(आज, 17 जनवरी को हिन्दी के एकमात्र समांतर कोश के सृजक अरविंद कुमार का 81 वां जन्म दिवस है. उम्र के इस पड़ाव में वे अब भी सृजन रत हैं और अरवि...
(आज, 17 जनवरी को हिन्दी के एकमात्र समांतर कोश के सृजक अरविंद कुमार का 81 वां जन्म दिवस है. उम्र के इस पड़ाव में वे अब भी सृजन रत हैं और अरविंद लैक्सिकन सहित कई अन्य भाषाई परियोजनाएँ उनके देखरेख में चल रही हैं. रचनाकार की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ. इस अवसर पर प्रस्तुत है उनका संस्मरण – कि किस तरह समांतर कोश सृजन का बीज अंकुरित हुआ और फला-फूला - )
13 दिसंबर 1996 की सुबह राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा को समांतर कोश की पहली प्रति भेंट की गई--तब कोश उन के हस्ताक्षर लेते कुमार दंपति
जीवन बदल डालने वाली वह सुबह
जब हैंगिंग गार्डन में हम ने लिए
निर्णायक पाँच फेरे...
—अरविंद कुमार
जीवन के अस्सी पड़ाव पूरे करने के (17 जनवरी 2010) के अवसर पर एक ओर तो मन में संतोष है कि चलो इस जीवन में कुछ तो मनचाहा कर पाया। पर यह भी ध्यान रहता है कि अभी बहुत कुछ करना है। (मेरे इक्यासीवें वर्ष में प्रवेश पर हम लोग आजकल संसार का सब से अनोखा द्विभाषी ई-कोश‘अरविंद लैक्सिकन’बनाने में लगे हैं। मैं इस के विस्तार में नहीं जाना चाहता। इतना कह सकता हूँ कि मेरी राय में संसार की ई-कोशकारिता में यह शिलालेख का काम करेगा।)
काम करते करते हम लगभग सैँतीस साल पहले 27 दिसंबर 1973 की एक सुहानी सुबह हम अकसर याद करते हैं। जीवन बदल डालने वाली वह सुबह हम कभी नहीं भूल सकते। हम लोग बदस्तूर सुबह की सैर को बंबई की (राज ठाकरे नाराज़ न हो जाएँ, मुंबई, लेकिन उन दिनों उस महानगर का नाम बंबई ही था, तो मुंबई की) मलाबार हिल पर हैंगिंग गार्डन छः बजते बजते पहुँच जाते थे। मैं, कुसुम, 12-वर्षीय बेटा सुमीत और 7 वर्ष की बेटी मीता... (यहाँ इन सब के नाम गिनाना ज़रूरी था, क्योंकि बाद में यह हमारी अटूट टीम बनने वाली थी।) उस सुबह हमें जो एकांत चाहिए था, वह पूरा था। अकसर मिल जाने वाले और फिर साथ बात करते चलते रहने वाले गायक मुकेश उस सुबह नहीं आए थे। कोई और परिचित भी उस दिन हमें नहीं मिला... अच्छा ही हुआ! हमें भविष्य की जीवन रेखा खीँचने का व्यवधानहीन एकाकी मौक़ा मिल गया।
मेरे मन में पिछली रात जो आकांक्षा जगी थी, जिस के लिए हमें योजनाबद्ध काम करना होगा और जिस की निष्पत्ति, पूर्ति, अपूर्ति, परिणति, परिणाम—सभी—अनिश्चित थे, मेरे पत्नी कुसुम से वह कह डालने के लिए स्थिति प्रकृति ने पूरी तैयारी कर रखी थी। कहें तो पूरा षड्यंत्र बना रखा था हमें अनेक मुसीबतों में डालने का। सुहानी हवा मन को उत्फुल्लता, स्फूर्ति, उत्साह और सकारात्मक स्वीकृति से सराबोर कर रही थी।
हैंगिंग गार्डन का एक दृश्य – इस की बड़ी से बड़ी पट्टी का चक्र 600 मीटर होता था
हैंगिंग गार्डन का एक फेरा नपे-नपाए 600 मीटर का होता था। हम लोग नियम से 5 फेरे लगाते थे—यानी तीन किलोमीटर... पहले फेरे में कुसुम से मैं ने कहा, मेरे मन में 20-21 साल से एक सपना दबा है, जो बार-बार मुझे याद आता और कोंचता है... यह सपना मैं ने पहली बार 1952-53 में देखा था, जब मैं 22-23 साल को नौजवान था।
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उन दिनोँ सरिता और कैरेवान पत्रिकाओँ का छोटा सा कोई 15-16 कर्मियों वाला संपादकीय तथा व्यवस्था कार्यालय नई दिल्ली में जनपथ पर मैसर्स जगत नारायण ऐंड संस ज्वैलर्स के ज़ेवरात के विशाल शोरूम के भीतर मियानी में था। किसी संपादकीय कार्यालय के लिए यह बड़ी अकल्पनीय सी जगह थी। कोई जौहरी अपने बेशक़ीमती सामान वाले शोरूम में से हो कर किसी दफ़्तर में हर ख़ास ओ आम को आने जाने की परमिशन कैसे दे सकता है! लेकिन यह बिल्कुल स्वाभाविक ही था। जौहरियों की उस प्रसिद्ध फ़र्म के साझीदार विजय नारायण और हमारे संपादक विश्वनाथ गहरे मित्र थे। हिंदी जगत, पाठक और पत्रकार आजकल सरिता के संस्थापक-संपादक के रूप में केवल स्वर्गीय विश्वनाथ जी को जानता है। सच यह है कि अक्तूबर 1945 में दशहरे पर प्रकाशित सरिता के पहले अंक के संपादक विजय नारायण थे। वह और विश्वनाथ चार्टर्ड अकाउन्टैंसी में सहपाठी थे। सरिता के प्रकाशन की योजना दोनों ने संयुक्त रूप से बनाई थी। दोनों नामों को जोड़ कर एक प्रकाशनालय की कल्पना भी की थी— विश्वविजय... यह नाम आज भी दिल्ली प्रैस से प्रकाशित पुस्तकों पर चलता है। व्यापारिक व्यस्तताओँ के चलते पत्रिका को बहुत समय दे पाना विजय नारायण जी को कठिन हो रहा था। इसी लिए बाद में विश्वनाथ जी ने प्रकाशन के साथ साथ संपादन का भार भी सँभाला।
किसी संपादकीय कार्यालय का ज़ेवरों के शोरूम में होना जितना अकल्पनीय हो सकता है, उस से कई गुना अकल्पनीय अघटनीय संयोग उस कार्यालय में मेरा होना था। कभी ग़ुमान भी न था कि पत्रकार बनूँगा। जीवन के दरिया में थपेड़े खाता, लहरों के संग डूबता उबरता, हिचकोले खाता, रौ के साथ अनसोचे बहता चलता मैं बेहद हलका फुलका तिनका था। मेरे जीवन के फ़ैसले दूसरे ले रहे थे। बस, इतना है कि मैं हर बदलती लहर के साथ हाथ पैर मारता रहा। और मन ही मन सपने बुनता रहा। जीवन में बड़े-बड़े मौक़े मिले, हर साल अपने को अनुभव के नए मुक़ाम पर पाया। पर जो चाही वह नौकरी कभी नहीं मिली। हमेशा रीजैक्ट किया गया। और अच्छी बात है कि रीजैक्ट होता रहा। तभी तो जहाँ था वहीँ मेहनत करता उठता रहा, और दूसरे बुलाते रहे...
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पंदरह साल का मैं 1 अप्रैल 1945 को कनाट सरकस में दिल्ली प्रैस की इमारत में बाल श्रमिक दाख़िल हुआ था। पाँच दिन पहले ही मैं ने दिल्ली बोर्ड से मैट्रिक (दसवीँ) का आख़िरी परचा दिया था। रिज़ल्ट आने में डेढ़ दो महीने थे। मेरे लिए तय था कि आगे नहीं पढ़ सकूँगा। मात खा कर मेरठ शहर से दिल्ली आए पिताजी लक्ष्मण स्वरूप के आर्थिक हालात अच्छे नहीं थे...।
17 जनवरी 1930 को शकट चौथ की शाम को मेरठ शहर में लाला के बाज़ार की क़ानूनगोयान स्ट्रीट वाले घर के एक कोठरीनुमा कमरे में मेरा जन्म हुआ... माँ रामकली उपवास से भूखी थीं। पिताजी किसी आंदोलन के अंतर्गत जेल में थे। पुरातन पंथी बनियों के बीच स्वभाव से विद्रोही पिताजी गाँधीभक्त और कट्टर आर्य समाजी थे। मैट्रिक पास करने से बहुत पहले गाँधी जी की एक पुकार पर उन्होंने सरकारी स्कूल छोड़ दिया। आंदोलन के अंतर्गत नए खुले देवनागरी स्कूल से मैट्रिक किया। किसी ने कचहरी में मुख़्तार बनवा दिया। मुख़्तारी नहीं चली। दिन रात आज़ादी की और समाज सुधार की धुन थी। कई छापेख़ाने शुरू और बंद किए। करते भी क्या? गाँठ में पैसा नहीं था।
मतलब यह कि नून तेल लकड़ी की जंग में मुँह की खा कर अँगरेजो भारत छोड़ो वाला सन 42 आते आते पिताजी दिल्ली आ चुके थे। करौल बाग़ में देव नगर के ब्लाक नंबर 5 में रहते थे। अँगरेजी सरकार की दिल्ली छावनी में कोई बेहद छोटा काम कर रहे थे। अलस्सुबह, हाथ में खाने का थैला थामे, सराय रोहिला स्टेशन जाते। छावनी स्टेशन उतर कर फिर दूर दफ़्तर तक एड़ियाँ घिसते। मन की भड़ास निकालने के लिए मौक़ा मिलता तो काँग्रेस की मीटिंगों में जाते। खद्दर पहनते। देशभक्ति की बातें करते। तनख़्वाह बेहद नाकाफ़ी थी। (एक बार तो वेतन वाली जेब भी काट ली गई थी। एक महीना कैसे उधार ले कर कटा, यह मुझे अभी तक याद है।) तीन बेटों और तीन बेटियों को पालना आसान नहीं था। मेरे दसवीं में आने से पहले एक बहन सरोज रीढ़ की टीबी का शिकार हो कर हम से दूर जा चुकी थी।
तय किया जा चुका था कि मैं अब कोई काम करूँगा। क्या करूँगा—अनेक विकल्पों पर तरह तरह उधेड़बुन बहस मुबाहसा कर के अम्माँ पिताजी तय कर चुके थे: क्लर्की नहीं करूँगा। पिताजी को यह पसंद नहीं था। हमारे निम्न मध्यम वर्गीय करौल बाग़ वाले वातावरण में बीए पढ़ लो तो भी काम क्लर्की या टाइपिस्ट का ही करना होता था। उस में मिलता भी क्या था! (उन दिनों रोज़गार के बहुत अवसर नहीं थे।) तो आगे किं पढतव्यम्? छापेख़ाने में इज़्ज़त है। लेकिन काम न आता हो तो कारीगर धोखा देते हैं। ग्राहकों से पैसा वसूलना भी आसान नहीं होता। यह सब बाद में भुगता जाएगा। अपना प्रैस कभी नहीं भी खोल पाए, तो कोई बात नहीं। हाथ में हुनर हो तो कोई भूखों नहीं मरता। इस या उस प्रैस में काम मिल ही जाएगा। फिर, दिल्ली प्रैस के मालिक (और विश्वनाथ जी के पिता) लाला अमरनाथ मेरे सगे फूफा थे। बुआ गुज़र चुकी थीं। पारिवारिक संबंध अभी तक दृढ़ थे। पिताजी उन से वादा भी ले आए थे कि लड़के को रख लेंगे। जब आगे पढ़ना ही नहीं है, तो रिज़ल्ट का इंतज़ार कैसा! जितनी जल्दी कमाने वाले एक से दो हो जाएँ, उतना अच्छा! शुभस्य शीघ्रम्! काल करे सो आज कर... देरी कैसी!
पिताजी जानते थे कि वही पढ़ा लिखा बच्चा अच्छा कंपोज़ीटर बन सकता है, जिसे अच्छी तरह पता हो कि टाइप के किस केस में 'ए' किस ख़ाने में रखा जाता है, 'बी' किस में। परिणाम यह था कि 26 मार्च को परचे ख़त्म हुए, और 1 अप्रैल को लड्डुओं से भरी परात और 11 रुपए की नक़द गुरुदक्षिणा लिए मैं द्दिल्ली प्रैस में दाख़िल हुआ। कंपोज़िंग से पहले डिस्ट्रीब्यूटरी सीखने उस्ताद मुहम्मद शफ़ी की शागिर्दी करने। बाक़ायदा रस्म अदा की गई, गंडा बाँधा गया। उस्ताद को भेंट के 11 रुपए कम लगे। उन्होंने अप्रसन्नता भी ज़ाहिर की। मालिक के साले का बेटा कुल इतना देगा, इस की आशा न थी। हाँ, बाद में कभी शिकायत नहीं की। मालिक रिश्तेदार थे, इस वास्ते मेरे समकक्ष शागिर्द बलबीर के मुक़ाबले मुझे कुछ ज़्यादा तनख़ाह दी गई—25 रुपए महीना। एक रुपए रोज़ से कम... कोई बात नहीं, मेरी पढ़ाई पर ख़र्चा ख़त्म, आमदनी शुरू! मेरी निजी तरक़्क़ी भी हो गई। पहले दैनिक जेबख़र्च कुछ नहीं मिलता था, कभी कभार एक दो पैसे मीठी गोली खाने के लिए। अब दर महीना 2 रुपए मिलने लगे! वाह! सुबह लगभग तीन मील पैदल जाना, शाम को लौटना... मजबूरी थी। रोने धोने और झींकते रहने से क्या फ़ायदा? जो करना है, वह करना है, और मन लगा कर करना है—एक यही मंत्र मुझे आता था, यही मंत्र अब तक मेरे साथ है।
मुहम्मद शफ़ी मोटे और थुलथुल थे। उन के साथ साथ मेरा काम था ज़मीन पर पालथी मार कर बैठना, छपा मैटर धो पोंछ कर टाइप फिर से केसों में फेंकना। मेरा एक काम और था। उस्ताद के लिए चाय बीड़ी ले आना—क्योंकि मैं बलबीर से जूनियर था। उस्ताद और बलबीर के मुक़ाबले मैं सीँकिया पहलवान था। उस्ताद के मुक़ाबले कंपोज़िंग फ़ोरमैन साहब रामचंद्र पतले थे। शफ़ी कभी कभी ग़ुस्सा खाते थे, मारते थे, और हँसते भी थे। जब कि बड़े क़रीने के सद्भावी सज्जन फ़ोरमैन साहब सौम्य थे, गंभीर थे। मैं ने उन्हें कभी हँसते नहीं देखा। सब कंपोज़ीटरों से भलमनसाहत बरतते। मेरे प्रति उन का स्नेह पहले दिन से साफ़ था। (1956 में जब मैं ने अँगरेजी साहित्य में ऐमए किया, तो कैरेवान में सहायक संपादक था। ख़ुश हो कर फ़ोरमैन साहब रामचंद्र जी ने पाँच रुपए की मिठाई बाँटी थी।) वही प्रैस में मेरे लिए सर्वोच्च आदर्श थे। वही मेरी मंज़िल थे। बड़ा हो कर मैं कंपोज़िंग फ़ोरमैन बनूँगा, और हर महीने 125 घर ले जाऊँगा।
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वह लड़का यानी मैं कुछ ही बरसों में किसी मशहूर पत्रिका के संपादन विभाग में पहुँच जाऊँ, यह पूरी तरह 1945 में अप्रत्याशित था। यह कैसे हुआ, कौन सी लहरें मुझे घुमाती फिराती वहाँ ले आईं, यह मैं बाद में बताऊँगा। अभी तो बस इतना कहूँगा कि जलधाराएँ मुझे कंपोज़िंग के साथ साथ मशीनमैनी, जिल्दसाज़ी, ब्लाक मेकिंग, मोनो मशीन पर कंपोज़िग की जानकारी देते देते, कैशियरी, टाइपिंग, प्रूफ़ रीडिंग, सरिता में उप संपादन का अनुभव कराते कराते अँगरेजी पत्रिका कैरेवान में संपादन विभाग तक बहा लाईं।
नौकरी के साथ साथ मैं ने कुछ मित्रों की प्रेरणा से शाम के वक़्त प्राइवेट टीचिंग शापों में पढ़ कर इंटरमीडिएट पास किया। उन दिनों दिल्ली में बसे हज़ारों विस्थापित शरणार्थियों के परिवारों के नौजवानों को आगे बढ़ने के अवसर देने के लिए पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी रत्न, भूषण, प्रभाकर पास कर के बाद में अँगरेजी परीक्षा दे कर बीए की डिगरी हासिल करने का रास्ता लोकप्रिय हो रहा था। इसे वाया भटिंडा कहा जाता था क्योंकि लाहौर जाने का रेल का वैकल्पिक रूट यह भी हुआ करता था। (मैं ने हिंदी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा का फ़ार्म भरा था। परचे भी दिए थे। वैकल्पिक भाषा गुजराती में तैयारी नहीं थी। वह परचा नहीं दिया।)
अवसर और भाग्य हम जैसे साधनहीनों के लिए खुलते जा रहे थे। भला हो उन का जिन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय को प्रेरणा दी कि शाम को खुलने वाला कैंप कालिज चालू कर देँ। छात्रों की संख्या के हिसाब से दिल्ली में यह सब से बड़ा कालिज था। इस में तीन हज़ार छात्र होते थे। सभी आर्ट्स विषयोँ पर ऐमए तक पढ़ाई होती थी। प्रिंसिपल थे अकाली नेता मास्टर तारासिह के बड़े और राष्ट्रवादी भाई प्रोफ़ैसर निरंजन सिंह। मैं यहाँ बीए में दाख़िल हो चुका था।
उन्हीँ दिनोँ कैरेवान में संपादकीय विभाग का विस्तार करने की आवश्यकता विश्वनाथजी को आ पड़ी। आवाश्यकता के अनुरूप अपने को ढाल पाने की मेरी क्षमता, कुछ नया सीखने करने की मेरी रुचि, और चुनौतियाँ स्वीकार करने की मेरी आदत से मैं उन का विश्वासपात्र बन चुका था। उन्होँ ने मुझ पर भरोसा किया। मेरे बीए में दाखिला लेते ही मुझे अँगरेजी में भेज दिया। मेरे लिए यह दो तरह से लाभप्रद हुआ। पत्रकारिता में होने के नाते सामान्य विषयोँ पर मेरा ज्ञान कालिज में आम सहपाठी के मुक़ाबले अधिक था। मैं प्रोफ़ैसरोँ की निगाह में आने लगा।
मुझे सरिता में छपी कहानियोँ के अँगरेजी अनुवाद भी दिए जाते थे। हिंदी अँगेरजी कोश बहुत अच्छे नहीं थे। अकसर हिंदी शब्दों के लिए वांछित अँगरेजी समकक्ष इन में कम ही मिलते थे। फिर भी कुछ सहायता तो मिलती ही थी। मुझे विविध विकल्पों की तलाश रहने लगी। मैं अपनी इंग्लिश शब्दावली बढ़ाने लगा। मेरी इंग्लिश में सुधार तो था, पर संतोषजनक नहीं।
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अब नाम तो याद नहीं, पर आज तक मैं उन महोदय का उपकार मानता हूँ जिन्होंने मुझे सलाह दी कि रोजट का थिसारस ख़रीद लो। शायद उन का नाम राधाकृष्णन था—कैरेवान में नियमित रूप से लेख लिखते थे। तब उस का छोटा संस्करण ही मिलता था। पहला संस्करण एक सदी पहले 1852 में छपा था। शब्दों को विषय या संदर्भ क्रम से रखा गया था। कोई इंडैक्स भी नहीं था। छपते ही 150-200 पन्नों की वह छोटी सी किताब लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गई। (आज माना जाता है कि विश्व कोशकारिता में वह नई क्रांति ले कर आई थी।) साल बीतते न बीतते पहला संस्करण बिक गया। बाद में उस में इंडैक्स भी जोड़ दिया गया। किताब की उपयोगिता कई गुना बढ़ गई। 1910 के आसपास रोजट के पुत्र ने इस शब्द संकलन को जो थोड़ा बहुत विस्तार दिया था, वही संस्करण 1952 तक बाज़ार में चलता आ रहा था। वह आजकल के इंटरनेशनल बृहद् थिसारसों जैसा नहीं। तब मेरे लिए वही बहुत था। ग्रीक शब्द‘थिसारस’का निकटतम हिंदी समकक्ष है‘तिजौरी’। मेरे लिए यह खुली तिजौरी, कहें तो ख़ज़ाना, साबित हुआ। मेरी आँखें अचरज से चौड़ी हो गईं। शब्दावली का अनोखा भंडार मेरे सामने खुल गया, जैसे किसी ने खुल जा सिम सिम कहा और मैं अली बाबा छिपे खज़ाने वाली गुफ़ा के भीतर पहुँच गया। मेरी अँगरेजी दिन दूनी रात चौगुनी समृद्ध होने लगी। सोचता — काश हिंदी में भी कोई ऐसी किताब हो... यह थी वह आकांक्षा जो मेरे मन में बार बार बिजली सी कौंधती लहराती रहती थी।
22-23 साल का मैं सपनों में भी यह सोचने की हिमाक़त नहीं कर सकता था कि चवालीस साल बाद मेरा और पत्नी कुसुम का बना वैसा हिंदी थिसारस समांतर कोश आज़ादी के पचासवें साल में हम दोनों भारत के राष्ट्रपति डाक्टर शंकर दयाल शर्मा को अपने हाथों भेंट करेंगे! तब तो मैं यही सोचता कि पंडित नेहरू और मौलाना आज़ाद ने कोशकारिता में पहल की है, डाक्टर रघुवीर, पंडित सुंदरलाल आदि को शब्दकोशों के लिए आर्थिक अनुदान दिए हैं, वैसी ही किसी पेशकश से, या तकनीकी शब्दावली के लिए जो आयोग बने हैं, उन में से हिंदी थिसारस भी निकलेगा, अवश्य निकलेगा...
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26 दिसंबर 1973 की सुहानी आशाभरी सुबह मैं ने कुसुम को जो बात बताई वह हिंदी थिसारस बनाने की यही इच्छा थी... यह इच्छा मेरे मन में उस दिन कैसे आई, यह बताने के लिए मुझे नवंबर-दिसंबर 1969 और जनवरी 1970 तक जाना पड़ेगा।
मै चालीसवें में प्रवेश कर रहा था। मेरे साथ एक साथ कई बातें हो रही थीं। उम्र बढ़ने का अहसास था।
इसी समय मैं ने कहीं पढ़ा कि रिटायरमैंट के लिए तैयारी का यही समय सही है। बुढ़ापे में लोग जब अचानक काम से अलग होते हैं, तो गहरा सदमा लगता है। कभी वह दुनिया भर पर रोब चलाते थे, अब किसी के पास उन से बात करने का समय नहीं होता। रिटायर लोग अपने 'ज़माने' की बातेँ करते रहते हैं। भविष्य उन के लिए नहीं रहता। नीचे वाले फ़्लैट में रहने वाले सिंधी सज्जन ऊँचे पद से रिटायर हुए। अगले महीने नए घर में जाने वाले थे। लेकिन हुआ यह कि एक बार पुराने दफ़्तर गए। मातहतों के पास उन से बात करने की फ़ुरसत नहीं थी। घर में प्रिय पत्नी को दुःख था कि पहले यह दिन भर बाहर रहते थे। अब दिन भर छाती पर मूँग दलते हैं। खाट पकड़ी तो नए मकान में जाने से पहले परलोक चले गए। अकसर रिटायर्ड बड़े बूढ़े पार्कों की बेंचों पर बेटे बहुओं के निंदा पुराण में व्यस्त रहते हैं। लेखक ने सुझाव दिया था—पचास में प्रवेश से पहले कोई ऐसा शौक़ या धंधा पाल लो जो जीवन से सक्रिय संबद्धता बनाए रखे। बात दिल में घर कर गई।
टाइम्स कार्यालय के मैनेजमैंट विभाग में एक सहायक थे श्री हिंगोरानी। वह कहते यदि दो लाख रुपए जमा होँ, तो दो हज़ार महीना सूद मिल जाता है। अगर अपना घर का मकान हो, तो उस सूद के सहारे हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं।
उन्हीँ दिनोँ एक फ़्राँसीसी फ़िल्म देखी—कलात्मक, प्रभावशाली। शायद उस का नाम था—अक्रौस पैरिस। कहानी थी जरमन क़ब्ज़े में एक शाम कर्फ़्यू से बचते किसी प्रसिद्ध पेंटर की दीवार पोतने वाले पेंटर से मुठभेड़ की। वह चित्रकार को भी अपने जैसा मामूली पेंटर समझ बैठता है और उसे एक रात में अच्छा पैसा कमाने का न्योता देता है। काम है किसी सूअर का माँस ब्लैक मार्केट करने वाले का ग़ैरक़ानूनी माल अँधेरी रात में पैरिस के दूसरे कोने पर पहुँचाने का। अनेक रोचक प्रसंगों के बाद प्रापर्टी के स्वामित्व के भिन्न तत्त्वोँ के अनेक विकल्प पैदा करते बिल्कुल अंत में मुख्य कथ्य उभरता है... ‘हम लोग ज़िंदगी में कुछ करने निकलते हैं। लेकिन दूसरों का बोझा ढोते ढोते उम्र गँवा देते हैं। हो सके तो लगातार सोचते रहो, कैसे और कब अपने लिए अपनी पसंद का काम करते, अपना निजी बोझा ढोते जी सकोगे...’
एक बार प्रसिद्ध निर्देशक वी. शांताराम ने बहुत देर अपने बारे में मुझ से बात की। हम चारोँ (मैं और मेरा परिवार) राजकमल स्टूडियो में पहली मंज़िल पर उन के ख़ासुल्ख़ास कमरे में थे... वहाँ तक पहुँचने के लिए शानदार लिफ़्ट थी, लाल मख़मल की गदीली दीवारोँ वाली, टेलिफ़ोन से लैस (मैं सोच रहा था-- एक मंज़िल तक जाने में टेलिफ़ोन की क्या ज़रूरत पड़ती होगी)। चारोँ ओर हाथ फैलाते शांताराम ने कहा—‘यह देखते हो, यह... मेरी अपनी कमाई का वैभव। यह सब मेरी माया है। अन्य फ़िल्म वाले मुझ से बहुत ज़्यादा कमा चुके हैं। लेकिन मुझ में और उन में एक मूल अंतर है। वे कमाने के लिए फ़िल्म बनाते हैं। मैं अपनी बात कहने के लिए, अपनी पसंद की कला सब के सामने लाने के लिए फ़िल्म बनाता हूँ। मैं ने कभी वह फ़िल्म नहीं बनाई, जो मार्केट की माँग पूरी करने के इरादे से बनी हो। लोगोँ को मेरा काम पसंद आया तो मुझ पैसा मिला। मैं ने वह पैसा सँभाल कर रखा। यह सब उसी का फैलाव है’।
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73 तक मुझे बंबई में दस साल हो चुके थे। फ़िल्म पत्रिका आरंभ करने से पहले मैं सरिता और कैरेवान में कला, मंच और फ़िल्म समीक्षाएँ करता रहा था। सरिता में मैं एक सामाजिक दृष्टिकोण से जुड़ा था। वह मेरा अपना घर था, मेरा स्कूल, मक़तब, गुरुकुल। माधुरी में पत्रकारिता में कुछ सीखने के नए अवसर मिले। राज कपूर, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, बी आर चोपड़ा, ताराचंद बड़जात्या जैसों से उन की कला, प्रेरणा, दृष्टिकोण समझने का दुर्लभ अवसर मिला। गीतकार शैलेंद्र जैसा बड़ा भाई मिला। नौशाद, शचिन देव बर्मन, ख़ैयाम, शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से जाना कि फ़िल्मी और शास्त्रीय संगीत में क्या मूलभूत अंतर है। मुझे लगता था कि मैं कुछ सार्थक जीवन बिता रहा हूँ। फिर भी सरिता के सामाजिक उद्देश्य से अपने को दूर पाता। तभी हिंदी में कला फ़िल्मों का युग आरंभ हुआ। मृणाल सेन जैसे लोग नई क्रांति लाते नज़र आए। मैं पूरी तरह उस आंदोलन से जुड़ गया। यहाँ तक कि उसे समांतर सिनेमा का नाम मैं ने दिया। माधुरी ऐसी फ़िल्मों की मुखपत्रिका बन गई। पर मैं यह भी महसूस करता था कि ये लोग नारेबाज़ी में खोए हैं। कहीं कुछ कमी है। ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर राज कपूर फ़िल्म बनाते हैं, तो अच्छी तो होती ही है, रोचक भी और सफल भी। अब्बास अपनी कहानी को फ़िल्माते हैं, तो परिणाम होता है ऊबाऊ, अरोचक और असफल। तीसरी क़सम बनने और पिटने की प्रक्रिया मैं ने देखी और समझी थी।
माधुरी व्यावसायिक फ़िल्म पत्रिका भी थी। हम अपने आप को फ़िल्मी गासिप से दूर रखते थे। माधुरी के पहले अंक – 26 जनवरी 1964 - के मुखपृष्ठ पर मीना कुमारी विराजमान थीं। अगला ही अंक छपते छपते समाचार मिला मीना जी कमाल अमरोही को छोड़ कर कवि गुलज़ार के घर चली गई हैं। अन्य पत्रिकाओँ ने गासिप से ढेरों पन्ने रंग डाले। हम ने एक पैराग्राफ़ केवल सूचना ही छापी।
फिर भी 1969-70 आते आते मुझे अजीब सी ऊब होने लगी थी। हर महीने के अंत में मैं सोचता कि 24 घंटे के दिन में मैं 36 घंटे व्यस्त रहता हूँ। इतनी व्यस्तता के बाद मेरी अपनी उपलब्धि क्या है? मात्र यही कि मैं ने दूसरोँ की उपलब्धियों असफलताओं के बारे में लिखा छापा। यह पार्टी अटैंड की, वह प्रीमियर देखा। क्यों, किसलिए, कब तक? यही सवाल मुझे मथने लगे। हर महीने। मन का हाहाकार तेज़ होता गया। निरर्थकता बोध ने मुझे ग्रस लिया।
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तब 25-26 दिसंबर 73 की रात, हम लोग किसी पार्टी से देरी से लौटे थे। नीँद नहीं आ रही थी। मन में वितृष्णा थी। देर देर तक यह जागना किस लिए? मन में बीस साल पुराना वह सपना फिर कौंधा... हिंदी में थिसारस का सपना। उस किताब का सपना जो मैं सोचता था कोई और बनाएगा। अभी तक किसी ने वह बनाई नहीं थी। हिंदी में उस की कमी अखरने वाली थी। उस रात मुझे कुछ ज़्यादा ही अखर रही थी। तभी विचार कौंधा—किसी ने वह किताब नहीं बनाई, तो मतलब है मैं ही वह किताब बनाने को पैदा हुआ हूँ। सपना मेरा है। मेरा सपना कोई ग़ैर क्यों पूरा करेगा! सफ़र मेरा है, मुझे ही तय करना होगा! रात भर मैं अनोखी प्रसन्नता से भरा रहा। और—
26 दिसंबर 1973 की सुबह बंबई की मलाबार हिल की ऊँचाई पर पानी की टंकी पर बने अनोखे हैंगिंग गार्डन में कुसुम से अपने सपने की बात की। बुलंदी पर खड़े हो कर बुलंद बातें करने का, बड़ी योजनाएँ बनाने का बिल्कुल सही समय होता है। एक तरफ़ खुला आसमान फैला था। नीचे कहीं चौपाटी का समुद्र था। मैरीन ड्राइव के धनी आवास थे। हम इन सब से ऊपर थे। वातावरण ने हमें नए रास्ते पर धकेलने की दुरभिसंधि कर रखी थी।
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पहले फेरे में मैं ने कुसुम से अपनी इच्छा की बात कही, अपनी बेचैनी बताई। मैं ने यह भी साफ़ कर दिया कि हो सकता है मुझे नौकरी छोड़नी पड़े। आर्थिक तंगियों का सामना करना पड़ सकता है। अकसर वह तुरंत‘हाँ’नहीं करतीं। उस सुबह मेरी बात सुनते ही उन्हों ने ‘हाँ’ कर दी। निश्चय ही उस दिन कुसुम की ज़बान पर सरस्वती विराजी थीं। हम दोनों इस अहसास से ओतप्रोत हो गए कि हम कोई बड़ा काम करने जा रहे हैं। हर चीज़ में हमें ऐडवैंचर पर निकलने का रोमांस और रोमांच दिखाई दिया। पर मेरी उम्र, मानसिकता और परिस्थिति डौन किहोटे (Don Quixote) जैसे ऐडवैंचरिज़्म की तो नहीं ही थी।
दूसरे फेरे में हम ने अपने पक्ष के प्लस पाइंटों को गिना। दिल्ली में माडल टाउन में हमारा घर था। पिताजी, अम्माँ, छोटा भाई सुबोध सपरिवार वहाँ रहते थे। मकान का कुछ हिस्सा किराए पर हुआ करता था। संयोगवश अब वह ख़ाली हो चुका था। हमें एक कमरा मिल सकता था। मकान में एक मियानी भी थी। वहाँ हम अपना किताब का काम जोड़ सकते थे।
तीसरे फेरे से हम ने माइनस पाइंट गिने। हमारे दो बच्चे थे, जो पढ़ रहे थे। हम जान बूझ कर उन के जीवन को दाँव पर नहीं लगाना चाहते थे, न ऐसा करने का हमें अधिकार था। हम पर कुछ कर्ज़ था। 71 में मैं ने ऐंबस्डर कार ख़रीदी थी। इंश्योरेंस आदि सब मिला कर 22 हज़ार पड़े थे। 16 हज़ार का ऐडवांस कंपनी से लिया था। बाक़ी 6 हज़ार तत्कालीन जनरल मैनेजर डाक्टर तरनेजा की सिफ़ारिश से बंबई में टाइम्स के वितरक फ़ीरोज़ बुकबाइंडर से कर्ज़ लिया था। वह सब पूरी तरह उतरने का समय था अप्रैल 78. उसी वर्ष बच्चे पढ़ाई की ऐसी स्टेज पर पहुँचने वाले थे कि हम शहर बदल सकें। सुमीत 12वीं पास कर लेगा। मीता 8वीं। बचत के नाम पर गाँठ में कुछ नहीं था। कुछ कंपनियों में हम ने पैसा सूद पर लगा रखा था। वह न के बराबर था। आत्मनिर्भर होने के लिए हमें कुछ करना होगा। यह अप्रैल 78 तक करना होगा।
चौथा फेरा इस की उधेड़बुन में बीता। हमें तत्काल ख़र्चे कम करने होंगे। अब तक छोटे मोटे ख़र्चोँ की फ़िक्र हम नहीं करते थे। अब हाथ खींचना होगा। बचत बढ़ानी होगी। घर रईसों की बस्ती नेपियन सी रोड पर ज़रूर था, क्योंकि कंपनी से मिला था। सन 45 से अभी तक मेरा जीवन कभी दफ़्तर से लिया ऐडवांस चुकाने में, कभी किसी ज़रूरी काम के लिए, जैसे माडल टाउन में मकान बनाने के वास्ते जो उधार लिए गए थे, वही उतारने में बीता था। अब कोई कर्ज़ा नहीं था। पर घर में साज़ सामान नहीं के बराबर था। सोफ़ा सैट तक नहीं था। हम ख़रीदने ही वाले थे। अब नहीं ख़रीदेंगे। इस तरह का कोई बड़ा ख़र्च अब नहीं करेंगे। बचत बढ़ाने के तरीक़े सोचे गए। प्राविडेंट के नाम पर तनख़्वाह का दस प्रति शत कटता था। फ़ैसला लिया गया कि अब से बीस प्रति शत कटवाया जाए। आज दफ़्तर पहुँचते ही पहला काम इस की अर्ज़ी देने का करूँगा। हमारा टार्गेट कुल दो लाख रुपए था। यह किसी तरह पूरा नहीं हो रहा था। जोड़ तोड़ कर के बात नहीं बनी, तो सोचा कि पूरी रक़म एक साथ हाथ में होना ज़रूरी नहीं है। ग्रेचुइटी से मिलने वाली संभावित राशि इस में जोड़ दी गई... चलो, जैसे तैसे दो हो जाएँगे। किसी तरह दिल्ली में थोड़ा बहुत काम भी कर लेंगे... शायद कहीँ से कोई अनुदान मिल जाए। फिर तो...
जहाँ तक अनुदान की बात है, मुझे तज़ुर्बा हुआ कि किसी से माँगो तो कुछ नहीं मिलता। माँगे मिले न भीख! अनुदान की कोशिश माधुरी में रहते ही शुरू कर दी थी। बड़ी सिफ़ारिशों के बावजूद कुछ नहीं मिला। मैं ने तय कर लिया कि अनुदान के पीछे भागने में समय बरबाद करना बेकार है। मिस्सीकुस्सी खा और ठंढा पानी पी कर जैसे तैसे गुज़ारा करके काम पर लग जाना ही बेहतर रहेगा।
यूँ भी मैं ने अनुमान लगाया था कि हम दोनोँ मिल कर किताब दो साल में बना लेंगे। दो साल गुज़ारने लायक़ क्षमता तो हम में होगी ही। बाद में तो रायल्टी मिलती रहेगी!
अब आया पाँचवाँ फेरा। इस में हम ने मन ही मन यह सोचा कि किताब के लिए क्या तैयारियाँ करनी होंगी, और कैसे अप्रैल 78 तक हम अपने आप को आवश्यक उपकरणों से लैस कर लेंगे। संदर्भ ग्रंथ ख़रीदने होंगे। अभी तो बँधी आय है, इस मद में पूरा ख़र्च करेंगे। काम कार्डों पर किया जाएगा। जैसे कार्ड चाहिएँ, वैसे मैं ने डिज़ाइन कर के छपवा लिए। नौकरी छोड़ने से पहले सुबह शाम किताब पर काम कर के देखेंगे। जब पूरा अनुभव हो जाए, हाथ सध जाए, तभी दिल्ली जाएँगे। निश्चित तारीख़ तक यह सब हो जाएगा, और सारा काम हमारी योजना के अनुसार होगा, दो साल में किताब तैयार होगी—हम ने पूर्णतः अपने को आश्वस्त और तैयार कर लिया। यहाँ तक भी जो कपड़े चाहिए होंगे वे नौकरी के होते ही ख़रीद लिए। (रामायण में भी कहा गया है कि 14 वर्ष के बनवास के लिए सीता को दरबार से 14 साड़ियाँ दी गई थीं।)
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उगता मायावी चालाक सूरज पेड़ों की फुनगियों को और हमारे दृष्टिकोण को सुनहरी किरणों से रंग रहा था। राह के गड्ढों और काँटों को अंधकार से अदृश्य कर रहा था। कभी कभी आदमी को ऐसे ही छलिया सूरजों की ज़रूरत होती है। ऐसे सूरज न उगें, तो नए प्रयास शायद कभी न हों। हमें सारा भविष्य सुनहरी लगने लगा। ख़ुशी ख़ुशी हम लोग माउंट प्लैज़ेंट रोड के ढलान से उतरते नेपियन सी रोड पर प्रेम मिलन नाम की इमारत में सातवीं मंज़िल पर 76वें फ़्लैट पर लौट आए। मैं दफ़्तर जाते ही प्राविडैंट फ़ंड की राशि बढ़वाने वाले आवेदन का मज़मून बनाने लगा...
(अहा जिंदगी - जनवरी 2010 - अंक से साभार)
लंदन में अरविंद आधुनिक इंग्लिश कोशकारिता के जनक डा. जानसन के घर के दर्शन करना नहीं भूले।
email: samantarkosh@gmail।com
अरविंदकुमार
सी-18 चंद्र नगर. गाज़ियाबाद 201011
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