सीताराम गुप्ता का आलेख : जब हम अपने लिए कोई रोल मॉडल चुनते हैं

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हमारा कोई न कोई रोल मॉडल या नायक अवश्‍य होता है जो हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारे समाज, हमा...

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हमारा कोई न कोई रोल मॉडल या नायक अवश्‍य होता है जो हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारे समाज, हमारे राष्‍ट्र और हमारे समय के भी रोल मॉडल होते हैं। कुछ ऐसे रोल मॉडल होते हें जो अपने समय और समाज की भौगोलिक सीमाएँ लांघ जाते हैं। उनकी सदी समाप्‍त हो जाने के बाद भी लोग उनका अनुसरण करते हैं।

ज़्‍यादातर रोल मॉडल एक संकुचित दायरे में अपना प्रभाव डालकर समाप्‍त हो जाते हैं इसलिए हमें सोच-समझकर ही अपने रोल मॉडल का चुनाव करना चाहिये। लेकिन क्‍या ये इतना सरल है? सरल बेशक न हो लेकिन असंभव बिलकुल नहीं। यदि हमसे पूछा जाए कि हमारा रोल मॉडल कैसा हो तो हम असमंजस में पड़ जाएंगे। इतिहास भरा पड़ा है अनेक नायकों से। लेकिन वास्‍तविक नायक कौन है ?

गुरुग्रंथसाहिब में लिखा है, ‘‘जो लरै दीन के हेत सूरा सोई।'' सच्‍चा योद्धा वो जो दूसरों की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा दे। सच्‍चा दानी वो जो दूसरों की भूख मिटाने के लिए ख्‍ुद भूखा रह जाए। जो अपने हाड़-मांस के शरीर की स्‍थूलता का विस्‍तार करने की बजाय दधीचि ऋषि की तरह किसी की रक्षा के लिए अपनी अस्‍थियाँ तक दान में दे दे वही है सच्‍चा दानी तथा वास्‍तविक नायक। इतिहास भरा पड़ा है ऐसे वास्‍तविक नायकों से।

गीता में एक श्‍लोक है ः

यद्यदाचरति श्रेष्‍ठस्‍तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्‍प्रमाणं कुरुते लोकस्‍तदनुवर्तते ॥

महापुरुष जो जो आचरण करता है सामान्‍य व्‍यक्‍ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्‍तुत करता है सम्‍पूर्ण विश्‍व उसका अनुसरण करता है अर्थात्‌ श्रेष्‍ठ व्‍यक्‍तियों द्वारा प्रस्‍तुत आदर्श विश्‍व के तमाम लोगों के आदर्श बन जाते हैं।

एक बार गाँधीजी से जब कोई संदेश देने के लिए कहा गया तो उन्‍होंने कहा कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्‍फ्‍यूशियस ने भी कहा है कि अच्‍छे लोग अपने आचरण से दूसरों को उपदेश देते हैं, मुख से नहीं। वास्‍तव में संसार को वही लोग ऊपर उठाते हैं तथा जीवन प्रदान करते हैं जो कोई ग्रंथ लिखने की अपेक्षा अपना जीवन ग्रंथ पीछे छोड़ जाते हैं। बुद्ध, महावीर, नानक और कबीर से लेकर गाँधी, मदर टैरेसा और बाबा आमटे तक एक विस्‍तृत सूची हमारे सामने है महान योद्धाओं अथवा नायकों की।

मृत्‍यु के बाद भी हमें अपने शरीर से बेहद लगाव होता है। कई लोग तो जीते जी अपना श्राद्ध करने तथा अपनी मूर्तियाँ स्‍थापित करवाने से भी परहेज़ नहीं करते। पाश्‍चात्‍य देशों में अनेक लोग मृत्‍यु से पहले ही अपने कफ़न-दफ़न का चुनाव कर लेते हैं। अपनी देख-रेख में महँगी से महँगी डिज़ायनर शव-पेटिका बनवाकर रख लेते हैं। मृत्‍यु के बाद कुछ लोग शव का दाह-संस्‍कार करते हैं (जलाते हैं) तो कुछ उसे सुपुर्दे-खाक कर देते हैं (ज़मीन में गाड़ते हैं) लेकिन पारसी लोग मृत शरीर को किसी ऐसे ऊँचे स्‍थान पर रख देते हैं जहाँ दूसरे जीव-जंतु उसे खाकर अपनी भूख मिटा सकें।

मरने के बाद भी हमारा शरीर दूसरों के काम आ सके हमारे यहाँ तो यह भी कम क्रांतिकारी विचार नहीं और इस प्रकार का निर्णय कोई बहादुर व्‍यक्‍ति ही ले सकता है। आज हमारे देश में न जाने कितने लोग दृष्‍टिदोष के कारण देख नहीं पाते। किसी के गुर्दे खराब हैं तो किसी के फेफड़े। अनेक लोग अस्‍थिदोषों से पीड़ित हैं। यदि हम मरने के बाद अपनी आँखों को दान में दे सकें तो असंख्‍य लोग जो देख नहीं पाते इस सुंदर संसार को देखने में सक्षम हो सकें, बिना किसी के सहारे के सामान्‍य जीवन जी सकें।

हिन्‍दी लेखक विष्‍णु प्रभाकर ने तो अपना शरीर ही दान करने की घोषणा कर दी थी ताकि उनके पार्थिव शरीर से दूसरों को जीवनदान मिल सके। विष्‍णु प्रभाकर का आदर्श काल्‍पनिक आदर्श नहीं था। मन, वचन और कर्म तीनों से ही वे आदर्शवादी थे इसीलिए जाते-जाते जीवन के आदर्श को यथार्थ में बदल गए। उनका देहदान करने का संकल्‍प एक बार फिर हमें दधीचि ऋषि की याद दिला देता है। उन्‍होंने जाते-जाते जीवन के जो अक्षर लिखे वही अक्षर जीवन का वास्‍तविक संदेश हैं तथा उन्‍हें महान योद्धा अथवा नायक बनाने के लिए पर्याप्‍त भी। ऐसे ही महान योद्धाओं अथवा नायकों का जीवन हम सब के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। जो अपने लिए सही रोल मॉडल का चुनाव करना सीख गया उसका जीवन सार्थक हो सकेगा इसमें संदेह नहीं।

---

सीताराम गुप्‍ता

ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,

दिल्‍ली-110034

srgupta54@yahoo.co.in

साभार ः ‘‘द स्‍पीकिंग ट्री'' नवभारत टाइम्‍स, नई दिल्‍ली,

दिनाँक ः 26 जनवरी 2010

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. बहुत अच्छा लगा आपका आलेख। बधाई!

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  2. श्री सीताराम गुप्त जी!
    वृक्ष कबहु नहि फल भखें,नदी न संचय नीर ।
    परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीरा ॥ -कबीर
    महाकवि कबीरदास के उक्त कथन का समर्थन करता
    हुआ आपका लेख अत्यंत प्रेरणादायी है। व्यष्‍टि का
    समिष्‍टि में लोप होना जीवन का चरम लक्ष्य है।
    आपने इस परम सत्य की अनुभूति को सार्थकता प्रदान
    की है। साधुवाद !
    सद्भावी-
    -डॉ० डंडा लखनवी

    जवाब देंहटाएं
  3. श्री सीताराम गुप्त जी!

    वृक्ष कबहु नहि फल भखें,नदी न संचय नीर ।
    परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीरा ॥ -कबीर
    महाकवि कबीरदास के उक्त कथन का समर्थन करता
    हुआ आपका लेख अत्यंत प्रेरणादायी है। व्यष्‍टि का
    समिष्‍टि में लोप होना जीवन का चरम लक्ष्य है।
    आपने इस परम सत्य की अनुभूति को सार्थकता प्रदान
    की है। साधुवाद !
    सद्भावी-
    -डॉ० डंडा लखनवी

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