जेंडर जिहाद सब धान बाइस पंसेरी? परदा इधर : परदा उधर शीबा असलम फ़हमी [शीबा असलम फ़हमी का अत्यंत लोकप्रिय व चर्चित स्तंभ – ज...
जेंडर जिहाद
सब धान बाइस पंसेरी?
परदा इधर : परदा उधर
शीबा असलम फ़हमी
[शीबा असलम फ़हमी का अत्यंत लोकप्रिय व चर्चित स्तंभ – जेंडर जिहाद हंस में पिछले कुछ अंकों से सिलसिलेवार जारी है. वैसे तो हंस अब पीडीएफ रूप में मई 2009 से नेट पर फिर से उपलब्ध हो गया है, मगर यूनिकोड में नहीं होने से बात नहीं बनती. रचनाकार के पाठकों के लिए खासतौर पर यह स्तंभ सिलसिलेवार रूप में यूनिकोडित कर, साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. पेश है जून 2009 का आलेख. मई 2009 का आलेख संविधान और क़बीला यहाँ पढ़ें]
प्रिय राजेन्द्र जी, हंस (मई 2009) में आपने अपनी समझ से बड़े ज़रूरी और चुनौतीपूर्ण सवाल उठाए हैं. स्वात व इसके आसपास चल रहे तालिबानी तांडव से यह सवाल और भी महत्वपूर्ण व सामयिक हो उठे हैं. आपने सही कहा है कि मैं मुस्लिम लड़कियों के पक्ष में जो तर्क दे रही हूं वह कुरान से ही हैं और यह भी सही है कि 'मैं भी अपनी बातें बच-बच कर कह रही हूं.'
इस स्तंभ के पहले लेख में ही मैंने घोषित रूप से तय किया था कि यह स्तंभ 'मुसलमान महिलाओं को पितृसत्ता व मर्दवादी सामाजिकता से मुक्त कर न्याय, बराबरी और आत्मसम्मान का रास्ता दिखाने के लिए है जो कि उन्हें उनके धर्म ने हज़ारों साल पहले दिया था पर मध्य एशिया, अरब भूमि के क़बीलाई संस्कृति के समाजों ने, इस्लाम की विशुद्ध मर्दवादी व्याख्या कर हड़प लिया.
कुरान के माध्यम से नारीवादी चेतना विकसित करना आपको क्यों अटपटा लग रहा है यह मेरी समझ में नहीं आया क्योंकि इस ही संपादकीय में स्वयं आप लिखते हैं कि ''उधर 'स्वात' में तालिबानों के क़हर की दिल दहला देने वाली तस्वीरें रोज़ आ रही हैं और सारे मुस्लिम संगठन चुप हैं...किसी ने नहीं कहा कि यह इस्लाम हमारा नहीं है...?'' राजेन्द्र जी आपको तालिबानों की भर्त्सना मुस्लिम संगठनों से ही क्यों चाहिए? इसलिए कि आप जानते हैं कि बाक़ी की दुनिया इन्हें कितना भी ग़लत ठहराए, जब तक खुद इस्लामी दुनिया इनकी हरकतों को इस्लाम विरोधी कहकर इन्हें अपराधी घोषित नहीं करेगी यह अपने एजेंडे को 'मज़हब की ख़िदमत' कहकर स्वःस्फूर्त बने रहेंगे. बिल्कुल यही मामला मुसलमान औरतों पर इस्लाम के नाम पर लग रही पाबंदियों का भी है. तालिबानी दिमाग़ जहां-जहां भी मुसलमान औरतों पर इस्लाम के नाम पर दमन कर रहे हैं वहां-वहां इस्लाम के ज़रिए ही उन्हें सही रास्ता दिखाने की ज़रूरत है.
इसी संदर्भ में आपके संपादकीय का दूसरा और ज़्यादा महत्वपूर्ण विरोधाभास पेश करती हूं. आपने फ़िल्म 'ख़ुदा के लिए' का उलाहना दिया कि ऐसी अच्छी फ़िल्में मुस्लिम समाज में व्यापक बहस क्यों नहीं पैदा करतीं? राजेन्द्र जी इस फिल्म का सार क्या है? यही न कि तालिबानी मौलाना ताहिरी के कटटर इस्लाम . जिसमें जेहाद, संगीत से नफ़रत, स्त्री-शिक्षा का विरोध, मर्दवादी स्त्री-पुरुष संबंध, आधुनिक वस्त्र-शिक्षा-जीवनशैली का विरोध, पश्चिम का विरोध का अत्यंत तार्किक उत्तर मौलाना वली इस्लाम की शिक्षा, इतिहास व व्याख्या से देकर मौलाना ताहिरी को परास्त कर देते हैं. फ़िल्म में यह दृश्य पाकिस्तान के एक 'सेक्यूलर-कोर्ट' में घटित होता है जिसके न्यायाधीश को भी मौलाना ताहिरी इस्लाम के नाम पर ज़लील करके चुप करा देता है आधुनिक-सेक्यूलर क़ानून के तर्क मौलाना ताहिरी को विचलित नहीं कर पाते. वह जज का अपमान कर आधुनिक कानून व्यवस्था को इस्लाम विरोधी कहता रहता है. पर जब मौलाना वली इस्लाम में संगीत, शिक्षा, निकाह में स्त्री की मर्ज़ी, हलाल कमाई, आधुनिक वेशभूषा व वस्त्र आदि को इस्लामी इतिहास, क़ुरान की व्याख्या व मोहम्मद साहब के जीवन से उदाहरण लेकर सिद्ध करते हैं तो मौलाना ताहिरी के ग़ुब्बारे की हवा निकल जाती है और उसका गुमराह किया नौजवान सरमद उसकी ही मस्जिद में जींस-टी-शर्ट में अज़ान देकर उसे चुनौती भी दे पाता है. राजेन्द्र जी इस फिल्म की मुंह भर-भरकर तारीफ़ करने के बाद आप मुझे उलाहना दे रहे हैं कि 'मैं क़ुरान हदीस व सुन्नः को ही नए संदर्भों में व्याख्यायित करने लगती हूं?''
आपके अनुसार मुसलमान औरतों में नारी चेतना जागृत करने के लिए मुझे पश्चिम की 'रैशनेल्टी' यानी वैज्ञानिक 'तार्किकता' का उदाहरण देना चाहिए? वेटिकन के पादरियों कि मिसालें देनी चाहिए? जो मनुष्यों को इस 'तर्क' पर 'सन्त' की उपाधी से विभूषित करते हों कि उस इंसान ने 'मिरेकल' या 'अलौकिक चमत्कार' कर दिखाया हो? मदर टेरेसा का उदाहरण अभी पुराना नहीं हुआ है. वैज्ञानिक तार्किकता और अलौकिक चमत्कार . दोनों को आत्मसात कर पानेवाली आपकी तार्किकता का आधार शायद यह है कि पश्चिम समाज के आधुनिक इतिहास यानी 'एन्लाइटेन्मेन्ट' का आपने अध्ययन किया है और उसके द्वारा दिए गए बराबरी, क़ानून का राज, व्यक्तिवाद, न्याय, स्वतंत्रता, प्रजातंत्र जैसे मूल्यों को विशुद्ध यूरोपीय आविष्कार मान लिया है. और वेटीकन व कैथोलिक चर्च क्योंकि यूरोप में स्थित हैं, तो यह भी इसी आधुनिक ढांचे में समाहित लगते हैं? ख़ैर, यहां मुद्दा यह नहीं है. मुद्दा यह है कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के सबसे दबे-कुचले, अनपढ़, दमित स्त्री वर्ग से आप वैज्ञानिक व रैशनल डिस्कोर्स में बात करना चाहते हैं. क्या यह कुछ जल्दबाज़ी नहीं है? आपके संपादकीय का तीसरा विरोधाभास यह है कि आप तुर्की के इस्लाम या इंडोनेशिया के इस्लाम की तारीफ़ भी कर रहे हैं और पूरे विश्व के इस्लाम को एक भी मान रहे हैं. क्या आप यह नहीं देख पाते कि जो क्षेत्र इस्लाम पूर्व की क़बीलाई व्यवस्था में जकड़े हैं वहीं पर स्त्रियों पर अत्याचार अधिक हैं.
अरब, अफ्ऱीक़ा और मध्य एशिया के अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान जिसमें, भारतीय पंजाब-हरियाणा व दिल्ली भी शामिल हैं, में क़बीलाई चरित्र व मानसिकता स्त्री दमन का कारण हैं. हरियाणा, पंजाब व दिल्ली में 'ऑनर किलिंग' 'आधुनिक' हिंदू समाज की क्रूर सच्चाई है या नहीं? आपको च्ंहम 55 जून, 2009 55 ज्ञात होगा कि आज भी बेटी के ग़ैर-बिरादरी में शादी कर लेने पर अमरीका-कनाडा में बसे हिंदू व सिख परिवार 'सुपारी-किलिंग' करवा देते हैं. अमरीकी 'रैशनल' आधुनिकता भी इन क़बीलाई परिवेश से आए पढ़े-लिखे विश्व नागरिकों का कुछ नहीं बिगाड़ पाती. हरियाणा और पंजाब में तो पुलिस व स्थानीय नेता भी इन 'आनर-किलिंग' को अनाधिकारिक रूप से जायज़ ठहराते हैं क्योंकि उनके अनुसार भी ऐसी 'कुलटा बेटियों' को यही सज़ा मिलनी चाहिए. दूसरी तरफ़ रूस से अलग हुए पांच मुस्लिम देशों, चीनी मुस्लिम समाज, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, और योरोप व अमरीका जहां मुसलमान दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं से ऐसी घटनाएं सुनने में नहीं आती, हालांकि इस्लाम की लिबरल व्याख्या की कोशिशें यहां भी जारी हैं. उत्तर भारतीय मुस्लिम समाज भी क़बीलाई व फ़्यूडल चरित्र से मुक्ति नहीं पा सका है. जबकि महाराष्ट्र, केरल आदि के मुसलमान उर्दू-हिंदी क्षेत्र के मुसलमानों से ज़्यादा लिबरल व शिक्षित हैं.
आपने मेरे बहाने मुस्लिम समाज से यह भी पूछा है कि ''क़ुरान और शरियत के इंटरप्रिटेशन (व्याख्याएं) ही तालिबानों के दिशा-निर्देश बनते हैं और फ़िदायीनों का निर्माण करते हैं.'' राजेन्द्र जी, काश धर्म के प्रति आपकी झुंझलाहट और ग़ुस्सा, आपको और गहरे अध्ययन व विश्लेषण की ओर प्रेरित कर पाता. 'तालिबान' के कुकर्मों से लेकर बेमानी हिंसा तक जो कुछ भी हो वह इस्लाम या क़ुरान सम्मत इसलिए नहीं बन जाता क्योंकि उसे अरबी भाषा के किसी शब्द से पुकारा जाता है. 'तालिबान', 'मुजाहिदीन', 'लश्कर', 'फ़िदायीन', 'जेहादी', 'जैश' आदि अरबी शब्दों की आड़ में अफ़ीम व अवैध हथियारों से लेकर सिखों से जज़िया वसूलने जैसे जो गोरखधंधे चल रहे हैं वह विशुद्ध आधुनिक 'पर्वरजन' हैं, जिन्हें 'इस्लामी' गतिविधियां मानकर आप इन गिरोहों को धार्मिक वैधता दे रहे हैं. विश्व बिरादरी इनकी हरकतों को जितना 'इस्लाम' से जोड़ेगी यह उतने ही मजबूत होंगे. इन घटनाओं को 'इस्लामिक आइडियल टाइप' की पहचान देना ही सबसे ख़तरनाक भूल है. और यह आपसे चाहते भी बस इतना ही हैं कि इनकी हरकतों को 'इस्लामी' माना जाए जिससे जनसाधारण भ्रमित हो और इन्हें व्यापक विरोध का सामना न करना पड़े. उनके मनमुआफ़िक़ यह ग़लती आप जानकारी की कमी के कारण करते हैं, अमरीका इसे प्रायोजित करता है, जिससे कि उसे इन समाजों को 'सुधारने, लोकतांत्रिक व सभ्य' बनाने के अधिकार प्राप्त हो सकें. (ज़रा एडवर्ड सईद की 'ओरियन्टल थियरी' दोहरा लीजिए तो समझ में आएगा कि) यह अरबी नामोंवाले आंदोलन व दस्ते जो 1400 सालों में कभी नहीं बने, अब कुकुरमुत्तों की तरह क्यों उग रहे हैं?
'तालिबान' का प्रायोजक अमरीका के सिवा कौन है? क्या ज़्यादा बड़ा सवाल यह नहीं कि इन अवैध गिरोहों के पास कभी न ख़त्म होने वाली अत्याधुनिक हथियारों की निर्बाध सप्लाई कहां से हो रही है? क्या इनके पास बम, लांचर, मोर्टार, मिसाइल, टैंक, ए.के. 47 ग्रेनेड जैसे अतिआधुनिक हथियारों व उपकरणों की उत्पादन तकनीक व क्षमता है? यह कैसे अचानक इन महंगे और सटीक हथियारों के साथ बिलों से प्रकट हो जाते हैं? कौन-सा बाज़ार, तंत्र व एजेंसियां है जो हथियारों की बिक्री व उन्हें इन हवाई-पटटीविहीन बीहड़, दुर्गम स्थानों तक 'एयर लिफ्ट' व 'ड्राप' कर रही हैं? इतनी बड़ी संख्या में सामरिक साज ओ सामान बिना किसी की नज़र में आए, इन ठिकानों पर कैसे पहुंचता है? विश्व भर में चल रही मन्दी का असर इन गिरोहों की गतिविधियों पर क्यों नहीं दिखता? या कहीं ऐसा तो नहीं कि किन्हीं 'बाज़ारों' की मंदी को इन्हीं ख़रीदारों के ज़रिए उबारा जा रहा हो?
अमरीका, इज़्राइल, चीन जैसे हथियारों के दुकानदारों की 'धर्मनिरपेक्ष तटस्थता' उनसे यह सवाल नहीं करती कि आख़िर उनका बनाया-बेचा माल कहां खप रहा है? जब भारत में आतंकवादियों से मिले छोटे हथियारों से यह तुरंत चिन्हित हो जाता है कि यह हथियार कहां का उत्पादन है तो वहां युद्ध-टैकों व रॉकेट-लांचरों के खुलेआम प्रयोग के बावजूद यह सवाल कोई क्यों नहीं उठाता? स्वयं अमेरिका ही यह बुनियादी सवाल क्यों नहीं करता? आख़िर यह कोई छोटे-छोटे हीरे-जवाहर तो है नहीं कि पठान अपनी शलवार के नेफ़े में छुपाकर तस्करी कर ले? इनके उ॰गम का स्थान तय कर 'सप्लाई पर रोक' लगाने के लिए अमरीका जैसा सक्षम ग़ुंडा चुप क्यों है? क्योंकि उसका मक़सद दोनों पक्षों को हथियार बेचते रहना है बस.
ख़ैर 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' का मक़सद मुसलमान औरतों को यह बताना है कि इस्लाम में औरत होने का मतलब अशिक्षित, पराश्रित, ग़रीब, बेसहारा, दुखी, घर की चारदीवारी में बंद अज्ञानी होना नहीं होता, (उपरोक्त बयान का मतलब यह भी नहीं कि वर्तमान में मुसलमान औरतें दुखी ही हैं) जैसा कि कठमुल्ले चाहते हैं. लेकिन ताज्जुब यह है कि हर बार आप जैसे तार्किक बुद्धिजीवी इन कठमुल्लों द्वारा प्रस्तुत 'स्टीरियोटाइप' की ताईद क्यों करते हैं? ये कहते हैं इस्लाम औरत को मर्द से कमतर समझता है तो आप मान लेते हैं, ये कहते हैं कि तालीबानी व्यवस्था ही इस्लामी व्यवस्था है, तो आप भी यही कहते हैं. हर बार आप तालिबानों, मुजाहिदीनों के पाले में क्यों चले जाते हैं? कठमुल्लों, दहशतगर्दों की अतार्किक व हिंसक गतिविधियों को आम मुसलमान इस्लामी नहीं मानता, पर आप मानते हैं. इन सत्तालोलुपों के साथ हां में हां मिलाने में आप सदैव-सहर्ष तैयार क्यों रहते हैं? अगर आप नहीं जानते क्यों, तो मैं ही बताए देती हूं, अपनी तमाम हमदर्दी और नेकनीयती के बावजूद सच्चाई यह है कि आप 'इस्लाम' को नहीं जानते. आप स्वयं स्वीकार चुके हैं कि आपने इस्लाम के मूलग्रंथ क़ुरान के पन्ने कभी नहीं पलटे. आप मुझे चुनौती देते हैं कि जिस तरह आपने हंस में 24 साल हिंदू धर्म की बख़िया उधेड़ी है क्या मैं ऐसा कर सकती हूं?
क्या आपको लगता है कि हिंदू-धर्म और इस्लाम एक दूसरे की कार्बन कॉपी हैं? क्या सभी धर्म एक-दूसरे की नक़ल मात्र हैं? ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने के अलावा कोई दूसरा बिंदु नहीं जो किन्हीं दो धर्मों में समान हो, (यहां तक कि ईश्वर के गुण भी सभी धर्मों में अलग हैं). आप हिंदू-धर्म ग्रंथों को पढ़ना ही काफ़ी समझते हैं? कि क़ुरान, शरीयत और हदीस शायद गीता, वेद-उपनिषदों के अरबी संस्करण हैं? आप तार्किकता को इंसान की सर्वोच्च उपलब्धि मानते हैं और ख़ुद को एक तार्किक इंसान. तो यह कैसी तार्किकता है जो च्ंहम 56 जून, 2009 56 किसी दर्शन को जाने-समझे बिना ही, किसी दूसरे दर्शन के उदाहरणों से र॰द कर देती है? क्या भारत में लोकतंत्र और संविधान आधारित व्यवस्था की कामयाबी पर इसलिए शंका जताई जा सकती है कि वह पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान-अफ़गानिस्तान में पिट गई? नब्बे के दशक से जब एक के बाद एक साम्यवादी गढ़ ढहने शुरू हुए और रूस, चीन, पूर्वी योरोप आदि पूंजीवादी सांचे में ढलने लगे तब क्या आप-हम साम्यवादी मूल्यों-विचारों को ग़लत और बेकार मानने लगे? आज भी अमरीका से लेकर भारत तक क्या साम्यवादी विचार अपनी आंतरिक शक्ति से पूंजीवादी ग़ैर समानता व शोषण का हल नहीं देता? सोवियत रूस के बिखरते ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को ख़त्म करने की पैरवी क्यों नहीं हुई? इसलिए कि आप इस विषय को जानते-समझते हैं और यह जानना-समझना ही बुनियादी शर्त है राय या फ़ैसला देने की. चलिए, क़ुरान, हदीस, इस्लामी फ़िक़्ह जैसे गाढ़े पाठ न सही आप तो तालिबान और अलक़ायदा के परे मुस्लिम-जगत से संबंधित 'ख़बरें' भी नहीं पढ़ते शायद. शिक्षित मुसलमान जिस इस्लाम को बड़े फ़़ के साथ अपनाता है अभी आपने उस पर अपनी मेहरबान नज़र नहीं डाली है. फ़िल्म 'ख़ुदा के लिए' के मंसूर, सरमद और मौलाना वली आज बड़ी तादाद में हैं और बढ़ रहे हैं. उन्हें क़ुरान या कम्प्यूटर, इल्म या इबादत, ईमान या तर्क, जैसे चुनाव नहीं करने पड़ते. आप 'कठमुल्ला' 'इस्लामिक फंडामन्टलिज्म', 'इस्लामी आतंकवाद' आदि शब्दों से तो अवगत हैं पर 'मॉडरेट-मौलाना', 'इज्तेहाद', 'फेथ विदआउट फियर', जैसे लोकप्रिय टर्म और इनमें निहित संभावनाओं से वाक़िफ़ नहीं. यदि क़बीलाई, बर्बर, सत्तालोलुप मर्द धर्म को विकृत कर औरतों पर ज़ुल्म तोड़ रहे हैं तो यह और भी ज़्यादा जरूरी है कि उन्हें उन्हीं के हथियारों से परास्त किया जाए.
आपने ख़ुद कहा कि 'अनपढ़ और ख़ुद मुख़्तार रहनुमा कब तक आम मुसलमान की नियति तय करते रहेंगे?' तो अनपढ़ रहनुमाओं की जहालत और सही इस्लाम को सामने लाने दीजिए. अगर कोई अपराधी संविधान के किसी पहलू का इस्तेमाल अपने अपराध को जायज़ ठहराने के लिए करता है तो उस क़ानून की सही व्याख्या करने की ज़रूरत है या संविधान को उखाड़ फेंकने की? आख़िर पूरे देश में न्यायपालिका का बुनियादी काम संविधान की सही व्याख्या ही तो है. इस्लाम की सही व्याख्या से इन क्रूरताओं को ग़ैरइस्लामी और गुनाह सिद्ध किया जाना इसीलिए ज़रूरी है जिससे यह गुनहगार 'ख़ुदाई ख़िदमतगार' होने का ढोंग बंद करें.
आपकी राय है कि ''सारे धर्म अतीत-जीवी क़बीलाई या सामंती होते हैं...अतीत को ही यूटोपिया मानते हैं...इस्लाम जिस सख़्ती और क्रूरता से धर्म राज्य स्थापित करना चाहता है वह मानवीय तस्वीर नहीं रखता.'' यह सही नहीं है क्योंकि इस्लामी इतिहास में कोई आदर्श काल अभी तक नहीं माना जाता जिसको पुनःस्थापित करने का आग्रह मुसलमान करें. दूसरे, मुहम्मद साहब ने अरबवासियों को पहला आदेश ही क़बीले की वफ़ादारियों से मुक्त होने का दिया. उन्होंने ख़ानदान व बाप-दादा की परंपराओं की पाबंदी बंद कराई. उन्होंने गांव, क़बीला, देश, भाषा, नस्ल, परंपराएं व रीति रिवाज के बंधनों से मुक्ति के साफ़ आदेश दिए. सारी दुनिया के मुसलमानों को एक 'उम्मः' की पहचान दी. जहां तक इस्लाम के क्रूरता और तलवार की नोक पर फैलने का आरोप है, ज़रा बताइए कि इतिहास में कभी किसी इस्लामी सेना ने चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया पर आक्रमण किया था? नहीं. तो वहां इतनी बड़ी तादाद में विशुद्ध चीनी नस्ल के मुसलमान कहां से आ गए? चलिए इतिहास छोड़िए, वर्तमान में आइए . इस आधुनिक युग में जब अमरीका-योरोप-इज़्राईल का समूचा प्रचारतंत्र तालिबान, जेहाद, फ़िदायीन, आतंकवाद, को इस्लाम से जोड़कर 'हंटिग्टनी' फ़तवा दे रहा है, तब इस व्यापक प्रचार को अनदेखा कर पश्चिमी-अमरीकी-तार्किक गोरों के बीच इस्लाम कैसे फैलता जा रहा है? आज कौन-सी तलवार इनके गले पर रखी है? आज लगभग भारत की मुस्लिम आबादी के बराबर ही चीन की मुस्लिम आबादी जो स्वेच्छा से इस्लाम में है. चीन में इस्लाम को न सरकारी संरक्षण प्राप्त है, न वहां इस्लाम की तलवार है, न मुस्लिम/अरब देशों से निकटता. योरोप व अमरीका में मुसलमान दूसरी सबसे बड़ी आबादी कैसे बन गए? अमरीका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी आदि पर कब किसी मुस्लिम सेना ने आक्रमण किया? यह सही है कि इस्लाम एक संस्थागत धर्म है. इसमें आने या ना आने का फ़ैसला इंसान आज़ादी से कर सकता है लेकिन एक बार इस्लाम में आ गए तो इस कलमे को मानना ही है कि ''अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके रसूल हैं,'' और यह भी कि क़ुरान अल्लाह का कलाम है. हर धर्म में कुछ बुनियादी शर्तें होती है जिन्हें अक्षरशः स्वीकार किए बग़ैर आप उस धर्म का हिस्सा नहीं बन सकते. ईश्वर या अल्लाह का वजूद लगभग हर धर्म में है और अगर यह न हो तो फिर उसे 'धर्म' कहेंगे ही क्यों? इसलिए जब एक नास्तिक बुद्धिजीवी (राजेन्द्र यादव) एक धार्मिक समूह से यह सवाल करें कि क्या आप 'क़ुरान, शरीयत और हदीस से मुक्त नहीं हो सकते?' तो न बुरा लगता है न झुंझलाहट होती है क्योंकि आप जिस आइलैंड पर खड़े होकर यह सवाल कर रहे हैं उसका उस बड़ी ज़मीन से कोई लेन-देन बचा ही नहीं जहां इंसान खुद को एक विश्वास के साथ सर्वोच्च सत्ता के हवाले कर देता है.
लेकिन झुंझलाहट तब होती है जब मुस्लिम समाज की हर बुराई की ठीकड़ा 'इस्लाम धर्म' के सिर फोड़ दिया जाता है. यह भूलकर कि जिस सुकरात-प्लेटो-अरस्तू के दर्शन पर आज का 'इन्लाइटेनमेंट डिस्कोर्स' खड़ा है, उसे पश्चिम तक इस्लामी दार्शनिकों ने ही पहुंचाया. आप कहेंगे कि मैं फिर 700 साल पीछे दौड़ गई तो मैं कहूंगी कि यह बताने के लिए कि अपनी स्थापना के कई सौ सालों तक इस्लाम की उदारता और अरबी भाषा के कारण ही पश्चिम को यूनानी फ़लसफ़ा और ज्ञान हस्तांतरित हो सका वरना यूरोप में 'डार्क एज' पता नहीं कब तक चलती. वाजिब सवाल यह है कि जब इस्लाम के शुरुआती शताब्दियों में मुसलमान समाज इतना उदार था कि दर्शन व ज्ञान के हर स्रोत को खंगाल रहा था तो बाद की शताब्दियों में यह परंपरा बंद क्यों हो गई? इस्लाम पर यह तोहमत भी बेबुनियाद है कि ''इस्लाम एक जड़ मज़हब है, जहां कुछ नहीं बदलता और सिर्फ़ एक व्याख्या पर सारे विश्व में मुसलमान अमल कर रहे हैं.''
बहुत शुरुआत में ही इस्लाम की चार च्ंहम 57 जून, 2009 57 अलग-अलग व्याख्याएं हो गई थीं और हर मुसलमान को यह आज़ादी है कि वह किसी भी मसलक को माने. चारों के शरियाः में अलग-अलग प्रावधान हैं कुछ दूसरों से ज़्यादा उदारवादी भी हैं. इसके अलावा चार और मसलक बने . शिया, ज़ाहिदी, तैमीरी और जाफ़री. एक आधुनिक मिसाल देखिए स॰दॉम हुसैन के इराक़ में बहुत से शरियत प्रावधान शिया फ़िरक़े के लागू किए गए क्योंकि वे सुन्नी शरीयत से ज़्यादा उदारवादी थे. किसी आलिम या मुस्लिम मुल्क ने इस पर कोई आपत्ति नहीं उठाई. जबकि वही स॰दाम शिया इरान से लड़ता रहा और शिया क़ानून भी चलाता रहा. क्या यह गुंजाइश आपको किसी संभावना का इशारा नहीं करती? हां अगर आप यहां पर यह तर्क दें कि उसने बहरहाल एक इस्लामी व्यवस्था ही अपनाई, अमरीकी उदारवाद नहीं अपनाया तो फिर मैं कहूंगी कि एक तो अमरीकी व्यवस्था खुद अपने समाज के लिए भी परफ़ेक्ट नहीं सो अच्छा है कि कोई उसकी नक़ल न करे, दूसरे यह कि इस्लाम से बाहर जाने का मुद्दा नहीं है मुद्दा यह है कि ख़ुद इस्लाम में कितना लचीलापन है.
आपसे शिकायत यह है कि आपने ना तो क़ुरान पढ़ी, न इस्लामी न्यायव्यवस्था न दर्शन. इस अभाव में आपका विश्लेषण इतना अधूरा और स्टीरियोटाइप आधारित हो जाता है कि आप 'चांदमोहम्मद और फ़िज़ा' या धमेर्न्द्र और हेमामालिनी की मक्कारी को भी इस्लाम के सर मढ़ देते हैं. यह मर्दवादी समाज व क़ानून की कमी है कि एक तो वह विवाहित जोड़े को 'डेड-एन्ड' पर खड़ा कर देती है कि यदि विवाह से बाहर आना हो तो एक-दूसरे की सार्वजनिक छीछालेदर लाज़मी है. दूसरे समाज इतना मर्दवादी है कि औरत पत्नी के दर्जे के बिना असहाय व लज्जित महसूस करती है. रोटी कपड़ा और मकान से लेकर हर गारंटी सिर्फ़ पति के रहते तक हैं. भारतीय समाज पहले तो नाज़ुक, मासूम, कमसिन और छुई-मुई सी पत्नी रोमांटीसाइज़ कर उन्हीं का उत्पादन करता है. ज़रा पता लगाइए कि किस परिवार को 'रानी झांसी' जैसी सबला बहू चाहिए, आदर्श बहू आज भी चुप रहने वाली छुई-मुई ही है. दूसरी तरफ़ यह भी चाहता है कि पति जब अलग होना चाहे पत्नी सहर्ष स्वीकार ले. अरे जब औरत एक परजीवी जंतु की तरह तैयार की जाएगी तो वह आज़ादी और आत्मनिर्भरता को कैसे स्वीकारेगी? और ऐसी पत्नियों से पीछा छुड़ाने के लिए इस्लाम की एक ऐसी व्यवस्था (जो कि पैग़बंर साहब ने 'उहूद' युद्धोपरांत मदीना शहर के मर्दों को सशर्त दी थी क्योंकि मक्कावासियों के साथ जंग में दस प्रतिशत से ज़्यादा मर्द आबादी युद्ध का शिकार हुई और उनकी बेवा व यतीमों को सहारा चाहिए था) का इस्तेमाल हिंदू मर्द कर रहे हैं जो कि ख़ुद मुसलमान छोड़ चला है. हां, कठमुल्लों की बात और है, वे ज़रूर इसे 'हक़' समझते हैं पर अमरीका, योरोप से लेकर भारत-चीन तक मुसलमान एक पत्नी विवाह ही में रह रहे हैं. विवाहित जोड़े को यह अधिकार है या नहीं कि यदि संबंध ख़राब हो जाएं या पति-पत्नी एक-दूसरे से संतुष्ट न हों तो अलग हो जाएं? इस्लाम यह हक़ देता है कि अगर बीवी चाहे तो कोई वजह न बताए और 'ख़ुला' ले ले. बीवी को यह भी हक़ है कि अपने निकाहनामे में ही यह शर्त रख दे कि जब वह आज़ाद होना चाहेगी शौहर उसे तलाक़ देगा और यह शर्त मर्द को लाज़िमी तौर पर माननी होगी वरना निकाह ख़ारिज़. हां मर्द पर पाबंदी है कि वह तलाक़ देने से पहले क़ुरान में दी गई हिदायतों का पालन करे और बीवी को उचित और उदार रक़म व सामान देकर रूख़सत करे. आज भारतीय न्यायपालिका भी मुसलमान औरतों के मामले में इन प्रावधानों को लागू करवा रही हैं. हिन्दू धर्म के नारी व दलित विरोधी समानांतर इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं ठूंसे जा सकते. इस्लाम में न सती है, न वैध्व्य, न पति परमेश्वर है, न कन्यादान, न नारी व दलित को वेदों के ज्ञान से वंचित रखने जैसी व्यवस्था, न किसी भी आधार पर इन्सानों के बीच ऊंच-नीच, न भगवान और इन्सान के बीच पुरोहित-पंडित जैसा बिचौलिया.
हां यह जरूर है कि वह बुनियादी शर्त की पाबंदी हर मुसलमान पर बराबर है कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके रसूल. और क़ुरान अल्लाह का कलाम है. आप क़ुरान की 'व्याख्या' कर सकते हैं पर क़ुरान के एक भी अक्षर को बदल नहीं सकते. यह पाबंदी इस्लाम धर्म के मूल में है लेकिन इससे यह नहीं सिद्ध होता कि कुरान में जो लिखा है वह आज के दौर में निरर्थक है. एक और मिसाल दूं, सन 2003 तक मुसलमान शेयर मार्केट को जुएंबाज़ी का अडडा मान 'हराम' कहते रहे लेकिन जब लगा कि इसके बिना काम नहीं चल सकता तो इसी कुरान की रोशनी में सऊदी अरब व मलेशिया से फ़तवा ले आए कि शेयर मार्केट में पैसा लगाना हराम नहीं है बस शराब आदि हराम चीज़ों पर सौदा नहीं करना है. यही मामला बैकिंग का है कि थोड़े से बदलाव के बाद, जिससे सूदख़ोरी को बढ़ावा न मिले, बैकिंग भी जायज़ 'करा' ली गई. नशीली वस्तुओं के उत्पादन या सूदख़ोरी जैसी क्रूर व्यवस्था पर रोक क्या इतनी बड़ी बुराई है कि इसके लिए इस्लाम को कठघरे में खड़ा किया जाए? नशा, सूदख़ोरी, ज़िस्मफ़रोशी आदि से पेसा कमाना किस समाज में मान्य है. हां, यह ज़रूर है कि आज के तक़ाजों के हिसाब से इस्लाम को ढाला तो जा रहा है लेकिन यह सिर्फ़ मर्दों को फ़ायदा पहुंचाने वाले बदलाव हैं. और यहीं पर इस्लाम की स्त्रीवादी व्याख्या की मैं बात करती हूं. मुसलमान औरतें पढ़- लिखकर, क़ुरान ही से अपने लिए रास्ते निकालने की जंग में लगी हैं और इसे ही 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' कहते हैं. अभी कुछ दिन पहले सईदा हमीद साहेबा ने निकाह पढ़वाया. बहुत सवाल उठे, कठमुल्ले हड़बड़ा गए कि यह क्या हुआ जो कभी नहीं हुआ. महिलाओं का सीधा-सा तर्क काम आया कि इस्लाम औरत को नहीं रोकता, बस उसमें यह क़ाबलियत होनी चाहिए. तो काबिल औरत क़ाज़ी बनकर वह सारे रोल अदा कर सकती है जो एक पुरुष काज़ी करता है. कठमुल्ले तो शायद अभी भी इस पर रोक लगाने के लिए हदीसों के पन्ने पलट रहे होंगे पर होने वाला कुछ नहीं क्योंकि क़ाज़ी की योग्यता ज्ञान तय करता है और इस्लाम औरत को ज्ञान अर्जन से रोकता नहीं. अब बताइए इस्लाम मसला है कि पितृसत्ता? पितृसत्ता औरतों में ऐसे तर्क करने की शक्ति नहीं पनपने देती. न्यूयार्क से लेकर दक्षिण भारत तक मुसलमान औरतें पेश-इमाम बनने की ठाने हैं और नमाज़ भी पढ़ा चुकी हैं, फिर वही तर्क कि कुरान नहीं रोकता बस क़ाबिलियत हो. कहा जा सकता है कि निकाह या नमाज़ पढ़ाने की जद्दोजहद च्ंहम 58 जून, 2009 58 भी कोई बात है? इसका जवाब यह है कि जिस तरह विधायिका में महिलाओं का होना उनमें नेतृत्व के गुण विकसित करता है उसी तरह धार्मिक सत्ता स्रोतों में भागीदारी से महिला उत्थान व सबलीकरण होता है. आपने भारतीय मुसलमानों पर एक और तोहमत यह लगाई कि ये 'भारतीय' बाद में है और मुसलमान पहले.
आप जानते ही होंगे कि यहूदी, इसाई और मुसलमान धर्म में दुल्हन की शादी का लिबास सफ़ेद होता है. पर क्या आपने कभी हिंदुस्तानी मुसलमान दुल्हन को सफेद लिबास में देखा? वह हिंदू दुल्हन की तरह लाल जोड़ा पहनती है. और हिंदू परंपरा की ही तरह भारतीय मुसलमानों में शुभ अवसर पर सफेद वस्त्रों को अशुभ व शोक का प्रतीक भी माना जाता है. यह विशुद्ध भारतीय परंपरा है. लेकिन क्या आपने भारतीय ईसाई, यहूदी या पारसी दुल्हन को लाल जोड़े में देखा है कभी? तो भारत की परंपराओं को किसने अपनाया? शादी में हिंदू रीति-रिवाजों की और भी कई मिसाले हैं शादी के गीत, हल्दी व मेहंदी की रस्म आदि. इसी तरह दशहरा व मोहर्रम, दिवाली-शबे बारात, आदि में सीधी समानताएं देखी जा सकती हैं. सूफ़ी परंपरा, मज़ार परस्ती, पीरी-मुरीदी दहेज प्रथा, जातीय ऊंचनीच, सभी हिंदू धर्म के प्रभाव हैं. हिंदुस्तानी मुसलमान हिंदुस्तानी मिटटी में रचा बसा है. हां आपने राष्ट्र का सवाल उठाया जिस पर मुझे ताज्जुब हुआ. राष्ट्र जैसी साम्राज्यवादी, कृत्रिाम व बुर्जुआ परिकल्पना के हिमायती आप जैसे मार्क्सवादी? ज़रा तीन महीने पुराना अपना संपादकीय पढ़ लीजिए. कहीं ऐसा तो नहीं 'राष्ट्र' की अग्नि परीक्षा केवल अल्पसंख्यकों के लिए है? और आप बहुसंख्यक वर्ग से हैं तो 'राष्ट्र' की ऐसी-तैसी कर सकते हैं? चलिए बात आगे बढ़ाते हैं. शादी के बाद लड़की का नाम बदलना एक ग़ैर-इस्लामी अमल है जो भारतीय मुसलमान हिंदुओं की देखा-देखी करता है बल्कि इस्लाम के अनुसार हर इन्सान की पहचान उसकी मां के नाम से तय होगी इस्लाम में अल्लाह के बाद अगर कोई शख़्सियत है तो वह मां की है. रुपए में 75% हक़ मां का है और सिर्फ़ 25% बाप का.
आपने कहा कि इस्लाम क़ुबूल करने पर अपनी पहचान से हाथ धोना पड़ता है. आपने जिन महिलाओं का नाम लिया मुझे नहीं मालूम कि हिंदू धर्म में रहते हुए उनकी पहचान कितनी भव्य थी और उन्हें यह क्यों करना पड़ा लेकिन यह ज़रूर है कि यह मामला स्वयं नारी की अपने प्रति चेतना का है. आमिर ख़ान-किरन राव, शाहरूख़ ख़ान-गौरी, अरबाज़ ख़ान-मलायका अरोड़ा, अज़हरूद्दीन-संगीता बिजलानी, नवाब मंसूर अली ख़ान पटौदी-शर्मिला टैगोर, सैफ़ अली ख़ान-अमृता सिंह, इमरान- जेमिमा. यह सब ज़िंदा मिसाले हैं कि ऐसी कोई पाबंदी नहीं है. कुछ कमज़ोर स्त्रियों के निर्णय को इस्लाम पर न थोपें क्योंकि इसके विरुद्ध कितने ही भारतीय मुसलमानों ने हिंदुस्तानी नाम रखे. मुग़ल शासक औरंग़ज़ेब ने अपना नाम नवरंग बिहारी रखा, युसूफ़ ख़ान-दिलीपकुमार हो गए, मुमताज़-मधुबाला हो गई, मीना कुमारी का असली नाम महजबीं था, सयद जवाहर अली जाफ़री 'जगदीप' हो गए. इन सब ने कला व पेशे की ज़रूरत पूरी करने के लिए हिंदू नाम रखे. कभी कोई फ़़तवा नहीं आया, किसी ने एतराज़ नहीं किया. हां एक वर्ग उन लोगों का ज़रूर है जो इस्लाम मज़हब में आस्था लाते हैं तो 'राम सेवक' से 'ग़ुलाम रसूल' बन जाते हैं यह उनकी आस्था है कि वह हिंदू देवताओं पर रखे नाम छोड़कर मुस्लिम नायकों आदि का नाम चुनें या नहीं.
दिलीप कुमार जब स्वेच्छा से सपरिवार धर्म परिवर्तन करके अल्लाह रखा रहमान (ए आर रहमान) हो जाते हैं तो यह उनकी खुशी है, इस्लाम को उनके दिलीप नाम से कोई आपत्ति नहीं. बहुत से विदेशी गोरे जो बनारस के गंगाघाट पर चिलम खींचते मिल जाएंगे अपने हिंदू नाम रख लेते हैं. हरे रामा-हरे कृष्णा 'कल्ट' के कई विदेशियों ने अपने अंग्रेज़ी नाम छोड़कर हिंदू नाम रखे. यह निजी फ़ैसला होता है. जहां तक इस्लाम का सवाल है ख़ुद मुहम्मद साहब या उनके रिश्तेदारों व अरबवासियों ने अपने नाम नहीं बदले. यह सब इस्लाम पूर्व के नाम हैं जो जस के तस इस्लाम में आ गए. यहूदियों से तमाम झगड़े के बावजूद मुसलमान यहूदी नाम जैसे मूसा, हारून, इस्माईल, सारा, दाऊद, सुलेमान, इसहाक़, युसूफ, ईसा, मरियम व शीबा जैसे यहूदी नाम ख़ूब रखते हैं.
इस्लाम की न अपनी कोई भाषा है, न संस्कृति, न वेशभूषा, न खाना, न रंग, न दिन. मुस्लिम समाजों ने यह फ़ैसले अपने स्थानीय वातावरण के आधार पर लिए हैं. मध्य एशिया और रूस के मुस्लिम इलाक़ों में अरबी नाम नहीं मिलते, उसी तरह चीन में भी चीनी नाम के मुसलमान होते हैं. और यह मुसलमान कोरमा-बिरयानी-सिंवई भी नहीं खाते.
पर्दे के सवाल पर आपकी बात बहुत हद तक सही है कि मानसिक अनुकूलन को स्वेच्छा का नाम नहीं दिया जा सकता. यक़ीनन ज़्यादातर औरतें इसी अनुकूलन के कारण बुर्क़ा पहनती है. कुछ इसका विरोध भी करती हैं लेकिन इस पर ताज्जुब न करिये कि कुछ औरतें बुर्के में अपनी बेरहम ग़रीबी छुपाकर, शर्मिंदा हुए बग़ैर घर से बाहर की दुनिया में अपने काम निपटा पाती हैं. शायद इस तबके की स्त्रिायों से आपकी कोई वाक़्फ़ीयत नहीं.
यक़ीनन मैं अपनी बात बच-बचकर कह रही हूं क्योंकि मुझे यह ख़याल रखना है कि सारी दुनिया का मुसलमान इकहरी पहचान नहीं है. दूसरे यह कि मुसलमान महिलाओं के गंभीर मसले ग़ैर-ज़रूरी प्रतिक्रियाओं का शिकार न हो जाएं. क्योंकि इस स्तंभ में जिस साफ़गोई से मुसलमान मर्दवादियों को आईना दिखाया जा रहा है उसे पचा पाना उनके लिए मुश्किल होगा. आप जिस मासूमियत से 'सब धान बाइस पंसेरी' कर लेते हैं, वह 'इस्लामिक फ़ेमनिज़्म' को मजबूत नहीं, कमज़ोर करेगा, दूसरे 'हंस' जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का क़ीमती स्पेस भी सतही स्टीरियो टाइपिंग का शिकार हो जाएगा जो मुसलमान औरतों का बड़ा नुक़सान होगा. आपने इस विषय पर स्थायी स्तंभ शुरू कर मुसलमान महिलाओं की जद्दोजहद को जो बहुमूल्य समर्थन दिया है वह हिंदी पत्रिकाओं ने पहले कभी नहीं किया. इस संबल के लिए भारतीय मुस्लिम फ़ेमनिज़्म आपका आभारी रहेगा.
इस्लाम में 'हिजाब' और पर्दे के बाबत जो हिदायतें हैं उन पर अगले अंकों में बात होगी, क्योंकि तालिबानी बुर्क़ा या पर्दा किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता. यह भय और मजबूरी की निशानी है.
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(साभार – हंस, जून 2009)
'हंस' और इस गलत फहमी तक मेरा सवाल पहुंचा दो, क्या कभी इन्होने कुरआन की शक्ल देखी है?
जवाब देंहटाएंदेखी होती तो पता होता शब्द कुरआन कैसे लिखा जाता है, देखें www.quranhindi.com
अब युनिकोड में http://hindikosh.in/quran
शीबा जी, दिक्कत दर-असल यह है कि ईश्वर, सच्चे प्रेम और उदार इस्लाम के बारे में मैं यही कह सकता हूं कि यह वे चीजें हैं जिसकी चर्चा हर कोई करता है, लेकिन देखा किसी ने नहीं. माफ कीजियेगा मैं आपकी धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता न ही अन्यथा लीजियेगा बल्कि यह कहना चाहता हूं कि जो प्रगतिशील और उदार मुस्लिम हैं उनकी आवाज स्वयं मुस्लिम समुदाय ही दबा देता है, और धार्मिक मान्यताओं का दुरुपयोग स्त्री के शोषण के लिये किया जाता है. ऐसा भी नहीं है कि हिन्दू स्त्री का शोषण नहीं करते, लेकिन अधिकांश हिन्दुओं में कठमुल्लापन (मुहावरे के रूप में) हावी नहीं होता. मुस्लिमों ने स्वयं ऐसा तानाबाना बुन दिया है और अब सत्ता तथा राजनीति के चलते कि उनके चारों तरफ एक ऐसी दीवार बन गयी है जिसके उस पार देखना भी नामुमकिन हो चुका है. कल ही एक खबर पढ़ी थी कि अस्सी वर्ष के सज्जन ने तीस वर्ष की लड़की से चौथा विवाह किया. इनके पहले ही तीस संतानें हैं. तो यह व्यवस्था भी कहीं न कहीं स्त्री के शोषण का जरिया बन रही है.
जवाब देंहटाएंएक घटना पर आपसे टिप्पणी चाहूंगा. अभी कश्मीर में एक लड़के का कत्ल उसकी बीवी के घरवालों ने कर दिया. लड़के का कुसूर यह था कि वह हिन्दू था और उसकी बीवी मुस्लिम थी. इस घटना पर आपका रुख क्या है तथा हिन्दुओं की जो जीनोसाइड कश्मीर में की गयी उस पर भी आप अपना दृष्टिकोण बताने की कृपा करें. इसे आलोचना या दुर्भावना के रूप में न लें, मैं यह जानना चाहता हूं कि एक प्रगतिशील मुस्लिम महिला इस बारे में क्या सोचती है. आपका यह लेख भी विस्तृत और प्रभावशाली है.
जवाब देंहटाएंभारतीय नागरिक जी,
जवाब देंहटाएंएक हिन्दू युवा का क़त्ल उसकी मुस्लिम ससुरालवालों ने किया, इस पर कोई भी इंसान क्या कह सकता है? पूरी इंसानियत का सर शर्म से झुकता है ऐसी घटनाओं से, ख़ुद कश्मीरियों की ज़िम्मेदारी है की ऐसी घटना का मुखर विरोध वे उसी तरह करें जैसे 'शोपियां' मामले का किया. कश्मीर घाटी में हिन्दू पंडितों के पलायन के सवाल पर आपने मेरी राय मांगी है, इसलिए यह बताना पड़ रहा है की साल २००३ में 'हेड लाइन प्लस' पत्रिका का संपादन करते हुऐ, मैंने कश्मीर पर कवर स्टोरी की थी. उस समय जम्मू और कश्मीर को तीन हिस्सों में बाँटने की वकालत की गयी थी. इस सन्दर्भ में मैंने कश्मीरी मुस्लमान, हुर्रियत कांफेरेंस और कश्मीरी बुद्धिजीवी- तीन वर्गों से बात की थी. हुर्रियत कांफेरेंस के प्रवक्ता बहुत उत्साहित थे क्यूंकि उन्होंने किसी कार्यक्रम में मुझे सेना के अफसरों से यह सवाल करते सुना था की आप कश्मीरी आतंकवाद पर तो बात करते हैं पर सेना के आतंकवाद का पूरे कार्यक्रम में कोई ज़िक्र नहीं ? शायद इस घटना के कारन उन्हें मुझ में अपना 'हमदर्द' दिखाई दिया होगा, ख़ैर, जब उनसे इंटरव्यू शुरू हुआ तो मेरा पहला सवाल यही था की 'कश्मीर अगर कश्मीरियों का है' जैसा की हुर्रियत कांफेरेंस कहती है, तो आप कश्मीरी पंडितों को कब वापिस उनके घर बुला रहे हैं? कश्मीरी पंडित कब तक अपने घरों से दूर रेफूजी का जीवन जियेंगे? और मैंने केवल कश्मीरी पंडितों के घर-वापसी के सवाल पर ही पूरा इंटरव्यू किया. वे साहब ख़ासे उलझे, लेकिन मुझे यदि सेना से निर्दोषों की हत्या पर सवाल उठाना था तो , हुर्रियत से कश्मीरी पंडितों की घरवापसी पर ! यह कवर स्टोरी सितम्बर २००३ में छपी है, मेरे पास कॉपी है. अगर रवि जी चाहें तो उसे यहाँ दोबारा पेश कर सकते हैं.
भारतीय नागरिक जी मैं 'अपने गिरेबान में मुंह...' की घोर पक्षधर हूँ . 'सचचर कमिटी' के इस दौर में भी मैंने हमेशा मुसलमानों के नेताओं से ही सवाल किये हैं की उन्होंने अपनी अवाम को अँधेरे में क्यूँ रखा? मुल्लाओं की बे-इमानी, भ्रष्टाचार, सत्ता-प्रेम, और नारी-द्वेष पर सवाल करने के नतीजे में, कितनी ही खिसियानी बिल्लियाँ यहाँ भी मुझे बख्शनेवाली नहीं, ऊपर एक बानगी आप देख सकते हैं, लेकिन इस ख़तरे को मोल लिए बग़ैर तो कुछ होगा नहीं. मुसलमान नेतृत्व का नाम ले ले कर, मैं उनसे सवाल करती हूँ अपने लेखों में. कोई मदरसा बोर्ड का चेरमन, या मौलाना बुखारी, या सयेद शहाबुद्दीन, या कांग्रेसी मुस्लमान 'गुलदस्ते', सभी से तल्ख़ सवाल किये हैं मैंने.
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना बहोत बेहूदा लगता हैं लेकिन आपके सवाल के जवाब में मुझे अपने बारे में यह सब बताना पड़ा. मेरे लेखों की कॉपी नेट पर भी है, मेरे नाम के साथ तहेलका, हिंदुस्तान टाइमस, आउटलुक, सहारा टाइमस आदि टाइप कर खोजें. ज़रा सी कोशिश से मिल जाएंगी.
हाँ, कश्मीर में आतंक के खौफ़ से पंडितों ने पलायन किया, लेकिन उनकी जीनोसाईड या नस्ल-कुशी नहीं हुई, आप भारत सरकर और कश्मीरी पंडितों के आंकड़े देख सकते हैं. उनके कुछ बुद्धिजीवी मेरे संपर्क में हैं, आप चाहें तो बात करवा सकती हूँ.
Mohammed Umar Kairanvi saheb ki bhasha aapattijanak hai. Agar kalko Sheeba bhi kahiN is tarah ki bhasha prayog kartiN haiN to ham un par bhi aapatti kareNge. Bahas tarkoN, tathyoN aur udaharnoN ke aadhar par honi chahiye.
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख भले ही राजेंद्र यादव जी को संबोधित हो या उनकी प्रतिक्रिया में लिखा गया हो, पर इसमें दिए गए तर्क सारगर्भित हैं। हमारा भ्रम दूर करते हैं, इसके तथ्य और तर्क आंखे खोल देने वाले हैं।
जवाब देंहटाएंआशा है इसी प्रकार आप बिना भयभीत हुए, इस कार्य में पूरी लगन से लगी रहेंगी। शुभकामनाएं।
- आनंद
आपका यह आलेख भले ही राजेंद्र यादव जी को संबोधित हो या उनकी प्रतिक्रिया में लिखा गया हो, पर इसमें दिए गए तर्क सारगर्भित हैं। हमारा भ्रम दूर करते हैं, इसके तथ्य और तर्क आंखे खोल देने वाले हैं।
जवाब देंहटाएंआशा है इसी प्रकार आप बिना भयभीत हुए, इस कार्य में पूरी लगन से लगी रहेंगी। शुभकामनाएं।
- आनंद
शुक्रिया आनंद जी ! जब आपसब साथ हैं तो क्यूँ नहीं !
जवाब देंहटाएंलाखों की संख्या में हत्यायें जीनोसाइड में नहीं आतीं! आज पता चला.
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