वै से तो हर व्यक्ति के पास एक कहानी और अगर कहना आता हो तो एक उपन्यास होता ही है… (साहित्यिक पत्रिका ‘राग भोपाली’ के जून 2009 अंक में प्...
वैसे तो हर व्यक्ति के पास एक कहानी और अगर कहना आता हो तो एक उपन्यास होता ही है…
(साहित्यिक पत्रिका ‘राग भोपाली’ के जून 2009 अंक में प्रकाशित व्यंग्यकार वीरेन्द्र जैन (यह विशेषांक वीरेन्द्र जैन को समर्पित है) का आत्मकथ्य पढ़ा तो वो बेहद दिलचस्प और अत्यंत प्रेरणास्पद लगा. वीरेन्द्र जैन धर्मवीर भारती के धर्मयुग के जमाने से तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. रचनाकार के पाठकों के लाभार्थ उनका आत्मकथ्य प्रस्तुत है – सं.)
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वैसे तो हर व्यक्ति के पास एक कहानी और अगर कहना आता हो तो एक उपन्यास होता ही है जो उसके केन्द्र में रहते हुये परिवेश के साथ उसके सम्बंधों पर निर्भर करता है। किंतु पाठकों श्रोताओं की रूचि ऐसे व्यक्तियों की आत्मकथा में रहती है जो जीवन में बहुत सफल हुये हों ताकि उनके जीवन से 'तरकीबें' चुन कर वे अपने जीवन को सफल कर सकें। मैं प्रचलित मापदण्डों के हिसाब से किसी भी क्षेत्र का सफल व्यक्ति नहीं हूँ इसलिए मेरे आत्मकथ्य से किसी को क्या मिल सकता है सिवाय दूसरे की कमजोरियों से स्वयं की मजबूती के अहसास के ! पर फिर भी मैं आग्रह का कमजोर हूँ इसलिए मित्रों का आग्रह ठुकरा नहीं सकता (वो तो अच्छा हुआ कि मैं महिला नहीं हुआ वरना आग्रह की कमजोरी से बड़ा संकट खड़ा हो सकता था)
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मेरे पिता श्री लक्ष्मी चंद जैन चिरगाँव के रहने वाले थे और मेरे दादाजी गल्ले की आड़त का काम करते थे। चिरगाँव में उनका मकान मैथली शरण गुप्तजी की हवेली के बहुत पास था तथा मेरे पिता बिल्कुल अंग्रेजों की तरह गोरे हुआ करते थे। वे बचपन से ही मैथलीशरण गुप्त जिन्हें दद्दा के नाम से जाना जाता है के प्रिय थे जो उनसे बीस पच्चीस साल बड़े होने के कारण एक तरह से अगली पीढी के थे। (कुछ साल पहले ही मुझे ज्ञात हुआ है कि लम्बे समय तक संतान न होने के कारण कभी दद्दा ने उन्हें गोद लेने का भी विचार किया था।) मैथलीशरण गुप्त का परिवार उस समय का बहुत बड़ा रईस परिवार था तथा राजा महराजाओं की तरह ही उनकी हवेली थी। उनके स्नेहभाजन होने के कारण व उनकी सलाह पर ही मेरे पिता को अपने पारिवारिक व्यवसाय की परंपरा से हट कर शिक्षा पाने का सौभाग्य मिला। वे बचपन से ही बेहद सक्रिय और दुस्साहसी थे। एक बार बचपन में एक घोड़े की पूँछ पकड़ कर उस पर चढने के विचार को कार्यान्वित करने के प्रयास में उन्होंने घोड़े की दुलत्ती खायी थी और उनका सिर फट गया था जिससे उन्हें बहुत मुश्किल से बचाया जा सका था। पर गरदन की हड्डी में कुछ चोट आ जाने के कारण उनका सिर बचपन से ही हिलने लगा था।
शिक्षा के लिए वे झांसी भेजे गये थे। झांसी मैं उन दिनों जो इन्टर कालेज था उसके प्रिंसपल एक बंगाली बिपिन बिहारी बनर्जी थे। आज उनके नाम से झांसी में एक बड़ा कालेज चलता है। वे उन दिनों के प्रिसपलों की तरह बेहद कठोर और अनुशासनप्रिय के रूप में विख्यात थे और बंगाली हिंदी बोलते थे 'कौन क्लास?'' को वे ''कून किलास?'' कहते थे। उस इन्टर कालेज में उन दिनों जो लोग पढ रहे थे वे बाद में अनेक क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्तर पर जाने गये। उनमें थे हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, बाद में उत्तरप्रदेश के गृहमंत्री बने प्रसिद्ध कम्युनिष्ट नेता रूस्तम सैटिन व रमेश सिन्हा, डा रामविलास शर्मा, आदि। पिताजी हॉस्टल में रहते थे तथा हॉकी उन दिनों का सर्वप्रिय खेल हुआ करता था। साइकिल किसी किसी के पास पायी जाती थी और जिसके पास होती थी उसे कम से कम आज की मारूति800 जैसा गौरव तो प्राप्त होगा ही। पिताजी के पास नई नई साइकिल आयी थी और वे हॉकी साथ में लेकर अपने स्कूल का मैच खेलने गये थे। लौटते में उनकी साइकिल एक अंग्रेज बच्चे से टकरा गयी तो उसने उन्हें ''डैमफूल'' कह दिया जो उन्हें नई साइकिल के गर्व में नागवार गुजरा और उन्होंने अपने साथियों के साथ उसकी हॉकी से ही पिटाई कर दी। साइकिल पहचान बन सकती थी। स्थिति की गम्भीरता का अहसास उन्हें हॉस्टल लौट कर हुआ तो डरते डरते वे लोग कठोर प्रिंसपल बिपिन बिहारी बनर्जी के पास गये तथा उनके ''कून किलास?'' का उत्तर देने के बाद पूरी स्थिति बतायी। सुनने के बाद बनर्जी साब का उत्तर प्रश्न के रूप में था- मैच जीता कि हारा? सबने एक साथ एक स्वर में कहा ''जीता'' तो उन्होंने कहा 'जाओ'।
बाद में अंग्रेजों के प्रति नफरत का यह बीज उन्हें चन्द्रशेखर आजाद के पास तक ले गया था, पर आजाद ने कहा कि तुम्हारा सिर हिलता है और गोपनीय कामों में यह पहचान बन सकता है इसलिए तुम्हें अपने इनर ग्रुप में सम्मिलित करना खतरनाक हो सकता है, तुम आउटर ग्रुप में काम करो। बहरहाल उन्हें घर छोड़ देना पड़ा तथा ललितपुर में नगरपालिका की चुंगी पर नौकरी करना पड़ी जो सूचनाओं के आदान प्रदान का केन्द्र बनायी गयी थी। ललितपुर के निकट ही खनियाधाना के जंगलों में आजाद बम बनाते थे तथा बारूद के आदान प्रदान का केन्द्र भी वह चुंगी थी। उनके ही एक साथी राम सेवक रावत का हाथ भी बम बनाते समय उड़ गया था जिन्होंने बाद में काफी समय तक झांसी में दैनिक जागरण के सम्पादकीय विभाग में काम किया था। मेरे पिताजी ने एक बार मुझे भी उनसे मिलवाया था। बाद में आजाद के शहीद हो जाने के बाद मैथलीशरण गुप्त परिवार की ही ट्रैजरारशिप पर उन्हें बैंक में नौकरी मिली थी। इसी नौकरी के दौरान वे ललितपुर झांसी मोंठ आदि स्थानों पर रहे तथा 1950 में दतिया में स्थानान्तिरित हुये।
मेरा जन्म 1949 में मिशन हास्पिटल ललितपुर का है और मैं उनकी सात संतानों में से जीवित बच सकी तीन संतानों में अंतिम था। जब मेरी बड़ी बहिन की शादी हुयी तब मैं कुल एक साल का था। मेरी माँ कम पढी लिखी सामाजिक चेतना में पिछड़ी व अभावों में जीवन गुजारने के कारण असुरक्षित महसूस करने वाली महिला थीं। कई संतानों की मृत्यु के बाद मैं उनकी अंतिम, पुत्र के रूप में पैदा हुयी संतान था और इसलिए लगभग तीन चार साल की उम्र तक तो उन्होंने मेरे बाल नहीं कटवाये ताकि लड़का होने की किसीकी नजर नहीं लगे। इसके विपरीत मेरे पिता उन दिनों के हाईस्कूल पास-इन्टर फेल, प्रगतिशील, वैज्ञानिक चेतना में विशवास करने वाले व आधे अधूरे कम्युनिष्ट पर कम्युनिष्टों को पसंद करने वाले थे। वे साहसी थे, बेपरवाह थे, जोड़ने और सम्पन्नता से उन्हें नफरत सी थी। उन्होंने अपनी लड़कियों को साइकिल चलाना और तैरना तब सिखाया था जब आम तौर पर कस्बों में ऐसा नहीं किया जाता था। अपनी दोनों ही लड़कियों की शादी करते समय उन्होंने तुरंत फैसला लिया था। वे आज ठीक ठाक आर्थिक हैसियत में हैं पर जब उन्होंने फैसला लिया था तब उन परिवारों की ऐसी कोई स्थिति नहीं थी।
मैंने जब से आंखें खोलीं तब से अपने घर में अखबार आता हुआ देखा जबकि उन दिनों बहुत ही कम घरों में अखबार आता था। सन 1950 में हम लोग दतिया आ गये थे। मुझे याद है कि दतिया में सारे साहित्यकार हमारे घर आया करते थे तथा उन दिनों की ज्ञानोदय पत्रिका हमारे घर आती थी। सन 1957 में बच्चों की पत्रिका पराग की शुरूआत हुयी थी जिसे हम लोगों को माँ के विरोध के बाबजूद वे मंगवाते थे। उसकी कीमत चालीस नये पैसे थी क्योंकि उन दिनों दशमलव प्रणाली प्रारंभ हुयी थी व सोलह आने या चौंसठ पैसों के रूपयों को सौ पैसों के रूपये में बदला गया था इसलिए पैसों को नये पैसे कहा जाता था। चालीस पैसों का भी यह अपव्यय मेरी माँ को बुरा लगता था। मेरे पिता हम लोगों को अच्छी अच्छी फिल्में दिखाने ले जाते थे जो मेरी माँ को पसंद नहीं था, वे कभी फिल्म देखने के लिए नहीं जाती थीं।
पराग ने उन दिनों बाल सदस्य बनाने शुरू किये थे जिनके नाम पराग में प्रकाशित किये जाते थे और तब पहली बार अपना नाम पराग में प्रकाशित देखा था। तब जो खुशी हुयी थी उसकी स्मृति आज भी मजा दे जाती है। दद्दा राज्यसभा सदस्य बनाये गये थे। मेरे पिताजी प्रतिवर्ष दिल्ली में लगने वाले मेले में जाते थे और दद्दा के यहाँ ही रहते थे। यह सूचना हमें गौरव से भरती थी क्योंकि कोर्स से लेकर अखबारों पत्रिकाओं तक राष्ट्रकवि छाये रहते थे और उनसे जुड़े होने का रोमांच हमें भी महसूस होता था। एक स्थानीय अखबार जिसका नाम ''आधुनिक'' था के सम्पादक बृजेशजी पिताजी के मित्र थे तथा उन्होंने ही मेरी पहली बाल कविता अपने अखबार में छापी थी। 1961 में हिन्दी ब्लिट्ज का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और वह भी हमारे यहाँ आने लगा था। ब्लिट्ज में ख्वाजा अहमद अब्बास का स्तंभ 'आजाद कलम' के नाम से आता था जो तत्कालीन राजनीति पर व्यंग्य भी होता था और विचार भी होता था। अफवाह थी कि जिन जिन घरों में बिल्ट्ज आता था उनके नाम पते पुलिस के पास नोट रहते थे। मेरा सहपाठी जो एक डिप्टी कलैक्टर का लड़का था, की इस सूचना ने मुझे क्रांतिकारी रोमांच से भर दिया था तथा उन दिनों ही मेरे जीवन के सपनों में एक क्रांतिकारी बनने का सपना भी सम्मिलित हो गया था जो कि शायद मेरे पिता का अधूरा सपना था। पिताजी ने कभी मुझे मंदिर जाने के लिए नहीं कहा और ना ही कभी उनके मन में किसी साधु सन्यासियों के लिए कोई अंध सम्मान का भाव रहा, वे उनकी समीक्षा करते थे व उनसे खुला संवाद करते थे। दतिया में आजकी प्रसिद्ध पीताम्बरा पीठ स्थली तब प्रसिद्ध नहीं थी तथा उसके स्वामीजी के साथ पिताजी की खूब बैठकें होती थीं, एक बार उन्होंने उनसे कह दिया कि महाराजजी ये मंदिर बगैरह तो सब दुकानें हैं जिसे सुन कर स्वामीजी, जो मूल रूप से प्रकांड विद्वान थे खूब खुश हुये और फिर पूछा करते थे क्यों जैन मेरी दुकान कैसी चल रही है! शहर में नल व्यवस्था न होने के कारण वहाँ के सरोवर में नहाने के लिए रोज ही जाना पड़ता था और रोज ही उनसे सामना होता था, वे स्नेह करते थे। मेरे पिता तैराक भी रहे थे और उन्होंने अपने परिवार और रिश्तेदारों के सारे बच्चों को तैरना सिखाया था।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मुझे अपने पिता से साहित्य की ओर झुकाव, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिक दृष्टि, रूढियों अंधविश्वासों का विरोध, अनास्था, दद्दा के रूप में साहित्य से महत्वपूर्ण हो जाने का आर्दश, पत्र पत्रिकाओं के रूप में दुनिया में चल रही गतिविधियों की जानकारी, मिली। बचपन के छुटपुट प्रकाशन ने यह संकेत भी दिये कि चाहूं तो मैं भी इस क्षेत्र में कुछ कर सकता हूँ। भयभीत माँ की दृष्टि अपनी बची रह गयी संतान को सुरक्षित कर लेने की थी इसलिए उसे मेरा बाहर जाना बुरा लगता था। घर में किताबें थीं, किताबों के प्रति रूचि थी। नगर में एक नये पुस्तकालय की स्थापना में भी वे सहयोगी रहे थे। इस बीच मुझे स्थानीय पुस्तकालय की सदस्यता भी दिलवा दी गयी थी जिसमें किताबों का भंडार था। पड़ोस व परिवेश में स्कूल से अलग पढने का कोई वातावरण नहीं था इसलिए अकेले अपने घर में पढना व उसमें मजा लेना आ गया था। विभिन्न क्षेत्रों की लोककथाएं, प्रेमचंद की कहानियाँ, वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास आदि मैंने बहुत ही कम उम्र में पढ लिये थे। कुछ समय बाद जासूसी और गुलशन नंदा, दत्त भारती, आदि को पढ कर समय से पहले बड़ा होने लगा था। 'सरिता' के धार्मिक पाखंड विरोधी लेख खूब भाने लगे थे। किसी लाइब्रेरी की बिकी पुरानी रद्दी को एक किराने वाला खरीद लाया था जिसमें से मैंने चार पाँच किलो कादम्बिनी खरीद ली थीं। रामानंद दोषी द्वारा संपादित कादम्बिनी उन दिनों की हिन्दी की रीडर्स डायजेस्ट की तरह थीं जिनमें दुनिया भर के प्रसिद्ध साहित्य के अनुवाद के साथ हिन्दी का भी श्रेष्ठ साहित्य छपा करता था। इसने अच्छे साहित्य के प्रति रूचि पैदा की। परिणाम यह हुआ कि मुझे अपने परिवेश के प्रति वितृष्णा पैदा हुयी और मैं साहित्य व सूचनाओं की नई दुनिया में विचरने लगा। बाद में तो किसी दार्शनिक की तरह कल्पना में ही प्रेम किया व कल्पना में ही वियोग जिया। उन्हीं दिनों नीरज के गीतों और अमृताप्रीतम के उपन्यासों ने आग में घी का काम किया। उसके कुछ ही दिनों बाद मुझे रजनीश के छुटपुट लेखों पर मोहित होने का अवसर मिला और उनकी पुस्तकें उपलब्ध होने पर तो मैं उनका दीवाना ही हो गया। मैंने पचासों लोगों को रजनीश साहित्य का पाठक बनाया जिसमें से कुछ तो बाद में उनके भक्त और स्वामी के स्तर तक पहुँचे किंतु उनके समाजवाद के बारे में विचार से मैं सहमत न होने के कारण उनको सावधानी पूर्वक पढने लगा। कवि सम्मेलन उन दिनों खूब होते थे जिनमें मैं पहले श्रोता और फिर कवि के रूप में भाग लेता था। जब कवियों को पारिश्रमिक लेते हुये देखता तो लगता कि यह भी जीवन यापन का एक रास्ता हो सकता है। उन्हीं दिनों अनेक ऐसी कविताएं रचीं गयीं जो मंच पर सफल हो सकतीं हों। पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन साहित्यकार को अधिक सम्मानित और स्वीकार्य बनाता था इसलिए उनमें छपने की आकांक्षा भी पलने लगी थी। कभी रचनाएं भेजीं जो वापिस आ गयीं तो बहुत हीनता बोध महसूस हुआ। फिर मेरी मुलाकात नगर के एक ऐसे युवा से हुयी जो अखबारों और पत्र पत्रिकाओं में खूब छपता था, पर मैंने देखा कि उसकी प्रकाशित रचनाओं की तुलना में वापिस आने वाली रचनाओं की संख्या कई गुनी अधिक थी तो वापिसी की ग्लानि खत्म हो गयी।
राष्ट्रीय स्तर पर मेरी पहली कविता क्षणिका के रूप में जुलाई 1971 की कादम्बिनी में ही प्रकाशित हुयी थी। उसके बाद तो धर्मयुग ने होली अंक के लिए मंगायी एक हजार रचनाओं में से 31 युवा रचनाकारों की रचनाओं का चुनाव किया था जिनमें मेरे साथ ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यबाला, सुरेशनीरव, समेत अनेक लोग थे। इन सारे ही लोगों को धर्मयुग ने अपने लेखक बनाने के लिए प्रकाशन के अवसर दिये। उन दिनों धर्मयुग के सम्पादकीय विभाग में गणेशमंत्री, मनमोहन सरल, उदयन बाजपेयी, सुरेन्द्रप्रताप सिंह, योगेन्द्र कुमार लल्ला आदि लोग थे। सुरेन्द्र प्रतापसिंह जो बाद में देश के पहले टीवी न्यूज एवं व्यूज कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, ने मुझे पत्र लिख कर 'रंग और व्यंग्य' स्तंभ में लतीफे लिखने के लिए आग्रह किया तो मुझे धर्मयुग जैसी राष्ट्रीय व श्रेष्ठ पत्रिका में नियमित लेखक होने का अवसर मिल गया। योगेन्द्र कुमार लल्ला ने मुझ से बाल गीत लिखवाये तथा बाद में जब वे कलकत्ता में आनन्द बाजार पत्रिका प्रकाशन की मेला पत्रिका के सम्पादक हुये तब उसमें भी उन्होंने मुझे बच्चों के लिए लिखने को प्रेरित किया। भारतीजी को दबाव में मेरे नाम के आगे दतिया लगाने को विवश होना पड़ा तब उन्होंने मुझे एक भावुक पत्र लिखा था वह एक अलग कहानी है, बहरहाल उससे मेरी पहचान में बढोत्तरी तो हुयी क्योंकि धर्मयुग में किसी और के नाम के आगे ऐसी पूँछ नहीं लगती थी।
उन दिनों बहुत ही सीमित पत्र पत्रिकाएं हुआ करती थीं व लिखने का सचमुच कोई मतलब हुआ करता था। लेखकों के लिए एक सम्मान का भाव होता था। जुलाई 1971 में मेरी नौकरी तो बैंक में लग गई पर मन नहीं लगा। एक सपना, स्वतंत्र लेखक पत्रकार बुद्धिजीवी की तरह जीने व पहचाने जाने का बना रहा। कालेज में पढाई के दौरान कुछ पत्रकारिता का मौका भी मिला था क्योंकि छोटी जगहों में आंचलिक अखबारों के हॉकर ही सम्वाददाता होते थे और वे समाचार किसी दूसरे से लिखवाते थे। मुझे भी उनके समाचार लिखने और पत्रकारिता की ताकत का स्वाद मिल चुका था। पर नौकरी जरूरी थी और नौकरी के साथ पत्रकारिता चल नहीं सकती थी। वह चलती तो रही पर किसी दूसरे के नाम से या छद्म नाम से।
पत्रिकाओं में लिखने के शौक में मैंने हर विधा पर हाथ आजमाया पर व्यंग्य का क्षेत्र ही अधिक भाया। कवि सम्मेलनों में श्रोता और कवि के रूप में भागीदारी के दौरान मुकुट बिहारी सरोज, बलवीर सिंह रंग, नीरज आदि मेरे प्रिय कवि रहे तथा मैंने उन की शैली में लिखने की कोशिश की। दुष्यंत कुमार की तरह हिन्दी गजलों पर हाथ आजमाने की कोशिश करते करते दुष्यंत की सभी पापुलर गजलों की पैरोडियाँ लिख डालीं जो विभिन्न जगह छपीं। वैसे पैरोडियाँ मैंने फिल्मी गीतों की भी लिखीं जो उन दिनों की प्रसिद्ध फिल्मी पत्रिका माधुरी में खूब छपीं, पर वे साधारण पैरोडियां नहीं होती थीं अपितु उनमें कुछ तत्कालीन राजनीति पर टिप्पणियां भी होती थीं। व्यंग्य लेखन के मेरे आर्दश कृशनचंदर, हरिशंकर परसाई, रहे और श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी तथा रवीन्द्रनाथ त्यागी मेरे पसंदीदा लेखकों में रहे। पत्रिकाओं में प्रकाशित नवगीतों ने भी खूब झकझोरा और उस दिशा में भी कुछ प्रयास किये जो बाद में व्यंग्य गीतों की ओर ले गये। कई साल तक नव वर्ष अभिनंदन के रूप में व्यंग्य की पंक्तियां गजल जैसे फार्म में लिखता रहा और उनके लिए प्रदीप चौबे का दिया हुआ नाम 'व्यंग्यजल' पसंद आया व इस नाम से भी कई रचनाएं प्रकाशित हुयीं।
बैंक में बेमन से 29 साल नौकरी की पर पूरे नियम कायदों और अनुशासन के साथ की। बड़े अधिकारी कभी खुश नहीं रह सके पर मेरे खिलाफ किसी कार्यवाही की जगह भी उनके पास नहीं होती थी इसलिए मेरे ट्रांसफर बहुत हुये। 29 साल में पन्द्रह ट्रांसफर पाँच राज्यों में हुये जिनमें हरपालपुर जिला छतरपुर(मप्र) से प्रारंभ होकर बैनीगंज जिला हरदोई, हाथरस,(उप्र) भरतपुर (राजस्थान) गाजियाबाद (दिल्ली क्षेत्र) हैदराबाद (आंध्रप्रदेश) नागपुर (महाराष्ट्र) जबलपुर (मध्यप्रदेश) पुन: हरपालपुर (मप्र) फ़िर हैडक्वार्टर कानपुर रहते हुये आडीटर जिसमें मथुरा, लखनउ, बाराबंकी, बिल्सी भागलपुर, गया आदि स्थानों पर माह दो माह बिताना पड़े। इस बीच मेरे हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक का विलय पंजाब नैशनल बैंक में हो गया और फिर मोरादाबाद अमरोहा (उप्र) में रहने के बाद दतिया ट्रांसफर हुआ। दतिया में पाँच साल गुजारने के बाद फिर दो साल भोपाल पदस्थ रहने के बाद इन्दरगढ और धीरपुरा जैसी जगहों पर रहना पड़ा अंतत: जब स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना आयी तब मैं उसके पहले आवेदकों में से रहा।
इस यायावरी का परिणाम यह हुआ कि बच्चे व्यावसायिक शिक्षा नहीं पा सके व प्रथम श्रेणी स्नातकोत्तर व पीएचडी स्लैट करने के बाद भी उसे स्कूल में अध्यापन करना पड़ रहा है। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद 2001 से भोपाल में अपना सपना जीने के प्रयास में लगा हुआ हूँ स्वतंत्र लेखक के रूप में पिछले दिनों एक हजार से अधिक विभिन्न विषयों व विधाओं के लेख प्रकाशित हुये हैं। इन्टरनेट का प्रयोग आरंभ करने के बाद हिन्दी की एक दर्जन से अधिक ई पत्रिकाओं में रचनाएं निरंतर जारी हो रही हैं जिनकी संख्या शतक पार कर चुकी है। चार ब्लाग हैं जिन पर रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं व सिंगापुर लंदन अमेरिका केनाडा के हिंदी पाठकों तक पहुँचने के प्रमाण उनकी टिप्पणियों से मिलते हैं। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या साढे चार है क्योंकि पाँचवीं पुस्तक काका हाथरसी के साथ संयुक्त रूप से लिखी गयी है। कविता व व्यंग्य के अलावा राजनीति समाज तथा साम्प्रदायिकता और अंधविश्वासों का विरोध मेरे प्रिय विषय रहे हैं।
इतने अधिक स्थानों पर पदस्थ रहने व यात्राओं के कारण अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों के सम्पर्क में आने का अवसर मिला। पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लिखने के कारण अनेक सम्पादकों से पत्र व्यवहार रहा। इनमें से बहुत सारे लोगों के बारे में मैंने समय समय पर संस्मरण लिखे हैं जो प्रकाशित हुये हैं। जिनमें से कई अब इस दुनिया में नहीं हैं। इनमें अमृताप्रीतम, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, मनुलाल शील, ओमप्रकाश निर्मल, रामावतार चेतन, वीरेन्द्र कुमार जैन (बम्बई) भाउ समर्थ, सव्यसाची, मुकुटबिहारी सरोज, वेणुगोपाल, किशोर उमरेकर, शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र नाथ त्यागी, वासुदेव गोस्वामी, नईम, हरिओम बेचैन, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, राजेन्द्र अनुरागी आदि हैं। समकालीनों लेखकों में मित्रों की सूची बहुत लंबी है जो दिल्ली से लेकर हरियाणा राजस्थान उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश बिहार झारखण्ड बंगाल आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र गुजरात कर्नाटक तक फैले हैं हाँ, दुशमनों की सूची इससे भी ज्यादा लंबी हो सकती है और जरूरी नहीं कि वे बहुत दूर हों।
उक्त सभी राज्यों की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुयी हैं। एक हिन्दी फीचर ऐजेन्सी मेरे लेख भी नियमित जारी करती है व दो सौ अखबारों को भेजती है।
दूसरों के बारे में खूब लिखा है पर अपने बारे में पहली बार लिख रहा हूँ।
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वीरेन्द्र जैन की अन्य रचनाएँ उनके ब्लॉगों पर पढ़ें -
virendra jain ke nashtar वीरेंद्र जैन के नश्तर
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वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
(12जून 2009 को रागभोपाली में प्रकाशित)
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