(प्रविष्टि क्रमांक - 39) (महत्वपूर्ण सूचना : पुरस्कारों में इजाफ़ा – अब रु. 10,000/- से अधिक के पुरस्कार! प्रतियोगिता की अंतिम त...
(प्रविष्टि क्रमांक - 39)
(महत्वपूर्ण सूचना : पुरस्कारों में इजाफ़ा – अब रु. 10,000/- से अधिक के पुरस्कार! प्रतियोगिता की अंतिम तिथि 31 दिसम्बर 2009 निकट ही है. अत: अपने व्यंग्य जल्द से जल्द प्रतियोगिता के लिए भेजें. व्यंग्य हेतु नियम व अधिक जानकारी के लिए यहाँ http://rachanakar.blogspot.com/2009/08/blog-post_18.html देखें)
सुबह-सुबह अखबार देखा तो अपने मूड का स्विच ऑफ हो गया। नहीं-नहीं, फिर से वही महँगाई बढऩे वाली खबर नहीं थी। खबर थी- 'देश में भ्रष्टाचार का तेजी से विकास..। भारत विश्व के टॉप-टेन भ्रष्ट देशों में एक''।
''छी-छी, स्साले...भ्रष्टाचार की इतनी हिम्मत! इसको तो मिटाकर ही दम लूँगा।''
मैंने चाय की चुस्कियों के साथ कसम खाई कि 'भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार संघर्ष करूँगा और तब तक चैन से नहीं बैठूंगा और...और जब तक भ्रष्टाचार का खात्मा न हो जाए, एक पैग से ज्यादा शराब नहीं पीऊँगा। जब तक हमारे जैसे पलन्टू जिंदा हैं, भ्रष्टाचार की खैर नहीं। अबे भ्रष्टाचार, तुझे जलाकर राख कर दूंगा।''
मुझमें नाना पाटेकर टाइप का हौसला आ गया। मेरी चिल्लाहट सुन कर पत्नी दौड़ी चली आई कि मुझे कुछ हो तो नहीं गया।
मैंने पत्नी से कहा- ''देखो डार्लिंग, भ्रष्टाचार तेजी के साथ बढ़ रहा है। इसे खत्म करना है, हाँ। उसे मिटाकर ही चैन मिलेगा। तुम मेरे साथ हो न?''
पत्नी सिर पीटते हुए बोली- ''नाथ, मैं तो जन्म-जन्म से हूँ तुम्हारे साथ, लेकिन भ्रष्टाचार तो बाद में मिटाना, पहले आप घर के मच्छरों को तो मिटाओ।''
मैं भड़क गया-''ओफ्फो....ये क्या तमाशा है? मैं यहाँ राष्ट्रीय समस्या पर बात कर रहा हूँ और तुम हो, कि एकदम से पार्षद टाइप की हरकत करने लगती हो। लोकल मुद्दे पर उतर आयी। मेरा पूरा 'स्टैंडर्ड' खराब कर के रख दिया। आखिर हो न वही झुमरीतलैया वाले रामखिलावन की बेटी। अभी थोड़ी देर बाद मैं ग्लोबल-वार्मिंग जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर आने वाला था। धत् तेरे की। पूरा 'मूडई' चौपटा गया। तुम औरतों की वस यही समस्या है-मच्छर,खटमल और टीवी सीरियल। थोड़ी देर बाद कहोगी पहले जल संकट मिटाओ, फिर कहोगी महंगाई कम करो, बाद में भ्रष्टाचार मिटाना। हुंह। मैं तो पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार मिटाने को ही दूँगा।''
पत्नी ने मुँह बिचका कर सब्जी का झोला थमा दिया। मार्केट जाने के पहले मैंने अपने डैडी से भी भ्रष्टाचार के बढऩे पर गहन चिंता जताई। उन्होंने शुभकामना दी कि इस जनम में ही भ्रष्टाचार मिटाने में भगवान तुम्हें सफलता प्रदान करें। थोड़ी देर बाद बेटा स्कूल से लौटा तो मैंने उसको भी बताया कि ''बेटे, देखो, भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ रहा है। उसके खिलाफ लड़ाई लडऩी है। हम नहीं लड़ेंगे तो बताओ न, कौन लड़ेगा। अपने बाप से कभी झूठ नहीं बोलना।''
बेटा कभी मुझे, कभी अपनी माता को देखता रहा, उसका इशारा मैं समझ रहा था, कि वह कहना चाहता है, कि पिताजी के साथ कोई मेंटल प्रॉब्लम तो नहीं शुरू हो गया। खैर, मैंने उसके इशारे को अनदेखा कर दिया। फिर मैंने बेटे को हिदायत दी कि ''देखो, किराना दूकान वाला आए तो साफ-साफ कह देना डैडी आऊट ऑफ स्टेशन हैं। दो-चार बाद आयेंगे।''
रास्ते भर मैं भ्रष्टाचार को खत्म करने के बारे में ही सोचता रहा। मेरी आदत है। जब किसी बात की धुन सवार हो जाती है, तो उसी को लेकर सोचता रहता हूँ। उस दिन सोचा कि ऑफिस-गर्ल को अपने वश में करना है। बस, कुछ दिन लगे और सफल हो गया।
दफ्तर में घुसने के पहले ही दो कुलीग मिल गए पान ठेले पर। हम भी पहुँच गए। पहले चाय पी फिर पान चबाकर इधर-उधर घूमते रहे। बीच-बीच में भ्रष्टाचार के तेजी के साथ बढऩे पर चिंता भी जताई।
सारे मित्रों ने कहा- ''बिल्कुल ठीक कह रहे हो यार। इस भ्रष्टाचार को समाप्त करना हम सबका परम कर्तव्य है। अच्छा, यो तो बताओ कि कल ठेकेदार रामभरोसे आया था न, उसके टेंडर का क्या हुआ?''
मैंने मुसकराते हुए कहा- ''भाई, अगर हमको कुछ दान-दक्षिणा दे दे तो उसी का टेंडर पास करवा देंगे। वो साला तो आज आया ही नहीं।''
मित्र ने मुसकराते हुए बताया- ''चिंता मत करो, ठेकेदार तुम्हारे पैसे जमा कर गया है।''
मैंने कहा- ''मतलब, अगला कुछ-कुछ ईमानदार है। ठीक है, तब तो उसका काम करना ही पड़ेगा। वरना यह भ्रष्टाचार हो जायेगा। और मैं ठहरा भ्रष्टïाचार विरोधी। मैं इस भ्रष्टाचार को मिटाकर रहूंगा। तुम लोग मेरा साथ दोगे न?''
सारे मित्रों ने सिगरेट हाथ में लेकर कसम खाई- ''हाँ, हम भ्रष्टाचार मिटाने में तुम्हारा साथ देंगे।''
मुझे राहत मिली। भ्रष्टाचार की लड़ाई में मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे दोस्त भी मेरे साथ हैं।
मैं दफ्तर में घुसा और रोज की तरह अपनी कुर्सी पर बैठकर जासूसी उपन्यास 'ये लहू किसका है' पढऩे लगा। बहुत ही प्यारा उपन्यास है। कभी आप भी पढ़ें। पढऩे की मेरी आदत है। एक बार जो भी जासूसी या सैक्सी उपन्यास हाथ में लेता हूँ तो उसे पूरा करके ही दूसरे काम निपटाता हूँ। सिद्धांत मतलब सिद्धांत। उसमें कोई समझौता नहीं कर सकता। दफ्तर में लोग आते रहे, मैं सबको टरकाता रहा। पाँच बजा तो उपन्यास के पृष्ठ को मोड़कर रख दिया। उठ खड़ा हुआ। इसे कहते हैं समय की पाबंदी। समय की पाबंदी ही सफलता की कुंजी है।
दफ्तर के बाहर निकला, चाय पी। सिगरेट के दो-चार कश मारा और घर की तरफ रवाना हो गया।
मैं आज काफी खुश था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं जो लड़ाई छेडऩा चाहता हूँ, उसमें कई लोग मेरे साथ हैं अब तो भ्रष्टाचार दम तोड़कर ही रहेगा। रास्ते में कांजी हाउस, नहीं-नहीं....कॉफी हाऊस पड़ गया। वैसे काफी हाउस और काँजी हाउस में ज्यादा फर्क नहीं होता। कांजी हौस में आवारा पशुओं को पकड़ कर लाया जाता है और कॉफी हाउस में लोग अपने आप चले आते हैं। अपनु को सुबह-शाम यहाँ एक-दो घंटा बैठने का पुराना रोग है। काहे कि यहाँ दो-चार ठलहे किस्म के क्रांतिवीर बैठे मिल ही जाते हैं। आज भी मिल गए।
हमने पहले अपने आँखें मार-मार कर आस-पास की महिलाओं की चरित्र हत्याएँ कीं, फिर अश्लील साहित्य पर विचार-विमर्श किया। अचानक मुझे याद आया कि मुझे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लडऩी है। मैंने जोर-जोर से टेबल ठोंकते हुए कहा- ''दोस्तो, मैं एक न एक दिन भ्रष्टïाचार को खत्म करके रहूँगा। तुम लोग मेरा साथ दोगे न?''
मित्र-मंडली हँसते हुए बोली- 'अबे, हम लोग तो हमेशा तुम्हारा साथ देते हैं। तुम्हारे बॉस की चरित्र हत्या करने के लिए परचे किसने तैयार किए थे? हमने..। याद करो, तुमने कालू सेठ का काम किया था और जब वह पैसे नहीं दे रहा था, तो उसको हड़काकर वसूली का काम किसने किया था, हमने। तो हम तुम्हारे यार हैं। अच्छा, ये तो बताओ, आज हमारी कॉफी का बिल तुम ही पेमेंट करोगे न? करोगे तो हम तुम्हारा साथ फिर देंगे।''
मेरे पास पर्याप्त मात्रा में ऊपर की कमाई थी, सो थोड़ी-बहुत जनहित में खर्च करनी ही पड़ी। यही सामाजिक नैतिकता है, सदाचार है। शिष्टाचार है। समाजवादी सिद्धांत है, कि मिल-बाँटकर खाओ। रिश्वत का पैसा अकेले हजम करो, यह भ्रष्टाचार है। मैं ऐसे भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हूँ।
मित्रों को कॉफी पिलाने के बाद मैं और खुश हुआ कि अब तो इतने सारे लोग एकजुट हो गए। अब भ्रष्टाचार बच के कहाँ जायेगा। मैं इस पट्ठे की जान लेकर ही रहूँगा।
अब तो आपको यकीन हुआ न, कि इस धरा पर कोई तो वीर है, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩा चाहता है। आमीन।
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गिरीश पंकज
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली.
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
विकासशील देश की विकास गाथा!! :)
जवाब देंहटाएंगिरीश पंकज का व्यंग्य - भ्रष्टाचार के खिलाफ अपुन ....में यह दिखाने का प्रयास है कि भ्रष्टाचार हमसे से ही शुरू होता है. भ्रष्टाचार करने के लिए कोई बाहर से नहीं आता. यदि हम खुद सुधर जाएँ तो भ्रष्टाचार आपने आप ही ख़त्म हो जाए. दीनदयाल शर्मा. राजस्थान,
जवाब देंहटाएंbhrastachar mitane k liye khud ko sudharna hoga
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