भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए आज भी भारत को विकासशील देशों में मान्यता मिली है। स्वतंत्रता के पश्चात् हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति क...
भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए आज भी भारत को विकासशील देशों में मान्यता मिली है। स्वतंत्रता के पश्चात् हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए भारत सरकार द्वारा कई ठोस कदम उठाए गए। पर इन आर्थिक सुधारों के बावजूद भी देश में गरीबों की संख्या अधिक है। गरीबी की समस्या से पीड़ित लोगों को उभारने के लिए सरकार कई राहत की योजनाएँ बना चुकी हैं। कर्ज में करोड़ों रुपये दे-ले चुकी हैं। इससे भारत सरकार विश्व बैंक की कर्जदार भी बन चुकी है। फिर भी देश से इस गरीबी को हटाने में सफल नहीं हो पायी। गरीबी को प्रभावित करने वाले कारणों में अशिक्षा, अज्ञान, जनसंख्या, बेरोज़गारी आदि प्रमुख है। समाज में आज भी ऐसे कई परिवार है जिनका पेट भर भोजन या तन पर कपड़ा प्राप्त नहीं होता।
टिड्डे कहानी में गाँव की गरीबी का दयनीय एवं मार्मिक चित्रण गुप्तजी इस प्रकार किया है *औरतों की कमर से ऊपर के अंग भी फटी-पुरानी साड़ी के आँचल से ही ढँके हैं, कुर्ती या झूला कुछ नहीं है। बच्चों और बच्चियों की कमर में सिर्फ भगई लिपटी है । सबके चेहरे सुखे हैं, आँखें सूनी हैं, पंसलियाँ गिनी जा सकती हैं, हाथ बेजान-लटके से हैं, टाँगे लड़खड़ाती हैं और पाँव नंगे और गन्दे हैं। मर्दों के सिर, दाढी और मूँछ के बाल बढे, सूखे और बिखरे हैं और औरतों के सिर के बाल चील के खोते की तरह लगते हैं। न मर्दों को अपने शरीर की सुध है और न औरतों को*१।
कफन कहानी में गुप्तजी रमुआ के परिवार की गरीबी पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-*जो धनिया के कपड़े की ओर इशारा कर-कर कहता है-यह रमुआ की स्त्री धनिया है ! इसके कपड़े को न देखो ! जैसे नग्नता भी लजा रही है !*२। समाज के गरीब लोगों में गरीबी इस प्रकार फैला है कि मनुष्य के लिए कफन खरीदने के लिए तक पैसा नहीं है। पर अमीर लोगों के पास उनके जानवरों को कफन खरीदने के लिए पैसा है। इसका उल्लेख कफन कहानी में चित्रित है-*आखिर उस गरीब की लाश एक पुराने, फटे-नुचे कपड़े से ढक गंगा में लुढ़का दी गई। पर आज इस सेठ की भैंस के कफन के लिए नई दरी और मलमल का इन्तजाम हो रहा है। गरीब मज़दूर और सेठ की भैंस-इन्सान और जानवर ! मगर नहीं, गरीब इन्सान का रुतबा उस जानवर के बराबर नहीं है, जिसका सम्बन्ध एक दौलत वाले से है ! यह दौलत है, जो एक इन्सान को जानवर से भी बदतर गया-गुज़रा बना देती है, और एक जानवर को इन्सान से भी उँचा रुतबा दिलाती है ! यह दौलत है, जिसके शिकज्जों में कस कर इन्सानित का गला घुट जाता है, और जिसके साये में पशुत्व भी मौज की जिन्दगी बिताता है !*३
इस प्रकार लोहे की दीवार कहानी में बाबूजी के घर की गरीबी चित्रण किया है। *पिछले चार-पाँच महीनों से एकाध गड्डी धनिया की पत्तियों, दो-चार हरी मिर्चों और एक-दो टमाटरों के सिवा सब्जी के नाम पर आया ही क्या था? ऐसा ही चल रहा है, आजकल। घर में हर चीज़ का अकाल पडा हुआ है। रोटी-चटनी के भी लाले पड़े हुए हैं*४। एक पाँव जूता कहानी में भी गरीब परिवार का चित्रण दर्शनीय है-*कैसे कटे थे बब्बू की माँ के वे दिन ! भगवन दुश्मन को भी न दिखाये वैसे दिन। लोग उनके पास भी आते सहमते। घर में एक दाना नहीं। रात को कोई पड़ोसी सोता पड़ने पर छुपकर कुछ खाने को दे जाता, तो अधम काया की भूख मिटती, वर्ना फाका*५।
गुप्तजी ने अपने सती मैया का चौरा उपन्यास में भी समाज की गरीबी की नग्न चित्रण की है-*घर निहायत गंदा था, ऐसा मालूम होता था कि झाडू तक न लगती हो। फर्श पर, दीवारों पर गर्द जमी थी। चारों ओर बीड़ी के जले हुए टुकड़े, दियासलाई की जली हुई तीलियाँ, पीक, पान की सीठियाँ और मुर्गियों और कबूतरों की बीटें बिखरी पडी थी। सामान के नाम पर तीन-चार खाटें, एक छोटा तख्त, कुछ मामूली बिस्तरें, दो मिट्टी के घड़े और अल्मोनियम के कुछ बर्तन थे। जिल्ले मियाँ, भाभी और उनके लड़कों के शरीर के कपड़ों पर भी घर की दशा की ही छाप थी*६।
आठ घण्टे काम करने पर भी मज़दूरों के परिवारों में गरीबी की स्थिति है। उनकी इस दशा का यथार्थ चित्रण मशाल उपन्यास में मिलता है। *हम रोज़ आठ घण्टे छाती फाड़कर काम करते हैं और जानते हो क्या मिलता है? सवा डेढ रूपया रोज़। इस महंगाई के जमाने में इससे दो जून भरपेट रोटी चलाना और एक जोड़े कपड़े बनवाना, घर का किराया क्या मुमकिन है? गाँव में देखते हो किसान मज़दूर कितना काम करते हैं? लेकिन किसी को दो जून भरपेट मयस्सर होता है? किसी के तन पर कभी साबित कपड़े देखने को मिलते हैं?*७।
इस प्रकार गुप्तजी के सती मैया का चौरा उपन्यास में गाँव के लोगों की गरीबी का चित्रण दर्शाते हुए मुन्नी कहता है-*जिनके पास दो जून खाने को अन्न नहीं, तन ढकने को कपड़े नहीं, जो खेत की उपज बढ़ाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं, लेकिन बेचारे कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि उनके पास न पर्याप्त साधन है, न सुविधा*८
गरीबी के कारण भर पेट भोजन न मिलने पर परीक्षा में उत्तीर्ण होना असंभव बन जाता है। इसका दर्दनीय विवरण ज्योतिष कहानी में देखने को मिलता है-*मुझे भर पेट खाना मिला होता तो मेरा कोई भी पर्चा खराब न होता। मैं ने हाईस्कूल द्वितीय श्रेणी में पास किया था, चाचाजी।*९
इसी कहानी में गरीबी की विकराल रूप भी दर्शनीय है। गरीबी के कारण परिवारों में खाने का चीज़ तक उपलब्ध नहीं होता, तब परिवार के सदस्य कुछ भी खाने के लिए तैयार रहते हैं। इसका उल्लेख करते हुए कहानी के पात्र द्वारा गुप्तजी कहते हैं-*भूख भैया, बड़ी जालिम चीज़ है, उसकी आवाज़ कहीं बडे गहरे से आती हुई सुनायी दी, भूख में लोग गोली भी खा लेते हैं*१०।
गुप्तजी के धरती अपने उपन्यास में किसान-मज़दूर दिन भर तन-तोड़ मेहनत करके अपने परिवार चलाते हैं। फिर भी उनके परिवार में गरीबी हैं। उपन्यास में मोहन अपनी पत्नी से कहता है *हमारे देश के गरीब किसान और मज़दूर अपने जीवन निर्वाह के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करते हैं, फिर भी वे सुखी नहीं है*११। एक पाँव जूता कहानी में बाबूजी आशा करते हुए कहते हैं-*हाय हम कितने गरीब हैं, कितने दुखी हैं। जिस दिन यह गरीबी दूर होगी, दर असल वही खुशी का दिन होगा*१२।
संक्षेप में भारतीय समाज में गरीबी की समस्या पहले की भांति जारी है, बल्कि इसमें वृद्धि की गति और बढ़ गयी है। गरीब अपने आप को घोर उपेक्षित, लाचार, अधीन और तुच्छ महसूस करते हैं। उनकी आकांक्षाएँ कम होती जा रही है। इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलती हैं। इसलिए गरीबों के बच्चों में आम तौर पर बदलती हुई परिस्थितियों और जीवन में आए अवसरों का लाभ उठाने का उत्साह ही नहीं दिखाई देता। इस प्रकार गरीबी की समस्या और पुष्ट होती है।
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संदर्भ
मंगली की टिकुली पृष्ठ सं १५४
बिगड़े हुए दिमाग पृष्ठ सं ३६
वही पृष्ठ सं ३८
मंगली की टिकुली पृष्ठ सं ५७
वही पृष्ठ सं १३२
सती मैया का चौरा पृष्ठ सं २०२
मशाल पृष्ठ सं १८२
सती मैया का चौरा पृष्ठ सं ३६८
९. मंगली की टिकुली पृष्ठ सं ८४
१०. वही पृष्ठ सं ९५
११. धरती पृष्ठ सं ७७
१२. मंगली की टिकुली पृष्ठ सं १३४
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संपर्क:
राजू.सी.पी, प्रवक्ता, सेन्ट थॉमस कॉलिज, तृश्शूर, केरल।
आज भी देश मे उतनी गरीबी व्याप्त है, जितना पहले था । कुछ दशक् पहले, देश मे इतना विकाश नही था लेकिन सब साधन होने के वाजूद गरीबी चरम् पर है
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