(प्रविष्टि क्रमांक - 49) हमारा देश आयोग प्रधान देश है । कई आयोगों की रिपोर्टें पड़ी धूल खा रही हैं । यदि उन सब रिपोर्टों को इकट्ठा...
हमारा देश आयोग प्रधान देश है । कई आयोगों की रिपोर्टें पड़ी धूल खा रही हैं । यदि उन सब रिपोर्टों को इकट्ठा किया जाए तो लाल किले के प्राचीर तक की ऊंचाई हो जाएगी फिर वहां से एक और आयोग के गठन की घोषणा की जा सकती है । अमूमन देखा गया है कि अपने यहाँ आनन-फानन में आयोग गठित करने का फैशन है । भले ही उसके सुझाव कोने में पड़े दम तोड़ते रहे हों । आयोगों का कार्यकाल भी द्रौपदी के चीर सा लगातार बढ़ता रहता है । लोगों का बमुश्किल याद दिलाना पड़ता है कि ये फलां मामले में गठित आयोग था । आयोगों को सुझाव भी गोलमाल से होते हैं । उनकी व्याख्या स्वार्थानुसार होती है । उसमें नाम जुड़ते-घटते रहने पर शोर होता रहता है । कुछ लोग आयोग कि विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहते हैं ,कुछ उसके कार्य क्षेत्र को बढ़ाने की मांग करते रहते हैं । कुल मिलाकर आयोग एक चूं-चूं का मुरब्बा बन जाता है। इस मुरब्बे के सेवन से सरकार के कृपापात्र नौकरशाह स्वास्थ्य लाभ उठाते रहते हैं । जहां तक जनता का संबंध है उसे सिर्फ एक आयोग का पता है और वो है वेतन आयोग।वेतन आयोग की सिफारिशें जनता पर व्यापक असर डालती हैं ।
उसकी रिपोर्ट का इंतजार कर्मचारियों को ऐसे रहता है जैसे कोई नई नवेली दुल्हन अपने प्रियतम की बाट जो रही हो । वेतन आयोग की रपट से महंगाई , लोन की मात्रा , जीवन स्तर एक साथ बढ़ जाता है । व्यक्ति जीवन में ज्यादा आर्थिक रिस्क उठाने लगता है । उसका ये झूठा अहसास काफी दिनों तक बना रहता है कि वो प्रगति कर रहा है । यूं ही जीवन होम नहीं कर रहा । सिर्फ बाजार ही है जो इस भ्रम को तोड़ता है और याद दिलाता है कि- चल खुसरो घर आपने , रैन भई चहुं देस...। मेरा सरकार से विनम्र सुझाव है कि जब इतने सारे फालतू आयोग बनते ही रहते हैं तो कुछ काम के क्षेत्रों पर भी आयोग गठित हो जाएं । सबसे पहले तो साहित्य को ही लें , इस पर एक आयोग की तुरंत आवश्यकता है । आयोग इस बात पर विचार करे कि साहित्य के क्षेत्र में इतनी राजनीति क्यों फैली हुयी है ।
साहित्य वालों में जितनी द्वेषता है उतनी तो राजनीति वालों में भी नहीं । पुरुस्कारों का बंदरबांट कब तक जारी रहेगा । तीन-चार आलोचकों के चलते हिन्दी साहित्य की उन्नति कैसे हो सकेगी ? क्यों इस फील्ड में नयी प्रतिभाएं सामने नही आ रही हैं । जब किताबें थोक में रोज प्रकाशित हो रही हैं तो पाठक कहां बिला गया है । प्रकाशकों की तोंद क्यों लगातार निकलती जा रही है और लेखक क्यों सूख के छुआरा हो रहा है । लघु पत्रिकाएं कहीं अपने साथियों की लघु भड़ास निकालने का साझा मंच तो
नहीं बन गयी हैं । वैसे आयोग इस विषय पर भी जाँच कर सकता है कि कविता क्यों सिकुड़ती जा रही है और व्यंग्य क्यों पसरता जा रहा है । अखबार विचार की जगह प्रचार के पम्फलेट क्यों बनते जा रहे हैं । इस आयोग का अध्यक्ष सरकार अपने किसी चहेते संपादक या आलोचक को बना सकती है । साहित्य आयोग को समकालीन विदेशी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी करना चाहिए । क्योंकि इस बहाने ही मेरे जैसे साहित्यकारों का विदेश यात्रा का जुगाड़ बैठ पाएगा । वैसे कोई जबरदस्ती नही है लेकिन अगर एक टिकट का बैठ जाए तो देख लें ...। मेरा मतलब है ठीक लगे तो ...। इसी तरह खेल के क्षेत्र में एक आयोग की सख्त जरुरत है । वहां बड़ी फ्री स्टाइल चल रही है। खेलों में हमारा फिसड्डीपन जग जाहिर है ।
इस फिसड्डीपन का कारण क्या है ? राजनीति या साधनों की कमी। व्याप्त भ्रष्टाचार या प्रतिभाओं का अकाल । हमें नए खेलों की ओर भी ध्यान देना चाहिए जिनमें हमारी गति अच्छी है । जैसे –कुर्सी पकड़ , घोटाला घोटन ,पुतला फूंकन आदि । इन नव खेलों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के प्रयास किए जाएं । ये भी देखा जाए कि खिलाड़ियों को क्या भत्ता और सुविधाएं मिल रही हैं । क्या उनका खेल में कैरियर बनाना बेहतर रहेगा या किसी हलवाई के मजदूरी करना । भ्रष्टाचार हमारे यहां कि लोकप्रिय समस्या है इस पर आयोग का गठन खतरे से खाली नही है । क्योंकि इस आयोग के भ्रूणावस्था में ही भ्रष्टाचार के वायरस के चलते काल कवलित होने की पूरी संभावना है । इस आयोग का नाम किसी कर्मठ, ईमानदार महापुऱुष के नाम पर सत्य हरिश्चन्द्र आयोग या चाणक्य आयोग रखा जा सकता है । इस आयोग का दायरा विस्तृत रखना होगा । क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे यहां कण-कण में व्याप्त है । ऐसे में किसे परखा जाए और किसे छोड़ा जाए ये निर्णय करना अत्यन्त कठिन है ।
भ्रष्टाचार के पनपने की आदर्श स्थितियां क्या हैं –मजबूरी , शौक , आदत या स्टेटस सिंबल । कौन-कौन चेहरे भ्रष्ट हैं । कितना धन भ्रष्टाचार के चलते आम लोगों तक नहीं पहुँच पा रहा है , इन सब बातों से आयोग स्वयं को दूर रखे तो ही वो चलता रहेगा । अन्यथा किसी बीमार इकाई की तरह बंद हो जाएगा ।इन विषयों पर वो अपनी रपट ही न प्रकाशित करे वरना जो कुछ भी सच सामने आएगा उससे हमारे सिर शर्म से झुक जाएंगे ।
क्या है कि हम भ्रष्ट हैं ये तो हम क्या पूरी दुनिया मानती है लेकिन कोई हमें आईना दिखाए ये हमें कबूल नहीं। इससे हमारा सौंदर्य बोध आहत होता है । आयोग बने अपना काम करे कोई गुरेज नहीं ।लेकिन वो भ्रष्टाचार के कारणों पर विमर्श करता रहे भ्रष्टाचारियों पर उंगली न धरे । अन्यथा आप जानते ही हैं कि भ्रष्टाचार के हाथ तो कानून के हाथ से लंबे ही हैं छोटे तो कत्तई नहीं ।
अतुल चतुर्वेदी
380 , शास्त्री नगर , दादाबाड़ी
कोटा – राज .
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