( शीबा का ब्लॉग – खयाल यहाँ पढ़ें) जेंडर जिहाद शरीअत का हौआ परदा इधर : परदा उधर शीबा असलम फ़हमी [शीबा असलम फ़हमी का अत्यं...
(शीबा का ब्लॉग – खयाल यहाँ पढ़ें)
जेंडर जिहाद
शरीअत का हौआ
परदा इधर : परदा उधर
शीबा असलम फ़हमी
[शीबा असलम फ़हमी का अत्यंत लोकप्रिय व चर्चित स्तंभ – जेंडर जिहाद हिन्दी की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में पिछले कुछ अंकों से सिलसिलेवार जारी है. वैसे तो हंस अब पीडीएफ रूप में मई 2009 से नेट पर फिर से उपलब्ध हो गया है, मगर यूनिकोड में नहीं होने से बात नहीं बनती. रचनाकार के पाठकों के लिए खासतौर पर यह स्तंभ सिलसिलेवार रूप में यूनिकोडित कर, साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. पेश है जुलाई 2009 का आलेख. जून 2009 का आलेख सब धान बाइस पंसेरी यहाँ तथा मई 2009 का आलेख संविधान और क़बीला यहाँ पढ़ें]
इस स्तंभ में पिछले पाँच अंकों से भारतीय मुसलमान महिलाओं की स्थिति पर चर्चा और पाठकों के उठाए प्रश्नों का विश्लेषण करते हुए, जिस एक मुद्दे को सबसे अधिक बार उठाया गया है वह है 'शरीअत क़ानून' मुसलमान, ग़ैर-मुसलमान, स्त्री-पुरूष, बु़द्धिजीवी व साधारण पाठक वर्ग सभी ने इस विषय पर न सिर्फ़ चिंता जताई है बल्कि इनका यह भी मानना है कि शरीअत-क़ानूनों के चलते ही मुस्लिम समाज में औरतों की दशा दयनीय है. अधिकतर प्रतिक्रियाओं में मुझ से आग्रह किया गया है कि शरीअत क़ानूनों से ऊपर उठ कर मुझे बात करनी चाहिये.
कुछ पाठकों ने इस पर उपहास भी किया है कि मैं शरीअत-क़ानूनों और महिला चिंतन को साथ-साथ कैसे चला रही हूं? भारत ही नहीं पूरी दुनिया में शरीअत क़ानूनों के अंतर्गत मुसलमान समाज पर जो प्रतिबंध लागू होते हैं वे अक्सर चर्चा का विषय बनते हैं. हालिया उदाहरण तालिबान का स्वात घाटी में शरिया-क़ानून का लागू करना एक ज्वलंत मुद्दा बना. भारत की हद तक देखें तो शाह बानो प्रकरण के बाद से लगातार इस मुद्दे पर भारतीय समाज में बहस छिड़ी हुई है. 2005 में इमराना प्रकरण ने फिर इसे केन्द्र में ला खड़ा किया था.
हालत यह है कि बृन्दा करात, सुभाषिनी अली आदि साम्यवादी फ़ेमनिस्ट लीडरों, जिन्होंने नारी-उत्पीड़न व पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठाई है, के साथ-साथ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, भारतीय जनता पार्टी जो कि मुसलमान महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार कर, उनके पेट फाड़कर अजन्मे शिशुओं को त्रिशूल की नोक पर टाँग कर विजय-उत्सव मनाते हैं, को भी शरीअत क़ानून व्यवस्था ने घोर चिंता में घेर रखा है.
आख़िर यह शरीअत क्या है? इसकी क्या ज़रूरत है? इस्लाम धर्म एक अक़ीदे (विश्वास) के साथ-साथ एक जीवन पद्धति भी है. इस्लाम जिन जीवन मूल्यों जैसे इन्सानी बराबरी, इंसाफ़, भाइचारा, करूणा आदि की स्थापना की बात करता है. इन मूल्यों के पालन व सामाजिक जीवन में इनकी स्थापना जिन क़ानूनी प्रावधानों द्वारा हो सकती है, मोटे तौर पर वे ही शरीअत क़ानूनों का आधार हैं.
किसी भी ज़हन में यह सवाल उठना लाज़मी है कि कहां करूणा, इंसाफ़, बराबरी और भाईचारे की बातें और कहां शरीअत के सख़्त, बेरहम, पुरातनपंथी क़ानूनी प्रावधान! तालिबानी हरकतें देखकर तो तयशुदा तौर पर 'जंगल के क़ानून' का आभास होता है. बहुत से शिक्षित व फ़िक्रमन्द मुसलमान स्त्री-पुरूष इस मसले पर आकर हताश हो जाते हैं. वे इस्लाम धर्म में आस्था के बावजूद, अल्लाह और उसके पैग़म्बर में विश्वास के बावजूद, 'शरीअत' के मसले पर क्रोध, झुंझलाहट और लाचारी के सिवा कुछ नहीं ज़ाहिर कर पाते. इस मसले पर आकर अच्छे-अच्छों को 'डिफ़ेन्सिव' होकर भीगी बिल्ली बनते देखा जा सकता है.
इस स्तम्भ के पाठकों ने मुझे भी धिक्कारा है कि क्या मैं शरीअत से ऊपर नहीं उठ सकती? स्वयं राजेन्द्र यादव साहब ने अपने सम्पादकीय में शरीअत की बिना पर इस्लाम धर्म से मुक्ति पा लेने का सुझाव रखा है. हालाँकि राजेन्द्र यादव साहब तो बराबर उन विषयों पर लिखते रहे हैं जो इन्सानी स्वतंत्रता और गरिमा के विरूद्ध हों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों पर वे लोग जो अन्यथा तटस्थ भाव से 'सभी धर्म अच्छे हैं' की लीपापोती से काम चलाते हैं, शरीअत के मामले में तटस्थ नहीं रह पाते.
शरीअत क़ानून के मुख्यतः चार स्रोत हैं- 1 कुरान (जो कि अल्लाह का कलाम है अतः संशोधन से परे है) 2 सुन्नः , 3 इज्मा व 4 क़यास. शिया फ़िरक़े में इज्मा व क़यास को मान्यता प्राप्त नहीं है वे इसकी जगह 'मनतक़' या लॉजिक सम्मिलित करते हैं. शिया मुसलमान कुरान, सुन्नः मनतक़ और अक़्ल को शरीअत क़ानून का स्रोत मानते हैं. पूरे कुरान में 'शरियाः' शब्द बतौर संज्ञा केवल एक बार आया है (45:18). जबकि 'शरियाः' शब्द के व्युत्पत्ति (डेरीवेटिव) अन्य तीन जगह आए हैं. 42:13, 42:21 और 5:51 आयतों में. इसके अलावा दीगर स्रोत जैसे 'फ़िक़्ह' भी मान्यता प्राप्त स्रोत है. कुल मिला कर कुरान और सुन्नः को छोड़ कर बाक़ी सभी स्रोत इन्सानी समझ, राय और व्याख्या ही हैं.
विद्वानों का मानना है कि ईश्वरीय आदेशों (कुरान) और सुन्नः की मानवीय व्याख्याओं के इस मिश्रण को 'सेक्रो-सेक्ंट' और अतिपवित्र मानकर जो जड़ता पैदा हुई है उसके कारण ही शरिया विवादित हुआ है. इसके अलावा ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि शरीअत क़ानून नौंवी सदी की शुरुआत में 'अल-रिसाला' नामक पुस्तक में पहली बार क़लम बन्द किये गए. इस किताब के रचयिता आलिम मुहम्मद इब्न इदरीस अश्'शफ़ी, जो कि शाफ़इ फ़िरक़े के इमाम भी हैं ने यह महत्वपूर्ण काम किया. शरीअत क़ानून शुरूआती दौर में जिन समाजों के लिये आए वे क़बीलाई समाज थे और यह क़ानून उनकी क़बीलाई जीवन पद्धति को केन्द्र में रखकर बनाए गए थे. अतः इन क़ानूनों में व्यक्तिवाद की झलक कहीं नहीं मिलती, भले ही क़ानून बनाने वाला एक व्यक्ति ही क्यों न हो. इस्लाम मज़हब जो कि एकेश्वरवाद और अल्लाह और बन्दे के बीच सीधे संवाद और इबादत की स्थापना करता है वहीं मुस्लिम समाज को एक सामुदायिक व्यवस्था भी देता है. उपरोक्त तथ्यात्मक परिचय की ज़रूरत इसलिये थी कि वर्तमान में शरीअत क़ानूनों को लेकर च्ंहम 65 जुलाई, 2009 65 जो जड़ता, पिछड़ापन और कट्टरता आई है उसका समाधान सामने लाया जा सके.
ऊपर दिये संक्षिप्त परिचय से यह साफ़ है कि शरीअत क़ानून और कुरान की कोई बराबरी नहीं. ना ही शरीअत क़ानून ईश्वरीय वाणी हैं और न मुहम्मद साहब की सुन्नः. हां शरीअत का आधार दोनों की मानवीय स्मृतियां, व्याख्याएं, उलेमाओं की जमा राय व इन तीनों स्रोतों से निकला 'क़यास' है. इसलिये शरीअत कोई ऐसी चीज़ नहीं जो इन्सानी व्याख्या से परे हो बल्कि यह तो है ही इन्सानी व्याख्या. ऐसी स्थिति में कठमुल्लों का यह तर्क कि 'शरीअत क़ानूनों में कोई तब्दीली मुमकिन नहीं, यह अटल व ईश्वरीय है' कि हवा इस हक़ीक़त से निकल जाती है कि इस्लाम में शुरू से पांच फ़िरक़े (मज़हब) अपनी-अपनी शारियः के साथ मौजूद रहे और बिना किसी झगड़े के. बाद में जाफ़री मज़हब में तीन शाखें और जुड़ीं सो अब चार सुन्नी और चार शिया फ़िरक़े वजूद में हैं. इतने अकाटय तथ्यों के बावजूद जड़ और मर्दवादी मुल्ला लगातार यह झूठ दोहराते रहते हैं कि शरीअत क़ानून में बदलाव मुमकिन नहीं.
इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की, इराक़, इरान, मोरक्को, मिस्र, बांग्लादेश, त्यूनिशिया, स्पेन आदि मुल्कों में अनगिनत शरिया सुधार किये जा चुके हैं और यह सुधार केवल औरतों से सम्बन्धित नहीं हैं बल्कि आज के वक़्त के तक़ाज़ों को ध्यान में रख कर किये गए हैं जो पूरे समाज के लिये ज़रूरी हैं. स्वयं कठमुल्ले भी तथाकथित 'नई व्याख्याएं' कर के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान में स्कूलों, अस्पतालों, बामियान में आसारे क़दीमा (बुद्ध की मूर्ति) को नेस्तनाबूद कर के ऐलानिया तौर पर एक 'नई' शरीअत व्यवस्था सामने लाई जा रही है. स्वात घाटी में तो इससे भी आगे जाकर पशतून क़बीले की अत्यंत कट्टरपंथी व्यवस्था जिसे पशतूनी क़बीलाई क़ानून या 'पशतूनवाली' कहते हैं सामने आई है.
इस्लाम की इस रेडिकल 'देवबन्दी- वहाबी' व्याख्या और पशतूनवाली के घालमेल से जो शरीअत उपजी है वह लड़कियों के इल्म हासिल करने के ख़िलाफ़ है, यह शिया मसलक को इस्लाम में नहीं मानते, जबकि एक शिया इरान ही है जो अमरीका और इस्राइल को खुली इस्लामी चुनौती देता रहा है वहीं तालिबान के सऊदी प्रयोजक व फाइनेन्सर अमरीका के जूते चाटते रहे हैं. ये 'हज़ारा' मसलक को भी इस्लाम से बेदख़ल मानते हैं. इनकी शरीअत के अनुसार इस्लाम सियासत व सियासी पर्टी की इजाज़त नहीं देता इसलिये ये सरकारी अफ़सरों और सैनिकों को तनख़्वाह भी नहीं देते, केवल खाना, कपड़ा, जूते और हथियार देते हैं, ये अर्थव्यवस्था, अकाउन्ट रखना, प्रेस, फोटोग्राफ़ी, पतंग उड़ाना, ताली बजाना, दाढ़ी कटवाना, औरतों के खेलकूद को ग़ैर इस्लामी बताते हैं. हां यह अफ़ीम के प्रत्येक ट्रक से 20 प्रतिशत का 'ज़कात' टैक्स वसूल करते हैं जबकि इस्लाम में 'ज़कात' जायज़ बचत की 2.5% ही है.
कुल मिलाकर यह 'ज़कात' जैसी बुनियादी संस्था जो कि इस्लाम के पांच खम्बों में से एक है, से इतनी बड़ी छेड़-छाड़ कर लेते हैं अपनी अलग 'शरीअत' बना कर. और इस जंगली क़ानून को 'शरीअत-ए- मुहम्मदी' नाम देने की जुर्रत भी कर लेते हैं. अपने इन भूतपूर्व शागिर्दों की इस हरकत पर दारूल उलूम देवबन्द कोई फ़तवा जारी नहीं करता.
शरीअत में स्त्री-विरोधी बदलाव की एक और मिसाल देखिये- 27 जुलाई 2003 में मलेशिया की शरीअत कोर्ट ने और बाद में सऊदी अरब व क़तर में भी मोबाइल फ़ोन से 'एस.एम.एस' द्वारा त्वरित तलाक़ को शरीअत मुताबिक़ क़रार दिया गया. जिस कुरान में औरत को तलाक़ देने की शर्तें लिखित रूप में आई हों, उसी किताब पर आधारित शरीअत क़ानून ऐसी धांधलियों की इजाज़त दे रहे हैं. चौदह सौ साल पहले किसी ने मोबाइल फ़ोन और एस.एम.एस की कल्पना भी नहीं की होगी पर आज इसका ऐसा इस्तेमाल इस्लाम सम्मत है? ऐसी अनेकों मिसालें हैं जहां नई से नई शरीअत गढ़ कर कठमुल्ले और धोखेबाज़ मर्द बेहयाई से अपनी औरतों का हक़ मार रहे हैं, उन्हें बेसहारा और यतीम कर रहे हैं. शरीअत की ऐसी नई और 'क्रांतिकारी' व्याख्याओं से कभी किसी मौलाना को आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इन्होंने इस्लाम को 'मेन्स ओनली क्लब' समझ रखा है. हां अगर एक 69 साल की बुजुर्ग और पांच बच्चों की मां को शौहर तलाक़ दे और कुरान की हिदायत के मुताबिक़ वह अदालत से 25/- रु. महीने का गुज़ारा ख़र्च शौहर से बंधवा ले तो पढ़े लिखे सयद शहाबुद्दीनों और उबेददुल्लाह ख़ां आज़मियों का इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता है. वे देश व्यापी रैलियां कर सरकार की ईंट से ईंट बजा सकते हैं. पर जब एक ज़्यादा ताक़तवर गिरोह जबरिया और एलानिया एक मस्जिद गिराने निकलता है तो कोई बुख़ारी, कोई आज़मी, कोई एम जे अकबर, कोई शहाबुद्दीन अपने बिल से नहीं निकलता. तब यह मर्द-मुजाहिद 'क़ानून-क़ानून' की तोता रटन्त लगाते हैं.
शाहबानों केस से प्राणवान होने वाले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हमेशा मुसलमान औरतों के हक़ पर डाका डाला है. इसकी एक और मिसाल यह कि सन 2002 में महराष्ट्र हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने 'दग्धू पठान बनाम रहीम-बी दग्धू पठान' मामले में यह निर्देश दिया कि मुसलमान पति को तलाक़ का रजिस्ट्रेशन कराना ज़रूरी होगा क्योंकि अक्सर गुज़ारा भत्ता के मामलों में पति यह कह कर बच निकलता है कि वह तो बरसों पहले तलाक़ दे चुका है तो अब कैसा गुज़ारा भत्ता? क्योंकि भारत में मौखिक त्वरित-तलाक़ जैसी ग़ैर इस्लामी परम्परा अभी तक मान्य है तो इस हालत में यह एक सही फ़ैसला था. पर बोर्ड ने इतने सीधे और सेहतमन्द निर्देश का भी व्यापक विरोध यह कह कर किया कि यह हमारे 'राइट टू प्राइवेसी' पर हमला है. यही नहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सरकार से मुसलमान बच्चों को शारदा एक्ट से भी बाहर रखने का आग्रह किया. अभी कुछ महीने पहले उ॰प्र॰ मदरसा बोर्ड ने आठवीं जमात के बाद 25,000 लड़कियों को 1600 सहशिक्षा मदरसों से यह कह कर बाहर कर दिया कि इससे बेपर्दगी होगी और इस्लाम की रूह को नुक़सान पहुंचेगा. मुज़फ़्फ़रनगर के एक गांव की मुस्लिम पंचायत बलात्कारी ससुर को 'इस्लाम व शरीअत अनुसार', पीड़ित-बहू 'पत्नी' के रूप में भेंट कर 'इंसाफ़' करती है, और देवबन्द इस शरियती इंसाफ़ के पक्ष में फ़तवा देता है.
सत्ता के भूखे तालिबान शरीअत को अपराध-सम्मत बना कर अफ़ीम से 20 च्ंहम 66 जुलाई, 2009 66 प्रतिशत का ज़कात टैक्स वसूल कर सकते हैं, सामूहिक बलात्कार को 'सज़ा' के रूप में मुस्लिम क़बीलाई स्थापित कर सकते हैं, एस.एम.एस से तलाक़ देकर बुज़दिल शौहर हर ज़िम्मेदारी से फ़रार हो सकता है, शरीअत के नाम पर मुसलमान लड़कियों को दीनी इल्म से महरूम किया जा सकता है, पर जब औरतें शरीअत क़ानून की इन मर्दवादी व्यवस्थाओं में सुधार की बात करें तो यह बेचारी हर तरह से तोड़ी-मरोड़ी-ऐंठी शरीअत क़ुरान के बराबर ला कर बिठा दी जाती है. कोई ताज्जुब नहीं कि सारी दुनिया शरीअत क़ानूनों पर एतराज़ करती है, उन्हें बर्बर, मर्दवादी और नाइंसाफ़ी का स्रोत समझती हैं. जब राजेन्द्र यादव जैसे इन्सान-दोस्त और साफ़गो विश्लेषक शरीअत पर सवाल उठाते हैं, जब तमाम शिक्षित मुसलमान, ग़ैर-मुस्लिम, स्त्री-पुरूष शरीअत के इस विरोधाभासी, ग़ैर भरोसेमन्द और अन्यायपूर्ण संस्करण पर झुंझलाते हैं तब सभी मुस्लिम इदारे इधर-उधर हो लेते हैं. कोई पर्सनल लॉ बोर्ड, कोई मदरसा बोर्ड, कोई फ़िक़्ह आकादमी, कोई मजलिस मुशावरत और कोई जमात या जमियत इस धुन्ध को साफ़ कर सही इस्लाम को सामने नहीं लाती. भला हो हिन्दुस्तानी न्यायालयों का जो घरेलू मामलों में क़ुरान की रौशनी में फ़ैसले दे कर इंसाफ़ कर रहे हैं.
पूरे विश्व में जहां जहां 'इस्लामी फ़ेमनिज़्म' मुस्लिम महिलाओं को जागरूक बना रहा है वहां वहां शरीअत में बदलाव की मांग बढ़ रही है. जून 2009 के हंस में इस स्तम्भ के पाठकों ने और दूसरी प्रतिक्रियाओं ने शरीअत पर गंभीर आरोप लगाए हैं जो कि बहुत हद तक ठीक हैं. शरीअत क़ानून' अल्लाह का कलाम नहीं है जो कि अटल और पवित्रतम हों. वरना हर मुस्लिम देश व समाज में अलग-अलग शरीअत प्रावधान न होते. यह अल्लाह के कलाम की इन्सानों (कुलीन मर्दों) द्वारा की गयी क़बीलाई व्याख्या है, यह मुहम्मद साहब के जीवन के उन उदाहरणों की मदद से बनी है जो कि उनके साथियों यानी 'सहाबा' ने अपनी स्मृति अुनसार दर्ज करवाए या जो कि 'सहाबा' के साथियों ने जिन्हें ताबिइन' कहा जाता है, ने 'सहाबा' के हवाले से दर्ज करवाए या 'ताबि अत-ताबिइन' जो कि 'ताबिइन' के साथी थे और उनके हवाले से वाक़्यात दर्ज करते थे- यानी 'सहाबा' के अलावा बाक़ी दोनों हवाले मुहम्मद साहब को न कभी देख सके न सुन सके. शरीअत का तीसरा आधार आलिमों की सर्वसम्मत राय यानी 'इज्मा' यानी फिर इन्सानी समझ के आधार पर निष्कर्ष और चौथा स्रोत 'क़यास' यानी उपरोक्त तीनों स्रोतों के मद्देनज़र एक इन्सानी समझ आधारित निष्कर्ष.
एक पाठकीय प्रतिक्रिया में मुझसे तीखा सवाल पूछा गया है कि इस्लाम, क़ुरान और शरीअत में रहकर कैसा नारी चिंतन? स्वयं अधिसंख्य मुसलमान औरतें (व मर्द भी) मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व के फैलाए हुए भ्रम का शिकार हैं कि इस्लाम, क़ुरान, सुन्नः, शरीअत और फ़िक़्ह एक ऐसा हौआ है जिसे आम आदमी न समझ सकता है न छू सकता है. जबकि हक़ीक़त यह है कि यह सब एक लंबी डोर का हिस्सा ज़रूर हैं पर अलग-अलग स्तर पर यथोचित गरिमा के साथ पिरोये गए हैं.
इस्लाम, कुरान, सुन्नः और शरीअत के बीच इस बहुत अहम बारीकी को समझे बग़ैर जब शिक्षित, वर्ग चाहे वह मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, 'मुस्लिम समाज' की आलोचना को इस्लाम, कुरान या सुन्नः तक ले जाता है तो अपनी तमाम वाजिब फ़िक्र व जिज्ञासा के बावजूद उनकी आलोचना 'बूमरैन्ग' कर जाती है. उनका सुधारवादी विमर्श इस्लाम के विरुद्ध 'पूर्वाग्रह' या 'साज़िश' के ख़ाने में जा गिरता है. और इस असफल प्रक्रिया का फ़ायदा हिंदुत्व, मुस्लिम कटटरपंथी व अमरीका/इस्राइल जैसे उठाते हैं.
मुस्लिम कट्टरपंथी व यथास्थितिवादी इस समीक्षा और आलोचना को अल्लाह, इस्लाम, कुरान व मुहम्मद साहब के विरुद्ध प्रचार व कुफ्ऱ की पहचान देकर हंगामा खड़ा करवा देते हैं. इससे वे न सिर्फ़ आंतरिक व बाहरी आलोचना का गला घोंट पाते हैं बल्कि राज व सरकार को आतंकित कर अपना 'बारगेनिंग पावर' भी बढ़ाते हैं. दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी व हिंदुत्व शक्तियों से मुस्लिम असहिष्णुता और सरकारी तुष्टीकरण के बतौर पेश कर स्वयं के ग़ैरसंवैधानिक व 'हेट-एजेंडें' को 'जस्टीफ़ाई' करती हैं. विश्वस्तर पर अमेरिका इसे 'सभ्यताओं के टकराव' के ढांचे में बिठाकर एक पूरे समाज को असभ्य व आपराधिक संस्कृति घोषित कर अपने हथियार-उद्योग को सदा प्राणवान बनाए रखता है. इन सबके बीच नुक़सान में वह पीड़ित वर्ग (महिला, अजलाफ़, अरज़ाल, शिक्षित, तरक़्क़ीपसंद) रहता है जिसके लिए कुछ नहीं बदलता. बस हताशा बढ़ती जाती है. इस्लाम एक इन्सान-दोस्त, इंसाफ़पसन्द, बराबरी और भाईचारे का मज़हब है. जबकि शरीअत के क़ानून कई स्रोतों के निहितार्थ की इंसानी व्याख्या. शरीअत में जब विकृत तालिबानी और मर्दवादी 'बिगाड़' मुमकिन हैं तो न्यायवादी 'सुधार' भी मुमकिन हैं.
मैं फिर दोहराऊंगी कि मुस्लिम औरतें नारीवादी सुधारों के लिए क़ुरान का सहारा लें. क़ुरान में औरतों के अधिकार और पुरुषों के कर्तव्य हैं जबकि 'शरीअत क़ानूनों' में हर मसलक में (कहीं ज़्यादा कहीं कम) औरतों के कर्तव्य और मर्दों के अधिकार दर्ज करवाए गए हैं. बात साफ़ है-अल्लाह के कलाम को 'मर्दों की व्याख्या' से नहीं उसके मूल पाठ के अर्थों से समझिये, संतुलन वापस आ जाएगा. इस स्तम्भ के किसी भी लेख में या अपने पहले के लेखन में भी मैंने शरीअत को कभी उधृत नहीं किया सिर्फ़ क़ुरान व सुन्नः को ही आधार बनाया है. अल्लाह का कलाम क़ुरान एक आम बोलचाल की विकसित भाषा में आया है जिसे 'समझ' कर पढ़ना मुम्किन है. ग़ैर अरबी क्षेत्रों के लिये अनुवाद उपलब्ध हैं. वह मुसलमान जो क़ानून-विद डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर हैं यदि ज़रा सी मेहनत क़ुरान समझने में करें तो कठमुल्लों और यथास्थितिवादियों की हिमाक़तों को चुनौती भी दे सकेंगे और सही इस्लाम को दुनिया के सामने ला सकेंगे. बाक़ी इस्लामी दुनिया में औरतों ने यह बीड़ा उठाना शुरू कर दिया है, और मुस्लिम सरकारों को उनके आगे झुकना भी पड़ रहा है पर उनकी तुलना में भारत में यह प्रक्रिया बहुत धीमी है. हिन्दोस्तान में तथाकथित 'शरीअत लॉ' के नाम पर जो धाँधली चल रही है उसका ख़ुलासा अगले लेख में.
---
(हंस, जुलाई 2009 से साभार)
"विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, भारतीय जनता पार्टी जो कि मुसलमान महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार कर, उनके पेट फाड़कर अजन्मे शिशुओं को त्रिशूल की नोक पर टाँग कर विजय-उत्सव मनाते हैं
जवाब देंहटाएंजब एक ज़्यादा ताक़तवर गिरोह जबरिया और एलानिया एक मस्जिद गिराने निकलता है "
घनघोर आपत्तिजनक-जो काम केरल में मुसलमान दंगाइयों ने हिन्दू महिलाओं के साथ किया उसे आपने उलट कर लेख में लिख दिया.
दूसरा मस्जिद कहां से आ गयी. जितनी भी विवादास्पद इमारते हैं, सभी हिन्दुओं के मंदिर तोड़ कर बनाई गयीं, इन इमारतों को किसी अंजाने को भी दिखा दीजिये, बता देगा कि मूल इमारत क्या रही होगी.
तीसरा मुस्लिम सारी व्यवस्थायें अलग क्यों नहीं कर लेते अपने समाज के लिये, सारा झंझट खत्म. संसद में बिल पास होने में कितनी देर लगेगी. प्रगतिशीलता और जेंडर जिहाद के नाम पर धर्म की घुट्टी अच्छी पिला रही हैं आप.
किसी भी धर्म के लोगों की अच्छाई-बुराई जानने के बाद प्रश्न उठता है कि बुराइयों का मूल कहीं उनकी आस्थाओं में तो नहीं। यह बात सभी धर्मों पर लागू होती है । शुरूआत इन्सान से हो। क्योंकि किसी भी धर्म को अच्छा बताना कोई बड़ी बात नहीं, बच्चों जैसी ज़ीद ही काफ़ी है । आपने प्रारंभ धर्म-शास्त्रों से करके घोड़े के आगे गाड़ी लगा दी है ।
जवाब देंहटाएंचार चार औरतें रखने की इजाजत कुरान ने दे रखी हैं...कोई स्पष्टीकरण है....क्यों नहीं शरीयत हिंदुस्तान मैं भी लागू कर देते हैं ...और कोई भी मुसलमान चोरी करता हुआ पकङा जाये तो हाथ काट दिये जायें
जवाब देंहटाएं