खुद को पता नहीं आज फिर क्यों खुशी देख बल्लियां उछल रहा था कि वे सामने से चेहरा लटकाए आते दिखे तो आधी खुशी हवा हो गई। आजकल अपनी खुशी...
खुद को पता नहीं आज फिर क्यों खुशी देख बल्लियां उछल रहा था कि वे सामने से चेहरा लटकाए आते दिखे तो आधी खुशी हवा हो गई। आजकल अपनी खुशी तो जैसे छुपाने की चीज हो गई है। मैंने अपने इधर उधर देखा कि कहीं कोई मेरे दांए बांए अनहोनी तो नहीं हो गई। अजीब से दौर में जी रहा हूं साहब इनदिनों। पर अपने को चारों ओर से खुश पा लगा कि अगर अब इनकी उदासी में शरीक न हुआ तो पता नहीं क्या क्या कह डालेंगे सो अपनी खुशी को वहीं लगाम दे उनके उदास चेहरे के साथ अपने चेहरे को उदास करने की रिहर्सल करने लगा। मुझ तक पहुंचते पहुंचते उनका चेहरा उदासी से रोने के कगार पर आ पहुंचा था। उनका रोना निकालने के लिए मैंने ही उन्हें गले लगाते पूछा,' क्या हो गया साहब जो वसंत के आने पर भी रोना पूरे के पूरे चेहरे पर पोते हो।' मैं भी चाहता था कि मेरे ये पूछने पर वे फूट फूट कर रो पड़ें और मेरे मन में दनादन लड्डू फूटें। और मजे की बात कि मेरे मन की मुराद पूरी हो गई। अपने गले से वे अपने रोने को उम्र के चरम तक ले जाते बोले,' क्या बताऊं यार! पहली बार तो मौलिक रचना लिखी थी। छपने को भेजी थी।'
'तो छप तो गई होगी? मौलिक आजकल लिख ही कौन रहा है?' ख़ारिश सी होने लगी थी सो मैंने उन्हें अपने गले से हटाते पूछा।
'हां ! छपी तो सही!' कह फिर उन्होंने लंबी आह भरी। हद है यार! लोग औरों की मारी हुई रचना को अपने नाम से छपवा सरस्वती के मानस पुत्र हुए जा रहे हैं और एक आप हो कि,' फिर तो बधाई! बहुत बहुत बधाई!! चलो रचना का प्रकाशन सेलिब्रेट करते हैं। और वह भी मौलिक रचना का। सच कहूं! ये मौलिक शब्द साहित्य में बड़े दिनों बाद सुना। इस खुशी में कुछ दारू शारू हो जाए!'
'रचना छपी तो सही पर मेरे नाम से नहीं...' कह उन्होंने अपने पूरे के पूरे चेहरे की भद्द कर डाली,' किसी और के नाम से छपी है।' कह उन्होंने टूटी न्वार की चारपाई सा अख़बार मेरे सामने पसार दिया,' ये देखो! कोमे से लेकर फुलस्टाप तक सबकुछ मेरा ही। पर रचना के नीचे मेरा नाम नहीं।' देखा तो मजा आ गया । मुझे बरसों मे मेरा खोया भाई जैसे मिल गया। हे मेरे भाई तुम आज तक थे कहां? क्या है न कि हिंदी का बंदा होने के बाद भी मैंने लिखा तो कुछ नहीं पर मां शारदे के आशीर्वाद से छपा बहुत। मौलिक एक तो आज कुछ है नहीं, अगर है तो वह छपता नहीं। कुछ भी उठा कर देख लीजिए, अधिकतर मारा हुआ ही मिलेगा। लगेगा ,यार ये तो पहले कहीं पढ़ा था। पढ़ा था तो क्या हो गया यार! एकबार फिर पढ़ लो। नहीं मन करता तो रहने दो। हम कौन सा आपको पढ़ऩे के लिए कह रहे हैं? पढ़ने से तो हमें खुद अलर्जी है। हम तो अपनी रचनाओं की संख्या में श्री वृद्वि में डटे हैं बस! मरते मरते किसी पुरस्कार के हकदार हो जांए तो मोक्ष मिले। इतना की जुगाड़ तो हम भी कर लेंगे। बथेरी साहित्यिक संस्थाएं हैं कुकरमुत्तों सीं जो ले देकर पुरस्कृत कर देती हैं। साहित्यकार कितना ही लिखे, अगर उसे मरने से पहले पुरस्कार न मिले तो वह नरक को जाता है। पर ऐसा हुआ बहुत ही कम है। मेरे एक परम मित्र ने मारे दस लेख तो पुरस्कार बटोरे तीस। अभी भी ताक में बैठे हैं। मैं दावे से कह सकता हूं वे मरने के बाद तो छोड़िए,अब वे जिंदे ही स्वर्ग को जा सकते हैं, किसी भी टाइम! इसे कहते हैं पुरस्कारू- कम- जुगाड़ू साहित्यकार!
वैसे कौन पूछता है साहब आज की भाग दौड़ में कि ये असली लेख है या चोरा हुआ! बल्कि लोग तो आज चोरी हुआ हाथों हाथ उठा रहे हैं। सस्ता जो ठहरा। लेखक हैं कि चोरी का माल अपने नाम छपवाए जा रहे हैं, मूर्धन्य हुए जा रहे हैं। उन्होंने कहने के बाद दोनों हाथों से अपना सिर पीटना शुरू किया तो मैंने मजा लेते हुए उन्हें समझाने की कोशिश करते कहा, हालांकि मैं यह भली भांति जानता हूं कि जिस लेखक को यह पता लग जाए कि उसकी रचना किसी और ने अपने नाम से छपवा मारी है वह समझता कम ही है,' तो क्या हो गया! रचना आपके नाम से नहीं तो उसके नाम से ही सही जनता तक तो पहुंच गई। अब लेखक का काम खत्म और समीक्षक का काम शुरू!' पर वे थे कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। तब लगा कि जिस बच्चे से कोई उसका खिलौना छीन ले उसे रोने से मनाया जा सकता है पर जिस लेखक की रचना चोरी हो गई हो उसे रोने से चुप कराना बहुत मुश्किल होता है,' अच्छा तो एक बात बताओ?' मैंने उनके मन को नैराश्य को धोने के लिए एक के साथ एक फ्री वाला साबुन निकाला,' हिंदी साहित्य का आधुनिक काल पढ़ा है?'
'हां!'
'पहले कौन सा काल आया?'
'भारतेंदु काल!'
'फिर?'
'द्विवेदी युग!'
'गुड! फिर?'
' छायावाद!' कह वे मेरा सिर खुजलाने लगे पर मुझे इससे कोई परेशानी नहीं हुई। वैसे भी आजकल औरों के लेख मार मार थकावट से मेरे बाल सफेद होने के कारण सिर में खुजली होने लगी है।
'उसके बाद?'
'प्रयोगवाद ! पर तुम मेरा टेस्ट ले रहे हो या....'
'टेस्ट तो मैं उनका भी नहीं लेता जिनके कारण पेट पर हाथ फेर फेर खा रहा हूं। उनके नंबर भी उनके चेहरे देख ही लगा देता हूं। साहित्य में वाद,युग बदलते रहे हैं उनको बदलते रहना है। इनदिनों साहित्य में जानते हो कौन सा वाद चल रहा है?' मैंने पूछा तो वे फिर मेरा सिर खुजलाने लगे तो मैंने अपने सिर पर से उनके हाथों को हटाते कहा,'दस्युवाद।'
'दस्युवाद बोले तो???'
'मतलब औरों की रचनाएँ ईमानदारी से चोर अपने नाम से छापकर साहित्य के उद्देश्य को पूरा करने का दौर। साहित्य में चोरी आज कहां नहीं? फिल्मों में कहानी किसी की तो कहानीकार कोई। मार्केट में उपन्यास किसी का तो उपन्यासकार कोई। संग्रह में कविता किसी की तो कवि कोई । रिसर्च में शोध-प्रबंध किसीका तो शोधार्थी कोई। कल तुलसीदास भी आकर यही शिकायत कर रहे थे।'
'तो?'
'तो क्या? मैंने कहा ज्यादा ही लग रहा है तो थाने रपट लिखवा आओ।'
'तो क्या हुआ??'
'थाने से वापस आए तो जाने का किराया भी मेरे से ले गए।'
'तो अब कुछ नहीं हो सकता??'
' संपादक को बता देते हैं। पारिश्रमिक की व्यवस्था होगी तो आपके नाम भिजवा देगा। आपका भी उद्देश्य पूरा हो जाएगा।' .....अब वे काफी हल्का महसूस कर रहे हैं।
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डॉ.अशोक गौतम
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सोलन-173212 हि.प्र.
ये मौलिक शब्द साहित्य में बड़े दिनों बाद सुना। इस खुशी में कुछ दारू शारू हो जाए.nice.............................
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