कनकलता पैंतालीस-छियालीस साल की एक सुशिक्षित संभ्रात महिला। अच्छी मां, सुघड गृहिणी। घर के कामकाज में पारंगत। जैसी नियमित दिनचर्या उसी के...
कनकलता पैंतालीस-छियालीस साल की एक सुशिक्षित संभ्रात महिला। अच्छी मां, सुघड गृहिणी। घर के कामकाज में पारंगत। जैसी नियमित दिनचर्या उसी के अनुरूप सलीके से व्यवस्थित घर। आदर्श पत्नी के रूप में पति की आज्ञाकारी भी वे रहीं, पर भला पति का साथ उन्हें मिला ही कितना...., मात्र सात साल। तभी से उनके भावविहीन गौरवर्णी गोल चेहरे पर दुख दर्द की परत ठहरी हुई है। इधर ठहराव के बावजूद कैसे पंख लगाकार फुर्र हो गए बीस-इक्कीस साल....।
आज सुबह कनकलता की नजर जब अखबार की मुख्य हेडलाइन पर ठहरी ‘95 साल की महिला सती, बेटों ने ही मां को सती होने के लिये उकसाया' तो उनका मस्तिष्क बुरी तरह परेशान हो गया। सती होने वाली घटनाओं से संबंधित समाचार पढ़कर वे अक्सर भीतर तक दहल जाया करती हैं। आज से ठीक बीस साल पहले राजस्थान के दिवराला गांव में रूपकुंवर के सती होने की घटना सामने आई थी तब भी वे परेशान हो उठी थीं। कैसे अठारह-उन्नीस साल की यौवन ग्रहण कर रही नवौढ़ा रूपकुंवर को पति की चिता के साथ जल जाने के लिये लाखों लोगों के बीच चूनरी रस्म का आयोजन किया गया। ढोल धमाकों के बीच सती होने के लिये उकसाकर लाचार बना दी गई देह को लकड़ी के भारी गट्ठरों के बीच दाब दिया गया। फिर देवर ने ही जिंदा औरत को मुखािग्न दे दी। कहा तो यह जा रहा था कि सती के ‘सत' से आग निकलेगी ? पर सती के सत से कभी आग निकलती है भला ? वह तो पाखंडियों द्वारा आग निकलने का आडम्बर रच दिया जाता है। रूपकंुवर के शरीर ने जब आंच पकड़ी तो वह रहम की भीख मांगती हुई मद्द के लिये चिल्लाई भी थी। पर सती के बहाने हत्या के लिये आमादा खडे़ निर्मम पाखंडियों ने रूपकुंवर को लकडियां बिखेरकर चिता कहां फलांगने दी। देखते-देखते सती माता के आकाश चीरतें जयकारों के बीच दया की गुहार लगाती दर्दनाक चीखें खामोश होती चली गईं। एक समूची दुल्हन के रूप श्रृंगार से सुज्जित स्त्री-देह आग की लपटों के हवाले थी। काश रूपकुंवर को रीति-रिवाज और खोखली परंपराओं की निष्ठुर आग से बचाने के लिये कनकलता के ससुराल वालों की तरह रूपकुंवर के परिजन भी आड़े आ गए होते ? पर अनायास गौरवशाली जातीय परंपराओं की भावनाओं के वशीभूत कर दी जाने वाली स्त्रियां कनकलता की तरह सौभाग्यशाली कहां होती हैं ? ज्यादातर मामलों में सती हो जाने वाली स्त्रियों के परिजन ही सामाजिक मान्यताओं और परिस्थितियों के दास होकर सती हो जाने का माहौल निर्मित करने में सहायक हो जाते हैं। रूपकुंवर की चूनरी रस्म उसके पिता ने ही की थी। और अब पिनचानवें साल की कुरइया देवी को चिता के हवाले उसके चार बेटों ने ही किया।
कनकलता के मन मस्तिष्क में यादें के खुलासा करते हुये जीवंत हो उठी है....। इक्कीस साल पहले उस दिन संतान सातें थी। और कनकलता अपने मायके भितरवार में थी। भितरवार, बुन्देलखण्ड के प्रभाव क्ष्ोत्र में होने के कारण पारंपरिक पर्व त्यौहार, रीति रिवाज और मान्यताओं से कहीं गहरा वास्ता रखने वाला क्ष्ोत्र। संतान सातें यानी अपनी पुत्र संतानों में गुणकारी चरित्र प्रवाहित करने के लिये अलौकिक शक्ति से प्रार्थना एवं उपासना का दिन। कनकलता ने दोनों बेटों पियूष और कुणाल की लंबी उम्र और मेधावी बुद्धी के लिये व्रत रखा। वहीं कनकलता के चार बहिनों की पीठ पर इकलौते भाई के लिये उसकी मां ने भी व्रत रखा। उस दिन मां बेटी ने सुबह जल्दी उठकर दिनचयाएं निपटाने के बाद श्रृंगार किया। कनकलता ने गहरी नारंगी साड़ी पहनी। मेंहदी महावर रचाया। मांग में चुटकी भर सिंदूर की लंबी रेखा, पति की लंबी आयु के लिये खींची। माथे पर गोल टिकी जड़ी। सवा-सवा तौले की चांदी की चूड़ियां कलाइर्यों में पहनीं। सात और पांच साल के बेटों के लिये कढ़ाही में आसें (पूड़ियां) तलीं। गुड और कठिया गेहूं के चून में सनी आसें। फिर गोबर से लिपे आंगन में चौक (रंगोली) पूरकर पटा रखा गया। पटे पर आले से उठाकर पीतल के छोटे-छोटे भगवान विराजे गए। आसें रखी गईं। कलश में आम के पत्तों का झोंरा रख नारियल रखा गया। तब संतान सातें की कथा वांचकर पूजा पूर्ण हुई। नारियल फोड़कर बेटों को तिलक किया और उन्हें आसें खिलाईं। कनकलता मां और बहनें आंगन में ही बैठ मंगल गीत-गा रही थीं, तभी यकायक कनकलता के देवर रामगोपाल आंगन में आ खडे़ हुये। चारों बहिनें और मां अगवानी को तत्पर। देखा शांत रामगोपाल संपूर्ण संयम बरतते हुए बुद्बुदाने की कोशिश तो कर रहे हैं, पर बोल नहीं फूट रहे। फिर बमुश्किल बोलें, ‘‘भाभी तत्काल मुरैना चलना है।''
मस्तिष्क में आसन्न आशंकाओं के उठते विवर्तों के बीच चैन खो रही कनकलता बोली, ‘‘क्यों'' ? और उसने फिर अनुभव किया जैसे देवर लाला भीतर से उठ रहे किसी गुबार को जबरन साधने की कोशिश में लगे हैं।
कनकलता ने फिर उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह आशंकित हो गई जरूर कोंई अनहोनी घटित हुई है। कनकलता मां से निर्णायक स्वर में बोली, ‘‘मैं जा रही हूं मां।''
-‘‘तेरे पिता को तो आ जाने दे।''
-‘‘उन्हें भी मुरैना भेज देना।'' रामगोपाल बोले थे।
रामगोपाल पलटकर बाहर हो गए। पीछे-पीछे दोनों बेटों को लगभग घसीटती सी कनकलता थी।
बेचारी कनकलता का भाग्य जैसे किसी शरारती घोडे़ की तरह बिदक रहा है। भाग्य तो शायद पहले से ही बिदका हुआ था। सनत की वह जब ब्याहता बनी थी तब अपने भाग्य पर सखी सहेलियों के बीच खूब इतरायी थी। कुमारियां कल्पनाओं में जिस राजकुमार के ख्वाब देखा करती हंै सनतकुमार उन्हीं कल्पनाओं के साक्षी थे। एकदम अपेक्षित आकांक्षाओं के भव्य और दिव्य पुरूष। थे भी इंजीनियर। अच्छा वेतन। ऊपरी आमदनी अलग से। सब कुशल था। लेकिन विवाह के सात माह बाद जब कनकलता ने सतमासा बच्चा जन्मा तो सनत को नई-नई आशंकाओं ने घेर लिया। वे अपने ही अंश से उत्पन्न पुत्र को अवैध करार देते-देते लगभग बौरा गए। बौराई बुद्धि के उपचार के लिये सासू मां ने जब संदूक से मनोरोग चिकित्सक डाॅ. मल्होत्रा के पुराने पचोंर् की फाइल निकालकर देवर जी को दी तब कहीं रहस्य खुला कि सनत के मन की नम धारा पर मनोविकार के पौधे पिछले कई सालों से गहरी जडें जमाए हुए हैं। और अब जब भी अपनी इच्छाओं के विरूद्ध कोई अनहोनी घटित देखते हैं तो मन पर से बुद्धि का नियंत्रण दूर हो जाता है और वे सनक के दायरे में आने वाले ऊटपटांग बकने लगते हैं। विवाह से पूर्व सनत की सनक को कनकलता और उसके परिजनों से छिपाया गया था। बेचारी कनकलता माथा पकड़कर भाग्य को कोसती वेबस रह गई। अब सफाई दे भी तो किसे ? और सफाई सुने भी तो कौन ? जिस पति की काबिलियत पर कल तक कनकलता इतराती थी आज उसी की हरकतों को सामान्य व्यवहार जताकर छिपाने की नाकाम कोशिश करती रहती है। औरत की जिंदगी की विचित्र बिडम्बना है यह। लेकिन उसकी भी अपनी स्वार्थ भावनाएं हैं जो उसे पुरूष की प्रतिच्छाया बनी रहने के लिए मजबूर बनाएं रखती हैं।
कलंक दंश झेलती कनकलता बौराई अवस्था में भी पति का साथ निभाती रही। इस बौराई अवस्था में भी दैहिक सुख के लिये गोंच की तरह कैसे उसकी देह से चिपटे रहते थे सनत। काम सुख के दौरान पवित्रता-अपवित्रता का सनत की बौराई बुद्धि को भी कहां खयाल रहता था ? डाॅ. मल्हौत्रा मैडम के उपचार से सनत साल छह माह के लिये ठीक हो जाते और जब कभी कोई बात कांटे की तरह चुभ जाती तो फिर खिसक जाते। कठिन परिस्थितियों से समझौता करती कनकलता चार साल बाद एक और बेटे की मां बनी। नवजात शिशु की शक्ल ने जब हुबहू बड़े बेटे की शक्ल से मेल खाया तो सनत की शंकाऐं कहीं उन्हीं के शरीर में कहीं डूब गईं। कनकलता ने चैन की सांस ली और जीवन फिर पटरी पर आ गया। पर सनत का तबादला जब एकाएक दूरदराज सतना कर दिया गया तो मनस्थिति फिर विचलित होकर बौराने लगी। सतना में उनका मन नहीं लगता। बच्चों का बहाना लेकर बार-बार भाग आते। पसोंर् ही तो सनत कुतुब एक्सप्रेस से सतना गए थे। फिर क्या वे लौट आए और लौटने के बाद उन्होंने कहीं कुछ कर तो नहीं लिया.....? क्योंकि वे अकसर रेल से कटकर मर जाने की धौंस दिया करते हैं।
मुरैना घर के पास पहुंचने पर कनकलता हैरान....., भयभित ! परिचित अपरिचित लोगों की भीड़। मातमी सन्नाटा। कनकलता आगे बढी तो लोगों ने गैल छोड़ दी। कनकलता आंगन में पहुंची तो देखा मुंह में पल्लू दबाए बैठी औरतों से आंगन ठसा था। सभी औरतें उसे ही विचित्र निगाहों से देखे जा रही थीं। कनकलता समझ गई सनत के साथ कोई न कोई अनहोनी घट चुकी है। खुद को संभालती वह भीतर के कमरे थी। कमरे के कोने में वह दीवार के सहारे खड़ी हुई और फिर दीवार के सहारे ही खिसककर बैठ गई। सासू मां भीतर आई तो कनकलता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अम्मां ?''
- ‘‘का मुंह से कहूं दतिया बारी तेरे करम फूट गए।'' और सासू मां छाती पीटकर बुक्का फाड़ रो पड़ी। उन्हें संभालने को बुजुर्ग औरतें दौड़ी आईं। प्रलाप करती हुईं वे बेटे की मौत रहस्य भी उजागर करती जा रही थीं, ‘‘सबेरेईं कुतुब से लौटो हतो.......। केततो अम्मां मोय कलसेई जा भ्यास रई ती कि कनकलता....ए.....और दोनों मोड़ा......ने........काउ ने तलवार से काट दये.......। बाबूजी गोपाल के संग ग्वालियर दिखा लावे के इंतजाम में लगेई हते.....,के जाने कब पिछवाडे़ के किवाड़ खोल निकर गओ...। फिर कछु देर में तो खबर...ई....आ गई के सनत रेल से कट मरो.....। कौन बुरी घड़ी आन परी भगवान....रक्षा करिओंं...।''
इतना सब घटने के बावजूद कनकलता बेअसर, शांत। आल्ती-पाल्ती मारे प्राणायाम की मुद्रा में धीर-गंभीर।
कोई आंसू नहीं। पति का साथ छोड़ देने का रूदन-क्रंदन नहीं। उसका आभामण्डल चेहरे की लालिमा से जैसे अलौकिकता लिए दीप्त हो उठा हो...। कनकलता की तात्कालिक परिस्थितियों में निर्लिप्त, निर्विकार हालत देख आंगन में बैठी औरतें फुसफुसाई भीं, ‘‘कैसी विचित्र औरत है भर जवानी में आदमी के मर जाने पर भी आंसू नहीं फूट रहे।'' जितने मुंह, उतनी बातें।
लगभग दिव्य प्रतिमा में परिवर्तित कनकलता किसी साध्वी की तरह बोली, ‘‘हमें मालूम था यही होना है। हम भी जाऐंगे। हमारा उनसे वादा था। हम उन्हीं के साथ जाऐंगे। सती होएंगे। हमें वहां ले चलो जहां हमारे परमेश्वर का शरीर रखा है। आप लोग रोऐं नहीं, शांत रहें। जल्दी करो, हमें पति देवता के पास ले चलो.....।''
कनकलता एकदम उठी और बाहर की ओर दौड़ पड़ी। उसकी सास जिठानी और भतीजियों ने उसे हाथ पकडकर थाम लिया। सास बोली, ‘‘ऐसा नहीं करते बेटी, बच्चों की तरफ देख, बाप का साया तो उठ ही गया तेरा और उठ जाएगा तो इन दुधमुंहों को कौन पालेगा..., दुलारेगा...?''
- ‘‘कोई फिकर नहीं अम्मां, उनके सब हैं। दादा दादी हैं। नाना-नानी हैं। काका-काकी हैं। इन सब बुजुर्गों का आशीर्वाद उन पर रहेगा ही..., फिर ईश्वर मालिक है। हमें किसी से कोई मोह नहीं...? हम जाऐंगे। हमें जाने दो। अब हमें दुनिया की कोई ताकत सती होने से नहीं रोक सकती। यही इर्श्वर इच्छा है।''
- ‘‘हमरे तो वैसेई जवान मोडा के भर बुढापे में साथ छोड़ जाने से प्राण हलक में आ अटके हैं। हमरे अब कछु बसकी नई रई। अब तो इर्श्वर से एकई प्रार्थना है जल्दई प्राण हर ले, तासे बचो-खुचो जो जनम सुधर जाए। बुद्धि संयम से काम ले बहू और बच्चों की ओर देख...।'' सासू मां ने खुद को संयत करते हुए कनकलता को समझाइस दी। संवाद प्रति संवादों का दौर जारी रहा।
कनकलता का पति के प्रति अतिरिक्त लगाव से सनाका खिंच गया। कुछ महिलाऐं उसे संभाल रही थीं तो कुछ सती की शक्ति समझ सहमकर पीछे हट गईं थीं, कहीं सती का श्राप न लग जाए। कुछ ही पलों में कनकलता के सती होने की खबर घर से बाहर आई तो देखते-देखते पूरे कस्बा और आसपास के ग्रामों में फैल गई। फिर कनकलता के घर की ओर तमाशाइर्यों का रेला फूट पड़ा। गली-गलियारों में लोग। छतों पर लोग। पेड़ों पर बैठे व लटके लोग। सती माता के जयकारों से आकाश फट पड़ा। ढोल-धमाके, मंजीरे-चीमटों की सुरी-बेसुरी ध्वनियों ने जैसे सती मैया को पति की चिता के साथ अग्नि स्नान कर लेने के लिये संपूर्ण माहौल ही अनायास रच दिया हो।
जवान बेटे की अकाल मौत के गम में भी शव विच्छेदन की कानूनी कार्यवाही में लगे पंडित रामनारायण के कानों में बहू के सती होने की रट लगाए जाने की खबर पहुंची तो बेहाल बेचारे कागजी कार्यवाही जस की तस छोड अपने भाइर्यों के साथ घर की ओर भागे। पुलिस बंदोबस्त के लिये भी कहते आए।
रामनारायण और उनके भाइर्यों ने घर पहुंचने पर विचित्र माहौल देखा तो हैरान रह गए। जिधर आंख फेरो, उधर ही लोगों का तांता। ढोल-धमाकों के बीच, सती मैया के जयकारे। एक क्षण तो उन्हें लगा यह तो 1942 की अगस्त क्रांति सी स्थिति बन गई। रामनारायण ने भी इस आंदोलन में भागीदारी की थी। अंग्रेजी हुक्मरानों की लाठियां खाई थीं। जेल भी गए थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के कारण पूरे इलाके में उनकी साख भी थी और धाक भी। सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज जैसी कुरीतियों के वे सदा मुखर व प्रबल विरोधी रहे। स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह के वे प्रबल पक्षधर थे। वे खुद तो पांचवी जमात तक पढे थे लेकिन बहू-बेटियों को पढ़ाने मंे कभी पीछे नहीं रहे। कनकलता ब्याह के वक्त केवल हायर सेकेण्डरी थी। लेकिन बाबूजी (रामनारायण) के आग्रह के चलते उसने बी. ए. किया और अब संस्कृत से एमए कर रही है।
रामनारायण ने घर पहुंचकर परिस्थिति को समझा और कुछ ही क्षणों में ठोस निर्णय लेकर ढोल-धमाके बजाने वालों को डांटकर बंद कराया। जयकारे लगा रहे लोगों को भी उन्होंने डांटकर चुप कराने की कोशिश की। परंतु भीड़ इतने बडे क्ष्ोत्रफल में फैली थी कि रामनारायण की आवाज बिना माइक के सब लोगों के कानों तक नहीं पहुंच सकती थी। बहरहाल माहौल कुछ शांत जरूर हुआ। लेकिन पेड़ों पर बैठे-लटके लोगों का कोई न कोई समूह सती मैया के जयकारे लगा ही देता।
रामनारायण थोडी बहुत स्थिति नियंत्रित होती देख सीधे कनकलता के कमरे में दाखिल हुए। चार छह महिलाओं द्वारा जबरन थामे रखी कनकलता उनके समक्ष थी। झूमा-झपटी में उसकी साड़ी का पल्लू नीचे सरक गया था। बाल बिखर गए थे। बेजा ताकत का इस्तेमाल करने के कारण मांग का सिंदूर माथे से लकीरों में बहकर उसके चेहरे को डरावना बना रहा था।
दीवार बने बाबूजी दहाड़े, ‘‘यह क्या नाटक बना रखा है बहू.....? ईश्वर ने जो जीवन दिया है वह अकाल व अनावश्यक बलिदान के लिये नहीं है ? तुम जो सोच रही हो वह जीवन का अनादर है। जीवन को मारकर नहीं जीवन को जीकर पति को याद किया जा सकता है....। पति की स्मृति में बेटों को अच्छा इंसान बनाने का व्रत संकल्प लो और यह सती-अती का आडंबर छोड़ो....। सती..., अपराध कर्म है।''
- ‘‘नहीं बाबूजी हम जाएंगे। हमारा उनसे वादा था......।''
- ‘‘वादा जीवितों के संग निभाये जाते हैं बेटी। मरों के संग मरना तो जीवन की हार है। अपने मन को उस दलदल से बाहर निकालो जहां तुमने अपने लिये सोचना ही बंद कर दिया है ?''
- ‘‘नहीं बाबूजी हम कुछ नहीं सुनेंगे..., हम तो सती होएगें। परमात्मा की यही इच्छा है।''
इस बार रामनारायण कड़क हुए, ‘‘हमारे जीते जी यह अनर्थ नहीं हो सकता। सती ईश्वरीय इच्छा होती तो राजा दशरथ की रानियां सती न हुई होतीं ? वे तो तीन-तीन थीं..., एकाध हुई सती ? बहुत हो गया अब त्रिया प्रपंच ! इसे चार औरतों के साथ कमरे में बंद कर के द्वार पर ताला जड़ दो.....। सती में सत होगा तो ताला भी आपसे आप खुल जाएगा और द्वार भी ! हमें भी तो चमत्कार से साक्षात्कार हों ?''
सती के सत का कोई चमत्कार सामने नहीं आया। कनकलता को भी बाद में लगा उसकी सती होने की जिद भी बौराई बुद्धि की तरह एक मतिभ्रम ही थी। बाबूजी इतनी शक्ति से पहाड की तरह आडे़ न आए हुए होते तो वह कब की जल मर खप गई होती....। उस वक्त उसके अंतर्मन में न जाने कहां से पति की चिता के साथ जल जाने की भावनाऐं एकाएक विकसित हो तीव्र हो उठी थीं। उसे तो लगने लगा था निश्चित रूप से किसी अलौकिक शक्ति का अनायास ही प्रगटीकरण होगा और बाबूजी समेत सब उसके सतीत्व के समक्ष चमत्कृत होकर दण्डवत होंगे और वह भीड़ को चीरती हुई पति की चिता पर पहुंचेगी। पति का सिर गोदी में रखेगी और फिर कोई आलौकिक शक्ति अग्नि बन फूट पडे़गी ?
पर अब लगता है धार्मिक अंधविश्वासों के चलते सती के सत से चिता में आग पकड़ लेने का रहस्य विधवा स्त्री के विरूद्ध एक सामाजिक षडयंत्र के अलावा कुछ नहीं है ? वाकई जीवन की सार्थकता सती के बहाने मर जाने में नहीं थी बल्कि संपूर्ण जीवटता और सामाजिक सरोकारों के साथ दायित्वों का निर्वहन करते हुए ही जीने में थी। कनकलता फिर स्मृतियों में......।
रात नौ बजे कनकलता के कमरे के द्वार खोले गए। कुछ औरतों ने भीतर जाकर सूचना दी दाह संस्कार हो गया। कनकलता के कानों तक भी खबर पहुंची। शायद उसे सुनाने के लिये ही खबर पहुंचाई गई थी। कनकलता बुदबुदाई, ‘‘बाबूजी ने हमारे साथ अच्छा नहीं किया। कम से कम हमें अंतिम दर्शन तो कर लेने देते। परिक्रमा तक नहीं कराई......?'' फिर जैसे-जैसे उसके अंतर्मन में यह विश्वास पुख्ता होता चला गया कि वाकई पति का अंतिम संस्कार हो चुका है तो उसकी आंखें डबडबा आईं और वह फूट पड़ी। कमरे में मौजूद अनुभवी औरतों ने जैसे चैन की सांस ली और कनकलता को जी भरकर रोने के लिये अपने हाल पर छोड़ दिया। पौर में कुटुम्बियों के साथ बैठे रामनारायण के कानों में बहू के कर्कश रूदन-क्रंदन ने टंकार दी तो हथेलियों से चेहरा छिपाते उनका साहस भी जैसे टूट गया, ‘‘बड़ा अनर्थ कर दिया रामजी...? अब विपदा संभालने की ताकत भी तू ही देना....।''
और फिर बिलखते-सुबगते कर्मकाण्ड की तैयारियों व निवृतियों में पहाड़ सा समय बीतने लगा। तीसरे दिन अस्थि संचय के बाद कनकलता ने बच्चों के साथ इलाहबाद संगम पर जाकर पति के फूल विसर्जन की इच्छा जताई तो बाबूजी ने इजाजत दे दी। कनकलता के मन को संतोष हुआ। उसका टूटा धीरज बंधने लगा। बेटों के प्रति भी वह आकर्षित हुई। कनकलता की जिजीविषा पल प्रति पल चैतन्य हो रही थी और उसके भीतर अनायास यह भाव उभरने लगे थे कि वह जिऐगी....। बच्चों को अच्छा पढ़ा-लिखाकर लायक बनाएगी....।
असमय पति की मौत के दंश ने कनकलता की चंचलता लगभग हर ली थी। खामोशी की भाषा ही जैसे उसके आचरण व्यवहार, इच्छा-अनिच्छा को व्यक्त-अव्यक्त करने का प्रमुख आधार बन गई। श्वसुर रामनारायण ने बहू को कभी सहारे का अभाव या आश्रय की कमी नहीं खटकने दी। बेटे की तेरहवीं के बाद वे बहू को लेकर ग्वालियर पहुंचे और शिक्षा विभाग में अनुकंपा नियुक्ति के लिये अर्जी लगवा आए। कुछ दिन की भाग दौड़ के बाद सरकारी विद्यालय में कनकलता को सहायक शिक्षिका के पद पर अनुकंपा नियुक्ति भी मिल गई। बाबूजी ने अपनी ही बिरादरी के एक मित्र के मकान में कनकलता को दो कमरे किराये से दिला दिए और दोनों बेटों के साथ कनकलता को ग्वालियर रख दिया।
कनकलता ने सरकारी नौकरी के आर्थिक आधार और बाबूजी के वरदहस्त के चलते जीने की शुरूआत की तो फिर न तो उसने कभी पीछे पलटकर देखा और न ही कभी बिरादरी समाज में कमजोर साबित हुई ? विद्यालय के वरिष्ठ शिक्षक भगवान स्वरूप शर्मा का उसे विशेष सहयोग प्राप्त होता रहा। सरकारी काम से लेकर घरेलू कार्यों तक जब कभी भी कनकलता को मदद की जरूरत पड़ती तो वे हमेशा ही निर्लिप्त, निर्विकार भाव से तत्पर रहते। घनी दाढ़ी में छिपे दार्शनिक चेहरे के भावों केा पढ़ते हुए कनकलता अक्सर अनुभव करती कि शर्मा उसकी भावनायें किसी भी स्तर पर आहत न हों इसका बड़ा ख्याल रखते हैं। उनके व्यवहार में कनकलता की लाचारगी के प्रति हमेशा ही दया भाव बना रहता। जिसका अहसास भर कनकलता को संबल प्रदान करता रहता। शर्मा एम. एस - सी. होने के साथ विश्व विद्यालय प्रावीण्य थे। लिहाजा वे कनकलता के बेटों के लिए जरूरत पड़ने पर उचित मार्गदर्शन भी देते। ऐसे तमाम सहयोगी कारणों के चलते शर्मा कनकलता के पारिवारिक शुभचिंतक की भूमिका में थे। कनकलता के बेटे भी उन्हें परिवार के वरिष्ठ सदस्य की तरह मान सम्मान देते।
किस्मत कहिए या संयोग उसके दोनों बेटे पढ़ने में इतने अब्बल निकले कि बडा न्यूरो सर्जन बन लंदन में बस गया। डाॅक्टर लड़की से ही उसने शादी रचा ली। छोटा बेटा इनफारमेशन टैक्नोलॉजी में इंजीनियरिंग कर बैंग्लौर स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी सेलरी पर जॉब पा गया। उसने भी सजातीय इंजीनियर लडकी से शादी कर ली।
उम्र के प्रौढ़ पड़ाव पर कनकलता के समक्ष जैसे-जैसे वैभव अठखेलियां करने को आतुर हो रहा था..., वैसे-वैसे उसे आशंका हो रही थी कि उसके भाग्य का घोड़ा फिर से भटकने को बेताव हो रहा है...। कनकलता संस्कृत से एमए करने के बाद यूडीटी हो गई थी और फिर कुछ सालों बाद ही पदोन्नत होकर लेक्चरर। उसके सहयोगी भगवान स्वरूप शर्मा उसी विद्यालय में प्राचार्य हो गये थे। उसके दोनों बेटों ने आठ-आठ लाख रूपये मिलाकर माधवनगर में आलीशान मकान खरीदकर उसके जन्म दिन पर उपहार में दे दिया था। लेकिन अकेली कनकलता घर में क्या करे ? बेटे-बहुऐं नाती-पोते होते तो दुलारते-पुचकारते, डांटते-डपटते दिन फुर्र...र्र से गुजर जाता। पर अकेले में तो खाली दिन जैसे काटने को दौड़ता है। स्कूल के बाद रिक्तता दिन भर जैसे उसे निचोड़ती रहती है। समय गुजारने के लिये टीवी आॅन करती तो स्क्रीन पर उभरती उत्तेजक तस्वीरें बीस-इक्कीस साल से वैधव्य की गांठ से बंधे मन की चाहतों को जैसे रेशा-रेशा कर केशौर्य की अल्हड़ता की ओर धकेलने लगतीं। उम्र के इस दौर में तीव्र बैचेैनी के साथ अपने आप में ही वह खुद को तलाशने लगती ? वैधव्य ढोते-ढोते सामाजिक मर्यादा और बंधनों की औपचारिकता में उसके अवचेतन में ही स्त्री दब कर कहीं लुप्त हो गई थी। एक आदर्श स्त्री के भीतर छिपी एक और स्त्री। जिसे शरीर में ही उभरते वह कई दिनों से अनुभव करती, शर्मा के बेहद निकट पा रही थी। कनकलता ने जब उस स्त्री का पिछले शनिवार को प्रगटीकरण कर अभिव्यक्त्त किया, तब जैसे विद्यालय में भूचाल आ गया.....।
शनिवार को महिला दिवस था। इस अवसर पर महिला संबंधी किसी भी विषय को चुनकर विचार गोष्ठी आयोजित किये जाने के निर्देश लोक शिक्षण संचालनालय द्वारा दिये गये थे। कनकलता के विद्यालय में भी गोष्ठी आयोजित होनी थी। विषय चयन किया गया ‘‘बढ़ती सती की घटनायें और समाज'' कनकलता से इस विषय पर बोलने के लिए विशेष आग्रह किया गया। क्योंकि सब जानते थे कनकलता भी अपने पति की मृत्यु के समय सती होने की जिद के दौर से गुजरी है। ऐसे में उसकी तात्कालिक मानसिकता, स्थितियां और उनसे उबरने की जीवटता का वास्तविक चित्रण करने की अपेक्षा जरूरी थी। हांलाकि कनकलता बहस-मुवाहिशा, चर्चा-परिचर्चा और भाषण-संभाषण से हमेशा ही बचे रहने की फिराक में रहती। पता नहीं मंच से बोलते-बोलते वाणी से नियंत्रण कब हट जाए और मुंह से अनायास ही कुछ ऐसा-वैसा मुंह से निकल जाए जो बेवजह बवेला खड़ा कर देने का सबब बने। पर इस मर्तबा प्राचार्य शर्मा से लेकर ज्यादातर शिक्षकों की जिद थी कि कनकलता का तो भाषण जरूरी है। बहरहाल न-नुकुर करती कनकलता ने भी विचार व्यक्त करने की हामी भर ली।
सभाकक्ष ठसाठस। बतौर मुख्य अतिथि क्ष्ोत्रीय विधायक, विशिष्ट अतिथि संयुक्त संचालक शिक्षा और अध्यक्षता का दायित्व जिला शिक्षा अधिकारी संभाल रहे थे। वक्तव्यों का दौर शुरू हुआ तो ज्यादातर वक्ता सामाजिक उदारता और प्रगतिशील विचारों से परे सामाजिक कट्टरता, रूढ़ियों के खोखले आडंबरों को महिमामंडित करने के साथ वैचारिक पिछड़ेपन को उभारने का उपक्रम करते हुए सती हो जाने के लिए किसी हद तक स्त्री को ही दोषी ठहराने की कोशिश करते रहे। जैसे सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के मूल्यों को पुर्नस्थापित करने की होड़ में लगे हों। पर जब कनकलता की बारी आई तो जैसे स्त्री के प्रति वैचारिक क्रांति के शंखनाद ने आकाश भेद दिया हो, ‘‘लाचारी की अवस्था में स्त्री की लाचारगी को लेकर बहुत गहरे विचार व्यक्त करते हुए पीड़ा जताने की जरूरत नहीं है। क्योंकि शुभचिंतकों से बतौर सहानुभूति पीड़ा जताए जाने के मायने हैं स्त्री को और ज्यादा कमजोरी के दायरे में लाना। सती की घटनायें तो अब अपवाद स्वरूप ही घटित होती हैं लेकिन दहेज के अभाव में नवविवाहिताऐं रोज आत्महत्यायें कर रही हैं। मेरा ऐसा अनुभव और विश्वास है, जब एक स्त्री के तिल.....तिल प्राण निकल रहे होते हैं तब निर्णायक घड़ी में उसे बचा लेने के ठोस उपाय हम कहां कर पाते हैं....? हां मर जाने के बाद जरूर मुड़े-तुड़े पत्रों में कहीं दहेज प्रताड़ना की चंद पंक्तियां खंगालते हुए पुलिस कार्यवाही के लिए जितने बेचैन होते हैं, उतने पहले ही हो गए होते तो शायद एक जा रही जान को बचाया जा सकता था। जैसा कि आप में से ज्यादातर जानते हैं एक बुरे दौर में, मैं सती होने की जिद के दौर से गुजरी हूं। उस वक्त यदि मेरे श्वसुर कहीं गहरे आंसू बहाने में ही लगे रह गये होते तो मैंने भी पति की चिता में कूदकर आत्महत्या कर ली होती। यदि हर विवाहिता को मेरे स्वर्गवासी ससुर जैसा आशीर्वाद मिले तो न स्त्रियां सती हों और ना ही दहेज के लिए जलाई जाएं अथवा आत्महत्यायें करें ? मुझे तो अपने पितातुल्य श्वसुर पर इतना विश्वास था कि यदि मैं पुर्नविवाह की इच्छा जताती तो वे निश्चित मेरा पुर्नविवाह करने के लिए समाज की कोई परवाह किए बिना आगे आ जाते...? चूंकि हम परंपरावादी सोच और आदर्श छवि के छिलकों से ढंके हैं इसलिए खुद को इर्मानदारी से अभिव्यक्त करने में इतनी सतर्कता बरतते हैं कि कहीं लांछनों के घेरे में ना आ जायें ? अंत में मेरा उन सब महानुभावों से, प्रगतिशीलों से यही विनम्र विनती है कि मरने की स्थितियों से जूझ रही स्त्री को बचाने के लिए सही घड़ी पर सर्तक हो जाइए। घड़ी चूक गई तो तय मानकर चलिए एक और स्त्री की जान गई....।
कनकलता के क्रांतिकारी भाषण से बैठे लोग स्तब्ध रह गए। यह कनकलता क्या बोल गई, इसके वक्तव्य का क्या अर्थ लगाया जाए, यही कि कनकलता के मन में पुर्नविवाह के लिए भी कहीं दबी इच्छा थी ? अथवा है ? लोग सोचने लगे, यह कनकलता नहीं, उसके भीतर से इक्कीसवीं सदी की आधुनिक नारी बोल रही थी ? भगवान स्वरूप शर्मा के मन में भी कनकलता की अंदरूनी भावनाओं को लेकर तमाम सवाल उभर रहे थे। जिनके उत्तर पाकर वे जिज्ञासाओं पर विराम लगा देना चाहते थे। उन्होंने रात नौ बजे के करीब कनकलता को फोन लगाया, ‘‘तुमने तो आज स्त्री मन के भेद का उद्घाटन कर क्रांतिकारी भाषण दे डाला....। बड़ी चर्चा है...।''
- ‘‘न जाने क्यों लोग स्त्री से अपेक्षा करते हैं कि वह देह की कारा से मुक्त होने की बात सोचे ही नहीं... ? अब आपसे क्या छिपाऊँ शर्मा जी..., पति के मर जाने से स्त्री का मन थोड़े ही हमेशा के लिए मर जाता है.....।'' और कनकलता ने फोन काट दिया। शर्मा की जिज्ञासाओं पर विराम लगने की बजाय रहस्य और गहरा गया लेकिन
उधर कनकलता खुद को अभिव्यक्त कर संपूर्ण संतुष्ट थी। बीस-इक्कीस साल के विधवा जीवन में आज जैसी संतुष्टि की अनुभूति उसे शायद पहली बार हो रही थी।
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लेखक परिचय:
नाम ः प्रमोद भार्गव
पिता का नाम ः स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव
जन्म दिनांक ः 15 अगस्त 1956
जन्म स्थान ः ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म. प्र.)
शिक्षा ः स्नात्कोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रूचियां ः लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रूचि।
प्रकाशन ः प्यास भर पानी (उपन्यास), मुक्त होती औरत, पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास) सोन चिरैया सफेद शेर, चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है पानी(जल समस्या) इन पुस्तकों के अलावा हंस, समकालीन भारतीय साहित्य,वर्तमान साहित्य, प्रेरणा, संवेद, सेतु, कथाबिंब परिकथा, धर्मयुग, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, नईदुनियां, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, लोकमत समाचार, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति,पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून, रांची एक्सप्रेस, नवभारत, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता, सुमन सौरभ, मेरी सहेली, मनोरमा, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, आदि पत्र पत्रिकाओं में अनेक लेख एवं कहानियां प्रकाशित।
सम्मान ः 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य
के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश जायसवाल सम्मान। 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान।
3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'।
4. म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकरी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिंधु सम्मान'।
5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
6. भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्मानित।
अनुभव ः जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता।
नईदुनियां ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख, शिवपुरी।
उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
संप्रति ः जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल)
संपादक -शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी
दूरभाष ः 07492-232007 मोबा. 09425488224
संपर्क ः शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म. प्र.)
ईमेल - PramodSVP997@rediffmail.com
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"सति का सत" इस कहानी के माध्यम से आपने प्राचीन सति स्त्रीयों व मध्य कालीन सति प्रथा के भेद को स्पष्ट कर ह्त्या व आत्म ह्त्या के रुप में मध्युगीन कुप्रथा (सतीप्रथा) का श्रेष्ठ ढंग से भंडाफोड़ किया है | प्राचीन वैदिक कालीन वैदिक ग्रंथो में सावित्री, द्रोपदी, कुन्ती, माद्री, कोशल्या, केकैयी, सुमित्रा, अनुसिया आदि पतिव्रता स्त्रीयों को सति कहाँ है ना क़ि पति के शव के साथ जल कर आत्महत्या करने स्त्री को | सतिप्रथा व जोहरप्रथा पति को मरने के पश्चात एक युवा स्त्री द्वारा आपने आप को उन लोगो से बचाने के लिए आत्मदाह रूपी प्रथा थी जो उसके पति को मर जाने या पराजित होने के पश्चात उसका सर्वस लूटने का प्रयास कर सकते थे |
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