(प्रविष्टि क्रमांक - 18) स्कूल और जनपद कार्यालय के भवन साफ सुथरे थे जैसे गांव में रहने वालों के उनके घर हों। सड़कें बिलकुल ...
स्कूल और जनपद कार्यालय के भवन साफ सुथरे थे जैसे गांव में रहने वालों के उनके घर हों। सड़कें बिलकुल साफ सुथरी थीं जैसे गांव के घर के आंगन हों। सड़कों को गोबर पानी से छरा दे दिया गया था अपने आंगन की तरह। गोबर से लीप दी गई ये पतली पतली मनोहारी गलियां घरों में ऐसे घुस गई थीं जैसे नई नवेली बहुएं हों।
घर से बाहर गांव में हर कोई कहीं भी ऐसे बैठा था जैसे अपने घर में बैठा हो। चौपाल में हर कोई दूसरे से ऐसे बतिया रहा था जैसे वह चौपाल में नहीं अपने घर की डेहरी पर बैठा बतिया रहा हो। बच्चे नाच नाच कर बोरिंग से पानी निकालकर पी रहे थे जैसे बोरिंग गांव का नहीं उनके घर का हो। कुल मिलाकर गांव के भीतर घर था और घर के भीतर गांव था।
यहां एक अकेली कोलतार की पक्की सड़क थी जो कहीं से आती थी और कहीं चली जाती थी। सड़क पर चलते उस राहगीर की तरह जो इस गांव में कहीं से आता है और कहीं चला जाता है।
इस सड़क पर कभी कोई सरकारी जीप, इतवार की छुट्टी में गांव की नदी के किनारे पिकनिक मनाने आए किसी समूह की कार, किसी बड़े किसान का ट्रैक्टर और किसी छोटे किसान की लूना दिख जाती थी जिनके सायलेंसर की फटफट की निकलती आवाज गांव में गूंज जाती थी। तब गांव के सारे लोग उस पक्की सड़क की ओर उस वाहन और उसमें सवार लोगों को तब तक देखते रहते जब तक कि वह ओझल नहीं हो जाता। उनके ओझल हो जाने के बाद भी उस गाड़ी की फटफहाट मीलों दूर से गांव को सुनाई देती रहती थी।
शाम के घरियाते अन्धेरे में इस तरह की फटफटाहट भरी आवाज किसी एक ओर से मद्धिम सुर में आती थी फिर धीरे धीरे आवाज बढ़ती चली जाती थी तब मिनटों बाद वह वाहन गांव की उस एकमात्र पक्की सड़क पर दीख जाता था किसी खम्भे में लगे बिजली की पीली रोशनी में। गांव के लोग उन वाहनों को अब बिना किसी भाव भंगिमा के देखने लगे थे उन वन्य प्राणियों की तरह जो अभयारण्य में आए पर्यटकों को देखते हैं।
हमारे सपनों का गांव 'हमारा गांव'। यह पहली बार था जब किसी गांव में उस गांव की नामपट्टी लगा कहीं देखा हो। उस पक्की सड़क के किनारे पीपल का एक पुराना वृक्ष था जिसमें लोहे की घुमावदार रींग से उस गांव का नाम लिखा था और जिसे नोकदार खीलों के सहारे पेड़ में खोंच दिया गया था। सड़क पर जो भी वाहन गुजरता उसे बांयी ओर खड़े इस पीपल के पेड़ में यह लगा दिखता - हमारे सपनों का गांव 'हमारा गांव'। लहलहलहाते चमचमाते पीपल के मुलायम मुलायम से हरे पत्ते झूमते रहते थे जिनके पास जाने से एक मीठी सरसराहट सुनाई देती थी मानों उसके सारे पत्ते समवेत स्वरों में कह रहे हों - हमारे सपनों का गांव 'हमारा गांव'।
पेड़ के नीचे खड़े बच्चों की रैली निकलने वाली थी। सबके हाथ में पुटठों पर लगे सफेद कागज की बनी तख्तियां थीं जिसे पतली कमानी से बांध कर वे अपने हाथ में उठाए हुए थे। इनमें वे सारे सपने थे जो किसी गांव को एक आदर्श गांव में बदल सकते हैं।
नन्ही आँखों में ये सपने तिर रहे थे पर केवल नन्हे हाथों में होने से इन्हें नन्हा सपना नहीं कहा जा सकता था क्योंकि सपनों के आकार को देखने वाले की आयु पर निर्भर नहीं किया जा सकता। सपनों का आकार स्वप्नदर्शी की इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है।
'वृक्ष माटी के मितान हैं, जीवन का नव विहान है।' उनकी धीमी लेकिन किलकारी भरी आवाजें गूंजी थीं। जिसमें नव विहान यानी नई सुबह की आशा चमकती थी। इनमें स्कूल ड्रेस के भीतर सिमटी हुई कुछ मिट्टी की बनी गुड़ियानुमा लड़कियां थीं जिन्हें आँखों की चमक और मद्धिम
स्वरों ने जीवन्त कर रखा था, जो भ्रूण हत्या से बचकर खुशी के मारे चहक रही थीं। एकबारगी इनके समूह को देखकर किसी चमन में होने का अहसास होता था। वीथिकाओं के किनारे विहंसते हों जैसे किंशुक कुसुम। अबकी बार इन कुसमलताओं ने राग दिया था 'चांद तारे हैं गगन में, फूल प्यारे हैं चमन में।'
साथ में घूमते गुरुजन थे 'हमारे समय में ना पर्यावरण था ना प्रदूषण था। वातावरण था जो कभी दूषित हो उठता था। हमारे समय में वातावरण दूषित होता था तो आज पर्यावरण प्रदूषित होता है।' एक गुरु ने अपना ज्ञान जताया जिसे सामान्य विज्ञान की किताब से उन्होंने अर्जित किया होगा।
यह निषादों का गांव था जिनके पूर्वजों ने कभी कृपासिन्धु को पार लगाया था। उन संकरी गलियों के बीच कोई कोई मकान ऐसे दिख जाता था जिनमें उनकी गौरव गाथा का चित्रांकन था। मिट्टी की दीवारों पर टेहर्रा (नीले) रंग से कुछ आढ़ी तिरछी रेखाएं खींची गई थीं जिनमें राम सीता, लक्ष्मण को पार लगाते निषादराज उभर कर आते थे।
'वन पुरखे, नदियां पुरखौती जान लो, पेड़ ही हैं अपने अब तो मान लो।' अगला नारा बुलन्द हुआ था। नदी के किनारे पेड़ तो थे पर नदी गुम हो गई थी। इसे नदी की रेत ने नहीं सोखा था। थोड़ी दूर पर बसे शहर की विकराल आबादी की प्यास ने इसकी जलराशि को गटक लिया था। गांव के हिस्से में रेत थी। रेत की नदी। अगर आज कृपासिन्धु इस गांव में आ जाएं तो यहां के निषादराज उन्हें अपने कंधों पर लादकर नदी की रेत को लांघते हुए ही उस पार छोड़ पाएंगे।
गलियां उतनी ही संकरी थी जितने में गांव का आदमी आ जा सके। कभी कोई गाय-भैंस आ जाए तो गली के इस पार खड़े होकर उनके निकलने का इंतजार करना पड़ता था। भैंस तो भैंस होती है पर गाय बड़ी शर्मीली और संवेदनशील होती है। अपनी जगह पर खड़ी हो जाती है सिर झुकाकर और तिरछी आँखों से आगंतुक के निकल जाने की प्रतीक्षा करती है गांव की किसी रुपसी की तरह। अगर उसे जल्दी निकलना हो तो आगंतुक के पास से गुजरते समय अपने पेट सिकोड़ लेती है ताकि अपने और आगंतुक के बीच यथेष्ट दूरी उसकी बनी रहे किसी शीलवती की तरह। इनमें कुछ गायें थीं जिनके पेट फूले हुए थे। रैली का नारा सुनाई दिया 'पॉलीथिन मिटाना होगा, गाय को बचाना होगा।'
जोश में ये नारे कभी उलटे पड़ जाते हैं 'पॉलीथिन बचाना होगा, गाय को मिटाना होगा।' ऐसी चूकों से बचाने के लिए गुरुजन कहते थे कि 'शब्दों को मत पकड़ो, उसके भाव को पकड़ो। बस्स.. भावना सच्ची होनी चाहिए।' गांव भी इस मान्यता पर जोर देता है 'जग भूखे भावना के गा।'
रैली के साथ चलने वाले एक गुरु ने अपने सामान्य ज्ञान का परिचय दिया 'अखबार में छपा था कि एक गाय का पेट चीरकर उसमें से पैंतालीस हजार झिल्लियॉ निकाली गई थीं!'
नारे केवल लोग ही नहीं गुंजा रहे थे इस गांव की दीवारें भी गूंजा रही थीं। दीवारों के केवल कान भर नहीं होते उनके मुंह भी होते हैं। विज्ञापन के इस युग में तो आजकल दीवारें खूब बोल रही हैं। इतनी ज्यादा कि गांव के सन्नाटे में शोर पैदा कर रही हैं।
एक तरफ गुड़ाखू, नस, मंजन और हर किसम के गुटके व तम्बाखू को आजमाने का शोर था तो दूसरी ओर इनसे होने वाले विनाश से बचाने पर जोर था। इनमें महिला सशक्तिकरण किए जाने और बाल विकास के लिए बहुकौशल कला शिविरों के लगाए जाने की सूचना थी।
आजकल हर योजना कॉरपोरेट लेवल पर है और हर कहीं एन.जी.ओ.की पैठ है। सरकार की समाज सेवाएं अब ठेकेदारी पर चल रही है। पंचायत एवं समाजसेवा का बंजर इलाका अब सी.एस.आर. एक्टीविटीज की चकाचौंध से भरता जा रहा है। किसी कॉर्नीवाल की तरह सुनियोजित विलेज बनाए जाने का दावा है। यहां भी रिलायंस वाले पब्लिक सेक्टरों को पछाड़ने में लगे हैं।
गुरु ने क्रोध में पूछा कहाँ हैं एनजीओ वाले? स्साले.. रैली निकलवाकर भाग गए। अब बाकी काम मास्टर करें। एक मास्टर ही तो है कोल्हू का बैल जिसे जब मर्जी चाहे जहां जोत दो।'
रैली जहाँ से शुरु हुई थी वहां लौट आई थी उस पीपल के पेड़ के पास जिस पर गांव का नाम लिखा था 'हमारा गांव'। बच्चों की अंतिम और थकी थकी आवाज गूंजी थी 'चहुं दिशा छाई पीपल की छांव, बनाएंगे हम सपनों का गांव।'
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विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
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