जेंडर जिहाद परदा इधर : परदा उधर संविधान और क़बीला शीबा असलम फ़हमी (शीबा असलम फ़हमी का लोकप्रिय स्तंभ हंस में पिछले कुछ अंकों से सिलसिलेव...
जेंडर जिहाद
परदा इधर : परदा उधर
संविधान और क़बीला
शीबा असलम फ़हमी
(शीबा असलम फ़हमी का लोकप्रिय स्तंभ हंस में पिछले कुछ अंकों से सिलसिलेवार जारी है. वैसे तो हंस अब पीडीएफ रूप में मई 2009 से नेट पर फिर से उपलब्ध हो गया है, मगर यूनिकोड में नहीं होने से बात नहीं बनती. रचनाकार के पाठकों के लिए खासतौर पर यह स्तंभ सिलसिलेवार रूप में यूनिकोडित कर, साभार प्रस्तुत किया जाएगा. पेश है मई 2009 का आलेख)
दो सवालों के जवाब : हंस के एक सुधी पाठक श्री राजेन्द्र राजेश खगड़िया ने एक बुनियादी सवाल उठाया है कि ‘‘क्या कुछ ऐसी व्यवस्था हो सकती है कि भारतीय मुसलमान स्त्रियां भी भारतीय क़ानून के द्वारा संरक्षित हो सकें? यदि नहीं, तो फिर कैसा स्त्री-विमर्श?'' तक़रीबन यही सवाल श्री विजय, (वैशाली नगर, जयपुर) ने भी उठाया.
इन सवालों के मूल में जो बुनियादी सवाल है वह यह कि भारतीय मुसलमान महिलाओं का भारतीय संविधान के साथ क्या रिश्ता है? या क्या कोई रिश्ता है भी? भारत राष्ट्र-राज अपनी नागरिकता के इतने बड़े जनसमूह को किस प्रकार देखता है? उसे किस प्रकार समान नागरिक अधिकार देता है और समान नागरिक अधिकारों के हनन की दशा में मुसलमान औरतों को न्याय मिलता है या नहीं? इसमें यह भी देखना होगा कि अन्याय करने वाला कौन है और न्याय किससे मांगा जा रहा है? वैसे भारतीय जनमानस में यह आम धारणा है कि ‘पारिवारिक मामलों में भारतीय मुसलमान महिलाओं पर भारतीय संविधान व न्याय व्यवस्था न लागू होकर, ‘इस्लामी शरियत' लागू होती है.' इस भ्रम को पैदा करने में शाहबानों प्रकरण, आल इंडिया मुस्लियम पर्सनल लॉ बोर्ड, और जब-तब जारी होने वाले महिला-विरोधी फ़तवों का हाथ है. आज़ादी के बाद संविधान लागू होते ही भारतवासियों और भारतराष्ट्र के बीच एक आधुनिक रिश्ता क़ायम हुआ जो कि एक प्रकार का ‘सोशल कान्ट्रैक्ट' या ‘समाजी मुहायदा' था जिसके तहत भारतवासियों को ‘नागरिक' का दर्जा मिला. ‘आज़ादी' और फिर ‘लोकतंत्र' भारतीय नागरिकों के लिए जो तोहफ़े लाया उसमें सर्वोपरि हैं हमारे नागरिक अधिकार. इन अधिकारों को ग्रहण करना व इन्हें उपयोग में लाना ही हमारी प्रजातांत्रिक जीवन शैली को दर्शाता है. कल्पना कीजिए कि यदि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा समूह संविधान प्रदत्त सारे जेंडर जिहाद संविधान और अधिकार छोड़ दे और राष्ट्र-राज से किसी प्रकार का लेन-देन न रखे तो उस स्थिति को क्या कहेंगे? ऐसे में उस रिजाइन्ड जनसमूह का राष्ट्र में, राष्ट्र निर्माण में, लोकतंत्र की मज़बूती में, क्या योगदान होगा? भारतीय मुस्लिम महिलाओं का एक जनसमूह के तौर पर लगभग ऐसा ही उदासीन अस्तित्व है. इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय नागरिकों के पास विश्व का उच्चतम संविधान है. और यह उन लोगों के अथक प्रयासों व मेधा का नतीजा है जिन्होंने न सिर्फ़ आज़ादी व स्वराज का सपना साकार किया बल्कि दूरदृष्टि का परिचय देते हुए, इसमें उच्चतम मानवीय सरोकार पिरोए. लेकिन अब ज़रा इसी संविधान को भारतीय मुसलमान औरतों की स्थिति के हवाले से समझें!
उन्नीसवीं व बीसवीं सदी में जब भारतीय समाज न सिर्फ़ अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ बल्कि भारतीय समाज के आंतरिक शोषण, दमन, अमानवीयताओं के विरुद्ध भरपूर आंदोलन चले और समाज आत्म-मंथन की प्रक्रिया से गुज़र रहा था उस समय भी भारतीय मुस्लिम महिलाएं चुप्पी साधे रहीं. यदि इक्का-दुक्का मुस्लिम महिला साहित्यकारों, जैसे रूकैया सख़ावत हुसैन, रशीद जहां और बाद में इस्मत चुग़ताई को छोड़ दें तो कहीं कोई स्वर नहीं है जो अन्याय, कुंठा और दमन के विरुद्ध आवाज़ उठाता दिखे. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मुसलमान महिलाओं को बिना कुछ किए धरे ही भारत में वे अधिकार मिल गए जो उन्होंने चाहे ही नहीं थे बल्कि जो उनकी कल्पना से भी परे थे. ‘देश की सरकार चुनने में भागीदारी' से लेकर ‘चुनकर सरकार में आने' के अधिकार तक का लंबा सफ़र, संविधान लागू होते ही एक पल में तय हो गया.
इसके विपरीत यदि हम दूसरे मुस्लिम देशों पर नज़र डालें तो वहां औरतें अपने एक-एक नागरिक अधिकार के लिए मर्दवादी व्यवस्था से जंग कर रही हैं. वोट डालने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सार्वजनिक पदों पर चुने जाने का अधिकार, रोज़गार का अधिकार, अपने शरीर पर स्वामित्व का अधिकार, गर्भाधान संबंधी विभिन्न अधिकार, विवाह योग्य न्यूनतम आयु, जननांगों के प्रति हिंसा के विरुद्ध क़ानून की मांग, बलात्कार व व्यभिचार संबंधी क़ानूनों में स्त्रीवादी सुधार, सार्वजनिक पदों में हिस्सेदारी की मांग, सार्वजनिक जीवन में मर्दवादी व शोषण कारक प्रावधानों में सुधार आदि.
भारत में ये सभी सुधार व अधिकार मुस्लिम महिलाओं को बिना एक धेला हिलाए, एक झटके में, संविधान लागू होते ही मिल गए, शायद इसलिए यहां इनकी कोई क़द्र भी नहीं है.
सवाल यह है कि भारत में मुस्लिम महिलाएं सामाजिक-राजनैतिक जीवन के प्रति उदासीन क्यों रहीं? इसका एक कारण यह भी रहा कि आज़ादी की पूर्वसंध्या और फिर उसके बाद लगातार सांप्रदायिकता का जो ज़हर समाज में घुला उसका शिकार ग़रीब व निचला तबक़ा तो हुआ ही लेकिन ऊंचे-नीचे हर तबक़े की सभी मुसलमान महिलाएं इसका शिकार हुईं. हिंदू सांप्रदायिकता व ‘हेट- क्राइम' ने न सिर्फ़ इन्हें घर व पर्दे में सुरक्षा लेने पर मजबूर किया बल्कि, पुरुष वर्ग के आगे अपने सभी अधिकार भी डालने पर मजबूर किया. महिलाओं के हिस्से के सारे फ़ैसले पुरुष लेते रहे, परिवार के मर्द की मर्ज़ी ही पूरे परिवार की मर्ज़ी मानी गई. कालांतर में उसे यह पटटी पढ़ा दी गई कि परिवार के पुरुषों के हित में ही स्वयं उसका हित है. औरत की अपनी न कोई ज़रूरत है न उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व. उसका फ़ायदा-नुकसान, उसके अधिकार सब मर्द के व्यक्तत्व् में समाहित हो गए.
आज भारत में दूसरे वर्गों व समाजों की महिलाएं अपने लिए शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण, विधायिका (लोकसभा- विधानसभाओं) में आरक्षण, व्यावसायिक क्षेत्र में वेतन में समानता, रोज़गार में सुरक्षित व 51 शोषण-रहित वातावरण, बेहतर मातृत्व संबंधी प्रावधान, बेरोज़गारी भत्ता, आदि के लिए आंदोलन चला रही हैं वहीं भारतीय मुस्लिम महिलाएं ‘त्वरित-तलाक़' से निजात, पति से मेहर व भरण-पोषण भत्ता, पति की दूसरी-तीसरी शादी पर रोक आदि की लड़ाई लड़ रही हैं. इक्कीसवीं सदी की इस अति आधुनिक और विकसित सामाजिक व्यवस्था में भी मुसलमान औरत ‘पति' से रेआयतें मांग रही है. देश कहां जा रहा है इससे उसे कोई सरोकार नहीं.
ऊपर से देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम महिलाओं ने अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया है और वे स्वयं अपने वजूद को मर्दवादी ढांचे में समाहित कर चुकी हैं लेकिन सूचनाक्रांति के इस दौर में इन औरतों का अचेत रह जाना कैसे संभव हो सकता है? पिछले अंकों में इस स्तंभ में ही लिखा गया है कि एक तो सार्वजनिक तौर पर मंच न बना पाने के कारण, दूसरे अपने इतिहास से वंचित होने के कारण पितृसत्ता के विरुद्ध भारतीय मुसलमान महिलाएं आंदोलन नहीं खड़ा कर सकीं. इस विश्लेषण में एक कड़ी यह भी जोड़नी होगी कि इस जागरूकता के अभाव में मुसलमान महिला की पहचान स्वरयं उसकी दृष्टि में भी एक नागरिक के बतौर नहीं बन सकी, वह राष्ट्र में एक सदस्य न होकर केवल अपनी अल्पसंख्यक पहचान के साथ, एक क़बीले की सदस्य बनी रह गई. जबकि मुसलमान मर्द अपने लिए न सिर्फ़ वह सारे प्रावधान मांगता रहा जो कि एक नागरिक को प्राप्त हों बल्कि अल्पसंख्यक होने के नाते उसे रेआयतें भी मिलीं.
अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाएं, अपने धार्मिक स्थलों का निर्माण, धार्मिक शिक्षा का अधिकार, राजनैतिक दलों में हिस्सेदारी, अपने धर्म व संस्कृति के संरक्षण के नाम पर विभिन्न अधिकार आदि वे प्रावधान हैं जिनका फ़ायदा केवल मर्दों को मिला. अल्पसंख्यकों के धर्म व संस्कृति की रक्षा के नाम पर भारतीय विधि निर्माताओं ने इस ओर से आंखें मूंद लीं कि हर धार्मिक समूह में परंपराओं और संस्कृति की रक्षा महिलाओं के आचरण व जीवन पर कब्ज़ा व क़ाबू करके ही करवाई जाती है. परंपरा निर्वाहन और धर्म को बचाए रखने का भारी बोझ हमेशा औरत की पीठ पर लादा जाता है. इसलिए नई व्यवस्था लागू होने के बाद महिलाएं अपने समाज की असमानताओं और शोषण के चक्रव्यूह में नए सिरे से घिर गईं.
इस तरह एक तरफ़ भारतीय संविधान में समान अधिकार दिए गए तो दूसरी तरफ़ अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के नाम पर मुसलमान पुरुषों को औरतों पर हुकूमत करने के अधिकार प्राप्ति हो गए. अतः भारतीय मुस्लिम महिलाएं पहले अपने मर्दों के अधीन हैं बाद में संविधान के. और यही कारण है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों का उपयोग कर ससम्मान नागरिक जीवन जी पाना मुसलमान महिलाओं के लिए संभव नहीं हो पा रहा. वे न्याय मांगती हैं तो दारूल कज़ा में का़ज़ी जी से जिनके पास देश के क़ानून की कोई डिग्री नहीं होती, काज़ी के तौर पर उनकी नियुक्ति की क्या अहिर्ताएं हैं कोई नहीं जानता. बस आपस में गाना- बजाना चल रहा है. जो व्यवस्था अन्याय कर रही है उसे ही न्याय बांटने का अधिकार है.
मुसलमान महिलाओं को शिक्षा का अधिकार भारत राष्ट्र देता है, इस्लाम धर्म देता है, पर उनका ‘अल्प संख्यक क़बीला' यह होने नहीं देता, उन्हें रोज़गार व सार्वजनिक पदों पर कार्य का अधिकार भी राष्ट्र व धर्म देता है पर उनका क़बीला उन्हें इस क़ाबिल बनने ही नहीं देता. और सारे रास्ते यहीं से बंद हो जाते हैं.
ऐसे में भारतीय राष्ट्र-राज के साथ मुसलमान महिलाओं का क्या रिश्ता है? एक बारीक सा तार है जो दोनों को जोड़ता है वह है न्यायपालिका. शाहबानों प्रकरण के बाद से ही भारतीय न्यायपालिका बहुत बारीकी से मगर लगातार ऐसे फ़ैसले व निर्देश दे रही है जो कि इस्लाम के प्रावधानों के अनुरूप भारतीय मुसलमान औरतों को न्याय दिला सके. सुधी पाठक का यह सवाल कि ‘‘क्या कुछ ऐसी व्यवस्था हो सकती है कि भारतीय मुसलमान स्त्रियां भी भारतीय क़ानून द्वारा संरक्षित हो सकें.'' का जवाब यह है कि मुसलमान महिलाएं संरक्षित तो हैं लेकिन इस संरक्षण को जानना व इसका इस्तेमाल कर पाना क़बीलाई व्यवस्था में एक सताई हुई कमज़ोर औरत के लिए अपने-आप में एक चैलेंज बन जाता है.
वैसे भी अदालत का दरवाज़ा खटखटाना तो अंतिम उपाय ही हो सकता है और शिक्षा व आर्थिक सशक्तिकरण के अभाव में बाक़ी सब तरकीबें बेअसर हो जाती हैं.
(हंस, मई 2009 से साभार)
पूरा लेख बढ़िया लेकिन "ऊंचे-नीचे हर तबक़े की सभी मुसलमान महिलाएं इसका शिकार हुईं. हिंदू सांप्रदायिकता व ‘हेट- क्राइम' ने न सिर्फ़ इन्हें घर व पर्दे में सुरक्षा लेने पर मजबूर किया " यह लिखकर लेखिका ने दर्शा दिया कि मुस्लिमों के अन्दर हिन्दुओं के प्रति किस तरह की सोच व्याप्त है. जहां तक मेरे संज्ञान में है, मैंने आजतक अस्सी के दंगों से लेकर अबतक हिन्दुओं के बाहुल्य वाले क्षेत्रों में मुस्लिम महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार नहीं देखा. यह अलग बात है कि महिलाओं के साथ जो छेड़छाड़ की जाती है उसमें छेड़छाड़ करने वाले मजहब नहीं पूछते और इस कारण से मुस्लिम महिलायें दुर्व्यवहार का शिकार हो जाती हों, अलग बात है. दूसरा हिन्दुओं में पर्दा प्रथा और कम उम्र में शादी मुगलों द्वारा हिन्दू महिलाओं के साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार के कारण आई.
जवाब देंहटाएंरवि सर, शुरुआत में गलती सें मई २००९ कि जगहा २०१० लिख गई.. देख लियो तनक... और दूसरी जगहा इस्मत चुगताई.. इस्मसत चुगताई हो गयीं... बाकी लेख की तो जित्ती बढ़ाई करें उत्तियई कम हे..
जवाब देंहटाएंजय हिंद... जय बुंदेलखंड....
दीपक 'मशाल' जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद. गलतियाँ ठीक कर दी हैं.
भारतीय नागरिक जी , आपकी आलोचना सर माथे पर! मेरा आशेय केवल सांप्रदायिक दंगे के दौरान होनेवाले 'हेट- क्राइम' की तरफ था. गुजरात, मुंबई, सूरत कानपूर आदि इलाकों में जो हुआ! उन मिसालों से महिलाओं को सुरक्षा के नाम पर घर पर रहने की सलाह मुस्लिम समाज में आम बात है.
जवाब देंहटाएंरोज़- मर्रा की छेढ़-छाढ की बात नहीं कर रही. आप सही हैं की इसमें कोई हिन्दू मुस्लिम का फ़र्क़ नहीं होता. मुग़ल काल में जो हुआ उस पर भी आप से विरोध नहीं. मैंने अपने लेखों में कई जगह यही लिखा है की जहाँ-जहाँ मुस्लमान सत्ता में है वहां वहां वह किसी भी बरबर से कम नहीं. मेरा एक लेख 'जो सच हम खुले आम नहीं कहते' (समयांतर, विशेषांक ) में भी इसका पूरा ख़ुलासा है.
aap ji ka lekh parh kr kaffi kchh pta chla bhot achha likha hai
जवाब देंहटाएंभाई साहिब जी नमस्ते बात समझ में आई बात पते की है आपने काफी अच्छा लिखा हैं आपका धन्यवाद आप जी का शुभचिन्तक पाल इटली
जवाब देंहटाएं