क विता यदि जीवन सफल बनाना है। यदि जीवन सफल बनाना है, यदि गुलशन में फूल खिलाना है, घर को स्वर्ग बनाना है, समाज में रुतबा पाना है, स...
कविता
यदि जीवन सफल बनाना है।
यदि जीवन सफल बनाना है,
यदि गुलशन में फूल खिलाना है,
घर को स्वर्ग बनाना है, समाज में रुतबा पाना है,
स्वादिष्ट भोजन खाना है,फिल्मी गीत गाना है,
और बच्चों के संग संग मस्ती मौज मनाना है,
तो मेरी एक बात मानो, अपनी बीबी को पहिचानो।
छोड़ दो रिश्तेदारों को बचपन के सारे यारों को,
रीना, टीना, ज़िंटा, रानी, छोड़ो अब इन चारों को!
फूलों का गुलदस्ता लाना, गजरा लाना भूल न जाना।
बीबी के बालों में प्यारे, बड़े प्रेम से इसे सजाना!
सारा वेतन बीबी को देना, जेब खर्च फिर उससे लेना।
बीड़ी सिगरेट कभी न पीना, अगर है मज़े से जीना।
गुस्से में बीबी हो प्यारे, बड़े प्यार से उसे मनाना!
झाड़ू पोंछा खुद कर लेना, लंच डिनर में हाथ बँटाना।
फिर न लगेगी तुमको डाट, होगी पंखे नीचे खाट!
बीबी खुश हो जाएगी, गले से तुम्हें लगाएगी!
फिर घर तो स्वर्ग बन जाएगा, सभी को आनंद आएगा।
बीबी आरक्षण नहीं माँगेगी, न कभी संसद जाएगी!
ना टूटेंगे माईक कुर्सी, न अध्यक्ष मार्शल बुलाएगा।
ये बीबी मनाने का नुस्खा है, कारगर इसको जानो,
यदि जीवन सफल बनाना है, जीवन में खुशियाँ लाना है,
तो मेरी एक बात मानो, अपनी बीबी को पहिचानो।
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कहानी
जिसका कोई नहीं उसका उपर वाला होता है
बहुत पुरानी बात है कौशल पुर राज्य में एक बहुत ही पिछड़ा गाँव था धरमपुरा। यहाँ के सारे ही निवासी ग़रीब थे पर चंदर बल्लभ नामक ब्राह्मण बहुत ही ग़रीब था। उसके परिवार में उसकी पत्नी और वे स्वयं दो प्राणी थे। और सालों के मुकाबले इस साल बारिश नहीं हुई और सारे इलाक़े में अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई। दानदाताओं ने दान देना बंद कर दिया। यजमानों के हाथों भीख बंद हो गई। गाँव के अन्य लोग शहरों की तरफ भागने लगे लेकिन चंदर बल्लभ जैसे लाचार प्राणी कहाँ जायं 1 उन्होने अपने को भगवान के भरोसे छोड़ दिया और उसी गाँव में रहने का इरादा बना लिया। दो दिन हो गए और अन्न का एक दाना भी उन्हें नसीब नहीं हुआ। तीसरे दिन ब्राह्मण की पत्नी अपने पति से बोली, " यों बैठने से तो काम नहीं चलेगा, कुछ तो करना ही पड़ेगा, जाओ कोशीश करो, शायद खाने को कुछ मिल ही जाए।" यह सुन कर ब्राह्मण देवता घर से निकल पड़े, वे चलते चले गये और एक जंगल में आ गए। क्या देखते हैं की एक चूहा अपने बिल के आगे फंसा पड़ा है, वहाँ के जंगली लोगों ने उसके बिल के आगे एक फंदा बना कर डाल रखा था और ज्यों ही वह बिल से बाहर आने लगा, यह फंदा उसके गले में फँस गया। वो जमाना था जब ब्राह्मण जैसे विद्वान लोग पशु पक्षियों की भाषा समझ लेते थे। ब्राह्मण को देख कर चूहा बोला, " हे दयालु ब्राह्मण देवता मुझे इस फंदे से आज़ाद कर दें, मेरे से जो कुछ भी हो सकेगा मैं आपकी मदद करूँगा,"। ब्राह्मण को दया आ गई, उन्होंने फंदे से उस चूहे को मुक्त कर दिया। चूहे ने कहा "हे देव स्वरूप विप्रवर आप बहुत दयालु ईश्वर भक्त हो, आप ज़रा यहीं पर मेरा इंतजार करें, मैं अभी आता हूँ, " यह कह कर वह अपने बिल में घुस गया। कुछ देर बाद जब वह वापिस आया तो उसके मुँह में एक सोने की अशरफ़ी थी।
उसने वह अशरफ़ी ब्राह्मण को देते हुए कहा, " हे विप्रवर आप मेरी ये तुच्छ भेंट स्वीकार करें। इस अशरफ़ी को लेकर आप सीधे बाजार जाना वहाँ सुनारों की बड़ी बड़ी दुकानें मिलेंगीं, सारे सुनार आपको देखते ही आपको अपनी दुकान में बुलाएँगे, आपने किसी की नहीं सुननी है, हाँ सबसे किनारे पर एक छोटी सी दुकान पर एक बहुत ही साधारण सा सुनार बैठा मिलेगा, जो न ज़्यादा बातें करता है न किसी को बुलाता है, अच्छे ईमानदार लोग उसी के पास जाकर उसके साथ सौदा बाजी करते हैं। वह बहुत ही ईमानदार और ईश्वर से डरने वाला है, इसलिए आपको इस अशरफ़ी की उचित कीमत मिल जाएगी। " यह कह कर चूहा अपने बिल में चला गया। ब्राह्मण अशरफ़ी को लेकर चूहे के मार्ग दर्शन के सहारे
बाजार में पहुँचा और उसी छोटी सी दुकान में जाकर उस सच्चे ईमानदार सुनार से मिला। अशरफ़ी देखकर सुनार बोला, "हे विप्रवर आप तो धन्य हो गए, आपने तो साक्षात ईश्वर के दर्शन कर लिए, जिस चूहे ने आपको यह अशरफ़ी दी है वह चूहा नहीं चूहे के रूप में साक्षात ईश्वर थे।वे आपको तथा आपकी पत्नी के लिए जिंदगी भर का इंतज़ाम कर गए। " यह कहते हुए उन्होंने उस अशरफ़ी की कीमत उस जमाने के एक लाख रुपये उस ब्राह्मण को दे दिए। अब उस दयालु, सच्चा, ईमानदार और ईश्वर भक्त को बाकी जिंदगी खाने के लिए दर दर नहीं भटकना पड़ा। अब दोनों आदमी जिंदगी की आखरी सांश तक भगवान का भजन करते रहे, भूखे को खाना देते रहे, भूले भटके को उनकी मंज़िल तक पहुँचाते रहे, निर्धन और अशक्त की सेवा भगवान की सेवा समझ कर करते रहे और अंत में बिना किसी पीड़ा, रोग शोक के मृत्यु लोक को छोड़ कर गोलोक धाम पहुँच गए। बोलो भक्त और भगवान की जै।!
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कविता
अतीत की परछाइयाँ
ये अतीत के परछाइयाँ छूती मन की गहराई,
फुरसत के लंबे लम्हों में लेती है ये अँगड़ाई!
सरदी की लंबी रातों में अँखियों में नींद नहीं आती,
फिर यादों की बंद कूटी से खिड़की अतीत की खुल जाती।
मन का पंछी उस खिड़की से, अतीत की गोद में आ जाता,
खुले हुए आँगन में आकर उछल कूद मचाता!
कभी शरारती चश्मा पहनकर जादूगर बन जाता,
चढ़ उँची पर्वत चोटी पर ख़्वाबों की पतंग उड़ाता।
कभी बन जाता पक्षी राज और नील गगन में मँडराता,
छूकर बादल की चादर को मन ही मन हर्षाता।
कभी गोकुल की कुंज गलिन में यमुना तट पर जाता,
पीपल की छाया में बैठ कर बंसी मधुर बजाता।
स्वर बंसी की सुन करके गौवें वहाँ आ जाती,
समझ के मुझको कृष्ण कन्हैया स्नेह के पुष्प गिराती।
कभी आम की डाली पर मैं चुपके से चढ़ जाता,
पतों के झुर्मुट में छिप कर वहाँ नज़र न आता।
साथी मेरे ढूँढ ढूँढ कर जब सारे तक जाते,
रोनी सूरत बना के बच्चे मिलकर मुझे बुलाते।
कभी नदी तट बन कर नटखट लंबी सी नहर बनाता,
और किनारे बने बाग में मन के पुष्प खिलाता।
कभी कभी कोयल के स्वर में स्वर अपना मिलाता,
बे स्वर सुन कोयल उड़ जाती मैं पीछे पछताता।
राम लीला में सुग्रीव सेना का मैं बंदर बन जाता,
गिरे हुए राक्षसों के सिर पर अपनी गदा जमाता।
खेल खेल में बच्चों के संग मैं अंगद बन जाता,
मेघनाथ बने लड़के से अपने चरण छुवाता।
ये अतीत की यादें मेरे मन को कितनी भाती,
सारी तस्वीरें मेरे आँखों में छा जाती।
कभी कभी ये परछाइयाँ इतनी लंबी हो जाती,
मन का पंछी उड़ उड़ कर भी पकड़ न इसको पाती।
आज इस जीवन संध्या में बचपन मुझे बुलाता,
नटखट फिर से बनने को है दिल मेरा तड़पाता!
हरेन्द्रसिंह रावत ( नयी दिल्ली)
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कविता
सुबह भी होगी
साँझ आ रही है सुबह भी होगी, साँवली है साँझ सुबह कैसी होगी ? फूलों की पंक्ति मुरझाने लगी है, दिन भर की मेहनत अब सोने चली है!
वीरान गुलशन है रात आ रही है, बेहोश बस्ती है दीपक नहीं है। इस कालिमा को तोड़ने कहीं चाँदनी तो होगी, साँवली है सांझ सुबह कैसे होगी?!राहों में वृक्ष मौन खड़े हैं, पेड़ों में पक्षी आने लगे हैं।
चमगादड़ों की सारी जमातें कलाबाजियाँ दिखाने लगे हैं, टिमटिमाते हुए दल जुगनुओं का जैसे कोई बारात आ रही है।
और गुनगुनाती मक्खियाँ जैसे शहनाई बजा रही हैं।
उल्लुओं का झुंड ले के उमंग, अट्टहास करता हुआ आ रहा है! जैसे कोई आसुरी शक्ति आ के, बेताल बे-स्वर के ही गा रहा है।
आकाश गंगा में तारों की झिलमिल भूलों को रस्ता दिखाने लगी है! और जंगल में मंगल जो करने गए हैं, उनको मंज़िल दिखाने लगी है।
असुर तो हैं चारों तरफ, कहीं सुरबाला भी होगी, साँवली है सांझ सुबह कैसी होगी ?
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व्यक्ति-चित्र
करण
आजकल करण एक कामन नाम हो गया है, इस नाम के बड़े लोग भी हैं और आम पब्लिक भी इस नाम से जुड़ी है। इस नाम से जानी मानी हस्तियों में हैं, करण जौहर, करण दीवान, सदरे रियासत जे ऐंड के और पूर्व केंद्रीय मंत्री करण सिंह। लेकिन मैं जिस करण की कहानी लिखने जा रहा हूँ, वह महाभारत का एक महान चरित्र सूर्य पुत्र, कुंती पुत्र, दानवीर, युद्धवीर करण है, लेकिन यह उसका दुर्भाग्य था कि राजकुल का राजकुमार होते हुए भी माँ कुंती की ग़लती की सज़ा भुगत रहा था। एक बार उस जमाने के जाने माने गुस्से वाज दुर्वासा मुनि कुंती के पिता के मेहमान बन कर उनके घर में कुछ दिन ठहरे, कुंती उस समय नाबालिग थी। उसने दुर्वासा मुनि की बड़ी सेवा की और मुनि ने खुश होकर उसे बरदान दे दिया की वह जिस किसी भी देवता को मंत्रों के साथ याद करेगी वह देवता तुरंत हाजिर हो जाएगा और मनपसंद का वरदान दे जाएगा।
और यहीं पर कुंती बालिका से ग़लती हो गई, उसने इस वरदान को आज़माने के लिए शुद्ध मंत्रों का उच्चारण करते हुए सूर्य का आह्वान कर दिया। सूर्य भगवान प्रकट हो गए। जब उन्होने कुंती से उसकी इच्छा पूछी तो वह घबरा गई, कुँवारी कन्या भला क्या वर माँगती। सूर्य भगवान बोले "तुम्हारे बुलाने पर मैं आया हूँ तो कुछ तो दे के ही जाउँगा, तुम्हारा मुझ जैसे ही तेजस्वी, वीर गुणवान, विद्वान पुत्र होगा"1 इतना कहते हुए सूर्य देवता अपने सूर्य लोक में चले गए। दश महीने के बाद कान के रास्ते करण इस धरती पर आया। उन दिनों भी कुँवारी लड़की की संतान होना अपमान जनक माना जाता था। कुंती ने उस नव जात बच्चे को एक सोने की डाली में डाल कर कुछ सोने की अशर्फियों के साथ नदी में बहा दिया। समाज के डर से कुंती से कितना बड़ा अपराध हो गया। डाली बहते बहते कौरवों के साईस जो उस समय घोड़ों को नहला रहा था, के हाथ लग गई, उसने डाली बाहर निकाली और उसे खोल कर देखा, एक सुंदर सा बालक संसार के प्रपंचों से अनजान, मुस्कराता हुआ नज़र आया साथ ही कुछ सोने की अशर्फियाँ भी उसे उस" डाली में मिली। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, इसलिए इस बच्चे को अपना लिया। उसका नाम रखा "राधे"।
इसको भाग्य की विडंबना कहें या माँ का निर्मोही या ममता हीन होना या फिर समाज के बंधन। वह राजकुमार होते हुए भी जिंदगी भर साईस पुत्र बन कर रहा। वह राजकुमारों के साथ शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता था। उनके साथ किसी भी प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता था। उस समय की जानी माने हस्ती परशुराम जी से उसने ब्राह्मण बन कर शस्त्र विद्या सीखी, लेकिन जब विद्या का अंतिम चरण चल रहा था तो एक राक्षस ने कीड़े का रूप धर कर उसके क्षत्री होने का भेद खोल दिया। इस अपराध के लिए उसे गुरु ने श्राप दे दिया कि" रन भूमि में तेरा रथ फँस जाएगा, और तू उसे निकाल नहीं पाएगा, फिर भी तेरी गुरु सेवा के लिए मैं तुम्हें दो बाण देता हूँ, जब तक ये बाण तेरे पास रहेंगे कोई तुझे मार नहीं पाएगा" ।
करण को दान वीर कहा जाता है, सूर्य भगवान ने उसे कवच कुंडल के साथ इस धरती पर भेजा था, जिसको अर्जुन को बचाने के लिए इंद्र ने उससे माँग लिए, और यह जानते हुए भी की यह कवच कुंडल उसके प्राण रक्षक है, उसने सहर्ष इसको इंद्र को दान कर दिया। इंद्र ने उसे एक शक्ति बाण दिया था जिससे उसने भीम के पुत्र घटोत्कच को मारने में गँवा दिया। दो बान जो गुरु परशुराम ने उसे दिए थे माँ कुंती के माँगने पर माँ को दे दिए। साथ ही माँ कुंती को बचन दे दिया था की अर्जुन के सिवाय वह और भाइयों को नहीं मारेगा और अवसर आने पर भी उसने किसी को नहीं मारा। उसको दुर्योधन ने, जब उसे साईस पुत्र कहकर प्रताड़ित किया जा रहा था, आगे बढ़कर उसे गले लगाया और अंग देश का राजा बना कर उसका मान बढ़ा दिया, इसी ऋण को उतारने के लिए , यह जानते हुए भी की ये पांडव बंधु उसके सगे भाई हैं, महाभारत के संग्राम में कौरवों का साथ दिया और लड़ते लड़ते वीर गति को प्राप्त हुआ। उसका सब कुछ छीन गया था, फिर भी जब तक हथियार उसके हाथों में थे अर्जुन उसे नहीं मार पाया था। कमाल की बात तो यह है की महात्मा भीष्म पिता मह, महात्मा विदुर, श्री कृष्ण और कुंती देवी जानती थे की करण कुंती पुत्र है लेकिन जब भी उसको बेइज्जत किया जाता था सब चुपचाप तमाशा देखते रहते थे। महाभारत का एक महान वीर योद्धा, दानवीर (अपना सब कुछ दान दे दिया) करण दीन हीन होकर जिया और जब वीर गति को प्राप्त हुआ तब पाँचों पांडवों को पता चलता है कितना कष्ट हुआ होगा धर्म राज को तथा स्वयं अर्जुन को जिसके बाणों से उसका सबसे बड़ा भाई मारा गया था ।
करण का चरित्र कहीं विरोधाभास भी लगता है, जैसे उसका कौरवों के षडयंत्र में शामिल होना, कुंती और पाँचों पांडवों को लक्ष गृह में जलाने का षडयंत्र, शकुनी के साथ मिलकर पांडवों को जुवा में हरा कर उनका राज पाठ छीनना, द्रौपदी का चीर हरण, निःशस्त्र अभिमन्यु को साथ सप्तरथियों द्वारा मारना। यह सब कुछ उसे दुर्योधन को खुश करने के लिए करना पड़ा। उसकी दान वीरता के कायल तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी भी थे। जब वे रन भूमि में पड़े पड़े आखरी साँस ले रहे थे, श्री कृष्ण ने अर्जुन की आँखें खोलने के लिए ब्राह्मण का भेष बनाया और मृत प्राय: करण से याचना करने लगे की स्वर्ग गमन करने से पहले ब्राह्मण को दान करते जाओ, उसके पास चार सोने के दाँत थे उसने अपने बान से चारों दाँत तोड़ कर देने लगे, ब्राह्मण बोले "नहीं करण ये तो खून से सने हैं, अशुद्ध हैं, हमें तो शुद्ध दान दक्षिणा चाहिए।" करण ने धनुष पर बान चढ़ा कर ज़मीन के नीचे से पानी निकाला, चारों दाँतों को साफ किया और ब्राह्मण को शुद्ध दान दिया। ऐसा था महाभारत का दानवीर, युद्धवीर करण।
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हास्य कविता
दिल में जगह चाहिए
भीड़ भरी बस में खड़े खड़े एक बुज़ुर्ग ने,
सीट पर बैठी महिला से कहा,
"और कुछ नहीं चाहिए, बस दिल में थोड़ी सी जगह चाहिए
क्या बैठ जाऊं",
महिला बोली, "हाय क्या जमाना आ गया,
बुढ़ऊ केन मुँह में दाँत न पेट में आँत, जर जर काँपता है,
पर दिल में जगह माँगता है,"
बूढ़े से बोली, "यह दिल तो पहले ही बुक है, कोई और दिल ढूँढो,"
बुज़ुर्ग बेचारा हैंडल पकड़ कर लटका रहा, बुदबुदाता रहा,
महिला आराम से सीट पर पसरी उपन्यास का आनंद ले रही थी,
बीच बीच में चोरी चोरी से बुज़ुर्ग की लटकी हालत देख रही थी,
स्टेंड आया दोनों एक साथ उतरे,
दोनो ही संभ्रान्त, कपड़े साफ सुथरे,
बुज़ुर्ग बोला, "मैडम, गुस्ताख़ी माफ़ मैंने क्या गुनाह किया,
आपने सीट पर नहीं बैठने दिया",
महिला बोली, आपने तो दिल में जगह मांगी थी,
दिल तो किसी और का था, इसीलिए मैंने कहा कहीं और जा,
सीट माँगते मिल जाती, मैं एक तरफ दूसरी सीट तुम्हारी हो जाती,
ख़तरा तो होता ही है, आजकल के बूढ़े हरकतों से बाज नहीं आते,
पोंछा पकड़ हाथ आगे बढ़ाते हैं, मार खाते हैं,
बुढ़ापे का प्रमाण पत्र दिखाकर फिर जान छुड़ाते हैं,"
बाई टाटा कहते हुए महिला नौ दो ग्यारह हो गई,
बुज़ुर्ग को बेहोश कर गई।
कारवाँ निकल गया,
बुज़ुर्ग खड़ा खड़ा गुबार देखता रहा।
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बाल कहानी
नेवले की दोस्ती
इंसान अपने संगरक्षक के साथ धोका कर सकता है लेकिन जानवर, अगर आपने उसे कभी जाने अनजाने में पानी पिला दिया या एक टुकड़ा रोटी का खिला दिया, वह अपने दान दाता को कभी नहीं भूलता और समय आने पर उस छोटे से रोटी के टुकड़े के एवज में अपनी जान की बाजी तक लगा देता है। कुत्ते की वफ़ादारी के कही क़िस्से सुनने में आए हैं लेकिन नेवले की वफ़ादारी - दोस्ती के किस्से शायद ही कभी सुना हो।
चंद्रप्रकाश जी कपड़ों के व्यापारी थे, दिल्ली में अपनी दुकान थी, शो रोम था, अच्छी ख़ासी इनकम थी! परिवार भी बड़ा नहीं था, पत्नी दो लड़के और एक लड़की थी। ये कुदरत का विधान है की जब घर में पैसा हद से ज़्यादा आने लगता है तो आदमी की नियत डगमगाने लगती है, वह और पैसे बटोरने के ख्वाब देखने लगता है। उसकी दुकान की बगल में एक शेयर होल्डर एजेंट का दफ़्तर था। उसका नाम दिलबाग सिंह था। दिलबागसिंह लंबा चौड़ा हंस मुख और अपने व्यवसाय का एक तजुर्बेकार एजेंट था। डन दोनो की अच्छी दोस्ती थी। मार्केट में तेज़ी का रुख़ था इसलिए चंद्रप्रकाश ने दिलबाग के कहने से एक बिलकुल नयी कंपनी के बीस लाख के शेयर खरीद लिए। उस समय तक कंपनी अच्छा लाभांश दे रही थी। समय ने करवट बदली, व्यापार में घाटा हो गया, उधर शेयर मार्केट ने भी उल्टी पलटी मारनी शुरू कर दी, कंपनी में ताला पड़ गया। चंद्र प्रकाश जी के 50 लाख रुपये डूब गए। बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे थे, हाँ इतना था कि सारे बच्चे 12वीं पास कर चुके थे 1 आगे पढ़ाने की हिम्मत जबाब दे गई थी।
चंद्र प्रकाश जी ने दिल्ली की दुकान बेच दी और साथ ही दिल्ली को भी बाई बाई कह दिया। वे सीधे नरेंद्र नगर टेहरी गढ़वाल चले गए। यहाँ उन्होने एक छोटा सा मकान लिया और साथ ही एक दुकान भी खरीद ली। तीनों बच्चों ने अपने अपने लिए काम ढूँढ लिया। लड़की ने एक पब्लिक स्कूल में अध्यापन का कार्य संभाल लिया, दोनो लड़कों ने टे हरी बाँध में ठेकेदार का कार्यालय संभाल लिया। जिंदगी के दो पक्ष होते हैं, अंधेरा पाक और उजाला पाक। रात के बाद दिन निकलता है वैसे ही चंद्र प्रकाश जी के जीवन में भी एक नया सूरज निकल आया। तीनों बच्चे काम भी करते रहे और आगे की पढ़ाई भी करते रहे। दश साल के अंदर सबकी शादी भी कर दी गई। दोनों लड़कों ने टेहरी डैम के नज़दीक ही मकान ले लिए और परिवार के साथ वहीं रहने लगे। लड़की अपने पति के साथ यूरोप चली गई। नरेंद्र नगर में अब केवल चंद्र प्रकाश जी और उनकी पत्नी ही रह गए। गर्मियों की छुट्टियों में दोनों लड़कों के बच्चे अपने दादा दादी के पास आ जाते थे। इस बार भी तीन बच्चे बड़े के और एक छोटे बेटे का नरेंद्र नगर आ गए। उनके घर के पास ही एक साफ सुथरा पार्क था। चारों बच्चे वहीं पार्क में चले जाते थे। सबसे बड़ा बच्चा 7 साल का था और सबसे छोटी लड़की 3 साल की थी।
एक दिन ये बच्चे खेल रहे थे की क्या देखते हैं एक नेवला पार्क में आकर घूमने लगा जैसे कुछ ढूँढ रहा हो। वह इन बच्चों से नहीं डरा। पहले तो बच्चे उससे दूर दूर ही रहे, फिर उससे दोस्ती क हाथ बढ़ाने लगे, कोई उसके लिए रोटी लाता कोई पानी तो कोई दूध, उसने पानी पिया फिर दूध का स्वाद लिया। अब तो वह भी बच्चों के संग संग दौड़ने लगा। बच्चों को खेलने के लिए एक खिलौना मिल गया। शाम तक बच्चे उसके साथ खेलते और जैसे जैसे सांझ होने लगती नेवला चला जाता और बच्चे घर आ जाते। ये रोज की दिन चर्या बन गई, बच्चे पहले उसे खिलाते पिलाते फिर उसके साथ खेलने लग जाते। और एक दिन बच्चे खेल ही रहे थे की वहाँ पार्क में एक काला कोबरा साँप आ गया। चारों बच्चे डर के मारे एक दूसरे पर चिपक गए। वहाँ से बच्चे भाग भी नहीं सकते थे। नेवले ने भी साँप को देख लिया। साँप बड़ा और नेवला काफ़ी छोटा था। साँप बच्चों की तरफ बढ़ रहा था। अचानक नेवला अपनी जगह से उछला और उसने साँप की गरदन अपने मुँह में ले ली। अब साँप और नेवले की घमासान लड़ाई शुरू हो गई। साँप नेवले को अपने फंदे में कसने की कोशिश करने लगा। लेकिन नेवला अपने को बचा लेता, मजबूती से उसकी गरदन दबाता रहा। काफ़ी जद्दो जहद के बाद आख़िर कार साँप ने दम तोड़ दिया और वह मर गया! नेवला भी काफ़ी घायल हो चुका था और ज़मीन में पड़ा पड़ा तड़प सा रहा था। इतने में बच्चों के दादा दादी बच्चों को ढूँढते हुए वहाँ पार्क में आए,
यहाँ उन्होने जो दृश्य देखा उनके रोंगटे खड़े हो गए। जब बच्चों ने उन्हें नेवले की कारस्तानी बताई तो उन्होने घायल पड़े नेवले को हाथों में उठा लिया, उसके ज़ख़्मों पर दवाई लगाई और उसे घर ले आए। कुछ दिनों में नेवला अच्छा चंगा हो गया और उस परिवार का पक्का सदस्य बन गया। बच्चों का सच्चा दोस्त बन गया। ( हरेन्द्रसिंह रावत - द्वारका दिल्ली )
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हसीन यादें - संस्मरण
जब कर्ज़दार दरवाजे पर खड़ा था
ग़रीबी एक बड़ा अभिशाप है, ख़ासकर उन लोगों के लिए जो जिंदगी से हार मान लेते है। जिन्होंने ग़रीबी नज़दीक से देखी है और संघर्ष करते हुए उसके चक्रव्यूह से निकल गये, जिनको ग़रीबी ने छू तो दिया था लेकिन अपने बाहुपाश में नहीं जक ड पाई, वे आज समाज में अपना स्थान बना चुके हैं, वे ग़रीबी की परिभाषा अच्छी तरह समझते हैं और ग़रीबों का दुख दर्द बखूबी समझ सकते हैं।
मैं केवल 8 साल का था जब मेरे पिता जी भगवान के पास चले गये थे, माँ कहती थी की अच्छे आदमियों को भगवान अपने पास बुला लेता है इसलिए मेरे पिताजी को भी भगवान जी ने अपने पास बुला लिया था। घर में बूढ़े दादा जी, माँ और हम चार भाई और एक बहिन रह गए। सबसे बड़े भाई 14 साल के और सबसे छोटी बहिन छ महीने की। छ महीने के अंदर ही चार साल का भाई भी हमें छोड़ कर पिता जी के पास चला गया, वह तो आज़ाद हो गया लेकिन हमको गहरा जख्म दे गया। वह बहुत ही खूबसूरत और हंस मुख सबकी आँखों का तारा था। माँ तो जैसे पागल ही हो गई थी। हँसते खेलते अचानक पेट में दर्द हुआ और वैद्य के आने से पहले ही उसने सदा के लिए आँखें मूंद ली!
लेकिन मेरी माँ ने फिर हम को देखा, जो चला गया वह तो अब आने से रहा लेकिन जो सामने हैं उनको संभालना माँ ने अपना मक़सद बना लिया। पिता जी नकद कुछ छोड़ कर नहीं गए थे सिवाय दो बैलों के, लेकिन अपनी बीमारी का कर्ज़ हमारे सिर पर न डाल कर अपना दुख स्वयं ही साथ लेकर चले गए। ज़मीन काफ़ी थी, उस समय के लोग भी अच्छे और मददगार थे। वक्त बेवक्त हमारे कुल पुरोहित के परिवार वाले सदा आस पास ही रहते थे। खेती के अलावा इनकम का कोई और साधन नहीं था। बड़े भाई हल लगाता, बैलों की जोड़ी को संभालता, उनकी अच्छी सेवा की जाती थी और बैल भी प्रेम चंद के दो बैलों की जोड़ी जैसे ही थे। माँ पूरा घर का काम करती, खाना बनाना, चौका, चूल्हा से लेकर, लकड़ी- घास का इंतज़ाम करना, मवेशियों को देखना, बच्चों को देखना और फिर खेतों में भी हल के साथ साथ काम करना।
ज़्यादा काम करने से माँ को अर्द्ध कपाली का दर्द शुरू हो गया था फिर भी माँ ने बच्चों के भविष्य सुधारने के लिए अपने स्वास्थ्य की चिंता नहीं की। कही कठिनाइयाँ आई, लेकिन माँ ने संघर्ष किया हार नहीं मानी! घड़ी की टिक टिक की तरह समय भी आगे भागता गया, मैं अपने मामा कोट पढ़ने के लिए चला गया, बड़े भाई ने भी काफ़ी ज़िम्मेदारियाँ संभाल ली थी, वे सर्दियों में 6 महीनों के लिए जंगलों में ठेकेदारों के पास चले जाते थे, खेती से खाने के लिए अनाज हो जाता था और कपड़े, नून तेल, गुड के लिए भाई साहेब कुछ कमा कर ले आते थे। उस समय वेतन के नाम केवल 35 - 40 रुपये महीने के मिलते थे, उनमें अपना खाना, पीना शामिल था, उसके बाद जो कुछ बचता उसे घर ले आता था। गाड़ी अब कुछ कुछ पटरी पर आ गई थी। दादा जी भी 75 साल के उमर पूरी करके स्वर्ग सिधार गए थे।
8 साल बीतते बीतते मैंने 10वीं कर लिया था, छोटा भाई पांचवी पास कर गया था। मां अकेली पद गई थी इसलिए बड़े भाई की शादी कर दी। भावी भी ग़रीब घर से आई थी लेकिन बड़ी सुशील और परिवार को एक जुट रखना चाहती थी। उन दिनों लड़की वाले लड़के वालों से पैसा लेते थे, हमने भी करीब एक हज़ार के करीब शादी में लगाए सब कर्जे ले कर। यह कर्ज़ तो बड़े भाई साहेब थोड़ा थोड़ा करके देते रहते थे, कर्ज़दारों को भी अब हम पर यकीन होने लगा था। उन दिनों बहुत से आस पास के लोग पहाड़ों में अपनी ज़मीनें बेच कर भावर (मैदानी इलाक़ा) आ गए। यहाँ घना जंगल था, जंगल काट कर खेत बनाए गए, कच्ची नहरें निकाली गई, काफ़ी मेहनत करने के बाद भावर को आबाद कर दिया गया। उस दिनों वहाँ ख़तरा भी बहुत था, मलेरिया का ख़तरा, सबसे बड़ा ख़तरा था, जिससे बहुत से लोग काल कवलित हो गए। जंगली जानवरों का ख़तरा जो खड़ी फसल को नुकसान पहुँचा दिया करते थे। इन ख़तरों का सामना करते हुए लोग मेहनत करते रहे और अब तक उनकी मेहनत रंग लाई, यहाँ बड़ी मात्रा में गेहूँ और धान होने लगा, पहाड़ों के लोग जहाँ खेती उपर वाले के भरोसे की जाती थी, वर्षा हो गई तो फसल हो जाएगी नहीं तो भावर से गेहूँ धान मंगाने पड़ते थे। हमने भी खेती न होने की वजह से दो मन धान (आजके 74 के जी) भावर से मंगवा लिए 16 रुपये उधार पर। उन दिनों माँ मेरा छोटा भाई व बहिन ही घर पर थे। बड़े भाई अपनी नौकरी पर थे और मैं भी
नौकरी की तलाश कर रहा था। मैंने एक ठेकेदार के पास 40 रुपया महीने के हिसाब से 3 महीने काम किया। 60 रुपया मेरे खाने पीने कपड़े लते में खर्च हो गए और कोटद्वार से 30 रुपये माँ को मनीआर्डर करके मैं दिल्ली चला गया। इधर गाँव में धान भेजने वाला पहुँच गया अपने 16 रुपये माँगने के लिए, घर में एक पैसा नहीं माँ बहुत परेशान, कर्ज़दार यह कहकर चला गया की "कल 11 बजे मैं फिर आ उँगा, अगर कल तक पैसे नहीं मिले तो मैं कोर्ट केस कर दूँगा," माँ रात भर सो नहीं सकी , 'कहाँ से आएँगे सुबह तक रुपये, कहाँ से देंगे कर्ज़दार का कर्ज़'।
माँ कहती थी, की "मैने कितनी परेशानियों का सामना किया था लेकिन यह तो जिंदगी का सबसे बड़ा संघर्ष था जो बिना पैसों के हाल नहीं हो सकता था। मैं सोचती थी की हरेन्द्र की नौकरी नही है, बड़ा लड़का कुँवरसिंह अभी अभी गया है फिर पैसे कहाँ से आएँगे, ईश्वर ही मालिक है, जो करेगा वही करेगा, यह सोच कर कुछ तसल्ली मिल जाती लेकिन फिर वही सवाल सामने आता की कौन भेजेगा पैसे," रात गुजर गई, दिन निकल आया, 10 बज गए, चिंता ज़्यादा बढ़ने लग गई, और अचानक सामने माँ को पोस्टमैन दिखाई दिया, माँ कहती थी " मैने सोचा की चिट्ठी आई होगी, वह हमारे ही घर आ गया, चाय पानी पीने के बाद वह बोला आपका मनीआर्डर आया है 30 रुपये का, यह सुन कर जैसे मेरे कानों में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी , उस दिन मैं अपने को संसार की सबसे भाग्यशाली माँ समझने लगी, जिसके ऐसे मातृभक्त बच्चे हैं जिन्होंने ऐन मौके पर अपने घर की अपने परिवार की इज़्ज़त रख ली। 16 रुपये कर्ज़ दार के दिए पाँच की भीली मँगवाई और पुरे गाँव में बँटवाई कि मेरे दूसरे लड़के की पहली तनख़्वाह आई है" आज माँ नहीं है लेकिन उनका आशीर्वाद हम भाइयों के साथ है। हरेन्द्र दिल्ली
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कविता
जब जब फूल खिले
सप्त रंगी फूल खिले उपवन में, एक फूल निराला था, मीठी मीठी खुशबू देता मंद मंद मुस्कराता था!
इक लड़का भोला भाला सा रोज उपवन में आता था, उसी फूल के आगे आकर रोज खड़ा हो जाता था!
एक दिन ज़ोर की आँधी आई, फूल टूट कर बिखर गया, पर अपनी खुशबू फैलाकर हर दिल में वह उतर गया।
वह लड़का जब उपवन में आया उसने फूल नहीं पाया, बिखरी पंखुड़ी पड़ी ज़मीन पर अश्रु बिंदु गालों तक आया!
रहता वह गमगीन सदा ही फिर भी बाग में आता था, मीठी सी मुस्कान फूल की, यादों में खो जाता था।
एक दिन वह भारी मन से सेना की छावनी में आया, पहन कर वर्दी सैनिक की वह जंग बहादुर कहलाया।
उधर मची हलचल सरहद पर, दुश्मन आगे बढ़ आया, ले सैनिक की टुकड़ी साथ में सरहद पे तिरंगा लहराया।
वह कहता था "जिऊँ मैं जब तक फूल ही जैसे मुस्काउँ, वीर गति पाउँ यदि रण में सुगंध फूल जैसी फैलाउँ।
और आया वह दिन जल्दी ही, जब सीने में गोली खाई, कहर बरपाया दुशमन पर, उसने भगदड़ वहाँ मचाई।
आखरी दुश्मन गिरा ज़मीन पर वह भी ज़मीन पे आया, थी मुस्कान चेहरे पर उसकी यंदूत ने शीश झुकाया!
जब जब फूल खिले उपवन में हर बार एक फूल निराला था, सैनिक जैसे तन कर रहता, मंद मंद मुस्कराता था!
माँ सैनिक की वाग में आती, जब जब फूल खिले, आँखों में आँसू आ जाते, जब फूल से गले मिले। जब जब फूल खिले।!!
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