(प्रविष्टि क्रमांक - 43) पुरस्कृत और सम्मानित होना नेताओं का ही नहीं लेखकों और कवियों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है और उनके इसी ज...
पुरस्कृत और सम्मानित होना नेताओं का ही नहीं लेखकों और कवियों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है और उनके इसी जन्मसिद्ध अधिकार के कारण बेचारे साहित्य के विद्यार्थियों को उन सभी पुरस्कारों और सम्मानों तथा पुरस्कृत और सम्मानित कृतियों और कृतिकारों का लेखा-जोखा रखना पड़ता है, उन्हें रटना होता है तथा याद रखना होता है। पहले यह काम थोड़ा सरल था क्योंकि कुल मिलाकर पाँच-सात पुरस्कार थे। गिने-चुने लेखक-कवि होते थे जिन्हें ये पुरस्कार मिलते थे। कई बार स्तरीय रचना के अभाव में किसी साल कोई पुरस्कार दिया ही नहीं जाता था तो कई बार साल-साल दो-दो साल प्रतीक्षा कराने के बाद पुरस्कार की घोषणा होती थी। इतनी अधिक उत्सुकता और प्रतीक्षा के बाद पुरस्कृत कृति और कृतिकार को भला कैसे भुलाया जा सकता है? पुरस्कार के नाम से रचनाकार का नाम और रचनाकार या रचना के नाम से पुरस्कार का नाम झट से याद आ जाता था पर आज वो बात कहाँ? दर्जनों, सैकड़ों में नहीं हज़ारों में है आज पुरस्कारों की संख्या। एक रचनाकार को ही नहीं एक कृति या एक कविता को भी कई-कई दर्जन पुरस्कार मिल जाते हैं आजकल।
कल एक पत्रिका में एक कहानी पढ़ रहा था। कहानी के साथ रचनाकार का परिचय ही नहीं चित्रा भी था और इसके बाद प्राप्त साहित्यिक सम्मानों की सूची भी। सारे सम्मान साहित्यिक थे एक भी असाहित्यिक नहीं था। कहानी छोटी थी पर साहित्य सम्मान सूची अत्यंत विस्तृत। सूची इतनी लम्बी थी कि ख़त्म होने को ही नहीं आ रही थी। मैं अत्यंत धैर्य और सम्मान के साथ इस साहित्य सम्मान सूची को पढ़ रहा था लेकिन मेरा धैर्य जवाब दे गया और सम्मान भी साथ छोड़ने को तत्पर हो गया। अब मैं पढ़ना छोड़ कर संख्याएँ देख रहा था। मेरी नज़र तेज़ी से गिनती गिन रही थी। कुल मिलाकर सड़सठ साहित्यिक सम्मान लेखक महोदय की झोली में आ चुके थे। सेंचुरी पूरी होने में थोड़ी सी क़सर बाक़ी थी जो उम्मीद है अब तक पूरी हो चुकी होगी। इस संख्या से क्रिकेट और साहित्य जगत में समानता और एकरूपता का भी पता चलता था। जिस प्रकार एक-एक बॉल पर चौकों-छक्कों की बरसात होती है और बीस-बीस ओवर्स के एक मैच में लंबी-लंबी गाड़ियों और सुपर डीलक्स फ्लैटों की बरसात उसी तरह साहित्य जगत में भी एक-एक कहानी या एक-एक कविता पर सम्मानों की झड़ी लग जाती है और एक-एक किताब पर डॉक्टरेट और डी लिट की मानद उपाधियों के अंबार।
मैं सम्मानों के प्रभाव में ऐसा खोया कि कहानी और लेखक दोनों को भूल गया। सच पूछो तो मुझे एसिडिटी हो रही थी। पुनः वापस ऊपर जाकर कहानी और लेखक का नाम देखा। पूर्णतः अपरिचित था मेरे लिए ये नाम। न कभी ये नाम ही सुना था और न कभी ये चेहरा ही देखने का सौभाग्य मिला था। अपनी अल्पज्ञता पर कुढ़न हुई। अपने आप को धिक्कार। सड़सठ साहित्यिक सम्मान पाने वाला लेखक और तुम उसके कृतित्व से तो छोड़ो उसके नाम से भी परिचित नहीं। ख़ाक साहित्य-प्रेमी बने घूमते हो। धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे साहित्य प्रेम पर। ख़ैर मन ही मन महान लेखक को इस संख्यातीत सम्मान पत्र संग्रह के लिए नमन किया और पुनः पुरस्कार और सम्मान सूची के विश्लेषण में व्यस्त हो गया।
विश्लेषण के क्रम में सबसे पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार की खोज की। मेरा विचार था कि ज्ञानपीठ पुरस्कार शायद ही मिला हो और मेरा विचार ठीक निकला। ज्ञानपीठ वालों को ये सौभाग्य अभी नहीं मिल पाया था। उसके बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार की खोज का काम शुरू हुआ पर दैवयोग से ये नाम भी सूची से नदारद था। सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार कब के बंद हो चुके हैं पर हो सकता है बंद होने से पहले ये पुरस्कार लेखक की झोली में आ गिरा हो इसी से सारा ध्यान इसी पर केंद्रित कर दिया लेकिन यहाँ भी असफलता ही हाथ लगी। मैं जिन पुरस्कारों के नामों से परिचित था उनमें से एक भी तो नहीं था इस सूची में। पुरस्कारों से संबंधित अपने संचित ज्ञान की यथार्थता पर ही नहीं उसकी सार्थकता पर भी मुझे शंका होने लगी।
किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले मैंने पुनः सारी सूची को ध्यान से देखा। सभी सम्मान लगभग अंतर्राष्ट्रीय स्तर के थे और सभी बड़े साहित्यकारों के नाम पर भी। अंतर्राष्ट्रीय साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का महादेवी पुरस्कार। मैं साहित्य अकादमी तक तो थोड़ा परिचित था लेकिन ये कोई उससे बड़ी अकादमी थी जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की थी और साहित्य के साथ-साथ संस्कृति को भी संभालती थी। इसी प्रकार मैं राजधानी स्थित हिन्दी अकादमी या अन्य राज्यों की साहित्य अकादमियों की तो थोड़ी बहुत जानकारी रखता था लेकिन लेखक को पुरस्कृत करने वाली अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी भाषा और साहित्य अकादमी से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ था। मुझे अपने अल्पज्ञान और अज्ञान पर सचमुच तरस आ रहा था। पाँच सात पुरस्कारों और पच्चीस तीस किताबों के नाम रटकर पुरस्कारों का विशेषज्ञ और बड़ा तीसमार खाँ समझने लगा था अपने आपको मैं लेकिन एक ही झटके में मेरी विशेषज्ञता धूल चाटने लगी थी।
इसके बाद इन अंतर्राष्ट्रीय अकादमियों और संस्थानों के बारे में जानने की इच्छा और तीव्र हो गई। मुझे ये जानकर हैरानी हुई कि ये सारे संस्थान दुनिया के बड़े-बड़े देशों जैसे रूस, अमरीका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, दक्षिणी अफ्रीक़ा, न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया आदि में न होकर हमारे महान भारत देश में ही स्थित हैं और वो भी महानगरों और बड़े शहरों में नहीं अपितु छोटे-छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों में। जिस काम को बड़े-बडे देश और महानगर अंजाम नहीं दे सकते उनको पूरा करने का बीड़ा उठा रखा है हमारे गाँवों और क़स्बों ने। जिस प्रकार सफेद दाग़ के इलाज के लिए कतरी सराय के शफ़ाख़ानों की शोहरत पूरी दुनिया में है उसी प्रकार साहित्य, संस्कृति और कला के उत्थान के लिए भारत के गाँवों और क़स्बों का योगदान अद्वितीय है। आगे और विश्लेषण करने पर पता चला कि ये सभी गाँव और क़स्बे ज़्यादातर भारतीय रेलवे के मार्गों पर स्थित हैं और उनमें से ज़्यादातर रेलवे के जंक्शन स्टेशनों वाले स्थानों पर। इससे एक बात और साफ़ हो जाती है कि हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए रेलवे की भी कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं है। यह अलग से शोध् का विषय है।
गाँधी जी ने कहा था कि असली भारत गाँवों में बसता है। मैं गर्व से कह सकता हूँ असली साहित्य प्रेमी गाँवों, क़स्बों और छोटे शहरों में बसते हैं और वो भी रेलवे के जंक्शन स्टेशनों के आसपास। गाँवों और क़स्बों के लोग हमारे अन्नदाता ही नहीं जो पूरे देश को अनाज, पफल-सब्ज़ियाँ और दूध् की आपूर्ति करते हैं अपितु साहित्य के लिए उत्प्रेरक तत्त्व सम्मान और पुरस्कारों के विश्वव्यापी वितरण का भार भी इन्हीं के कन्धें पर टिका है। जिस प्रकार एक व्यक्ति सैकड़ों लोगों के लिए अन्न, फल-सब्ज़ियाँ और दूध् पैदा कर रहा है उसी तरह कुछ व्यक्ति या संस्थान ऋ जो वन मैन बाउण्डरी पफोर्स की तरह एक ही व्यक्ति के कंधें पर स्थित हैं - पूरे देश के ही नहीं अपितु समस्त विश्व के साहित्यसेवियों को पर्याप्त मात्रा में सम्मान-पत्र उपलब्ध् करा रहे हैं और वो भी घर बैठे वीपीपी से बिल्कुल घरेलू लाइब्रेरी योजना की पुस्तकों की तरह।
आइये एक बार फिर अपने आदरणीय लेखक के सम्मानों की ओर ध्यान केंद्रित करें। हमारे सम्मानित लेखक को एक ही संस्थान से कई-कई बार सम्मानित किया जा चुका है। जिस प्रकार भारत सरकार देश के नागरिकों को और कभी-कभी विदेशियों को भी भारतमाता की सेवा के लिए पहले पद्मश्री पिफर पद्मभूषण और पद्मविभूषण तथा अंत में भारतरत्न से नवाज़ती है उसी प्रकार हमारे साहित्य सेवी संस्थान भी छोटे सम्मानों से प्रारंभ कर बड़े सम्मानों तक पहुँचते हैं जैसे साहित्यश्री के बाद साहित्यभूषण और साहित्यविभूषण तथा अंत में साहित्यरत्न। हमारे फिल्मकार सत्यजीत रे ने पद्मश्री से भारतरत्न तक पहुँचने के लिए पूरा जीवन लगा दिया। भारतरत्न से पहले ऑस्कर भी लेना पड़ा लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इतना अंधेर नहीं है। साहित्यश्री से साहित्यरत्न तक चारों सम्मान आप चाहें तो एक ही वीपीपी से मँगवा सकते हैं।
इनके पास इससे बड़े पुरस्कार भी उपलब्ध् हैं। हमारे यहाँ भारतरत्न से बड़ा पुरस्कार नहीं लेकिन ये संस्थान आपको नोबल और ऑस्कर की टक्कर के पुरस्कार दिला सकते हैं। एक नहीं दर्जनों नोबल और ऑस्कर की टक्कर के पुरस्कार इनके यहाँ साल भर तैयार मिलते हैं अथवा ऑर्डर पर शीघ्र तैयार कराये जा सकते हैं। एक हमारा भारतरत्न है दिया तो दिया नहीं दिया तो सालों नहीं दिया। ये तो भला हो आडवानी जी का जिन्होंने याद दिला दिया कि सरकारी दफ्रतरों में काम करने वाले अत्युत्साही कर्मठ कर्मचारियों की मेडिकल व अर्नड लीव की तरह ही भारतरत्न भी कई सालों से पड़ा लैप्स हो रहा है।
कई लोग दबी ज़बान से ये भी कह रहे हैं कि जब भारतभूमि पर सम्मानित करने को कोई रत्न है ही नहीं तो किसे भारतरत्न से सम्मानित करें। अब दक्षिणी अफ्रीक़ा से कहाँ तक पकड़-पकड़ कर लाएँ भारतरत्न देने के लिए बन्दे। वैसे पड़ोसी मुल्क़़ों से कोशिश की जा सकती है। आडवानी जी न जाने क्यों वाजपाई जी का नाम घसीट रहे हैं भारतरत्न के लिए। अरे वाजपाई जी को तो देर सवेर मिल ही जाएगा। क्या कहा? आडवानी जी वाजपाई जी की सिफ़ारिश करेंगे तो कोई न कोई आडवानी जी की सिफ़ारिश भी कर ही देगा देर सवेर। अच्छा तो ये बात है? वैसे मिस्टर जिन्ना के बारे में क्या ख़याल है आडवानी जी? आप तो वैसे भी उनके प्रशंसक हैं। जब पाकिस्तान मोरारजी भाई को निशाने-पाकिस्तान से नवाज़ सकता है तो हम क्यों नहीं उनके एक बंदे को एक अदद भारतरत्न पेश कर सकते? आडवानी जी आपको तो इस मामले में फ़़राख़दिली दिखलानी ही चाहिए। ख़ैर इस मामले में साहित्य में कोई क़हता नहीं है। भारतरत्न के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन साहित्यरत्नों की कमी नहीं और न ही उनके लिए पुरस्कारों और सम्मानों की।
मेरी एसिडिटी और ज़्यादा बढ़ गई है। इतने बड़े-बड़े सम्मान यूँ ही लुटाये जा रहे हैं और मेरी झोली खाली पड़ी है। मेरे मुँह में भी पानी भर रहा है। काश मुझे भी एक आध दर्जन सम्मान-वम्मान मिल पाते! मैं भी तो बरसों से क़लम घिस रहा हूँ। मुझे क्यों कोई सम्मानित नहीं करता? क्या मुझे भी आडवानी जी की तरह पहले दूसरे लोगों की सिफ़ारिश करनी पड़ेगी तब जाकर कोई मेरी सिफ़ारिश करेगा? नहीं ऐसा नहीं है। आज यदि मेरे पास सम्मान-पत्रों की कमी है तो इसमें मेरी ग़लती है। मैंने ही इनकी क़दर नहीं की। जब मैंने इनकी क़दर नहीं की तो ये मेरी क़दर क्यों करते?
मुझे याद आ रहा है वो दिन जब पैंतीस साल पूर्व पहली बार मेरी रचना छपी थी। मैं बहुत ख़ुश था। और उससे भी ज़्यादा ख़ुशी तब हुई थी जब एक अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संस्थान का पत्र मुझे मिला था। पत्र में लिखा था कि संस्थान मेरी साहित्यिक सेवाओं के लिए मुझे सम्मानित करना चाहता है। उन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचान लिया था लेकिन मुझे ही विश्वास नहीं हो रहा था और इसीलिए मैंने अपेक्षित राशि का एमओ तथा संलग्न प्रपत्र भरकर भेजा ही नहीं। उसके बाद तो सम्मान देने वाले संस्थानों के पत्रों की झड़ी लग गई। न जाने सम्मानित होने के कितने प्रस्ताव मुझे मिले लेकिन मैं हर बार चूक गया पृथ्वीराज की तरह। यदि समय पर न चूकता तो आज मैं भी शतक बना चुका होता लेकिन अब भी देर नहीं हुई है। देर आयद दुरुस्त आयद। हे अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संस्थानों के प्रमुखों! मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ और आप सबसे निवेदन करता हूँ कि आप मुझे पुनः प्रपत्र भिजवाएँ। मैं आपको एमओ भिजवाता हूँ और आप मुझे सम्मान-पत्र भिजवाएँ।
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सीताराम गुप्ता,
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फोन नं. 011-27313954 srgupta54@yahoo.co.in
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