दीप्ति परमार का आलेख: महिला रचनाकारों की स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानियों में नारी-विमर्श

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स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य में होनेवाली बहसों में एक महत्वपूर्ण मोड़ स्त्री-विमर्श के कारण आया है। साहित्य क्षेत्र में अब महिलाओं की उ...

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स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य में होनेवाली बहसों में एक महत्वपूर्ण मोड़ स्त्री-विमर्श के कारण आया है। साहित्य क्षेत्र में अब महिलाओं की उपस्थिति को कोई अनदेखा नहीं कर सकता हिन्दी महिला- लेखन ने आज हिन्दी साहित्य के केन्द्र बिन्दु से लेकर मुख्यधारा तक जगह बना ली है। वर्तमान समय में बहुत सी महिला कहानीकार समकालीन जीवन-दर्शन एवं राजनीतिक मतावादों से प्रेरित होकर साहित्य सृजन की दिशा में अग्रसर है। पश्चिमी संस्कृति साहित्य जीवन-दर्शन और बढ़ती शिक्षा के प्रभाव के कारण महिला रचनाकारों ने नारी से सम्बन्धित नूतन समस्याओं और संधर्षों को जीवन के अनुभवों से उभरनेवाली सच्चाइयों को निडरता के साथ अपनी कहानियों का विषय बनाया है। इनकी कहानियों में आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा के साथ ही आत्मसजगता का चरत्मोत्कर्ष भी पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत हुआ है।

स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी जीवनगत विविध परिवर्तनों को सर्वथा एक नवीन चेतना के साथ प्रस्तुत करने के क्रम में अग्रसर होती दिखाई देती है। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी महिला कहानीकारों की कहानियों का अध्ययन अनुशीलन करने पर नारी की स्थिति एवं नई चेतना के विविध आयाम दृष्टिगत होते है। ये चरित्र अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने हेतु अस्तित्व की जिस चेतना के साथ संधर्षशील होते हैं वह स्थिति उनकी अस्मिता एवं अस्तित्व चेतना की पहचान है। वस्तुतः स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी साहित्य में नारी विमर्श को रेखांकित करने में महिला कहानीकारों ने विशिष्ट भूमिका निभाई हैं। स्त्री की अस्मिता का सवाल एक मौजुदा सवाल है। आज स्त्री को आदर्श का मोह नहीं है। समाज और ईश्वर से वह नहीं डरती । पाप पुण्य के सवालों में उलझना -उसे पसंद नहीं। वह मुक्त होकर स्वयं अपनी अस्मिता की पहचान करती है। अचल शर्मा की कहानी कबाड़ी में जीवन के प्रति नारी के बदलते दृष्टिकोण का सशक्त चित्रण हुआ है। अमिता विवाह के दस वर्ष बाद भी माँ नहीं बन पाई। पति में दोष होने के कारण वह मातृत्व के सुख से वंचित रही। मातृत्व प्राप्ति के लिए परंपरागत पत्नी की तरह विवाह सम्बन्ध निभाना नहीं चाहती। विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को स्वीकार न करते हुए वह दूसरे पुरुष को अपनाने में कोई गलती महसूस नहीं करती । परंपरा और रिश्ते अगर उसे कबाड़ लगते है तो वह उससे अलग होकर अपना अस्तित्व सुरक्षित रखती है। नमिता सिंह की कहानी या देवी सर्व-भूतेषू में देवयानी के चरित्र के माध्यम से स्त्री जीवन की सही पहचान की गयी है। विवाह के बाद पति रोहन के अमानवीय व्यवहार से देवयानी अन्याय का शिकार बन जाती है किन्तु जब उसके जीजा उसके भीतर के देवी तत्व को जगाते है तब वह अपनी रक्षा के लिए पति को स्वयं तलाक देकर अपनी जिन्दगी की राह चुनती है ।

अस्तित्व की रक्षा और आत्मसम्मान के लिए स्त्री आज पुराने संस्कार एवं रक्तिम रिश्तों को भी छोड़ती नज़र आती है। भीड़ में खो जाना उसे मृत्यु के समान लगता है। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वह किसी भी उम्र में किसी-भी स्थिति में समझौता करने के लिए तैयार नहीं। विभारानी की कहानी होने का दर्द कहानी की नायिका अपने जीवन के उतरार्ध तक तो उपेक्षित पत्नी और त्याग करने वाली माँ क ेरुप में जीती है किन्तु वह जब यह महसूस करती है कि उसके त्याग की कोई कीमत और अहमियत नहीं रह गयी है तब वह स्वयं के प्रति सचेत होकर जीवन के आखिरी दौर में नया साथ और नयी जिन्दगी स्वीकार करते हुए अपनी इच्छानुसार जीती है। वह आत्मीय रिश्तों को छोड़कर केवल रक्त के रिश्तों को निभाना बोझ समझती है। कनकलता की पहिएवाली औरत अपंग किन्तु अपने स्व के प्रति जागृत स्त्री की कहानी है । पोलियो से ग्रस्त स्वाति व्याख्याता है। उसका पति और बच्चे हमेशा उसे पहिएवाली औरत कहकर अपमानित करते है। अंत में स्वाति अपने पति और बच्चों के मोह से मुक्त होकर अपने लिए जीने की नयी राह खोजती उसमें सफल होती और अपने स्व की रक्षा करती नज़र आती है। यानि कि बात थी मृणाल पांडे की स्त्री व्यक्तित्व को एक अलग पहचान देनेवाली कहानी है। आज स्त्री पुरुष और परिवार के लिए वस्तु बनकर रहना नहीं चाहती। वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी भी समय उसे छोड़ भी सकती है में न तो ढँपी रह जाना चाहती हूँ न उघड़ी जाना गरदन उठाए सड़क के इस पार से उस पार तक जाना चाहती हूँ। राजी शेठ की अंधे मोड़ से आगे मन्नू भंडारी की उँचाई मृदुला गर्ग की हरी बिंदी क्रांति त्रिवेदी की नहीं बंधूगी चित्रा मृदगल की शून्य आदि कहानियों में स्त्री जीवन के विविध पहलुओं का निरुपण करते हुए लेखिकाओं ने स्त्री के नये रुपों को और विचारों को एक अलग दृष्टिकोण से देखा परखा हैं।

आज की स्त्री अपने सही गलत फैंसले खुद लेती है। अगर वह देखती है कि विवाह जैसे परंपरागत रिवाज के नाम पर उसका वस्तु की तरह मूल्य लगाया जाता है तो वह अस्तित्व कि रक्षा और आत्मसम्मान के लिए पुराने संस्कारों को बेहिचक तोड़ती है। चन्द्रकान्ता की साउथ एक्स की सीता कहानी की नायिका ख्याति विवाह हेतु देखने दिखाने की ऊबाऊ एवं अपमानजनक स्थिति के प्रति आक्रोश व्यक्त करती है। वह द्रढ़तापूर्वक कहती है- इस तरह लोगों के आगे जलील होना यह शादी है या खरीदारी साड़ियों और लड़कियों में कोई फर्क नहीं पापा । सौदेबाजी कितनी शर्मनाक है सदियाँ बितने के बाद भी हम वहीं खड़े है। उषा प्रियम्वदा की कहानी एक कोई दूसरा की नायिका नीलांजना स्वाभिमानी धरातल पर जीती है। वह विवाह विषयक देखने दिखाने की रस्म तथा आभूषणों के आदान प्रदान को देखकर विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देती है। उषा प्रियम्वदा की ही सागर पार का संगीत कहानी की देवयानी भारतीय लडके से सगाई के पश्चात अपनी इच्छा से कनेडियन पुरुष ओस्कार से विवाह तथा भरपूर प्यार पाकर भी अन्य पुरुषों से सम्बन्ध स्थापित करती है तथा अपना वर्तमान सुखद बनाने के लिए कोई समझौता नहीं करती ।

मृदुला गर्ग की कहानी खरीदार कहानी की नीना का विवाह बीस हजार में तय होता है। वह इस विवाह से इन्कार कर देती है। क्योंकि वह सोचती है- पूरी दुनिया दो गुंटो में बंटी है दूकानदार और खरीददार। ठीक है मैं भी खरीददार बनूंगी उसने तय कर लिया विक्रेता नहीं खरीददार । नीना आई. ए. एस. होकर अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करती है। वह अपने विवाह के लिए सुनील का चुनाव खुद करती है- कल सुनील को बुलवायेगी पिछले हफ़्ते उतना सोचा नहीं। वक्त नहीं मिला। अब अकेले अच्छा नहीं लग रहा। सुनील सचमुच अच्छा लड़का है-सुन्दर और निष्कपट। फिर कल क्यों आज ही सही। आखिर वह अब खरीददार है। राजी शेठ की किसके पक्ष में कहानी की बेला का हर निर्णय स्वतंत्र है जीवन को नये मौलिक एवं स्वतंत्र दृष्टिकोण से देखने की उसमें भयंकर ज़ीद है। जीवन की सान पर चढ़ता उसका विद्रोह पैना अधिक था कुंठित कम । जीवन की अनिवार्यताओं में एकदम रद्दोबदल कर देना चाहती थी वह दाम्पत्य में अनिवार्य मान ली गयी गिलगिली दासताओं के प्रति वह समर्पित नहीं होगी कभी नहीं होगी । चन्द्रकांता की अनावृत कहानी की शची पंकज से मित्रवत सम्बन्ध रखती है लेकिन उसके साथ विवाह सूत्र में नहीं बंधती । वह स्वतंत्र ढंग से सोचती है- प्रेम का बुखार उतर जायेगा तो हर बात पर रोक टोक करने लगेगा । पक्के भारतीय पति की भाँति उसका अहम जागेगा तो हर बार अपर हैंड रखकर सती सावित्री की सेवा चाहेगा । जीवन की जिम्मेदारी से थके स्त्री पुरुष आज के समाज के लिए चुनौती है । परंपरागत मान्यताओं के साथ इस नयी विचार धारा के संघर्ष को महिला कहानीकारों ने बडी बारीकी से चित्रित किया है । नीलाक्षी सिंह की एक बरस के मौसम उषा महाजन की अंटिक चन्द्रकांता की अनावृत ऐसी ही कहानियाँ है ।

अब विवाहित स्त्री भी केवल पति की परिणिता बनकर ही नहीं रह जाना चाहती । वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है यह बात निरंतर उसकी सोच में है । इसी सोच के कारण विवाह के बाद अगर पति अपने कामों में व्यस्त रहता है या स्त्री की उपेक्षा करता है तब वह अपने अभावों को भरने के लिए सही गलत की परवाह किये बिना अपनी मनचाही जिन्दगी व्यतीत करती है । राजी सेठ की कहानी ढलान पर की चारु प्रतिमा वर्मा की दरवाजे कहानी की इन्दु कांति त्रिवेदी की अहल्या कहानी की माधुरी मृदुला गर्ग की अदृश्य कहानी की वीणा आदि में यह स्पष्ट महसूस किया जा सकता है कि यह नारियाँ आत्मिक और मानसिक स्तर पर अपनी इच्छानुसार संबंध स्थापित करती है ।

माँ बनना स्त्री का अपना अधिकार है । माँ सदाजीवी होती है । मृदुला गर्ग की कहानी मेरा की मीता का पति महेन्द्र कुछ सालों के लिए बच्चा नहीं चाहता । अतः वह मीता की भावनाओं की कद्र न करते हुए उसे गर्भपात के लिए अस्पताल ले जाता है । जब मीता ने फोर्म में पढ़ा मैं अपनी इच्छा से और अपने दायित्व से गर्भपात करवा रही हूँ। और लेडी डॉक्टर से यह जानने पर कि यह उसका निजी मामला है । वह महेन्द्र की परवाह किये बगैर फोर्म के टुकडे रद्दी की टोकरी में डालकर स्वयं के अधिकार की रक्षा करती है । मंजुल भगत की खोज कहानी की नीलिमा को जब बेटी पत्नी या कोपी राइटर के रुप में अपनी पहचान अधूरी लगती है तब वह माँ बनकर पूर्णत्व का आभास करती है । नीलाक्षी सिंह की उस बरस के मौसम कहानी की डॉ. अंतरा मलिक एक ऐसी माँ है जिसने अविवाहित होने पर बच्चे के अनाथालय से बच्चे को गोद लिया है । वह बच्चे को डॉक्टर बनकर नहीं माँ बनकर पालने के पक्ष में है । दूसरे देशकाल में कहानी की नायिका अविवाहित मातृत्व को कलंक नहीं मानती । मन्नू भण्डारी की कहानी रानी माँ का चबूतरा की गुलाबी अपने शराबी पति को घर से निकाल देती है और मेहनत करके बच्चों को पालती है । वह किसी के आगे हाथ नहीं पसारती और नहीं रानी माँ के चबूतरे के पास जाकर अपना दुखड़ा रोती है। वह बच्चों को पालने के लिए मजदूरी करने वाली माँ है । तो दूसरी तरफ चन्द्रकांता की कहानी विभक्त की हेमा पति द्वारा बच्चे को ब्रेस्ट फीड कराये जाने की बात को नजर अंदाज करती है । पति द्वारा बच्चे के गीले डायपर बदलने की बात पर भी वह बच्चे के पालन-पोषण में उसके सहयोग की भी बराबर अपेक्षा रखती है ।

महिला कहानीकारों ने नारी जीवन के विविध पक्षों को सूक्ष्मता से पकडा हैं । इन कहानीकारों ने रिश्तों की दूरी और अलगाव झेलते पात्रों की विविध दशाओं का भी वर्णन अपनी कहानियों में किया है। मन्नू भण्डारी की अकेली कहानी की बुआ रिश्तों की टूटन और एकाकीपन झेल रही है । ममता कालिया की कहानी जिन्दगी सात धँटे की आत्मीया सेन प्रोग्राम एक्जीक्यूटीव है । स्त्री और पुरुष दोनों उसके अधीन काम करते है लेकिन भावात्मकता के अभाव में वह रिक्तता और बैचेनी अनुभव करती हैं । मन्नू भण्डारी की तीसरा हिस्सा निरूपमा सेवती की विमोह मेहरुन्निसा परवेज़ की टहनियों की धूप मृणाल पांडे की दोपहर में मौत कहानियाँ रिश्तों की दूरी और अलगाव को व्यक्त करती है ।

अधिकांश लेखिकाओं ने माना है कि आज का युग भौतिकवादी युग है । अतः निजी एवं रिक्तम संबंध भी तब तक बचे है जब व्यक्ति रिश्तों की आर्थिक आकांक्षा की परीक्षा में खरा उतरे । अन्यथा उसका मोल नहीं के बराबर रह जायेगा । एक और श्रवणकुमार उषा महाजन की इसी मानसिकता को व्यक्त करने वाली कहानी है । नयी पीढ़ी को माँ एक नौकरानी और आया के रूप में चाहिए । यही स्थिति कहानी की माँ की है । शशिप्रभा शास्त्री की गुंबद कहानी की माँ अपनी मानसिक भूख मिटाने के लिए सिलाई कढ़ाई पसंद करती है। वह सोचती है कि यह कला ही उसके अस्तित्व की पहचान है । लेकिन बेटा और बहू की समाज से यह बात बात बाहर है । ऐसी हालत में वह अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा करने के लिए बेटे का घर छोड़ देती है ।

स्वातंत्रयोत्तरकाल में सामाजिक स्तर पर यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है कि अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए नारी को नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है । अतः महिला कहानीकारों ने कामकाजी महिलाओं को समाज से मिले सहयोग असहयोग नौकरशाही के भ्रष्टाचारों की एवं तदजन्य सामाजिक विसंगतियों से लड़ते संघर्ष करते नारी चरित्रों को अनेक कहानियों में उठाया है । ममता कालिया की जाँच अभी जारी है मैत्रीयी पुष्पा की अब फूल नहीं खिलते चित्रा मृदगल की दरम्यान निरूपमा सेवती की टुच्चा जैसी कहानियों के नारी-पात्र अपमानजन्य परिस्थितियों के झेलते हुए भी अपने कार्यो से जुडे है ।

दहेज प्रथा की कुप्रवृति पर प्रकाश डालते हुए एक वेताल कथा और में नमिता सिंह ने कल्पना के चरित्र के माध्यम से ससुराल और मायकेवालों के बीच दहेज के लिए पीस रही स्त्री की व्यथा को स्वर दिया है । माँ-बाप उसे ससुरालवालों के यहाँ भेजते है और ससुरालवाले रकम के बिना आयी बहू को जला देते है । इस कहानी में नारी के असहाय रूप को प्रस्तुत किया है जो अंत में अपनी आहुति दे देती है । निर्वासित कर दी तुमने मेरी प्रीत कहानी में मालती जोशी ने संभ्रांत कहे जाने वाले वर्ग में दहेज प्रथा की समस्या और उससे उत्पन्न नारी की असहाय स्थिति को दिव्या के चरित्र के माध्यम से स्पष्ट किया है ।

औरतों पर घरेलू हिंसा तथा शारीरिक एवं मानसिक शोषण आम बात है । औरत चाहे पढ़ी लिखी हो या अनपढ़ स्वतंत्र नहीं है । दरअसल स्त्रियों की सबसे बडी त्रासदी उनका स्त्री होना है । मालती जोशी की औरत एक रात है और पीरपर्वत हो गयी कहानियों में पुरुष सत्ता के कारण हो रहे नारी के शोषण का चित्रण है । मालती जोशी की ही कहानी में परायी बेटी का दर्द में पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की शोचनीय स्थिति को वर्णित किया है । चित्रा मृदगल की कहानी जब तक विमलाएँ जीवित हैं में यौन उत्पीड़न और बलात्कार की शिकार अपनी बेटी के प्रति क्रूर व्यवहार करनेवाले अत्याचारियों के प्रति अपना प्रतिशोध लेनेवाली माँ का चरित्र रेखांकित है । इन महिला कहानी लेखिकाओं की लेखनी से समाज द्वारा शोषित स्त्री का आक्रोश व्यक्त हुआ है । स्त्रियों की जिन्दगी की जटिलताओं को उसकी सच्चाइयों को इन महिला रचनाकारों ने निर्भय होकर स्पष्ट किया है ।

संदर्भ: मृणाल पांडे - एक नीच ट्रेजेडी, चन्द्रकांता - पोशलून की वापसी, मृदुला गर्ग - संगति - विसंगति राजी सेठ - अंधे मोड से आगे, चन्द्रकांता - पोशलून की वापसी, मृदुला गर्ग - संगति - विसंगति

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सम्पर्क:  डॉ. दीप्ति बी. परमार प्रवक्ता -हिन्दी विभाग  श्रीमती आर. आर. पटेल महिला महाविद्यालय राजकोट

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रचनाकार: दीप्ति परमार का आलेख: महिला रचनाकारों की स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानियों में नारी-विमर्श
दीप्ति परमार का आलेख: महिला रचनाकारों की स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानियों में नारी-विमर्श
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