस रहे हैं, वहीं अनेकानेक बाल पत्रिकाएँ आपकी रचनाओं से समृद्ध हो रही हैं तथा अनेक पुस्तकों का सृजन कर बालसाहित्य को समृद्ध किया है। बालपत्रिका निकालकर अपने बच्चों की सृजनशीलता को बढ़ावा देने का कार्य भी आप अनवरत कर रहे हैं। यही नहीं अच्छे बालसाहित्य को प्रकाशक बनकर प्रकाशित करने का कार्य भी निरन्तर कर रहे हैं। यही नहीं स्थान-स्थान पर भ्रमण कर बालसाहित्य की दशा एवं दिशा से लोगों को जागरुक भी कर रहे हैं तथा बाल साहित्य का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। एक व्यक्ति किन्तु बाल साहित्य के क्षेत्र में उसके विराट एवं बहुविध कृतित्व को देख अन्तर्मन उल्लासित हो उठता है और बधाई देने के लिए प्रेरित होता है। अत: व्यक्तित्व एक किन्तु कृतित्व अनेक के लिए श्री शर्मा जी आपको बहुत-बहुत बधाई तथा शुभकामना कि आप इसी प्रकार युगों-युगों तक बालसाहित्य की सेवा करते रहें।
-डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं
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साल का बच्चा।
साल का बच्चा। जी हां, बाल-साहित्याकाश का एक ऐसा सूरज जिसे हम दीनदयाल जी शर्मा के नाम से जानते हैं। श्री दीनदयाल जी जैसे सुप्रबुद्ध तथा सशक्त व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी कहना या लिखना मेरे लिए बड़ा ही चुनौती भरा कार्य रहा है। क्योंकि मेरे पास इतने शब्द ही नहीं है जिनके द्वारा मैं अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकूं। इसके अलावा मन एक और उलझन में फंस गया कि सर्वप्रथम कौन सी बात लिखूं, चयन नहीं कर पा रही हूं। मन के जितने भी भाव हैं, उन्हें सर्वप्रथम ही लिखना चाहती हूं और ऐसा संभव है नहीं।
सुपरिचित बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा का नाम किसी के लिए भी नया नहीं है। जिन विद्वान साहित्यकारों, कवियों, साहित्य/संस्कृति को अपने जीवन की साध माना है उनमें बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा का नाम सर्वप्रथम आता है। जसाना में जन्मे व पले-बढ़े श्री शर्मा जी आज उम्र में मेरे पापा के हमउम्र हैं। लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता क्योंकि जहां तक मैं जानती हूं ये तो बच्चे हैं। क्योंकि ये हृदय से एकदम बच्चे की तरह सरल और निश्छल हैं। मैंने महसूस किया है कि उनमें आज भी एक बच्चे का दिल धडक़ता है, और इसीलिए मैंने उन्हें बच्चा कहा है। हर वक्त इनके मुखमण्डल पर एक सरल और मासूम शिशु की भांति एक निश्छल आभा विराजमान रहती है जो किसी के भी मन को मोह लेने में सक्षम है। साथ ही एक खास बात और जो मेरे अंतस में गहरे तक उतरती है, ये बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं। विषय हास परिहास का चल रहा हो तो आप दिल खोलकर हंसते-हंसाते हैं और यदि विषय गंभीर हो तो इनके चेहरे पर सागर सी गहराई झलकती है। साथ ही इनकी स्पष्टवादिता हरेक के मन में गहरे तक उतर जाती है।
सामान्य कद-काठी के साथ-साथ ये असाधारण व बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। अपनी अनुपम विचार शक्ति, प्रखर बुद्धि और ओजस्विता से सबको चकित कर देते हैं। इनकी हंसी अकृत्रिम है। इनके समक्ष बैठने के पश्चात परिचय का अभाव नहीं खलता। हर एक से मुक्त हृदय से मिलना-जुलना इनके स्वभाव में शामिल है। मालूम होता है कि श्री शर्मा जी किसी का भी दिल नहीं तोड़ऩा चाहते। इनका मुखर व्यक्तित्व हर अनजान को अपना बनाने का सामर्थ्य रखता है7 आपके चेहरे पर दृढ़ निश्चयी होने के भावों के साथ ही संतोष के भाव झलकते हैं तथा पोशाक में सादगी है। इनके उठने बैठने, चलने-फिरने को देखकर पता चलता है कि जीवन में सादगी प्रिय है। कुछ और बातों पर है, जिनमें साहित्य पत्रकारिता, अध्यापन व बीसियों किस्म की अन्य सामाजिक जिम्मेदारियाँ शामिल हैं। जिस सभा में श्री दीनदयाल जी हों वहां उदासी एवं हताशा नहीं ठहरती। ऊर्जा का निरंतर प्रवाह इनके व्यक्तित्व में दिखाई देता है। जो इनके सानिध्य में आने वालों को भी ऊर्जावान बना देता है। ये जहां भी होते हैं, अपने वात्सल्य से सभी को कायल करने से जान पड़ते हैं। आप हैं ही कुछ ऐसे की आपकी मधुर वाणी सुनने वालों के कानों में मधुरस घोलती सी जान पड़ती है।
श्री दीनदयाल जी का पारिवारिक वातावरण भी संस्कारित एवं आत्मीयतापूर्ण है। वहां जाकर कोई भी अपने अजनबीपन को बनाये नहीं रख सकता। अतिथि की वहां खैर नहीं है, क्योंकि इस परिवार के द्वारा निस्वार्थ भाव से की गई खातिरदारी अतिथि को एकदम फलक पर बैठा देती है। मुझे कई बार इस परिवार से मिलने का सौभाग्य मिला है। बनावट से कोसों दूर यह परिवार भारतीय संस्कृति का सजीव उदाहरण है। साहित्य मानव मन का ही भाव साम्राज्य होता है। जो बाहरी संसार हम देख रहे हैं उससे कहीं अधिक विस्तृत जगत हमारे मन में स्थित है। आवश्यकता होती है मन पर से अविचार का कोहरा छंटने की और श्री शर्मा जी से तो यह कोहरा कोसों दूर तक दिखाई ही नहीं देता। आज जब सब और अंग्रेजी भाषा और सदस्यता की दुहाई दी जा रही है ऐसे समय में अपनी मातृभाषा में बाल मन को साहित्य के माध्यम से शिक्षित और संस्कारित करने का प्रयास श्री शर्मा जी कर रहे हैं वह अपने आप में अद्भुत है। शास्त्रों में कहा गया है कि सृष्टि की रचना शब्द से हुई है। उसी शब्द ब्रह्मा की उपासना साहित्यकार अपनी-अपनी शैली में करते हैं। सरस्वती पुत्र अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के द्वारा एक शब्द संसार की रचना करता है जो कि मानवीय समस्याओं को स्पष्ट रूप से उभारता है।
नामरूपात्मकं विश्वं यदिदं दृश्यते द्विधा।
तत्राघस्य कविर्वेधा, द्वितीयस्य चतुर्मुख:।।
अर्थात् नाम और रूपात्मकं जो दो प्रकार का यह संसार दीख प्रड़ता है, उसमें से आदि अर्थात् नामात्मक जगत का निर्माणकर्ता कवि है और रूपात्मक जगत का निर्माणकर्ता ब्रह्मा है। इसी प्रकार श्री दीनदयाल शर्मा शब्द संसार की रचना करके भावी पीढ़ी को संस्कारित करने में प्राणपण से लगे हैं। हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपका रचनाकर्म विविध खूबियों को संजोये हुए है। आपने अपने काव्य में बाल मनोविज्ञान को बहुत ही निकट से समझा है। बाल मन की जो समस्याएँ सामान्य व्यक्ति को स्पष्ट नहीं हो पाती, वो आपके काव्य में मुखर हो उठती है। बाल साहित्य तीर्थ के महायात्री व शब्दयोगी श्री शर्मा जी ने आज बाल साहित्य को उस मुकाम पर पहुंचाया है जहां हम उनके बाल साहित्य पर गर्व कर सकते हैं। जीवन के अच्छे और बुरे दोनों रूपों का आपको गहरा अनुभव है और अहसास भी। आपके अनुभवों की कोई सीमा नहीं है। बाल जीवन से जुड़ी बड़ी से बड़ी और छोटी ेस छोटी चीज आपकी कलम का निशाना होती है और जहां तक मैं जानती हूं, ये सिर्फ लिखते नहीं, तन्मय होकर लिखते हैं, जीते हैं उसे। महसूस करते हैं, डूबते हैं उसमें। तभी तो सच्चा साहित्य मोती निकालकर लाये हैं हमारे सामने। वैसे भी मोती तो गोताखोर ही निकालते हैं भीगने से डरने वाले नहीं। यशस्वी बाल साहित्य पाठक को अपने नजदीक लाता है। बचपन के सामान्य अनुभव और अनुभूतियों से कैसे सार्थक और पठनीय साहित्य लिखा जा सकता है, इस तथ्य को श्री शर्मा जी के बाल साहित्य में स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। आपके साहित्य में बाल जीवन के व्यापक चित्र दिखाई देते हैं जो पाठक दृष्टि को चिन्तनशील बनाते हैं। आपके काव्य में हास्य के साथ-साथ व्यंग्य का चुटीलापन भी रहता है जो कि पाठक या श्रोता के हृदय को झकझोरता है। देश एवं समाज की दुर्दशा के बारे में सोचने को विवश करता है7 आपके बहुत से व्यंग्य शिक्षक वर्ग की कमजोरियों और अकर्मण्यता को लेकर हैं जो सिद्ध करते हैं कि आप बालकों की शिक्षा को लेकर कितने गंभीर है। श्री दीनदयाल जी ग्रामीण और शहरी जीवन से गहरा सरोकार रखते हैं इसलिए आपके साहित्य में ग्रामीण और शहरी जीवन की सभी समस्याओं, विडम्बनाओं का प्रामाणिक लेखा-जोखा मिलता है। आपका बाल साहित्य ठोस यथार्थ के धरातल पर खड़ा हुआ दिखाई देता है। जिसमें कोरी काल्पनिक उड़ान की कोई गुंजाइश नहीं है। आप कवि हैं, लेखक हैं और साथ ही एक अध्यापक भी हैं लेकिन इन सबसे पहले आप एक जागरुक समाज सेवक हैं। आपका बाल साहित्य बच्चों और समाज के लिए मनमोहक उपहार है। बाल साहित्य सृजन आपकी तपस्या है, साधना है और इस साधना में आपका समर्पण भाव अभिनंदनीय है। इसी समर्पण भाव से आपने हिन्दी और राजस्थानी भाषा में बाल साहित्य को पूरी लगन और निष्ठा से प्रस्तुत किया है जिसमें जीवन के विभिन्न रंग अपनी सहजता और सरलता से प्रत्येक पाठक को लुभाने में सक्षम है। आपके बाल साहित्य में बाल मन की भावात्मक सुन्दरता के साथ-साथ कम शब्दों में भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यंजित हुई है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी और समाज सेवक श्री दीनदयाल जी ने पत्रकारिता के कार्य से भी समाज सेवा का बीड़ा उठाकर इस कार्य का सुन्दर ढंग से निर्वाह किया है। टाबर टोल़ी पाक्षिक तथा कानिया मानिया कुर्र त्रैमासिक जैसे पत्रों में आप दैनंदिन समाचारों के साथ-साथ उत्कृष्ट कविताओं, कहानियों व अन्य साहित्यिक प्रकाशन भी करते हें, जिससे नवोदित प्रतिभाओं को राजस्थानी, हिन्दी लेखन का भरपूर अवसर आप उपलब्ध करा रहे हैं। जो कि साहित्यिक उत्थान में एक सार्थक प्रयत्न है। मैंने साहित्य के प्रकाश पुंज श्री दीनदयाल जी के बारे में बहुत सुना, पढ़ा और जाना। परन्तु स्थिति एकदम वैसी ही है जैसी भूषण कवि के समक्ष आयी-
‘‘साहू को सराहौ के सराहौ छत्रसाल को।’’
मैं भी किसकी सराहना करूं? जहां इनका साहित्य भावों के भोलेपन से युक्त है वहीं इनके स्वभाव की दृढ़ता मेरे मन को गहराइयों तक स्पर्श करती है। श्री शर्मा जी सिर्फ लिखते नहीं, उसे जीते हैं। सिर्फ छूते नहीं महसूस करते हैं। सिर्फ देखते नहीं गौर करते हैं। सदा मुस्कुराना और सबको प्यार करना, गुणीजनों का सम्मान पाना, बच्चों के दिल में रहना और सच्चे आलोचकों की स्वीकृति पाना, आदि बातें आपके स्वभाव में शामिल हैं। साथ ही आप खूबसूरती की सराहना करते हैं दूसरों में खूबियाँ तलाशते हैं और बिना किसी उम्मीद के दूसरों के लिए खुद को अर्पित कर देते हैं। आपके इन्हीं गुणों के बारे में सोचकर मेरा अन्र्तमन आलोकित हो उठता है। मां सरस्वती की कृपा आप पर हमेशा यूं ही बनी रहे तथा आप अपने अनुभव, चिन्तन आत्मीयता और समर्पण से बाल साहित्य जगत को अपनी लेखनी द्वारा समृद्ध करते रहें तथा आपका आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ बना रहे। इसी आशा और आपके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की मंगलकामनाओं के साथ। आपकी बेटी।
- कृष्णा जांगिड़ ‘कीर्ति’, जसाना
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दीनदयाल शर्मा के साहित्य में अनूठे प्रयोग
बिना ज्ञान, कौशल एवं लगन के साहित्य लिखना मुश्किल है। साहित्य वही लिख सकता है जिसे अच्छे और बुरे की परख हो। समाज में जो घटता है, वहीं साहित्यकार देखता है और साथ में जो भोगता है, उसे भी अनुभव करता है। साहित्य समाज का वह आइना है जो साफ दिखाता है। उसे छल-कपट नहीं है। जब साहित्यकार की पैनी दृष्टि बाल साहित्य पर भी जाती है तो लगता है उसने बहुत कुछ देख लिया है। अगर उसे कलमबद्ध कर दिया जाए और समाज के सामने पेश कर दिया जाए तो लगता है साहित्यकार ने अपना फर्ज ईमानदारी से निभाया है।
इसी श्रृंखला के साहित्यकार हैं, श्री दीनदयाल शर्मा। इन्होंने हर तरह का साहित्य लिखा है। चाहे कहानी, कविता एवं व्यंग्य हो, नाटक हो और चाहे बच्चों के लिए कलम चलानी हो, वे अलग से दिखते हैं। इन्होंने अनेकों प्रयोग अपने संग्रहों में किए हैं। इतना कहना पर्याप्त नहीं है कि उन्होंने बच्चों को ज्ञान आधुनिक युग में अपने बाल साहित्य के जरिए एक ऐसा संदेश दिया है जिसके जरिए बच्चे राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका अच्छी तरह निभा सकते हैं। मुझे इनका व्यंग्य संग्रह ‘सारी खुदाई एक तरफ’ पढऩे को मिला। कितनी करारी चोट छिपी है उसमें, पढक़र पाठक सोचने पर विवश होता है। ‘भविष्यफल का चक्कर’, ‘बहुत पछताए मेहमान बनकर’, ‘खूबसूरत बनने की चाह’ जैसे व्यं,यों में ऐसी चोट है जो दिल को छूती है। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्तियों को सुधारने में अपनी प्रभावी भूमिका निभानी है जो अंधविश्वासों, मेहमानबाजी और आज के सौंदर्य-प्रसाधनों के शिकार हैं। इस संग्रह के अन्य व्यंग्य ‘भांति-भांति के लोग’, ‘कुत्ता पालिए’, ‘यदि मैं होता जन नेता’, ‘रोडवेज की आत्मकथा’ एवं ‘देख कबीरा रोया’ आज की व्यवस्था पर चोट तो करती ही हैं साथ में सुधार का भी संदेश देने में सक्षम है। करीब तेरह वर्ष पहले छपा यह व्यंग्य संग्रह आज भी हर दिन हमें सोचने को मजबूर करता रहता है। इनका बाल साहित्य जैसा कि ऊपर कहा है, बच्चों के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेगा। कृति ‘पापा झूठ नहीं बोलते’ की छ: बाल कहानियों में ‘पश्चाताप के आंसू’ झकझोरती है पश्चाताप करने को और अनूठा संदेश देती है जिसमें पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। बाल साहित्य पर वास्तव में एक अनूठी पुस्तक कई दिनों बाद पढऩे को मिली। दीनदयाल शर्मा की एक और कृति ‘चिंटू-पिंटू की सूझ’ वास्तव में एक लाजवाब कृति है। राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इस कृति की सभी कहानियाँ जहां बच्चों को अच्छे नागरिक बनने की प्रेरणा देती हैं वहीं उनके व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होने में विशेष योगदान देती है। ‘लोमड़ी की सूझ’ एवं ‘मोर की जिद्द’ जैसी कहानियों में अनूठे प्रयोग किए गए हैं। 'यों-'यों शिक्षा पद्धति बदलती गई, कान्वेंट एवं पब्लिक स्कूलों में वृद्धि होती गई और पढ़ाने के ढांचे में भी परिवर्तन आता गया। बच्चे का बस्ता भारी होता गया। इसी आशय को लेकर श्री शर्मा ने काव्य के रूप में ‘कर दो बस्ता हल्का’ नाम से एक और कृति लिखी। इनकी ये पक्तियाँ ‘‘बस्ता भारी, मन है भारी, कर दो बस्ता हल्का, मन हो जाये फुलका’’ मन और दिल दोनों में हलचल मचाती है। इन पंक्तियों में व्यंग्य ही नहीं बल्कि संदेश भी है और साथ ही ये पंक्तियाँ मन की गहराई में ही नहीं उतरती बल्कि व्यवस्था पर भी करारी चोट करती है। बच्चा बारह किलो का और बस्ता तेरह किलो का, कैसी व्यवस्था है यह? ‘‘मेरी मैडम, मेरे सरजी, हमें पढ़ाते, अपनी मरजी’’ सब कुछ कह देती है यह चार लाइनें। तो क्या शिक्षक अपना धर्म भूल गए हैं? इसी के साथ ही इनकी एक और कृति ‘चमत्कारी चूर्ण’ अलग छाप छोड़ती है।
श्री शर्मा ने हिन्दी में ही नहीं बल्कि राजस्थानी में भी बाल साहित्य लिखा है। उसे पढक़र तो एक बात और पुख्ता हो जाती है कि राजस्थानी भाषा के माध्यम से इन्होंने बात बच्चों तक ही सीमित नहीं रखी है बल्कि बड़े-बूढ़ों को भी सोचने पर विवश किया है। कहानी ‘स्यांती’ के माध्यम से इन्होंने एक ऐसी लडक़ी के संघर्ष की कहानी लिखी है जो नारी के मान-सम्मान को ही बरकरार नहीं रखती अपितु संघर्ष में भी जीत की बात करती है। स्यांती की कहानी पढक़र तो मुझे ऐसा लगा जैसे यह एक स्यांती की कहानी नहीं है बल्कि बहुत सी स्यांतियों की कहानी है। ऐसी कहानियाँ उस समाज की सोच बदलने में सक्षम है जहां नारी को दोयम दर्जे की माना है।
‘बात रा दाम’ कृति बच्चों के तीन नाटकों पर आधारित है। यह कृति मनोवैज्ञानिक तौर पर यह सोचने को मजबूर करती है। इस कृति में समाहित तीनों नाटक मंचन करने लायक हैं। लेखक टाबर टोल़ी नाम से एक पत्र भी निकालते हैं जो देश के कोने-कोने में जाता है। यह एक लाजवाब संघर्ष है। परन्तु इसी नाम से इनका राजस्थानी कहानी संग्रह टाबर टोल़ी भी प्रकाशित हुआ है। ‘काळू कागलो अर सिमली कमेड़ी’ जैसी स्तरीय रचना लिखकर लेखक ने एक नयी रेखा पैदा की है। ऐसी प्रशंसनीय कहानी बाल साहित्य में बहुत कम पढऩे को मिलती है। इसके साथ ही ‘तुम्हारा गुरुजी’ जैसी एकांकी भी लिखी है जिसे पढक़र ऐसा लगता है कि सब कुछ सामने ही घट रहा है। अपने आस पास जो हो रहा है इसे उभारने में यह एकांकी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इसी कड़ी की इनकी कृति ‘तूं कांईं बणसी’ भी अलग से नजर आती है।
राजस्थानी भाषा में लिखी हुई इनकी अन्य कृतियाँ ‘शंखेसर रा सींग’ एवं ‘सुणौ के स्याणौ’ भी उतनी ही प्रभावशाली छाप छोड़ती है जितनी ‘स्यांती’। हिन्दी माध्यम के साथ-साथ मायड़ भाषा राजस्थानी में भी दीनदयाल शर्मा ने बच्चों के लिए ऐसी आकृति पैदा की है जिसकी गूंज आने वाले वर्षों तक भी महसूस की जाएगी और इनका बाल साहित्य बच्चों के विकास में हमेशा ही योगदान देता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
अंत में मैं इनकी एक और कृति की चर्चा करना अति आवश्यक समझता हूं। वाह, इन्होंने अंग्रेजी में भी हाथ डाला है। यह भी बाल कृति है ‘द ड्रीम्स’। इस कृति का विमोचन महामहिम भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रद्धेय डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के हाथों संपन्न हुआ था। हर बच्चा एक सपना देखता है कितने साकार होते हैं, परन्तु यह कृति बच्चों को संदेश ही नहीं देती बल्कि उनके लिए एक सकारात्मक सोच पेश करती है।
दीनदयाल शर्मा कई वर्षों से लिख रहे हैं वह वास्तव में अनूठा है। भविष्य में भी वे बाल साहित्य के जरिए ही नहीं बल्कि हर दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इनके तमाम लेखन के लिए मेरी बधाइयाँ।
- कर्नल रतन जांगिड़, मानसरोवर, जयपुर
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दीनदयाल शर्मा: बालकों के लिए समर्पित व्यक्तित्व
दीपक की भांति संसार में जलता है कोई कोई
वृक्ष की भांति संसार में फलता है कोई कोई
यूं तो आदर्श की राह पर चलने को कहते रहते हैं सभी,
पर इन राहों पर चलते हैं ‘दीद’ से कोई कोई।
बाल मनोविज्ञान के ज्ञाता रचनाकार व सबसे विनम्र स्वभाव से मिल जाने वाले इंसान दीनदयाल शर्मा पर ये पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं। श्री शर्मा के साथ शिक्षा की विभिन्न लेखन कार्यशालाओं के माध्यम से जुडऩे का अवसर मिला। हंसमुख एवं मिलनसार व्यक्तित्व अपनी अलग ही पहचान शीघ्र बना लेता है, कलम के धनी इस रचनाकार ने बाल साहित्य में कुछ अलग करने, देशभक्ति की अविरल धाराएँ बहाते हुए, अपने कार्य के प्रति निष्ठा को जिस रूप में आगे बिखेरा कि हर सदन, मानस पटल, साहित्यकारों, रचनाकारों के मध्य वे अपनी अमिट छाप छोडऩे में सफल रहे हैं। साहित्य ऐसा हो जो हमें विचार करने पर बाध्य करे, बच्चों में जिज्ञासा एवं आत्मविश्वास की वृद्धि करे श्री शर्मा की लेखनी ऐसी ही अमृतवर्षा करने को आतुर रहती है। आप द्वारा लिखी गई आधुनिक बाल कहानियाँ बच्चों को भारतीय संस्कृति से न केवल प्रेम करना सिखाती है वरन् उनमें नई सोच पैदा करने की क्षमता को भी आगे बढ़ाती है। युवा पीढ़ी को सीख देने वाली रचनाएँ, छोटी बाल कविताएँ व संस्कारों से परिपूर्ण बाल कहानियाँ आधुनिक युग की महती आवश्यकताएँ हैं, रचनाकारों को सरस्वती के मान सम्मान को प्रमुखता देने की बात करते हुए आप कहते हैं कि ‘‘हमें वर्तमान के अश्लील, फूहड़ साहित्य का भरसक विरोध करते हुए, बालकों को नैतिक मूल्य एवं अपनी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने वाले बीजों का संग्रहण करने का पाठ सिखाना चाहिए।
व्यंग्य वह विधा है जो साहित्यिक क्षेत्र में कलम को तलवार से भी तेज धार वाला हथियार साबित कर देती है, श्री शर्मा को इस विधा में भी महारत हासिल है। टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले सीरियल जो हमारे सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, पर व्यंग्यात्मक लहजे में सीधा सा आपका उत्तर ‘‘आजकल की नानी, बच्चों को नहीं सुनाती कहानी’’ क्योंकि बच्चे व बड़े न चाहते हुए भी इनके चिपके रहते हैं। क्या हमारी सांस्कृतिक धरोहर पाश्चात्य सांस्कृतिक हमलों से छिन्न-भिन्न हो जाएगी, इस प्रश्र का उत्तर भी जिस सटीकता से आपने दिया है उससे हमें इस देश में जन्म लेने के गौरव को और भी अधिक प्रतिपुष्ट कर दिया। आपने कहा था-
मां अपनी ममता को छोड़ नहीं सकती।
बाहुबली की भुजाएँ नदियाँ मोड़ नहीं सकती।।
संस्कृति की दीवार इतनी समृद्ध है हमारी,
फिरंगियों की ताकत इसे तोड़ नहीं सकती।।
सामाजिक कर्तव्यों को निभाते हुए व राजकीय सेवा में पूर्ण निष्ठा से आपका समर्पण आधुनिक युग में भौतिकता की अन्धी दौड़ में समाज में एक दीपक की भांति रोशनी बिखेरता हुआ सही राह दिखाने वाला प्रतीत हो रहा है, आज जब अधिकांश व्यक्ति किसी अच्छे कार्य को करने के लिए ‘समय नहीं है’ का बहाना लिए टालना चाहते हैं आपके लिए यह कहना युक्ति युक्त होगा कि-
अपने लिए जीए तो क्या जीए।
तूं जी ए दिल ज़माने के लिए।।
छोटे बच्चों के लिए ढेर सारा प्यार एवं अनमोल रचनाएँ लेकर हर समय अपनी उपस्थिति देने वाले इस व्यक्तित्व को सादर नमन एवं उ''वल मंगलमय जीवन हेतु शुभकामनाएँ।
- सुनील कुमार डीडवानिया, विजय सिंह पथिक नगर, भीलवाड़ा
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वरिष्ठ बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा का कृतित्व एवं व्यक्तित्व
वरिष्ठ बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा को बाल साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ हस्ताक्षर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कृतियों के रचयिता शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। मान-सम्मान, पुरस्कार में कई उपलब्धियाँ हासिल कर चुके शर्मा अपनी बेबाक शैली के लिए भी जाने जाते हैं। राजकीय सेवा में होने के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से उनका जनजुड़ाव प्रेरणास्पद है। ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढ़े शर्मा ने शैक्षिक दृष्टिकोण से उदाहरण प्रस्तुत किया है। सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की है।
संवेदनशील साहित्यकार-
शर्मा की कृतियाँ बच्चों के लिए प्रेरणास्पद होने के साथ-साथ मनोरंजन की दृष्टि से भी उच्च कोटि की है। ‘कर दो बस्ता हल्का’ पुस्तक जहां बाल-गोपालों को हास्य से विभोर करवाती है, वहीं प्रेरणा दायक भी है। ‘चमत्कारी चूर्ण’ पुस्तक की कहानियाँ भी कमोबेश यही छाप छोड़ती हैं। इस पुस्तक की कहानी ‘आज़ादी का अर्थ’ शर्मा के संवेदनशील लेखक होने का अहसास करवाती है। राजस्थानी बाल एकांकी ‘तुम्हारा गुरुजी’ में उन्होंने जिस विनोदी अंदाज में शिक्षकों की कार्य प्रणाली को उजागर किया है, वह शर्मा की बेबाक लेखनी की ओर इशारा है।
मातृभाषा के प्रति लगाव-
शर्मा का मातृभाषा के प्रति लगाव उल्लेखनीय है। यही कारण है कि हिन्दी में लेखकीय कार्य में विशेष स्थान होने के साथ-साथ राजस्थानी भाषा पर भी उनकी विशेष पकड़ है। राजस्थानी में उनकी पुस्तकें विशेष सराहनीय है। ‘शंखेसर रा सींग’ राजस्थानी बाल नाटक उनकी मातृ भाषा के प्रति समर्पण की जीवंत मिसाल है। बकौल शर्मा, ‘जब तक मनुष्य अपनी मातृभाषा से नहीं जुड़ेगा, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भी नहीं होगा। यही कारण है कि वह राजस्थानी भाषा के मान्यता आंदोलन में सक्रियता सहभागिता निभा रहे हैं।
सादा जीवन उच्च विचार
सादा जीवन उच्च विचार की अवधारणा को साक्षात जीवन में उतरते देखना हो तो दीनदयाल शर्मा उदाहरण हैं। दिखावे एवं आडम्बरों से कोसों दूर रहने वाले शर्मा सब के प्रति समान भाव रखते हैं। समय के पाबन्द शर्मा कैसी भी परिस्थितियाँ हों निर्धारित समय पर पहुंचते हैं। वर्ष 2007 में एकता मंच द्वारा आयोजित होली स्नेह मिलन की घटना उनके समय के कद्रदान होने की शिनाख्त करती है। आयोजक निर्धारित समय पर अभी तैयारियाँ ही कर रहे थे, कि शर्मा दो किलोमीटर दूर अपने घर से पैदल चलकर कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गए।
प्रोत्साहन में अग्रणी-
युवा लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, पत्रकारों को प्रोत्साहन देने में दीनदयाल शर्मा हमेशा अग्रणी रहे हैं। उनका मानना है कि संघर्ष के दौर में हर किसी को सहयोग की आवश्यकता होती है। ऐसे में वरिष्ठजन सहयोग नहीं करेंगे तो युवा कैसे आगे बढ़ेंगे। यही कारण है कि साहित्य सम्मेलनों, कवि गोष्ठियों के लिए आर्थिक सहयोग के साथ-साथ उचित मंच में युवा लेखकों के आलेख प्रकाशित करवाने में उनका मार्गदर्शन हमेशा बना रहता है। उनके निर्देशन में चलने वाले राजस्थान साहित्य परिषद् एवं सम्पर्क प्रकाशन ने दर्जनों उभरते लेखकों-कवियों को पुस्तक प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया है।
हंसो और हंसाओ
दीनदयाल शर्मा कहते हैं हंसना जीवन में उसी प्रकार जरूरी है जैसे खाना-पीना आवश्यक है। बकौल उनके हंसना स्वस्थ शरीर के लिए टॉनिक का कार्य करता है। वर्तमान समय में जब प्रतिस्पर्धा चरम पर है सब कोई तनावमय जीवन जी रहा है, ऐसे में उनका लतीफों के माध्यम से हंसी की फुहार छोडऩा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता है। साहित्य सम्मेलनों-कवि गोष्ठियों और कार्यक्रमों में भी शर्मा बात ही बात में ऐसी बात कह देते हैं कि गंभीर से गंभीर प्रवृत्ति का शख्स भी मुस्करा देता है। शर्मा के अनुसार हंसो और हंसाओ ही जि़न्दगी का फलसफा है।
पुस्तकों को प्रोत्साहन देने की अनोखी ललक-
शर्मा पुस्तकों के पठन पर ज्यादा जोर देते हैं। उनके अनुसार पुस्तकें ज्ञान का भण्डार है। इन्हें जितना ज्यादा पढ़ेंगे, उतना ही बौद्धिक विकास होगा, पुस्तकों के प्रति इस लगाव का परिणाम है कि उन्होंने पांच साल पहने अपने बूते पर गांव-गांव पुस्तक मेले लगा कर साहित्यिक पुस्तकें वितरित की। अपने थैले में पुस्तकें डाल कर नफे-नुकसान की परवाह किए बिना उन्होंने पुस्तक मेलों में पुस्तकें विक्रय की। पुस्तक प्रकाशन के लिए उन्होंने स्वयं के खर्च पर दो प्रकाशन केन्द्र संचालित कर रखे हैं। ऐसे पुस्तक प्रेमी एवं वरिष्ठ साहित्यकार को नमस्कार।
- मनोज गोयल , पत्रकार, हनुमानगढ़
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दीनदयाल शर्मा : संक्षिप्त जीवन परिचय
नाम : दीनदयाल शर्मा, जन्म : गणगौर पर्व, विक्रम संवत् 2013, गाँव: जसाना, तहसील: नोहर, जिला: हनुमानगढ़, राजस्थान, शिक्षा: एम.कॉम., (व्यावसायिक प्रशासन, 1981), पी.जी.डिप्लोमा इन जर्नलिज्म (1985) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
=साहित्य सृजन : हिन्दी व राजस्थानी में 1975 से सतत् सृजन, =मूल विधा: बाल साहित्य,
=विशेष प्रकाशन : ‘‘हिन्दी-राजस्थानी-अंग्रेजी’’ में दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित। =संग्रहों में प्रकाशित : देशभर की अनेक बाल पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित =‘‘डॉ.प्रभाकर माचवे : सौ दृष्टिकोण’’ सहित शिक्षा विभाग राजस्थान के शिक्षक दिवस प्रकाशनों में रचनाएँ प्रकाशित।
=तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा 17 नवम्बर, 2005 को जयपुर में अंग्रेजी बाल नाट्य कृति ‘द ड्रीम्स’ का लोकार्पण। =अनेक पुस्तकों एवं स्मारिकाओं का संपादन।
=प्रसारण : आकाशवाणी से व्यंग्य, कहानियाँ, कविताएँ , रूपक, झलकी आदि समय-समय पर प्रसारित। =दूरदर्शन से साक्षात्कार एवं कविताएँ प्रसारित। =आकाशवाणी से रा'य स्तर पर अब तक एक दर्जन रेडियो नाटक प्रसारित।
=संस्थापक/अध्यक्ष : राजस्थान बाल कल्याण परिषद्, राजस्थान साहित्य परिषद्,
=साहित्य संपादक (मानद) टाबर टोल़ी (बच्चों का अखबार)
=पुरस्कार एवं सम्मान : =राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर से ‘‘डॉ. शम्भूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार’’ (1988-89), =राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर से ‘‘जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार’’ (1998-99), =अखिल भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर से ‘‘बाल साहित्यिक सेवाओं के लिए सम्मान’’ (1998-99), =शकुन्तला सिरोठिया बाल कहानी पुरस्कार, इलाहाबाद (1988-89), =कमला चौहान स्मृति ट्रस्ट, देहरादून से ‘‘सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार’’ (2001), =सृजनशील बाल साहित्य रचनाकारों की राष्ट्रीय संस्था बाल चेतना, जयपुर की ओर से ‘‘सीतादेवी श्रीवास्तव स्मृति सम्मान’’ (2006)=ग्राम पंचायत, नगर परिषद् तथा जिला प्रशासन की ओर से ‘‘साहित्यिक सेवाओं के लिए समय-समय पर सम्मान’’ ।
संप्रति : शिक्षा विभाग राजस्थान।
पता : 10/22, आर.एच.बी.कॉलोनी, हनुमानगढ़ जं.-335512, राज.,
फोन : 01552-244451 (घर), मोबाइल : 09414514666, 09509542303
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E-mail : deen.taabar@gmail.com,
E-mail : deen_taabar@rediffmail.com,
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Blog : www. tabartoli.blogspot.com,
Blog : www.deendayalsharma.blogspot.com
Prem srdhye,
जवाब देंहटाएंSh.RaviRatlami.
Aaj rachanakar blog per bhai Deendayal Sharma k kuch khatte. kuch mithye kuch bhut hi payre se sensmern pdhye.bhut hi achha lega.
Deen Dayal sharma n bachho k liye itna kuch likh diya hai.use Aap n bhut hi sehej ker Rachanakar mai rekha hai.Hame Aap per or bhai Deen per bhut hi gerv h.
DeenDayal sharma bal sathiye mai Aapne-Aap m Ek bhut hi bedi institut h Senstha h.Itni bedi seksthiet ka purn jiven ithahas pdh ker bhut hi mitha sa annand Aaya.
Mari dua h ki D.D Sharma isi prkar bal sathiye likte rehye.
Mai Sh RaviRatlami ko sadhu-bad dena cheta hu unhonye ek bhut hi paviter karya kiya h.
Bhai Deendayal ko meri subhkamnaye.
NARESH MEHAN