हरिहर झा का आलेख : बूमरैंग – ऑस्ट्रेलिया से कवितायें

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  १५ जनवरी २०१० को दिल्ली के स्थानीय हिन्दी भवन सभागार में ऑस्ट्रेलिया के अप्रवासी भारतीय कवियों की कविताओं का संग्रह ’बूमरैंग’ का लोकार्...

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१५ जनवरी २०१० को दिल्ली के स्थानीय हिन्दी भवन सभागार में ऑस्ट्रेलिया के अप्रवासी भारतीय कवियों की कविताओं का संग्रह ’बूमरैंग’ का लोकार्पण किया गया था । यह पुस्तक रेखा राजवंशी द्वारा संपादित है जिसमे उनके द्वारा ऑस्ट्रेलिया में बसे ११ भारतीय कवियों की कविताओं का संग्रह किया गया है । “द इंडियन डाउन अंडर” व अक्षरम द्वारा प्रायोजित इस कार्यक्रम में श्री अशोक चक्रधर व कन्हैया लाल नन्दन ने प्रवासियों द्वारा की गई हिन्दी-सेवा की प्रशंसा की । श्री अशोक चक्रधर ने कहा कि ये कवितायें नस्ली(!) नहीं असली हैं ।

साहित्यकार श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने बताया कि ये सारी कवितायें हिन्दी साहित्य को समृद्ध करती है । इस पुस्तक में भारत के प्रति चिन्ता नज़र आती है । लेखिका अनामिका ने बताया कि इन कविताओं में वतन का दर्द अभिव्यक्त होता है । मंच की संचालिका अल्का सिन्हा के अनुसार स्मृतियां जीवन का आधार होती हैं जिसे कवियों ने कविता के माध्यम से तराशा है । बूमरैंग फैंकने पर वापस लौट आता है और यह भारतवंशी साहित्यकारों की भावनाओं का , वृत्तियों का, इच्छाओं का प्रतीक है जो बार बार भारत की ओर उन्मुख होता है । पर ऐसा क्यों होता है ?

यू.के. व अन्य देशों के भारतीय साहित्यकारों द्वारा बार बार यह आवाज उठाई जाती है कि अगर साहित्य समाज का दर्पण है तो हम जिस पश्चिमी-मिट्टी में रहते हैं - उसके बारे में नहीं लिखते हैं । वे कहते हैं कि विदेश में भी हमारा भारतीय दिमाग ही सलामत रहता है । पर कहाँ और किस तरह ? पुस्तक के संदर्भ से इसका अर्थ यह निकलता है कि अब्बास रज़ा अलवी को क्यों “तेज हवा का यह झोंका सावन की याद दिलाता है “ और क्यों राय कूकणा को वित्तिय छलांगो में आकाश नापने में भूल नज़र आती है । सुभाष शर्मा उनको “सगी मां को दे तलाक सौतेली पाए हैं” कह कर इमोशनल ब्लैकमेल करने वाले नज़र आते हैं । आलोचकों का कहना है कि प्रवासी कवि और साहित्यकार क्यॊं नन्हे बालक की तरह "माँ माँ" करते हुये भारत की गोद से बाहर कुछ नहीं सोंचते? क्यों पाश्चात्य संस्कृति के वातावरण में रह कर भी “माँ के हाथों की बनी जब दाल-रोटी याद आई….” ( इन्ही पंक्तियों का लेखक ) का रोना रोते रहते हैं ? उनके हिसाब से यह सब विचारों की अपरिपक्वता का नमूना है ।

मेरा नम्र निवेदन है कि सामान्यत: काव्य भावना प्रधान होता है व गद्य विचार प्रधान । जब जब पुस्तकें गद्य में याने मस्तिष्क के स्वतन्त्र प्रवाह में लिखी जायगी, रचनाओं में समकालिन स्थितियों का बयान याने विदेशी परिवेश भी होगा । पर कवितायें भाव प्रधान होने से शाश्वत और स्थानातीत हो जाती है - मस्तिष्क से परे भी सोंचना शुरू कर देती हैं - “न जाने क्यों / क्यों और क्यों ? / मेरे आँख, कान, हाथ, पग – सब के सब दिमाग़ होगये है / और दिमाग़ ? / इन धूर्त बाजीगरों की कठपुतली।” (हरिहर झा) – कवितायें पंख पर उड़ने के साथ साथ अपनी जड़ों से याने भारतीय संस्कृति से जीवन रस लेने में कतई संकोच नही करती । प्रेम माथुर के शब्दों में जड़ का अपना अस्तित्व है और “पेड़ जड़ नहीं होते” ।

वैसे तो समारोह में उपस्थित सभी साहित्यकारों व श्रोताओं ने ’बूमरैंग’ की प्रशंसा की पर कुछ आलोचकों ने यह भी शिकायत की कि इन कविताओं को छ्न्दों की बेड़ियों में जकड़ कर अनुशासित क्यों नही किया गया ? भाव आलोचकों के हैं पर शब्द मेरे हैं ताकी उत्तर प्रश्न में ही समाहित हो जाय ।

आज के युग में भारत सहित विश्व-भर में पद्य को मात्रा की गणनाओं से मुक्त करने की हवा चल पड़ी है तो इस स्वतन्त्रता का उपयोग भारतीय प्रवासी कवि भी क्यों न करें ? फिर अगर अनिल वर्मा ने जब दोहो को माध्यम चुना तो भाव और छन्द दोनो का कुशलतापूर्वक निर्वाह भी किया है इसके बाद भी यदि पुस्तक में देशी व्यंजन परोसते हुये ऑस्ट्रेलिया की रीति-नीति समाहित हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि रेखा राजवंशी के शब्दों में यहाँ पर “ दिल्ली का इंडिया गेट / बन गया डार्लिंग हार्बर / गंगा और यमुना / बनने लगी / हाक्सबरी और यारा रीवर ।“ यही उनका प्रत्युत्तर है जो भारतीय मानसिकता की आलोचना करने वालों को शायद दिखाई नहीं दिया ।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. हरिहर झा जी का आलेख पडकर अच्छा लगा तथा उनके विचारों से भी सहमती रखता हूं ।

    आलोचकों की शिकायत के बारे मे कहना चाहूगा कि जो भाव "बूमरैग मे कवियो" ने अभिव्यक्त्त किये है वौ सिर्फ भारतीय तथा पश्चिमी समाज के अनुभवों से जनित एक खास अनुभूति का ही फल हो सकते हैं ।

    वरना अल्वी साहब की पतंगो मे न वो रंग होते और अनिल जी अन्जुरी मे वो अथाह चाह । न सुभाष जी खारे पानी मे रस खोज पाते और झा जी 'अनर्थ व अर्थ ' मे भेद । न रेखा जी 'यमुना और यारा' मे बदलाव से समझोता क्रर पाती और न ही शैलजा जी का आतिथय सत्कार इतना सुन्दर होता ।

    नीना जी के 'सच व मित' के बीच एवम् रेणु जी को 'उनमे तथा हममे' के फर्क के पीछे भी यही भाव समाहित हैं । माथुर साह्ब की "खाली झोली" का दर्शन हो या फिर किशोर जी की "चलती फिरती इकानमी" या "विकएन्ड सेल" का व्यंगय, वस्तुत्: दोनों ही में इन्ही अनुभवों का समन्वय ही प्रतिबिंबित है ।

    हां हमारे लिये ये खुशी का प्रंसंग है कि हिन्दी के पारखीयों के समक्ष ये भाव पहूंचे तो ।

    झा जी के आहवान के संदर्भ मे मेरी भी राय़ ये है कि हमारे प्रयासों को एक नये आयाम की आव्श्यक्ता है जहां हम बेझीझक अपनी रचनाऔं की समालोचना पा सकें ।

    आदर सहित

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रचनाकार: हरिहर झा का आलेख : बूमरैंग – ऑस्ट्रेलिया से कवितायें
हरिहर झा का आलेख : बूमरैंग – ऑस्ट्रेलिया से कवितायें
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