‘ चल बेटा जमूरे, दिखा दे तू अपना जौहर’ कहकर छित्ती ने अपनी घिसी-अधटूटी चमरौंधानुमा चप्पलें उतारकर हाथ में उठा लीं और दबे पांव दीवार...
‘चल बेटा जमूरे, दिखा दे तू अपना जौहर’ कहकर छित्ती ने अपनी घिसी-अधटूटी चमरौंधानुमा चप्पलें उतारकर हाथ में उठा लीं और दबे पांव दीवार पर चढ़कर अंदर कूद गया। कोठी के दूसरे छोर पर बने फाटक पर तेज प्रकाश था वहीं स्टूल पर बैठा चौकीदार चंदू हथेली पर खैनी तैयार कर रहा था, उसने छित्ती को देखा, हाथ के इशारे से कहा ‘घुस जाओ’ और फिर खैनी में डूब गया। छित्ती चप्पलें बगल में दबाये हुए ही जीना चढ़ गया। छत पर बने इकलौते कमरे की चाबी जेब से निकाली, बिना आवाज दरवाजा खोला और धीरे से चोर की तरह अंदर घुस गया तब कहीं उसकी सांस काबू में आ पायी थी।
‘उफ् ये बसेरा भी कभी-कभी तो आतंकित ही कर देता है। बाजपेयी जी देख लेते तो खटिया खड़ी कर देते- यह समय है घर आने का!’
वह अपनी झूला बन गयी बान की खटिया पर बैठते हुए बड़बड़ाया। फिर एकदम से पसर गया। सोचने लगा गांव छोड़े तीन साल हो गये मां का मुंह नहीं देखा। ‘स्साले, देखेगा किस मुंह से’ छित्ती ने मन-ही-मन अपने-आप से कहा ‘हर महीने झूठे आश्वासन देता है कि इस बार सौ ही रूपये भेज पा रहा हूं। गृहस्थी का सामान खरीद लिया कुछ ,उसमें पैसा खर्च हो गया। अगले महीने अच्छी रकम भेजूंगा। और यह अच्छी रकम खींच-तानकर कभी दो सौ भी नहीं बन पायी। मां अकेली जान किसी तरह गुजारा कर ही लेती है। दो-चार खेत हैं, कुछ उनका सहारा है। पर मां से आंख मिलाने का साहस नहीं होता। उन आंखों में आशाओं के दिये टिमटिमाते हैं, वह उजाला सहा नहीं जाता।
छित्ती दबाव से छूटे स्प्रिंग सा उछल कर बैठ गया। एक दृष्टि अपने पूरे घर पर डाली। मकड़ियों के जाले पूरी छत पर लटक रहे थे। पूर्वी दीवार पर बनी अलमारी में धूल ही धूल भरी थी। जो दो-चार आकृतियां थीं भी, वे क्या चीज हो सकती हैं बताना सरल नहीं था। वे सबकी सब मिट्टी की बनी हुई लग रही थीं। फर्श पर तीसरे-चौथे दिन कभी झाड़ू लगा ही देता छित्ती, पर दाएं-बाएं देखने का खतरा कभी न उठाता। खटिया पर दरी बिछायी चादर ओढ़ी सो गये, रात कट गयी। सुबह स्टोव में पम्प मारा, चाय बनायी, दो-चार ब्रैड-स्लाइस ठूंसी और ताला मार कर चल दिए। बस इतना ही रिश्ता है उसका इस बसेरे से।
उसका दरवाजा पश्चिम की ओर खुलता है, जिधर कोठी का पिछला भाग है। जहां प्रायः सन्नाटा ही रहता है। उत्तर की ओर एक खिड़की है। खिड़की पर खड़ा होकर वह अक्सर बाहर देखता रहता है। उधर वाला घर एकदम उजाड़ है। चारों तरफ उगे झाड़-झंखाड़, लम्बी-लम्बी घासें, जिनके बीच अमरूद, लीची के कुछ बूढ़े पेड़ आधे छिपे-छिपे रहते। जब छित्ती इस कमरे में नया आया था तो उसे बड़ा अटपटा लगा था कि शहर में भी कोई इतना वीरान घर हो सकता है! चंदू चौकीदार से वह कभी-कभी बोल-बतिया लेता था, बाकी घर के लोगों से तो बात करते छित्ती की घिघ्घी ही बंध जाती। एक दिन घर में कोई नहीं था। चंदू थोड़ी देर के लिए उसके कमरे में आ गया था। वह उस दिन भी इसी तरह खिड़की पर खड़ा था।
‘‘क्या देख रहे हैं, भाई साहब?’’
चंदू जब छित्ती को भाई साहब कहता तो उसे लगता चंदू मजाक बनाता है उसकी दीन-दुर्बल काया की। अपने कसे-गठे शरीर पर नाज है न चंदू को !
‘‘यह घर इतना उजाड़ क्यों पड़ा है’’ छित्ती ने चंदू से सीधे प्रश्न किया था।
‘‘ज्यादा तो मुझे पता नहीं भाई साहब पर सुना है जिन साहब-मेमसाहब ने यह घर खरीदा था उनकी कार एक ट्रक की चपेट में आ गयी थी। उनके पीछे उनकी एक बिटिया छूट गयी थी जो ज्यादातर बीमार ही रहती है।’’
‘‘इस भुतहा घर में अकेली रहती है?’’ पूछते-पूछते छित्ती सिहर गया और रोकते-रोकते भी चंदू के चेहरे पर व्यंगात्मक चमक उभर ही आयी थी। तुरंत ही अपने को सामान्य बनाकर बोला-
‘‘हां, रहती तो अकेली है पर जवान लड़की को पूछने वालों की क्या कमी है। वैसे कोई चोर-उचक्का न घुस जाय इसका ध्यान तो मैं रखता ही हूं। उस फाटक पर भी बराबर नजर रखता हूं।’’
चंदू अपने पौरूष का झंडा गाड़कर चला गया था। छित्ती उस अकेली लड़की के बारे में तरह-तरह की अस्पप्ट अधूरी-सी कल्पनाएं करता रह गया था।
फिर एक दिन यहीं खिड़की पर खड़े होकर ही छित्ती ने उसे देखा था। मध्यम कद की वह दुबली सी आकृति लड़की तो बिल्कुल नहीं लगती थी। उसके सर पर उलझे से बालों का कसा हुआ जूड़ा था। जैसा कि निम्नमध्य वर्ग की तीन-तीन चार-चार बच्चों की मांओं का काम-काज करते हुए दिखाई देता है वैसा ही अस्तव्यस्त अधमैला-सा वेश था। कंधे झुके हुए थे और चेहरे पर सख्त सी रूखाई फैली थी। वह टहलते-टहलते झाड़-झंखाड़ के बीच जमीन पर पालथी मारकर निर्भय बैठ गयी थी और पास ही उग आये नीम के पौधे से टहनी तोड़कर चबा-चबाकर दातून करने लगी थी। छित्ती उसे चंदू के बताए अनुसार ‘लड़की’ देखने का प्रयास कर रहा था पर वह हर तरफ से एक फूहड़-सी, अपने व्यक्तित्व के प्रति लापरवाह घरेलू औरत ही लग रही थी उसे। फिर अपने ऊपर खीज आई थी । ‘बड़ा स्साला दिव्यलोक में रह कर आ रहा है, धोबी का गधा!’
कुछ महीने पहले शहर में कर्फ्यू लगा था। छित्ती को अपने घर में रहना पड़ा। इससे बड़ी सजा और क्या हो सकती है कि इस गर्द भरी कोठरी में पूरा दिन टूटी सी खटिया पर करवटें बदलते कटे। नहाया, कपड़े धोये, नाखून काटे, आधी कच्ची और आधी जली हुई खिचड़ी पकाई-खाई पर दिन नहीं कट पाया। नीचे कोठी खाली थी। वाजपेयी जी सपरिवार मंसूरी गये थे। सन्नाटे को चीरती एक कराह बार-बार छित्ती के कानों में उतर जाती थी। आखिर उससे रहा न गया। वह लंबी-लंबी घास के बीच लंबे-लंबे डग भरता चला गया और उस वीरान घर का दरवाजा खटखटाने लगा।
‘‘कौन है...?’’ वही कराह-भरी आवाज थी।
‘‘मैं छित्ती, ...क्षितिज ...वाजपेयी जी की छत पर रहता हूं।’’
‘‘अच्छा। आ जाओ...’’ उसी ने दरवाजा खोला था और दोहरी-सी होती लड़खड़ाते हुए धूल अटे दीवान पर बैठ गयी। उसकी सांस फूल रही थी, आंखें दर्द से छुटकारा पाने के लिए ही शायद गोल-गोल चक्कर खा रही थीं।
‘‘आपके कराहने की आवाज मेरे कमरे तक आ रही थी, सोचा पूछ लूं! क्या हुआ है आपको?’’
उसने बैठने का इशारा किया। छित्ती बैठ गया।
‘‘सर दर्द से फटा जा रहा है। आज मरी कोई गोली भी पास में नहीं है। बाम भी खत्म हो गया है।’’ वह, जो किसी तरह अपने आप को समेट कर किसी तरह बैठी थी, दीवान पर बिखर गयी। छित्ती ने उस दिन शायद अपने जीवन का सबसे बड़ा परोपकार और सबसे बड़ा पुरूषार्थ किया था। वह कई गलियों-मोड़ों से गुजरते हुए गया और दर्द निवारक एक-दो नहीं पूरी दस गोलियां लेकर लौटा। उसे दो गोली खिलाकर वह लौटने की सोचने लगा पर अपने घर की धूल-गर्द से इस घर की धूल-गर्द उसे कहीं अधिक अच्छी लगी। शायद इसलिए कि यहां बेतरतीब बिनसंवरी ही सही हरियाली तो थी। उसे दर्द से राहत मिलने लगी तो उसने छित्ती से पूछा ‘‘क्या नाम बताया था तुमने अपना?’’
‘‘कभी मेरे पिताजी ने क्षितिज रखा था, मां ने उसे अपनी सुविधा के लिए छित्ती बना दिया।’’
‘‘पढ़े-लिखे लगते हो। कहां के रहने वाले हो?’’
‘‘सूरजपुरवा का, जहां के वाजपेयी जी हैं। वहीं गांव से हाइस्कूल किया, पिताजी का देहांत हो गया तो छोटे-मोटे कई धंधे पकड़े। कहीं भी जम नहीं पाया। पढ़ाई तो प्राइवेट बीए तक कर ली। तीन साल पहले गांव से आया था। काम की खोज में वाजपेयी जी के पास गया था। पिताजी के नाम से उन्होंने पहचान लिया, ठौर दे दिया, थोड़-बहुत काम भी दिला देते हैं।’’
तभी दरवाजे पर एक मोटा अधेड़ उम्र का व्यक्ति, जो डॉक्टर लग रहा था, दिखाई दिया। वह उछल कर बैठ गयी ‘‘अरे, आपको किसने बुलाया?’’
‘‘किसी ने नहीं बुलाया। हम खुद आये हैं आपका हाल जानने।’’ बोलने का अंदाज खासा रोमांटिक था।
‘‘मैं चलूं!’’ छित्ती उठने लगा।
‘‘बैठो अभी’’ वह जल्दी से बोली। स्वर में आदेश था, अधिकार था। छित्ती कुर्सी से चिपक गया। डॉक्टर ने एक तीखी दृप्टि छित्ती पर डाली फिर मेज पर रखी दवाइयों की ओर इशारा करके कहा ‘‘ये सब ज्यों की त्यों रखी हैं। खाई क्यों नहीं?’’
वह चुप बैठी थी। डॉक्टर कभी खीझता, कभी प्यार से समझाता, कभी अधिकारपूर्वक डांटता। वह चिकने घड़े सी अप्रभावित बैठी रही। दस मिनट बाद डॉक्टर चला गया। वह धीरे से लेट गयी।
‘‘कैसे-कैसे हितैषी हैं मेरे, देखते हो छित्ती! मैं क्या जानूं कौन सी दवा मेरे लिए विष हो जाय! सब स्वार्थी हैं। मतलबी। हाल पूछने का तो बहाना है बस। कल के मरते को आज मार डालने का षडयंत्र।’’
‘‘आप किसी रिश्तेदार को अपने साथ क्यों नहीं रख लेतीं?’’
‘‘तुम क्या सोचते हो, मेरे रिश्तेदार हाल पूछने नहीं आते? वे तो बार-बार आते हैं यह देखने कि मरी या नहीं! मर जाय तो चील-कौवों की तरह टूट पड़ें इस घर पर!’’
उस दिन छित्ती बड़े भारी मन से लौटा था वहां से। अपने दिल-दिमाग से उसकी तस्वीर हटा नहीं पा रहा था। अपने-आप से ही पूछ बैठा-
‘‘क्यों बेटा इतना सुमिरन क्यों हो रहा है उसका आखिर?’’
‘‘सहानुभूति से।’’
‘‘सहानुभूति में सुमिरन होता है?’’ वह आप ही हंस पड़ा। ‘‘कहीं कुछ हो तो नहीं गया तुझे प्यार-व्यार....?’’
‘‘थू स्साल्ले। मसखरी भी तो कुछ खयाल रख कर किया कर। कहां वह, कहां मैं!’’
‘‘अबे जा! प्यार में क्या अमीर क्या गरीब, ऐसे में तो कहानी और भी रोमांचक बनती है। और रोमांटिक भी तो!’’
‘‘बद्तमीज’’ उसने अपने ही गाल पर थप्पड़ मार दिया था।
उसके बाद छित्ती कभी-कभी वहां कुशल पूछने चला जाता था पर शीघ्र ही लौट आता। जाने कैसे अपराधबोध और असुविधाबोध मन के अंदर उगने लगते और वह अधिक देर तक वहां टिक न पाता। कभी-कभी छित्ती खिड़की पर खड़ा होता और वह दिख जाती तो छित्ती के हाथ जुड़ जाते बस। वह मुस्करा देती एक बेबस, अधमरी सी मुस्कान। कभी-कभी छित्ती उसके छोटे-मोटे कुछ काम कर देता जब वह बीमार होकर मदद मांगती। आज सुबह भी उसकी कराह सुनायी दी थी। छित्ती वहां गया तो वह बुखार से तप रही थी। छित्ती दवा देकर आया था। ‘अब पता नहीं कैसी हो?’ वह खिड़की के पास खड़ा सोच रहा था। विद्युत प्रकाश अंधेरे का गला दबोचे बैठा था। छित्ती ने सोचा सोने से पहले एक बार पूछ लूं तबीयत कैसी है! चंदू की नजर बचाकर वह दीवार फांद गया। उसे बहुत तेज बुखार था। चेहरा सुर्ख हो रहा था, दीवान पर अर्धमूर्छित सी पड़ी थी वह।
उसने छित्ती को इशारा किया, अलमारी में दवा है। छित्ती ने दवा निकाली, रसोई से पानी लाया, उसे सहारा देकर बिठाया, दवा खिलाई, पानी पिलाया और धीरे से लिटा दिया। वह बैठा ही था कि बिजली ने आंखें मूंद लीं। छित्ती ने कोने वाली मेज पर रखी मोमबत्ती और माचिस देखी थी। टटोल कर उसने मोमबत्ती जलाई और बैठ गया। थोड़ी देर में वह कुछ स्वस्थ हुई तो बोली-‘‘छित्ती दो कप चाय बना सकते हो?’’
छित्ती ने सिर हिलाया और रसोई में चाय बनाने चला गया । वह चाय बना ही रहा था कि हल्की सी धप्प् की आवाज हुई। वह मुड़ा तो सर से पैर तक थर्रा उठा। एक नकाबपोश चमचमाता चाकू लिए खिड़की से कूदा था और दीवान की ओर बढ़ रहा था। छित्ती बच निकलने के लिए रास्ता खोजने लगा। वही खिड़की, हां ! वही ग्रिल उखड़ी खिड़की, जहां से चाकूवाला उतरा है। उसने छित्ती को नहीं देखा था। छित्ती की ओर उसकी पीठ थी। छित्ती अपने धड़धड़ाते दिल को संभालता उस खिड़की के पास सरक गया। एक पैर खिड़की से बाहर निकाला। ड्रॉइंगरूम का दृश्य स्पप्ट दिखाई दे गया।
नकाबपोश चाकू की नोक उसकी कनपटी पर रखे था दूसरे हाथ से उसने उसकी साड़ी का आंचल खींच दिया। ब्लाउज में ज्यों ही उसने हाथ डाला कि एक चीख के साथ छित्ती ने छलांग लगाई। नकाबपोश घबरा गया। चाकू छित्ती की ओर फेंक कर वह खिड़की से बाहर कूद गया। छित्ती की कलाई पर घाव करके चाकू फर्श पर सो गया था। वह जल्दी से आंचल ओढ़ती हुई उसकी ओर आयी । पल्लू के किनारे से साड़ी फाड़ कर वह छित्ती की कलाई पर बांधने लगी। घाव गहरा नहीं था पर पट्टी बांधनेवाली की उंगलियां कांप रही थीं। आंखों से अनवरत आंसू गिर रहे थे।
‘‘छित्ती आज तुम नहीं होते तो....’’ उसका गला रूंध गया था। छित्ती उसके नर्म भावुक हो गये चेहरे को गौर से देख रहा था। उसे याद आ रहा था- उसकी एक बहन थी ... नारीभक्षियों ने उसे इसी तरह खा डाला था। और....यह वही कलाई थी जिस पर पिछले बीस वर्षों से राखी नहीं बंधी थी।
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पता -21 , नील विहार, निकट सैक्टर 14
इन्दिरा नगर, लखनऊ-16
behad marmik aur samvedansheel.
जवाब देंहटाएंiam agrry to vandana
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