आह क्या दिन थे वे भी, जब लड़ाई और मोहब्बत अक्सर हसीन लोग मोहल्ला छोड़कर किया करते थे। मगर समय बदला और इतनी तेजी से बदला कि आजकल...
आह क्या दिन थे वे भी, जब लड़ाई और मोहब्बत अक्सर हसीन लोग मोहल्ला छोड़कर किया करते थे। मगर समय बदला और इतनी तेजी से बदला कि आजकल लड़ाई और मोहब्बत के हालात मोहल्ला पड़ोस से ही जन्म लेने लगे हैं। बाइबल के अनुसार अच्छा पड़ोसी मिलना बहुत मुश्किल है, मगर इस इक्कीसवीं सदी में तो मोहल्लादारी ही करीब-करीब खत्म हो रही है। कही कोई छोटा-मोटा टुकड़ा दीखता भी है तो जात-पांत, भाई-भतीजावाद या राजनीति उस मोहल्ले की आपसी सामंजस्यता की छीछालेदार कर देती है। बड़े शहरों से तो मोहल्लेदारी कभी की विदा ले चुकी है, मगर अब कस्बों में भी मोहल्लेदारी और मोहल्लेदारों को दिन दहाड़े चिराग लेकर ढूंढ़ना पड़ता है।
वे दिन गये जब मोहल्ले में भाभी, काकी, चाची, मौसी, बुआ, चाचाजी, ताऊजी, बासा, मामा आदि हुआ करते थे। उनमें आत्मीयता छलकती रहती थी। मोहल्ले के हर बुजुर्ग को हर छोटे बच्चे को डांटने, फटकारने का हक हुआ करता था। पड़ोसन को किसी बच्चे को बाजार में दौड़ाकर सामान मंगा लेने का अधिकार प्राप्त था। आज तो....माफ करिए भाई साहब, आप अपने छोटे भाई के बच्चे या पड़ोसी की बच्ची को प्यार से समझा भी नहीं सकते। उसे प्रताड़ना देना, डांट पिलाना तो अपने आपकी शामत बुलाना है। यह कैसी आधुनिकता और प्रगतिशीलता है ?
एक जमाना हुआ करता था जब गली पड़ोस के लोग चौपाल या किसी बुजुर्ग के घर बाहर बैठकर सुख-दुख की बातें करते थे। आड़े टेढ़े वक्त में मदद करते थे। महिलाएं किसी बुआ, चाची को घ्ोरकर बतियाया करती थीं। अब तो अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग। सोचता हूं इतनी जल्दी यह आत्म केन्द्रित प्रगति क्यों हुई और यह घर घुस्सुपना आगे क्या सितम ढाने वाला है। जमाने का रंग इतनी तेजी से क्यों बदल रहा है। हर कोई कहां भागा जा रहा है। बीकानेर की पाटा संस्कृति या गांवों की चौपाल संस्कृति या कस्बों के मन्दिरों के बाहर लगने वाली महफिलें क्यों तेजी से उजड़ रही हैं। मोहल्ले क्यों खत्म हो रहे है। कभी किसी मोहल्ले में आई बारात या मेहमान पूरे मोहल्ले का मेहमान हुआ करता था और आज खुदा झूठ न बुलवाये किसी का पता पूछने पर ऐसी हिकारत का सामना करना पड़ता है कि बस तौबा। सामान्यतया मोहल्ले वाले पता पूछने पर ना में सिर हिला देते हैं, जबकि पहले आदर के साथ संबन्धित व्यक्ति के घर तक पहुंचाया जाता था। ज्यादा वक्त नहीं बीता दोस्तों मगर मोहल्लेदारी की भावना बड़ी तेजी से खत्म हो रही है।
यदाकदा मोहल्ले में कोई लड़ाई-झगड़ा होता तो उस समय बुजुर्ग बात को सम्भाल लेते, मगर आज बात-बात में सिर फोड़ने को आमादा लोग, पुलिस थाना और कचहरी, क्या यही आधुनिकता है। कहा नहीं जा सकता क्या होगा अगली सदी में चरण कमल रखते।
अब किसी मोहल्ले में प्रेम के दो बोल सुनने को तरस जाते हैं लोग, पहले बुजुर्ग लोग गांव, गलियों में बतियाकर अपना समय गुजार लेते थे। पड़ोस के या मोहल्ले के हर बच्चे को लाड लड़ा लेते थे, ख्ोल लेते थे। किसी विधवा या अभागन का निर्वाह पहले हो जाता था, मगर आज ये किसी सामाजिक क्रांति है, जहां मनुष्य- मनुष्य नहीं समझा जा रहा।
मोहल्ले के एक घर की गमी, खुशी, मुंडन संस्कार, शादी ब्याह, तीज त्यौहार, गणगौर, संझा सभी के साथ थे। अब तो दूरदर्शन संस्कृति के कारण सब नष्ट होता जा रहा है।
तीज, गणगौर, छठ आदि के त्यौहार मोहल्ले में मिल बैठकर मनाये जाते थे। मगर आज होली और दिवाली तक लोग अपने में सहमे सिमटे बैठे रहते हैं। इर्द हो या दिवाली, मोहल्ला सद्भाव और सामाजिक सरोकार तो समाप्त हो ही गये हैं और आप पूछेंगे, इसका कारण, तो कारण आप और मैं और हम सभी हैं।
पहले मोहल्ले में हर बड़े को हक था कि वो अपने से छोटे को गलत काम करते देख्ो तो उसे रोके, समझाए, डांटे या मारे। इस अधिकार का निसंकोच प्रयोग किया जाता था और छोटा कभी उस बड़े की शिकायत कहीं नहीं करता था। मगर आज, यदि आप ऐसा कर बैठे तो अपनी सलामती के लिए ईश्वर से दुआ भी मांगे। अक्सर मोहल्ले में एकाध बुआ, ताऊ ऐसे होते थे जिनसे सब डरते थे। पढ़े लिखों का अलग सम्मान होता था, मगर आज पारिवारिक विघटन के कारण सब कुछ नष्ट सा हो गया है। हर गली मोहल्ले के मुहाने पर स्थानीय दादाओं का राज चलता है। बच्चियों, महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल हो रहा है, किस युग में जी रहे हैं हम, कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? कहां गये वो दिन जब मोहल्ले की नाक व्यक्तिगत नहीं सामूहिक नाक हुआ करती थी।
देखते-देखते कैसा रंग बदला है। सब कुछ काला स्याह हो गया है। लोग अपने आप में सिमट कर पैसे के पीछे भागे जा रहे हैं। सारे नाते-रिश्तों को ताक पर रख दिया गया है। अब उन्हें पड़ोस से क्या लेना देना है। महानगरीय सभ्यता महानगरों से चलकर गांवों तक पहुंच गई है। एक ही भवन के किरायेदार एक-दूसरे को नहीं पहचानते। आदमी का अस्तित्व समाप्त हो गया है। सम्बन्धों की अपेक्षाएं समाप्त हो गई हैं और मोहल्लेदारी मर गई है।
इस मरी हुई मोहल्लेदारी को प्राणवायु देने की कोशिश करें, शायद मोहल्लेदारी भी जी जाए। आप कन्नी क्यों काट रहे हैं, कीजिए कुछ इसके लिए।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002 फोनः-2670596
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यश्वंत जी ने समाज के बदलते रूप पर एक लम्बे समय से चली आ रही चिंता को अपने शब्दों मे व्यक्त किया है। पर क्या इस 'व्यक्तिवाद' को आधुनिकता कहना उचित होगा? समय बदलने के साथ साथ मुहल्लों का स्थान 'कालोनिया' लेती जा रही है। जहाँ मुहल्लों मे लोग पीढीयों से साथ मे रहते थे 'विस्तृत' परिवार सरीखा महौल बन जाता था। आज नौकरी की तलाश मे हम शहर शहर भटक रहें हैं -- किराये के मकानों मे रहते, खानाबदोश जिनद्गी गुजारते साल दो साल साथ रह जायें वही बहुत है पीढियों की तो बात ही मेबानी है -- अनतरजाल मे मुहल्ले बन गये हैं।
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