अरविंद कुमार का साक्षात्कार : हिन्दी बोलेगा चीन जापान, सुनेगा पूरा जहां

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हिंदुस्तान में समय-समय पर भाषा को लेकर विवाद पैदा होता रहता है। यह भाषाई विवाद कैसे खत्म होगा या होगा भी या नहीं? भाषा को लेकर विवाद पै...

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हिंदुस्तान में समय-समय पर भाषा को लेकर विवाद पैदा होता रहता है। यह भाषाई विवाद कैसे खत्म होगा या होगा भी या नहीं? भाषा को लेकर विवाद पैदा होना स्वाभाविक है। यह हमारे समाज के जाग्रत होने का प्रमाण है। भाषाई विवाद केवल हमारे यहां नहीं हैं। दुनिया के अधिकांश देशों में जब-तब भाषाई विवाद होते रहते हैं। भाषा से समाज की अस्मिता जुड़ी होती है। कारण यह कि भाषा ही वह उपकरण है, जो जीवन के हर अंग और गतिविधि को संचालित करता है। चाहे वह पारिवारिक हो, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय ही क्यों न हो। भाषा न होती तो हम अभी तक आदिम युग में होते। जिस समाज की भाषा जितनी विकसित है, वह उतना ही विकसित है। निज भाषा से प्रेम मानव के मन में अंकित होता है।

यहां हम इस बात का भी ध्यान में रखें कि आम आदमी भाषा को बनाता है। यही नहीं, भाषा का सृजन वे भी करते हैं, जिन्हें हम ऐरागैरा नत्थू खैरा कहते हैं, वे भी जो जाहिल हैं, गंवार हैं..। निजी स्तर पर हम सब आम आदमी या जन साधारण हैं। भाषा को संस्कार देते हैं पंडित, विद्वान, साहित्यकार। व्याकरण बनाने वाले भाषा में एकरूपता और स्थायित्व लाने के लिए नियम बनाते हैं। अगर नियम उचित होते हैं तो प्रचलित हो जाते हैं। आम आदमी भी भरसक उनका इस्तेमाल करता है। सच तो यह है कि आम आदमी की बोलचाल पर ही व्याकरण बनते हैं। हम सभी दैनिक भाषा बोलचाल की भाषा ही रहती है- तात्कालिक। समय पर मुंह में जो शब्द आता है, वही बोला जाता है। तब व्याकरण की परवाह नहीं की जाती।

कई बार टीवी पर घटनास्थल से रिपोर्टिंग करते समय पत्रकारों को भी व्याकरण भूलकर बात कहनी पड़ती है। तब वे यह परवाह नहीं करते कि भाषा शुद्ध है या अशुद्ध। शब्द हिंदी का है या इंग्लिश का या स्थानीय भाषा का। जिनका वे साक्षात्कार लेते हैं, उनकी भाषा शुद्ध करके नहीं, जैसी की तैसी प्रसारित करते हैं। जबकि समाचार पत्रों में उसे परिष्कृत करने की सुविधा रहती है। टालते रहो तो भी देर सबेर भाषाई विवादों का समाधान निकालना ही पड़ता है। पर नए विवाद नहीं उठेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं होती।

भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या का समाधान कैसे निकल सकता है? राष्ट्रभाषा पर बात करते समय हमें इसे राज्यभाषा से अलग करके देखना होगा। समस्या तब होती है, जब हर क्षेत्र के लोग अपनी भाषा को राष्ट्रभाषा की गिनती में लाना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि भाषा बोलने वालों की संख्या कितनी बड़ी हो कि उनकी भाषा को स्वतंत्र रूप में मान्यता मिल सके। आखिर हर गांव की भाषा तो राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती, लेकिन खड़ी बोली की टक्कर वाली भोजपुरी जैसी भाषाओं को पीछे नहीं रखा जा सकता।

नए राज्यों की अपनी आंचलिक भाषाएं भी कब तक पीछे रहेंगी। टकराव का या रोध का रवैया न अपनाकर हमें गिव ऐंड टेक की नीति अपनानी चाहिए। आज हर क्षेत्र की अस्मिता उभर रही है और इसका उसे अधिकार भी है। राष्ट्रभाषाएं बनाकर हम इन्हें देश की राज्यभाषा तो नहीं बना रहे। केवल इनके विकास के नए दरवाजे ही खोलेंगे। उनकी भाषा के पंडितों को रोजगार के अवसर मिलें तो क्या नुकसान है? हिंदी में तेजी से बदलाव हो रहा है।

अंग्रेजी के ऐसे शब्द हिंदी में शामिल किए जा रहे हैं, जो हिंदी में आसान हैं, अंग्रेजी में मुश्किल। यह हिंदी की तरक्की है? जैसा कि पहले भी मैंने कहा कि भाषा बनाने वाला होता है आम आदमी। जो आम आदमी की भाषा है (मैं तकनीकी भाषा की बात नहीं कर रहा), वही भाषा का सही रूप है। आज दैनंदिन नई तकनीक आ रही हैं। वे अपने साथ नई शब्दावली लेकर आ रही हैं। नए शब्द हमें स्वीकार करने ही होंगे। साथ ही आजकल विज्ञापन पाने की होड़ में कई समाचार पत्रों के मालिकान अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग के विज्ञापन क्षेत्र के हाईफाई लोगों पर यह सिद्ध करने में लगे हैं कि उनके पत्रों के ग्राहक भी हाईफाई हैं। वे पढ़ेंगे तो उनका माल ज्यादा बिकेगा।

आज अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमी के पास क्रय शक्ति अधिक है, यह बाजार का ठोस सत्य है। तो भाषा का हिंग्लिश रूप उभर रहा है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी बोलने वालों की बड़ी संख्या उसके बड़े बाजार का जीता-जागता प्रमाण है। जैसे-जैसे गांवों में पैसा पहुंच रहा है, जैसे-जैसे कसबाई शहर अमीर होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे विज्ञापन को उनकी शरण में जाना होगा। तब भाषा का क्या रूप होगा, यह अभी देखा जाना बाकी है। कुछ लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भारत तरक्की नहीं कर सकता। क्या आप भी इससे सहमत हैं? अंग्रेजी के बगैर भारत की तरक्की होगी या नहीं, यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। हां, अभी तक इसमें अंग्रेजी ने प्रमुख भूमिका निभाई है। यह भी निर्विवाद है। लोग अपनी राय पिछले अनुभव के आधार पर ही बनाते हैं।

एक मिनट के लिए आप अंग्रेजी को भारत की पराधीनता की भाषा के रूप में न देखें तो मानना पड़ेगा कि आज संसार के फ्रांस जैसा कट्टर अंग्रेजी विरोधी देश भी उस भाषा के पास जा रहा है। कोई तो कारण है न! कारण है, आज संसार में सर्वाधिक प्रगति अंग्रेजीदां देशों की सरकारें, वैज्ञानिक संस्थाएं, वहां के बिल गेट्स जैसे लोग कर रहे हैं। चढ़ते सूरज को कौन प्रणाम नहीं करता! भारत का काम है जिससे, जब और जिस तरह नई तकनीक मिले, उसे लेकर आगे बढ़े। एक समय आएगा, जब भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश तथाकथित पश्चिमी देशों को अपनी तरफ देखने को मजबूर कर देंगे।

हिंदी ने अभी तक साहित्य और आलोचना पर ध्यान दिया है। तकनीकी साहित्य की बेहद कमी है। हिंदी का क्या भविष्य क्या है? हिंदी की गिनती संसार की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में की जाती है। हिंदी पर सूरज कभी नहीं डूबता। वर्ष 1900 से अब तक हिंदी ने जो तरक्की की है, वह अद्भुत है। 1947 के बाद से हिंदी की प्रगति की रफ्तार तेजी से बढ़ी है। और अब यह गति हर साल नई तेजी पकड़ती रहेगी।

मैं दावे से कह सकता हूं कि 2050 तक हिंदी संसार की दो-तीन सबसे बड़ी ही नहीं, सबसे विकसित भाषाओं में होगी। मेरे पास इस दावे के लिए ठोस तर्क है। हिंदी के हर उस संस्थान में जिसका संबंध संप्रेषण से है, दैनिक पत्र, रेडियो, टीवी, इंटरनेट हर क्षेत्र में गांव-गांव शहर-शहर के हर वर्ग के लोग न केवल उच्च जातियों के बल्कि तथाकथित पिछड़े वर्गो के लोग भी अपनी नई अनुभूतियां, नए प्रयोग लेकर आ रहे हैं, जिसका ताल्लुक कहीं न कहीं हिंदी से होता है। भारत ही नहीं, जापान से लेकर अलास्का तक, न्यूजीलैंड से स्वीडन तक हिंदी वाले मुस्तैदी से अपने काम में लगे हैं और तरक्की कर रहे हैं।

हिंदी का नेतृत्व कोरे साहित्यकारों के हाथों से निकलकर नवीनतम डिजिटल तकनीक के पारंगत अशोक चक्त्रधर जैसों के हाथों में आ रहा है। विजय कुमार मल्होत्रा (नेता नहीं, भाषाविद्), और प्रोफेसर सुरेंद्र गंभीर, अमेरिका से हिंदी की विज्ञान पत्रिका प्रकाशित करने में अपने जीवन भर की कमाई और बचत होम कर देने वाले डॉ. राम चौधरी, वहीं के अनूप भार्गव, न्यूजीलैंड में रह रहे रोहित कुमार हैप्पी, दुबई से पूर्णिमा वर्मा, भारत में प्रो. रवि रतलामी और इनके अलावा भी कई लोग हिंदी को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। कोई ब्लॉग के जरिए तो कोई पत्र-पत्रिकाओं के जरिए भाषाई दायरे को विस्तार दे रहा है।

कोशकारिता में सबसे पहले जिस क्रांति की शुरुआत डॉ. हरदेव बाहरी ने की, उसे आगे बढ़ाने में बदरीनाथ कपूर ने भी काफी अहम योगदान दिया। इस दिशा में हमने भी इस दिशा में थोड़ा बहुत योगदान दिया है।

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(दैनिक जागरण से साभार. मूल आलेख जागरण ई-पेपर पर यहाँ पढ़ सकते हैं.)

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रचनाकार: अरविंद कुमार का साक्षात्कार : हिन्दी बोलेगा चीन जापान, सुनेगा पूरा जहां
अरविंद कुमार का साक्षात्कार : हिन्दी बोलेगा चीन जापान, सुनेगा पूरा जहां
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