''पाखी' के अगस्त, 2009 के अंक में आलोचक और विवादक डॉ. नामवर सिंह ने अपने साक्षात्कार में दो मुख्य बिंदुओं पर अपनी बात केन्द्र...
''पाखी' के अगस्त, 2009 के अंक में आलोचक और विवादक डॉ. नामवर सिंह ने अपने साक्षात्कार में दो मुख्य बिंदुओं पर अपनी बात केन्द्रित की है। दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श। ''नये लेखक उखड़े हुए लोग हैं।'' यह जुमला तो कहा ही है, दलित लेखकों को भी एक तरह नकार सा दिया है। ''कफ़न'' उनकी पसंदीदा कहानी है।
डॉ. नामवर सिंह उन्हीं को ठीक-ठाक दलित साहित्यकार मानते हैं, जो ब्राह्मणी-सामंतवाद का प्रत्यक्ष या परोक्ष पोषण करता हो। उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि का उदाहरण भी दिया है। इसका एक दीगर हेतु है। वह यह कि वाल्मीकि की कहानियों में दलित पात्रों को मरवा देना, उनके घुटने टिकवा देना, उन्हें पागल करा देना, उनसे मंदिर बनावा कर पुजारी द्वारा अपमानित कराना, हाथ पर तपे लोहे की सुर्ख कुश रखवा कर बेरहमी करवाना, वाल्मीकि जाति से इतर दलित जाति को निशाना बना कर लिखना, दलित स्त्री को कुलटा रूपापित करना जैसे भाव हैं। ये चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का मर्म है, जो उनकी कहानियों का खाद-पानी है। डॉ. नामवर सिंह अपने लेख में दोमुंही बात करते हैं। साक्षात्कार के पृष्ठ 60 पर वे दलित साहित्य की चर्चा में ओमप्रकाश वाल्मीकि को ठीक-ठाक लेखक कहते हैं, लेकिन पृष्ठ 61 पर वे अपनी बात से फिर जाते हैं। ''हम तो हिन्दी की सभी कहानियों को एक समझ कर पढ़ते हैं। लिखने वाला कौन है, हम उसका नाम नहीं देखते।''
अपने दमखम पर पाखण्ड का प्रतिकार करने वाले लेखक उनकी आंख की किरकिरी हैं। खुद बीते एक उदाहरण को यहां रखने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
एक समय राष्ट्रीय सहारा समूह का 'सहारा समय' साप्ताहिक निकलता था। डॉ. सिंह उसके सिपहसालार या सलाहकार जैसे कुछ रहे। सहारा समय द्वारा एक अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता का अयोजन किया गया। सहारा समय की विज्ञप्ति के अनुसार यह अब तक की सबसे बड़ी प्रतियोगिता थी, जिसमें देश भर से 1506 कहानियां सम्मिलित हुईं। प्रतियोगिता में मेरी कहानी ''चपड़ासन'' छठे स्थान पर रही और 2100 रूपये का सांत्वना पुरस्कार प्राप्त हुआ। पुरस्कृत कहानियों का ''कथा चयन'' नाम से संकलन छपा। इसका संपादन डॉ. नामवर सिंह ने किया था। 2 जून, 2005 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत द्वारा पुरस्कारों के वितरण के साथ ही इस संग्रह का भी विमोचन किया गया था। मेरी कहानी छठे स्थान पर रही, लेकिन कथा चयन का संपादन करते डॉ. सिंह ने उसे अंत में रख दिया। अपने विरोध स्वरूप जब मैंने इस ओर उनका ध्यान खींचा तो वे खिसियाने लगे। उनकी खिसियाहट तले जात की मूंछें फरफरा रही थीं, जैसे।
दलित
25-26 जनवरी, 2001 को चण्ड़ीगढ़ के डॉ. अम्बेडकर स्टडी सेंटर में अन्तर्राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलन का अयोजन हुआ था। सम्मेलन में जब ''दलित लेखक कौन'', पर चर्चा चली तो हर लेखक एक मोर्चे के रूप में प्रकट हुआ। ज्यादातर लेखकों की पीड़ा यह थी कि 'दलित' शब्द में दलित या दलन के साथ-साथ दासत्व की बू भी आती हैं। इस शब्द में अपमान और अस्मिताहंता दोनों ही भाव हैं। दलित 'कुचला हुआ' का पर्याय भी है। दलित का भाव मन में रख कर चेतना का भाव आ ही नहीं सकता है। दलित जैसी कुंठित सोच के चलते कोई भी लेखक हाशिए पर रहे लोगों का हित नहीं कर पायेगा। अतःइस शब्द से इतर कोई अन्य शब्द प्रयुक्त होना चाहिए।
बात यह भी चली कि क्यों न दलित साहित्य को अम्बेडकरवादी साहित्य में परिणत कर लिया जाये, क्योंकि डॉ. अम्बेडकर दलित वर्ग के प्रेरणा-स्रोत के साथ संघर्ष के प्रतीक भी रहे हैं। यह उन्हीं की देन है कि शूद्र तबका शिक्षित हो कर मान, सम्मान और स्वाभिमान का जीवन जीने लगा है। उसके जज्बा और जिहवा दोनों क्रियाशील हुए हैं।
दलित साहित्य की अवधारण के अनुसार सम्मेलन में दलित समाज से आये लेखकों को ही शरीक होना था, लेकिन एक गैर दलित को भी अनुनय पूर्वक आमंत्रित किया गया था और वे शामिल हुईं भी। वह थीं, दलित साहित्य के विकास के लिए अपूर्व कार्य करने वाली साहित्यकार श्रीमती रमणिका गुप्ता। कहना होगा कि उन्होंने अपने रमणिका फाण्उडेशन के माध्यम से दलित साहित्य के क्षेत्र में जितना कार्य किया है, उतना कार्य तमाम दलित साहित्यकार मिल कर भी नहीं कर पाये हैं।
श्रीमती रमणिका गुप्ता के दलित साहित्य के योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा हर वक्ता ने की। उन्हें दलित साहित्य का साधक बताया गया। 'शवयात्रा' कहानी को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि की बड़ी थू-थू हुई। एक वरिष्ठ लेखक समीक्षक तो उनको दलित एकता में फूट डालने वाला लेखक करार देते हुए यहां तक कह गये ''वाल्मीकि मनु के मिशन को ही आगे बढ़ा रहे हैं।''
इस बीच मैंने एक कागज पर एक प्रश्न लिख कर मंच संचालक के पास भिजवा दिया। प्रश्न था -'दलित साहित्य की स्थापना में महती भूमिका अदा करने वाली श्रीमती रमणिका गुप्ता दलित साहित्यकार हैं या नहीं? यदि नहीं तो क्यों नहीं? ओमप्रकाश वाल्मीकि जिन्हें दलित एकता को तोड़ने वाला तथा मनु-मिशन को आगे बढ़ाने वाला लेखक बताया गया है। वह दलित साहित्यकार हैं या नहीं? यदि हैं, तो क्यों?
मंच संचालक द्वारा यह प्रश्न जैसे ही माइक से पढ़ा गया, समूचा सभागार सकते में आ गया था। मंचस्थों को सांप सूंघ गया था। इसका माकूल जवाब सुनने के लिए श्रोताओं में जिज्ञासाएं थीं। आयोजकों के लिए यह बात आयोजन से भी भारी पड़ गई थीं।
समीक्षक डॉ. एन सिंह उठे। उन्होंने माइक पर अपना वहीं परंपरागत और बचकाना राग अलापा, ''क्योंकि रमणिका जी वणिक है, अतः वे दलित साहित्यकार नहीं हैं। इसके विपरीत ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित हैं, अतः दलित साहित्यकार हैं। '' उनके इस जवाब से श्रोता संतुष्ट नहीं हुए। उठती आवाजों से मंच संचालन में व्यवधान पैदा होने लगा तो स्वयं रमणिका जी उठ कर माइक पर गईं और उन्होंने डॉ. एन. सिंह का समर्थन करते हुए कहा ''मैं वणिक जाति में जन्मी हूँ, इसलिए दलित साहित्यकार नहीं हूँ। पीछे से किन्हीं महानुभाव की आवाज आई, ''जब आप दलित साहित्यकार नहीं है, तो आप अपने लिखे को दलित साहित्य क्यों कहती हैं?'' आवाज बहुत अहम थी।
पिछले दिनों एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सवाल सामने आया है।
समीक्षक उमाशंकर चौधरी ने ''समकालीन भारतीय साहित्य'' द्विमासिकी में मेरे कहानी संग्रह ''हुकम की दुग्गी'' की समीक्षा करते हुए यह सवाल खड़ा किया है। श्री चौधरी समीक्षा के अंत में उपसंहार के तौर पर लिखते हैं - सांभरिया अपनी कहानियों के लिए जब अपनी संवेदना को विस्तार कर दलितों की समस्या से बाहर के समाज को देखते हैं, तो वे लेखक के तौर पर जहां एक ओर प्रशंसा के पात्र बनते हैं, वहीं एक प्रश्न अवश्य खड़ा कर देते हैं। जब दलितों द्वारा रचे गये को ही सिर्फ दलित साहित्य कहा जाएगा, तो भला दलितों द्वारा विभिन्न समस्याओं पर रची गईं इन रचनाओं को क्या कहा जाएगा ?'' (अंक 113, पृष्ठ 248)
ऊपर उठे दो अदद सवालों के बीच फिर वही सवाल उठ खड़ा हुआ है -''दलित लेखक कौन?''
दलित का मौलिक अर्थ है - ''दलन-उत्पीड़न-शोषण-कुचला-चींथा हुआ। वह वंचित दलित सर्वहारा, जो दलित्व भोग रहा है, जो ब्राह्मणी व्यवस्था या सामंती प्रवृत्ति का शिकार हैं, जो आज भी गुलामी का एहसास कर रहा है, जो समाज की मुख्यधारा से नहीं जुड़ा है, जो धरती बिछा कर सोता है और आसमान ओढ़ कर नींद लेता है। जिसके अंतस में 'स्व' के प्रति चेतना जाग्रत नहीं हुई है।''
मौलिस वर्थ के मराठी-अंग्रेजी शब्दकोश (1831) में दलित का अर्थ - ''टूटा हुआ अथवा टुकड़ों में परिवर्तित'' बताया है। अमरीकी इतिहासकार जिलियर कहती हैं - ''इस शब्द में प्रदूषण कर्म एवं प्रामाणिक जाति श्रेणी की अस्वीकार्यता निहित है।''
साहित्य का सीधा सरोकार रचनाधर्मिता से होता है। लेखक जिस परिवेश को निरखता-परखता जीता है, उसी को अपने पात्रों के माध्यम से रचना के रूप अख्तियार करता है। रचना में जीवंतता कितनी है, यह शिरोधार्य होता है। माना दलित पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियों पर एक प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। प्रतियोगिता में आई प्रविष्टियों से कथाकारों के नाम हटा कर कोड दिये जाते हैं। विधागत प्रतिमानों के तहत जब कोड खुलेंगे और परिणाम आएंगे तो अचरज होगा। अपनी अपरिपक्वता, अधपक भाषा-शैली, गाली-गलौच के पुट, टूटते-बिखरते वाक्यों और कथ्य का अभाव रहते कितने ही दलित कथाकार पीछे छूटते नजर आएंगे। इसके विपरीत प्रतियोगिता की मैरिट में दलितेतर लेखक होंगे। इस कसौटी पर दलित लेखक और गैर दलित लेखक का मुद्दा स्वतः कब्र की ओर बढ़ जाता है।
बकौल डॉ. शुकदेव सिंह -''दलित लेखकों के दलित विश्वास के आगे कई प्रश्न हैं। क्या वे लिखते समय दलित हैं?'' दलित यंत्रणा में हैं? उनका संबोधन, पाठक समुदाय, केवल दलितों का ही है?''
(उतरप्रदेश/दलित साहित्य/दलित विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित संघर्ष/पृष्ठ 17)
राजेन्द्र यादव दलित साहित्य के पक्षधर रहे हैं। वे जन्मना दलित को ही दलित लेखक का श्रेय देते थे। लेकिन दलित लेखकों की मनोदशा, छपास की भूख और स्वार्थवृत्ति को देखकर वे फिर गये हैं - ''यहां जो दलित लेखक है, वे अपने समाज से कट गये हैं। हम इसे सवर्ण में, मध्यवर्ग में शामिल होना ब्राह्मणीकरण भी कह सकते हैं। जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं, श्योराज सिंह बेचैन हैं या मोहनदास नैमिशराय हैं, शिक्षित या जागरूक होने की वजह से शहर में आ जाने पर जीवन स्तर बदल जाने की वजह से इनका रहन-सहन सोच का अपने समाज से कोई संबंध नहीं रह गया है। वे अब हमारे बीच में आ गये हैं और अपनी दलित अस्मिता के साथ वे अपने आप को हमसे स्वीकृत कराने के संघर्ष में लगे हुए हैं। यह प्रक्रिया बहुत स्वाभाविक है। जब कि महाराष्ट्र में यह चिंता कम है। वे अपने ढंग से अपनी वजह से बढ़ते हैं। आप स्वीकार करें, ना करें। जब आपको लगेगा कि अब अनदेखा करना मुश्किल है, तो स्वीकार करेंगे ही, इधर यहां हिन्दी में स्वीकृत कराने का आग्रह आक्रामक तेवर के साथ है कि हम दलित लेखक हैं, आप हमें स्वीकार क्यों नहीं कर रहें? यहां लेखक होना पीछे है, दलित होना पहले।''
(अपेक्षा/जुलाई-सितंबर/2003/पृष्ठ 73)
राजेन्द यादव की बात में दम है, दलित लेखक अपने-अपने समाज में क्रीम की तरह हैं। समाज से थीमें चुराने के अलावा उनके पास समाज को देने के लिए कुछ भी नहीं है। पिछले दिनों मैं दिल्ली गया था। वहां एक दलित साहित्यकार ने जो बात बताई उसे सुन कर रोंगटे खड़े हो गये। एक दुखद आश्चर्य हुआ। बात यह थी कि इन दिनों ओमप्रकाश वाल्मीकि ने वाल्मीकि बस्तियों में यह कह कर जाना बंद कर दिया बताया कि जिस गंदगी से मैं निकल आया हूँ, उसमें क्यों जाऊं। यह सोच क्या संकेत देती है? दलित समाज में पैदा होकर दलित समाज से घृणा करने वाला लेखक, दलित लेखक है?
सृजन तात्कालीकता से जुड़ा एक पहलू है। कलमनिगार की मनोवृत्ति में बदलाव स्वाभाविक है। रचना की बढ़ती संख्या के साथ प्रतिबद्धता क्षीण होती है। लेखक का मिजाज नदी के कलकल करते जल जैसा प्रवाहवान होना चाहिए, न कि झील-झेरे में ठहरे सड़े गंधाते पानी सा।
रचना और रचनाकार को दो भिन्न दृष्टियों से देखने की नासमझी कई बार संपादक भी कर जाते हैं। कथादेश के अगस्त 2002 में छपी दूधनाथसिंह की कहानी ''निष्कासन'' और अखिलेश की कहानी ''ग्रहण'' को पत्रिका के संपादक ने दलित पृष्ठभूमि पर लिखी ''दलित कहानी'' बताया है। गोया ये दोनों ही कहानियां सामंतवादी प्रवृत्ति की वाहिका है। सवर्ण होने के कारण इन दोनों लेखकों को दलित कथाकार नहीं कहा गया है जबकि वे यहां दलित कहानी के प्रतिनिधि बताये। साहित्यकार सवर्ण! सृजन दलित! मानो बाप-बेटे की जुदा दो जीन हों। यहां लिंबाले की ''अक्करमाशी'' याद आती है।
आज वैचारिक प्रदूषण से समूचा साहित्यिक परिवेश गंधाया हुआ है। कटुता बढ़ी है। इस कटुता के पीछे दलित साहित्य और सवर्ण साहित्य की सरहदें जिम्मेदार हैं। दोनों वर्गों के लेखकों के बीच एक द्वेषात्मक द्वंद्व परिलक्षित हो रहा है। दलित लेखक दुखी हैं कि उनके लिखे को सवर्ण समीक्षक कहीं कोट नहीं करते हैं। इनके विपरीत सवर्ण समीक्षकों की मान्यता यह है कि इन लेखकों में विधा गत पकड़ अभी नहीं है। गांभीर्य अपेक्षाकृत कम है, शब्दानुशान की समझ थोड़ी बहुत हैं।
दलित समाज से आये जितने भी दलित लेखक हैं, जिन्होंने शोषक व्यवस्था के दंश को नजदीक से देखा जरूर है, भोगा कम है। वे अपने बाप-दादा, परिवारजन या गली-मोहल्ले के दलित्व को ही कूत-कात रहे हैं। यही उनके दलित विमर्श और दलित प्रश्न का आधार है। अपने अधपके ज्ञान के चलते वह ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण तथा सामंतवाद और ठाकुर के अंतर को भी नहीं समझ पाया है। ब्राह्मणवाद के नाम पर ब्राह्मणों को और सामंतवाद के नाम पर ठाकुरों को गरियाये जा रहा है।
दलित वर्ग अपने समाज के इन कथित लेखकों से जार-जार दुखी हैं। दलित समाज का दुख यह है कि मनु प्रणीत मनुस्मृति में जो सूक्त ;क्पतमबजपवदेद्ध हैं, व्यवस्था उनका क्रियान्वयन ;प्उचसपउमदजंजपवदद्ध करती रही है। मूलरूप से यह क्रियान्वयन ही ब्राह्मणवाद की प्राणवायु है। दलित लेखक अपनी कलम से उस क्रियान्वयन की फोटो उतार रहे हैं। दलितों द्वारा की गई इस फोटोग्राफी से मनुवादी व्यवस्था बाग-बाग है।
तीन हेतु हैं, जो दलितों की दुर्दशा का मूल हैं। एक, ब्राह्मणवाद द्वारा आविष्कृत मिथक, जिनसे दलित वर्ग ज्यादा आहत और आतंकित है। दो, शास्त्रों को शस्त्र के रूप में प्रयुक्त दिया जाता रहा है। तीन, कथित संस्कृति, जिससे समूचा दलित वर्ग अभिशप्त है। दलितों की दुर्गति के लिए जिम्मेदार इन तीन, तीखे हथियारों का मुकाबला स्वानुभूति, सहानुभूति और समानुभूति के बेजा तकरें से करने में दलित लेखक विभोर हैं।
डॉ. शिवकुमार मिश्र अपने लेख-''दलित लेखनः विपथित विमर्श की दिक्कतें'' में लिखते हैं- 'खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि दलित लेखक-विचारकों और उनके पक्षधर, उनके गैर दलित समानधर्माओं की शिरकत में इस विमर्श को जितने सकारात्मक आयामों पर गतिशील होना था, जिस शक्ति और ऊर्जा के साथ यथास्थितिवाद के खिलाफ खड़ा होना था, वैसा होना तो दूर, वह विमर्श उनके बीच कुछ इस तरीके से चल रहा है, गोया यथास्थितिवादी नहीं, वे स्वयं एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी हों।
(कथाक्रम/दलित विशेषांक/नवम्बर 2000/पृष्ठ 39)
दलित लेखकों ने जो लिखा है, वह या तो आत्मवृत हैं या कहानियां हैं। कहानियां आत्मवृतों की ही आयातें हैं। कहानियों में इतना उत्पीड़न, असोच और बदनाम है कि यह कहानियां दलित कहानी न लग कर या तो ब्राह्मणवादी शंख लगती हैं या फिर सामंतवादी। क्योंकि इन रचनाओं में या तो ब्राह्मणवाद हावी रहा है अथवा सामंतवाद। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि दलित लेखन, दलित उत्पीड़न का ही दस्तावेजी वृतांत हैं, जिनमें उत्पीड़क ब्राह्मणवाद और सामंतवाद उभय हैं। यहां एक अदद सवाल खड़ा होता है। वह यह कि रामायण में शंबूक-वध तथा महाभारत में एकलव्य का अगूंठा काटे जाने जैसे वृतांतों में शूदों को प्रताड़ित करने की धारणा हैं। क्या इन दोनों ग्रंथों को दलित साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है?
विडम्बना यह है कि आजादी के 62 वर्ष बीत जाने के बाद भी दलित, समाज की मुख्यधारा से जुड़ने का अपेक्षी है। उसे अपनी सुरक्षा और आत्मसम्मान की बहाली के लिये चेतना की सुई की दरकार है। चेतना की वह सुई चाहे दिल्ली के आलोचक डॉ. नामवर सिंह द्वारा लगाई जाये या नारनौल के डॉ. शिवताज सिंह द्वारा। दोनों में से किसी के हाथ से भी दलित का दलित्व क्षीण होता है, तो वही उसके लिये हितकारी है। सवर्ण या दलित का भेद यहां बेजा है।
यह बात दलित समाज से जुड़े दलित साहित्य पर भी लागू होती है। जिस साहित्य में चेतना का भाव नहीं है वह दलित साहित्य कहलाने का हक नहीं पाता है। यह चेतना चाहे दलित की कलम से आई हो, चाहे गैर दलित की कलम से। चेतना जो दलितों को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और परिवेशगत शोषण के विरूद्ध संघर्ष के लिये जाग्रत करे।
लेखन में दलित शब्द को सार्वभौम और सार्वकालिक मानते हुए उन सभी लेखकों का सत्कार करना होगा, जो दलित पृष्ठभूमि पर लिख कर दलितों में चेतना का संचार कर रहे हैं। दलित चेतना ही दलितों के दलित्व दूर करेगी और इसमें दलित और सवर्ण दोनों ही समाज के लेखकों को समानधर्मा सोच रखनी होगी। जिसका लेखन दलित चेतना का संवाहक है, वही दलित लेखक कहलाने का अधिकारी है। वह लेखक चाहे किसी धर्म, जाति, वर्ग अथवा लिंग से हो। आज समन्वय का समय है, पारस्परिक संघर्षों या पूर्वाग्रहों का नहीं। साहित्य में आरक्षण जैसी मांगें बेमानी हैं। इस मायने चेतना दलित साहित्य का सबसे बड़ा सौन्दर्य शास्त्र है।
स्त्री
राजेन्द्र यादव की स्त्री विमर्श में कितनी दिलचस्पी है। इससे हर साहित्यिक भिज्ञ है। लेकिन डॉ. नामवर सिंह स्वयं दुनियावी से कितने दूर हैं, कितने लोग अनभिज्ञ हैं। एक बानगी यहां समीचीन जान पड़ती है।
23 अगस्त, 2008 को पाखी के प्रवेशांक का आयोजन था। आयोजन में डॉ. सिंह मुख्य अतिथि/मुख्य वक्ता आमंत्रित थे और बोले भी। प्रवेशांक में छपे स्नोवा बार्नो ( ? ) के उपन्यास अध्याय ''अहंकार में देह पर्व'' की व्याख्या करते महामना अधिकांश भूलबिसर गये। स्नोवा बार्नों नाम लेते वे जिस पिपासा से आत्ममुग्ध हुए, उनकी जिह्वा बार-बार होंठों पर आ जाती थी। मुझ जैसे कितने दर्शक गवाह है कि उनके होष्ठ संधि तक गीले थे। 84 वर्षीय बुढ़ऊ की यह मुग्धता किस विमर्श को इंगित करती है?
दलित को विस्तार देते हुए 'स्त्री' को भी दलित की संज्ञा से नवाजा जाने लगा है। यह अलग बात है कि नामचीन लेखिकाओं ने ही इसका पुरजोर विरोध किया है। बहुधा सवर्ण स्त्री कहीं ''ज्यादा धर्मनिष्ठ होती हैं, अतः वे ज्यादा रूढ़िवादी, परापंरापोषी, आडम्बरी, दकियानूस, जातपांत और छुआछूत के मामले में अधिक कट्टर हैं, जब कि सवर्ण पुरूष अपेक्षाकृत आधुनिक, उदार और प्रगतिशील होते हैं। यह अलग बात हैं कि कतिपय सवर्ण महिलाएं पुरूष प्रधान समाज में अपनी ही चारदीवारी में दुखी हों।
दलित स्त्री को किस पायदान पर पायेंगे आप? दलित समाज में पुरूष प्रधान सोच ज्यादा दंतैल है। दलित स्त्री का श्रम और देह दोनों का शोषण होता रहा है। दलित स्त्रियां घर और बाहर दोनों ही जगह पुरूष की भेड़िया प्रवृत्ति की शिकार हुई हैं। यहां पुरूष और स्त्री का रिश्ता सामंत और शोषित जैसा शाश्वत है। सवाल है कि किस स्त्री को दलित कहा जाए? उस सवर्ण स्त्री को जो अपनी सांस्कारिक सोच के चलते समूचे दलित समाज के लिए ब्राह्मण से बड़ी ब्राह्मण है या उस दलित स्त्री को जो दलित्व से अभिशप्त है।
मेहतर जाति को आज भी 'अंतर अछूत' की तरह माना जाता है। मेहतरेतर दलित जातियों का व्यवहार मेहतरों के साथ अछूत जैसा ही रहता है। इनमें ब्राह्मण और शूद्र सा बर्ताव है। फिर मेहतर स्त्रियों की दशा तो और भी बदतर है। जिनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर हो और आजादी के 62 झण्डारोहण के बाद भी जूठन जिनका बसर करती हो, उनके लिये लेखन चंदामामा है। समाज के इस विद्रूप पर किसी की नजर नहीं है। दलित लेखक कौन? का सवाल यहां स्वतः ही सवाल बन जाता है।
कफ़न
डॉ. सिंह उस साहित्य को श्रेष्ठ मानते हैं, जो दलितों का अस्मिता हंता हो। इसके बरअक्स वे मुंशी प्रेमचंद की ''कफ़न'' कहानी के कसीदे काढ़ते हैं। 'कफ़न' क्या है सब परिचित हैं। ब्राह्मणी मार्क्सवादी नजरिया से निःसंदेह कहानी श्रेष्ठ है, क्योंकि धर्मशास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करते हुए कफ़न में शूद्रों का चाण्डाल रूप प्रस्तुत हुआ है। अगर प्रगतिशील दृष्टिकोण से कहानी को परखें तो यह कहानी दुनिया की सबसे निकृष्ट कहानी है, क्योंकि इसमें अकल्पनीय मानवीयता का बोध है।
कफ़न के प्रकाशन की स्वर्ण जयंती 1986 में वर्ष भर मनाई गई। गोष्ठियों, संगोष्ठियों और सेमीनारों का खूब दौर रहा। कहानी दलितों का हद तक मानमर्दन करती है, अतः इसके आयोजन पर लाखों रूपये व्यय हुए। डॉ. नामवर सिंह ने भी कितने आयोजनों ने मुख्य अतिथि या मुख्यवक्ता के रूप में गौरव पाया। कफ़न के प्रशंसकों में बहुधा के लोग थे, जिनके पूर्वज कफ़न कहानी के पात्र नहीं थे।
डॉ. नामवर सिंह एक समारोह में समूचे पंत (सुमित्रानंदन पंत) साहित्य को कूड़ा कचरा कह चुके हैं। अगर कफ़न के पात्र उनके पूर्वज हुए होते तो वे न केवल 'कफ़न' को ही, अपितु समूचे प्रेमचंद साहित्य को भी ''कचरा'' कहते नहीं चूकते।
'कफ़न' का केन्द्रीय कथानक यह है कि ''लाश उठते-उठते रात हो जाएगी, रात में कफ़न कौन देखता है?'' कहानी की यह रीढ़ इस लोकसत्य से टूट जाती है कि मुर्दा चाहे किसी भी जाति, धर्म या समुदाय का हो, रात में लाश नहीं उठती है। अब देते रहो भाषा शैली कें महंगे इंजेक्शन। कफ़न तक आते-आते प्रेमचंद 54-55 वर्ष वृद्ध हो गये थे, उन्हें इतना भान नहीं, रात में मुर्दा जलाया ही नहीं जाता है, कफ़न लिख बैठे। वयोवृद्ध डॉ. नामवर सिंह भी कफ़न की तामीरदारी करते इस तथ्य से रूबरू रहेंगे।
डॉ. नामवरसिंह इस तथ्य से भिज्ञ हों मुमकिन है। मुंशी प्रेमचंद बिना विचारों के लेखक थे, यानि बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के ऑथर। वे हिन्द महासभा में सक्रिय रहें और अपनी कलम से हिन्दुत्व का परचम फहराया, वे आर्य समाजी हुये और जातिभेद तथा छुआछूत दूर करने की चेष्ठा की, वे गांधीजी के मिशन से जुड़े और गांधीवाद को अपने लेखों में उतारा, वे प्रगतिशील साहित्यकार सज्जाद जहीर द्वारा 9 अप्रेल, 1936 को लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष हुये, वे अंग्रेजी साम्राज्य के प्रशंसक रहे और अमरपाल सिंह (गोदान) जैसे चरित्र स्थापित कर आजादी की लड़ाई को बड़ी ठेस पहुंचाई, पत्नी श्रीमती शिवरानी देवी के जेल से लौटने पर वे आग-बबूला हो उठे और कांग्रेस पर खूब बरसे और अंत तक आते वे हिटलर का अवतार भारत में चाहने लगे थे।
डॉ. नामवर सिंह की मानसिक तबियत में आती गिरावट समयांतर मासिक सितम्बर 2009 के पृष्ठ 38 पर भी दर्ज हुई है- ''उदयप्रकाश द्वारा हिन्दू फासिस्ट भाजपा सांसद आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने पर 5 अगस्त के अंक में हिन्दी साप्ताहिक ''इण्डिया टुडे'' ने अपने उत्तर प्रदेश संस्करण में एक रिपोर्ट छापी जिसमें विभिन्न लोगों से बात-चीत की गई थी। इसमें नामवर सिंह ने कहा - ''यह पूरी बहस गैर जरूरी है, किसी लेखक का मूल्यांकन उसकी साहित्यिकयों से ही होगा।'' ......... यही कारण है कि साहित्य आकादमी हो, हिन्दी अकादमी दो या भाजपा नेता की पुस्तक का विमोचन वे हर कहीं विराजमान नजर आते हैं।'' (समयांतर सितम्बर, 2009 दिल्ली मेल, पृष्ठ 38)
झूले में झूलते हुए डॉ. नामवर सिंह समस्त लेखक बिदादरी पर यह आरोप लगाते पुलकते हैं कि नये लेखक उखड़े हुए लोग हैं। महामना नये लेखक कतई उखड़े हुए नहीं हैं। वे पूर्णतः संयमित, संवेदित और सौहार्द हैं। कृपया आप इस वाक्य को अपने मन के मनके से मथ कर मनन कीजिये, कहीं यह बात आप ही में गहरे पैठी हो।
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रत्नकुमार सांभरिया
भाड़ावास हाउस
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जयपुर-302015
फोन-0141-2502035,
मो0- 09460474465
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