साल-छह महीने में अपुन एक-दो किताब छपवा ही लेते हैं। समाज के लिए कोई अच्छा काम तो कर नहीं सके, जिससे नाम अमर हो जाए। बस डूबते को तिनके...
साल-छह महीने में अपुन एक-दो किताब छपवा ही लेते हैं। समाज के लिए कोई अच्छा काम तो कर नहीं सके, जिससे नाम अमर हो जाए। बस डूबते को तिनके का सहारा हैं ये किताबें। भूले से कभी कोई इतिहास लिखे और हमारा नाम दर्ज कर दे शायद? वैसे गारंटी तो इसकी भी नहीं, क्योंकि आलोचना का काम अमूमन उन हाथों में ही होता है, जो लोग साहित्य की दुनिया में नहीं होते तो बहुत बड़े डॉन होते। खैर साहब। हम न तो कोई (भले ही तथाकथित) नेता हैं, न बड़े प्रभावशाली अफसर, जो उसके सौभाग्य से और साहित्य के दुर्भाग्य से- लेखक भी होता है। हम तो मुहल्लास्तरीय लेखक हैं। शहर में दो-चार-दस लोग मिले तो बहुत, जो बोलते हैं कि अपुन लेखक हैं। अब कीड़ा काटता है,तो क्या करें। लिखते हैं और जैसे-तैसे एक किताब छपवा लेते हैं। किताबें छप जाएं और घर में रखे-रखे सड़ जाएँ, यह कहाँ का न्याय है? सो, हमने एक स्टाइल निकाली: सप्रेम भेंट की।
जो भी महापुरुष टाइप का पुरुष दिखाई देता है हम उसे एक किताब भेंट करने से बाज नहीं आते। आजकल तो कई लोग हमें देखते ही कन्नी काट लेते हैं, कि कहीं कोई किताब न भेंट कर दूँ।लोग कन्नी क्यों काट लेते हैं, इसका रहस्य बहुत बाद में समझ आया, जब हमारी सप्रेम भेंट दी गयी पुस्तक सेकेंड हैंड किताब बेचने वाली फुटपाथी दुकानों पर प्रकट हुई। उस दिन सेकेंड हैंड किताबों वाली दूकान में हम किसी प्रेमचंद, किसी निराला, किसी मुक्तिबोध, किसी अज्ञेय, किसी प्रसाद को तलाशने पहुँचे थे। महान साहित्यकारों को बोझ समझकर एक शिष्टï समाज उन्हें घर से बहिष्कृत करके फुटपाथ का बाशिंदा बना देता है। अच्छा ही करता है। इसी बहाने ही सही, कुछ साहित्य प्रेमियों को कीमती साहित्य सस्ते में मिल जाता है।
हम ठहरे सिरफिरे जन्म के। उन महान साहित्यकारों को छोटा-सा आशियाना देने के चक्कर में उठाकर घर ले आते हैं ताकि महान लेखकों की आत्माओं को कुछ तो शांति मिले। सो, हम एक फुटपाथी पुस्तक दूकान पर जा पहुँचे। किताबों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हमारी नजऱ अपनी ही कृति पर चली गयी। अरे, 'आंखों का मधुमास' यहाँ कहाँ मंडरा रहा है? अपनी किताब की फुटपाथी नियति देखकर अपनी चश्मीली आँखों में मधुमास की जगह आँखों में पतझर उभर आया। हमने अपनी कृति को सड़क पर दौड़ते हुए गिरने वाले पुत्र की तरह उठाया। मुख पृष्ठ पलटाया तो देखा। लिखा था- 'लल्लू जी को सप्रेम भेंट'। अरे, लल्लूजी, अभी दो दिन पहले ही तो हमने उनको पुस्तक भेंट की थी। इतने जल्दी उनका जी भर गया हमसे? हम दुखी होकर जाने क्या-क्या सोचने लगे। यहाँ तक कि, जाएँं और रेल पटरी के नीचे लेटकर खलास हो जाएँ।
तभी हमारी नजऱ एक और शीर्षक पर गयी- 'ईमानदारों की तलाश'। अरे अपना ये ईमानदार भी फुटपाथ पर। हमारी ही किताब थी यह। ये भी यहाँ शोभा बढ़ा रही है? देखें, इस किताब को किस पुण्यात्मा ने फुटपाथ तक पहुँचाने की कृपा की है। ये...ल्लो। सम्पादक जी ने भी बड़ी धाँसू समीक्षा कर दी हमारी पुस्तक की। लिखे बगैर बता दिया कि -
बेटा,
तुम्हारी समीक्षा
करने का फर्ज हम
कुछ इस तरह निभा रहे हैं।
इसे अपनी लाइब्रेरी
की शोभा नहीं,
फुटपाथ की शोभा
बना रहे हैं।
हम अपना सिर पीट रहे थे। तभी किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। देखा, हमारे लेखक-मित्र थे। कहने लगे- ''चिंता मत करो पार्टनर, आप तो अपनी दो किताबें देख रहे हैं यहाँ, मैं शहर की तमाम फुटपाथी दुकानों का भ्रमण कर अपनी एक किताब की दस प्रतियाँ खरीद कर ला रहा हूँ। चलता है पार्टनर। हमारी, या किसी भी सप्रेम-भेंट की यही नियति है। अब किताब भेंट करके तुम ये सोचोगे, कि वह किसी ड्राइंग रूम की शोभा बन जाएगी, तो मुगालते में हो। हाँ, भेंट कीमती हो तो बात अलग है। घड़ी हो, टी.वी. हो, पेन हो, यहाँ तक कि चम्मच ही क्यों न हो, संभालकर रखी जाएगी, लेकिन किताबें? ये किस काम की? खामखां जगह घेरती हैं। घर में कोई पढ़ता भी नहीं है। बेहतर है, रद्दी में बेच दो तो दो पैसे मिल जाते हैं। कई महापुरुष तो इतने भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें इतनी सारी किताबें सप्रेम भेंट में मिल जाती हैं, कि जब उनके यहाँ रद्दी वाला आता है तो कई किलो बँटोर कर ले जाता है। दुआएँ देता है सो अलग।''
लेखक मित्र की बातें सुनकर छाती जुड़ाई। एक हमीं नहीं हैं जमाने में ठुकराए हुए, और भी हैं किस्मत के मारे हुए। हमने कहा- ''मित्र, मैं आज से कसम खाता हूँ, कि अब से किसी को अपनी किताबें भेंट नहीं करूँगा। करूँ गा भी तो किताब की कीमत लेकर सप्रेम भेंट दूँगा। ताकि कोई रद्दी में बेचने की हिम्मत न करे। अपना पैसा लगा है न, कैसे रद्दी में बेचेगा?''
मित्र को सुझाव पसंद आया, लेकिन उसने कहा- ''सप्रेम भेंट करने का एक फायदा तो है। तुम अपने और पराए का भेद जान सकते हो। जिसने तुम्हारी सप्रेम भेंट पुस्तक संभालकर रखी, वह तुम्हारा अपना है और जिसने रद्दी में बेच दी, उसकी असलियत समझ लो। भविष्य में जब तुम्हारी कोई किताब छपे तो ऐसे महापुरुषों को किताब की जगह अँगूठा दिखा देना।'
मित्र की बात पर मन खुश हो गया, लेकिन खुजली कैसे रुके। हमारी नई किताब फिर आई और हमने फिर लल्लूराम और छदामीराम को किताब दे दी सप्रेम भेंट। और इस बार तो भाइयों ने एक हफ्ते भी प्रतीक्षा नहीं की। दूसरे दिन हम फुटपाथी दूकान में पहुँचे तो देखा, हमारी किताब 'शैतान सिंह' वहाँ पहले से मौजूद थी।
हम यही सोचकर खुश थे कि चलो, इसी बहाने हमारा नाम तो लोगों तक पहुँच रहा है। आज नहीं तो कल, कोई न कोई साहित्य-प्रेमी आएगा और हमें उठा ही लेगा और अपने घर ले जाकर सजा देगा। हमें 'सजा' नहीं देगा। पढ़ेगा जरूर। आमीन।
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गिरीश पंकज
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली.
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
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