(हर आम-ओ-ख़ास लेखक के लिए आवश्यक रूप से पढ़ा जाने वाला धारदार, मारक व्यंग्य. अवश्य पढ़ें – हाईली रिकमंडेड! सं.) मैं एक झोलाछाप ले...
(हर आम-ओ-ख़ास लेखक के लिए आवश्यक रूप से पढ़ा जाने वाला धारदार, मारक व्यंग्य. अवश्य पढ़ें – हाईली रिकमंडेड! सं.)
मैं एक झोलाछाप लेखक हूं। मेरे झोले में पत्र पत्रिकाओं के अलावा किताबें भी रहती हैं। हर पुस्तक मेले में जाता हूं। किताबें उलटता हूं, पलटता हूं, कभी कभी कुछ अंश वही पर पढ़ लेता हूं या फोटोकॉपी करा लेता हूं, मगर पुस्तक खरीदना हर तरह से मुश्किल होता जा रहा है। हिन्दी संसार में पुस्तकों का क्रय विक्रय, सबमिशन, चर्चा, गोष्ठी सब लेखक की औकात पर निर्भर करती है। हर साल हज़ारों टाइटल छपते हैं। हर पुस्तक कम से कम सौ पृष्ठ की होती है, हर पुस्तक की हजार या पाँच सौ प्रतियाँ छपती है, प्रकाशक उसे किसी न किसी सरकारी खरीद में भिड़ा देता है, फिर भी उसकी आत्मा रोती कलपती रहती है। लेखक को देखते ही प्रकाशक अपना दुखड़ा रोने लग जाता है। किताब नहीं बिकती। रायल्टी की बात मत करो। हटो तुम उठो पुस्तक क्रय समिति के सदस्यों को बैठने दो। आइये साहब आइये। बैठिए क्या लेंगे ठण्डा या गरम और प्रकाशक पुस्तक क्रय समिति के सदस्य, अध्यक्ष या पुस्तकालयाध्यक्ष को गरम मांस परोसने को तैयार हो जाता है।
दुनिया बड़ी तेज़ी से बदली है। पहले लेखक द्वारा अपनी एक पुस्तक छपा लेना बड़ी उपलब्धि थी, अब हर प्रदेश में अकादमियाँ है जो कुछ भी छापने को तैयार है और लेखक लगातार छप रहा हैं, मगर रो रहा है। हिन्दी का प्रकाशक पुस्तकें निर्यात कर रहा है मगर लेखक को जीने का हक नहीं देना चाहता । पुस्तक भी एक प्रोडक्ट और बाज़ार के नियमों से बिकती है, यह बात प्रकाशक समझते है। वह साहित्य की पुस्तकों के फेर में ज्यादा नहीं पड़ता । वो अचार, मुरब्बे, चटनी, सब्जी कैसे बनाये और टेक्स्ट बुक जैसी पुस्तक बेचने में ज्यादा रूचि दिखाता है। पुस्तक प्रकाशन संसार एक सम्पूर्ण भ्रष्टाचार संस्थान है। पुस्तक सबमिशन से शुरू होने वाला यह भ्रष्टाचार चेक प्राप्त करने के बाद तक चलता रहता है। कमीशन और पुस्तक का मुद्रित मूल्य ये दो चीजें पूरे बाजार को तय करती हैं। एक पुस्तक बंगाल में कम कमीशन पर मिल सकती है तो वही पुस्तक जयपुर में अधिक मूल्य व अधिक कमीशन पर मिल जाती है। पुस्तक क्रय समिति तय करती है पुस्तक की कीमत और लेखक का भाग्य। योगदान करता हैं प्रकाशन का मुनीम, मैनेजर, बेटा या दलाल । पुस्तक बिकती है। लेखक बिकता है। पुस्तकालयाध्यक्ष बिकता है। पुस्तक क्रय समिति के सदस्य बिकते है। सब का मूल्य बस विचार का मूल्य नहीं है। हिन्दी का लेखक कलम का मजदूर है मगर अपने आपको किताब से ऊपर मान कर चलता है। लेखक नया प्रकाशक ढूंढ़ता है, प्रकाशक नया लेखक ढूंढ़ता है और किताब बेचारी इधर से उधर गिरती, पड़ती उठती बैठती रहती है। पुस्तक को उद्योग समझने वाले जानते है पुस्तक संसार को क्या चाहिये वे वही चीजें छापते हैं। अश्लील साहित्य के बाद आध्यात्मिक साहित्य सबसे ज्यादा बिकता हैं रोमांस के नाम पर पोर्नोग्राफी बिकती है। कामसूत्र भी बिकता है और रामचरितमानस भी।
वास्तव में हर किताब एक मशाल है। एक क्रान्ति है, ऐसा किसी ने कहा था। किताब व्यक्ति के अन्दर की नमी को सोखती है। थके हुए आदमी को पल दो पल का सुकून देती है, किताबें। हारे हुए आदमी को उत्साह, उमंग और उल्लास देती है किताबें। वे जीने का सलीका सिखाने का प्रयास करती है। सूचना, विचार दृष्टिकोण, दस्तावेज़, प्यार, घृणा, यथार्थ, रोमांस, स्मृतियाँ, कल्पना, सब कुछ तो देती हैं किताबें मगर कोई किताब तक पहुँचे तब न। किताब तो प्रकाशक के गोदाम से निकली, और सरकारी गोदाम में बंद हो गई। प्रकाशक ने अपने भवन में एक मंजिल और चढ़ा ली, बस किताब से प्रकाशक यही फायदा ले सकता था, सो ले लिया। पुस्तकें हमारे जीवन का सच्चा दर्पण हैं। वे हमारे व्यक्तित्व, समाज, देश, प्रदेश को सजाती है, सँवारती है, हमें संस्कार देती है मगर जीने का आधार देने वाली पुस्तक का महत्व दिन ब दिन कम क्यों होता जा रहा है ? पुस्तक क्रांति कर सकती है। दास केपिटल इसका उदाहरण है। आनन्दमठ जैसे उपन्यास से अंग्रेजों को पसीना आ गया था। प्रेमचन्द और हरिशंकर परसाईं के लेखन में सच्चे भारत की तस्वीर देखी जा सकती हैं।
व्यक्ति जो खोजता हैं वही किताब में पाता है हर पुस्तक किसी ना किसी लक्ष्य तक पहुंचाने का माद्दा रखती हैं। पूरी दुनिया में कम्प्यूटर, सूचना क्रांति के आने के बाद भी किताबों का महत्व कम नहीं हुआ हैं, किताबे सभ्यता के मानवीकरण और सुचारु चलन में योगदान करती है। किताब मनुष्य को स्वतंत्र भी करती है और मनुष्य को अपना गुलाम भी बनाती हैं।
हिन्दी में लिखना आसान है या नहीं ये बहस विषय है मगर पुस्तकों का प्रकाशन अवश्य आसान हुआ है। लेखक ही लेखक का उपभोक्ता है वह भी निःशुल्क प्राप्त पुस्तक ही पढ़ता है। खरीद कर नई पुस्तक पढ़ना एक बौद्धिक व आर्थिक विलास है और हिन्दी में इस तरह का विलास करना संभव नहीं हैं। ऐसा अंग्रेजी या बंगला में संभव है। पुस्तक एक बच्चे की हंसी की तरह है, जो आपके दिलो दिमाग पर छा जाती है। पुस्तक आकाश फूल, समुद्र, पक्षी, चिड़िया, धूप, हवा, पानी सब का रंग बदलने की क्षमता रखती है। पुस्तक का चरित्र और चरित्र की पुस्तक पाना मुश्किल नही है। हर किताब कुछ कहती है, हर कविता कुछ कहती है। हर रचना कुछ न कुछ कहने का सार्थक प्रयास करती है। लेकिन छोटी सी जिन्दगी मे सब कुछ पढ़ा भी नहीं जा सकता। सबसे ज्यादा पसन्द की पुस्तक को बार बार पढ़ना ही काफी है। और यह यात्रा अन्दर से शुरू होकर अन्दर ही खतम हो जाती है। हर पुस्तक अन्तर्मन की यात्रा है। अन्तर्मन की यात्रा से पुस्तक खुलती है। लेखक खुलता हैं। लेखक पुस्तक के सहारे जीवित रहता है। पुस्तक अपने भीतर एक हलचल एक जिजीविषा पैदा करती हैं । शान्त तालाब के जल में कंकर फेंकने की तरह है एक पुस्तक । पुस्तक समाज को शासित करती है शोषण से बचाती है। उसे सही दिशा में बढ़ाती है। पुस्तक को जीना एक सम्पूर्ण जीवन जीने के समान है। बीमारी में तो पुस्तक ही सर्वश्रेष्ठ साथी है। अकेलेपन, ऊब, थकान से बचाती है पुस्तक। सूचना क्रान्ति के बावजूद किताब का वजूद था, है और रहेगा।
पुस्तक संस्कृति के लिए सरकारी प्रयासों पर निर्भर रहना ठीक नहीं। पुस्तक नीति, संस्कृति नीति बनाते बनाते कई सरकारें काल कवलित हो गई, पुस्तक तो अपने दम पर जिन्दा रहेगी। बिल गेट्स ने पेपरलेस दुनिया की कल्पना की थी, मगर इन्टरनेट के बावजूद पुस्तकों की प्रकाशन संख्या बढ़ रही हैं। पुस्तक प्रेमी बढ़ रहे हैं। पुस्तक विक्रेता, पुस्तक प्रकाशक बढ़ रहे है और यह एक शुभ संकेत है। क्रांति के रूप में छापे खाने का आविष्कार हुआ जो आज भी पुस्तक को, विचार को दूसरे तक पहुँचा रहा है। पुस्तक मन को मन से तन को तन से जोड़ती है। किताब जिन्दा है तो हम सब ज़िंदा है। किताब को जिन्दा रखने के प्रयास जारी रहने चाहिये। आइए इस बार के घरेलू बजट में पुस्तक के लिए भी कुछ राशि रखे।
आइए धूमिल की कविता को कुछ परिवर्तन के साथ यों पढ़ें-
साहित्य से रोटी तो तुम भी नहीं पाओगे,
मगर साहित्य पढ़ोगे तो रोटी सलीके से खाओगे।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर 302002फोन 2670596
kitaabon ka mahattava kal bhi tha aur aaj bhi hai aur kal bhi rahega.........har cheese ki apni upyogita hoti hai aur wo kabhi nasht nhi hoti.
जवाब देंहटाएंसाहित्य से रोटी तो तुम भी नहीं पाओगे,
जवाब देंहटाएंमगर साहित्य पढ़ोगे तो रोटी सलीके से खाओगे।
...वाह!
...एक जरूरी लेख के लिए आभार.