वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख – लोक कवि रहीम : जातीय लोक जीवन के प्रहरी

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  रहीम की कविता में जातीय जीवन और लोक की समानता पर बल मिलता है। आपने कविता की पवित्रता बनाये रखी, उस पर दरबार की कालिख नहीं लगने दी।...

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रहीम की कविता में जातीय जीवन और लोक की समानता पर बल मिलता है। आपने कविता की पवित्रता बनाये रखी, उस पर दरबार की कालिख नहीं लगने दी। उनके काव्‍य में राजसी जीवन के अनुभव नहीं, आम आदमियों की मनः स्‍थितियों का सघन चित्रण हुआ है। विदेहराज जनक की तरह राजवैभव के बीच रहते हुए भी कमलवत्‌ निर्लिप्‍त, साक्षी भाव से जीवन के उतार चढ़ाव को देखते रहे। जीवन-सुरंग पर सवार होकर वे आग के दरिया को सजह, अंकुठ भाव से पार करते हैं। सुख या दुःख कहीं भी उद्वेलन का भाव नहीं है। साक्षी भाव से वे जीवन के सारे अनुभवों को जीते हैं जिसका निचोड़ उनकी कविता में प्रकट है। यही उनकी कविता को महत्‍वपूर्ण बनाता है। शुक्‍ल जी जिस ‘सेक्‍यूलर' कविता की बात उठाते हैं, वह अपने सही रूप में रहीम में मिलती है। पर पता नहीं क्‍यों शुक्‍ल जी चूक गए। हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी ‘सेक्‍यूलर' साहित्‍य रीतिकाल में दिखाई देता है, रहीम उनकी नजरों से ओझल रहते हैं। विजयदेव नारायण साही ने रहीम के बहुमुखी, प्रतिभाशाली व्‍यक्‍तित्‍व की तरफ संकेत तो किया है पर केवल चर्चा के स्‍तर पर। रहीम काव्‍य का विशद विवेचन उपेक्षित है। दरअसल साहित्‍य को हिन्‍दू-मुसलमान, स्‍त्री-पुरुष, संत-भक्‍त, सूफ़ी आदि खानों में बांटकर देखने से दृष्‍टि एकांगी बनती है। साहित्‍य में प्रवाहित सांस्‍कृतिक नैरन्‍तर्य की धारा में योगदान की दृष्‍टि से अब्‍दुर्रहीम खानखाना का काव्‍य अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है। वह साहित्‍य की मुख्‍यधारा का काव्‍य है उसे हाशिए पर धकेलना या एक कोने में फुटकल खाते में डाल देना-वस्‍तुतः उनके काव्‍य के जातीय सांस्‍कृतिक सन्‍दर्भों की उपेक्षा है।

इस काल में रहीम की सबसे अधिक महत्ता वैचारिक दृष्‍टि से है जो मध्‍यकाल के धार्मिक कुहासे को चीरकर वे प्रकट कर रहे थे। साहित्‍य को जीवन और समाज से जोड़ने का जो उपक्रम सिद्धों और नाथों के साहित्‍य में है, वही प्रयास रहीम ने अपने काव्‍य में किया है और उसको केवल नीतिपरक कहकर विवेचित करना-उस पूरी इहलौकिक चेतना की उपेक्षा है जो बड़े वेग से उनके काव्‍य में विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। जीवन का समग्र रूप उनकी कविताओं में अपनी विविधता में अंकित है। इहलौकिक और पारलौकिक का भेद भी कृत्रिम है, पूरा लोक जीवन उनकी कविताओं में झाँक रहा है। जीवन रसमयता को जनसाधारण के जीवन में अंकित किया है। रहीम के काव्‍य में लोकचेतना का रंग अत्‍यंत गाढ़ा है। जीवन के विविध पक्षों के अनेक चित्र उनकी कविता में मिलते हैं। बैंगन की तरह काली-कुंजड़िन सोआ-साग बेचती है और निद्वन्‍द्व होकर फाग खेलती है। विभिन्न व्‍यवसायों की नाना स्‍त्रियों का मनोहर अंकन किया हैः-

भटा बदन सुकाजरी, बेचै सोवा साग।

निलज भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग॥

रहीम ने जीवन को एक बड़ी व्‍यापक दृष्‍टि से देखा है और जिंदगी के यथार्थ को कई कोणों से चित्रित किया है। जीवन के निथरे अनुभव को सुंदर दृष्‍टांतों से बोधगम्‍य बनाया है। रहीम का काव्‍य समाजशास्‍त्रीय दृष्‍टि से अपने युग के सामान्‍य जन जीवन पर भरपूर प्रकाश डालता है। साथ ही यह भी दिखाता है कि कैसे कविता सामान्‍य मानवीय सरोकारों से जुड़कर सामंती युग में उपेक्षा का शिकार होती है। ये कविताएँ अगर यथार्थ के धरातल पर न खड़ी होकर आदर्श और कल्‍पना की रूमानी दुनिया में भटकती होती तो शायद ज्‍यादा प्रशंसा और वाहवाही उस युग में और आज भी पातीं।

कहा करौं बैकुंठ लै, कल्‍पवृक्ष की छाँह।

रहिमन ढ़ाक सुहावनो, जो गल प्रीतम बाँह॥

वस्‍तुतः रीतिकाल की परम्‍परा विद्यापति और सूरदास से नहीं, रहीम से शुरू होती है। रीतिकाल का मूल उत्‍स रहीम में मिलता है। लोक जीवन मुक्‍तक काव्‍य परम्‍परा के वे प्रवर्त्तक हैं। �ाृंगार की धारा रहीम से फूटती है जो रीतिकाल में अत्‍यंत वेग ग्रहण कर लेती है। आलोचकों ने रहीम को उतना महत्‍व नहीं दिया है जितने कि वे अधिकारी हैं। लोकमानस की अद्‌भुत पकड़ और जातीय जीवन की सशक्‍त अभिव्‍यक्‍ति उनको महत्‍वपूर्ण बनाती है।

दूसरी परम्‍परा को ठीक से न पहचानने के कारण सरहपा आदि सिद्धों और नाथों की रचनाओं को साहित्‍य की मुख्‍यधारा से बाहर हाशिए पर फेंक दिया गया। यद्यपि राहुल सांकृत्‍यायन ने सिद्धों-नाथों के साहित्‍य की क्राँतिकारिता को रेखांकित किया पर आचार्य शुक्‍ल के विराट व्‍यक्‍तित्‍व से आक्रान्‍त होने के कारण वे उनके सहज मार्ग की सही व्‍याख्‍या नहीं कर पाये। उसका परिणाम यह हुआ कि आज तक उसे हाशिए का साहित्‍य मानकर विवेचन हो रहा है। उसके मूल्‍यांकन, प्रासंगिकता और महत्‍व की चर्चा नहीं हुई। कभी विचारधारा के आधार पर, कभी वेदों और ब्राह्मणों की निंदा के आधार पर सिद्ध-नाथ साहित्‍य उपेक्षित होता रहा है। वस्‍तुतः यह साहित्‍य की मूलधारा है, जिसे हाशिए पर फेंक दिया गया है। इसको स्‍वीकार किये बिना आदिकाल से भक्‍तिकाल तक के विकास में हमेशा गाँठ सी दिखाई पड़ेगी, प्रवाह समरस नहीं होगा।'' आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पूरी आलोचना-ऊर्जा संतकाव्‍य, विश्‍ोषतः कबीर को स्‍थापित करने में लगी रही। उसी के संदर्भ में उन्‍होंने नाथ साहित्‍य का विवेचन किया है। सिद्धों-नाथों के साहित्‍य में उनका मन रमा नहीं। इनके बारे में उनके विचार, थोड़े संशोधन के साथ शुक्‍ल जी वैसे ही रहे। यह वह साहित्‍य है जिसमें उस काल के पूरे हिन्‍दी क्षेत्र की धड़कन है, जिसे विद्वानों ने स्‍वीकार किया है पर उपेक्षित करने के लिए तर्क दिया कि वे साधु थे, चारों तरफ घूमते थे, इसलिए उनकी रचनाओं का प्रचार था। यह राज्‍याश्रय में लिखा जाने वाला चारणों और भाटों के अतिशयोक्‍तिपूर्ण वर्णनों वाला साहित्‍य नहीं है-आम जनता का साहित्‍य है, उसकी भावनाओं और विचारों का साहित्‍य है, परम्‍परा को पोषित करने वाला नहीं-रूढ़ियों और कठमुल्‍लापन के खिलाफ विद्रोह का साहित्‍य है। इसकी परम्‍परा कृष्‍ण और बुद्ध की परम्‍परा के वैचारिक संघात से ऊर्जा ग्रहण करती है और मध्‍यकाल में कबीर, नानक, दादूदयाल तथा चंडीदास के रूप में दो विभिन्‍न धाराओं और रूपों में प्रकट होती है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी विकास-प्रक्रिया में लोक को केन्‍द्र में रखते हैं, इसलिए विदेशी प्रभावों की सत्‍ता और सक्रियता उनकी दृष्‍टि से ओझल हो जाती है। समूची जनता की दृष्‍टि सामने रखते हुए रामचन्‍द्र शुक्‍ल इस्‍लामी प्रभाव की क्रिया-प्रतिक्रिया का महत्‍व समझते हैं, जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक-चिंता की अपेक्षा में सबकुछ को मापते हुए लोक और उसकी जातीय परम्‍परा के विकास को ही केन्‍द्र में रखते हैं। जनता और लोक के ये प्रयोग इन इतिहासकारों की दृष्‍टि का अंतर भली-भांति परिभाषित करते हैं।

‘‘दूसरी परम्‍परा से सत्‍य तथ्‍य को स्‍वीकार कर उसके ऐतिहासिक महत्‍व का मूल्‍यांकन आवश्‍यक है। इसके लिए दलित साहित्‍य को आलोचना का नया शास्‍त्र गढ़ना होगा और लोकप्रियता के मानदंड को स्‍वीकार करना पड़ेगा। पवित्रतावादी, अभिजात आलोचना परम्‍परा से नाता तोड़कर उसे सर्वग्राही बनाना पड़ेगा। जनता से जुड़े साहित्‍य को उप साहित्‍य कहकर उपेक्षित करने से साहित्‍य की मुख्‍यधारा धुंधलाती है और उसका एकरस प्रवाह बाधित होता है। डॉ0 नामवर सिंह के शब्‍दों में कहें तो यह भी एक विरोधाभाष ही है कि शास्‍त्र संवलित होकर साहित्‍य जिस मात्रा में सामाजिक दृष्‍टि से लोक-विमुक्‍त तथा लोक-विरोधी विचारों की ओर विचलित हो गया, काव्‍य-भाषा तथा काव्‍य-कला की दृष्‍टि से उसी मात्रा में समृद्धतर होता गया। कबीर से चलकर क्रमशः जायसी; सूर और तुलसी तक के विकास का मूल्‍यांकन इस दृष्‍टि से रोचक हो सकता है।''

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

सम्पर्क -वरिष् प्रवक्ता, हिन्दी विभाग

डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 . प्र.

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रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख – लोक कवि रहीम : जातीय लोक जीवन के प्रहरी
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख – लोक कवि रहीम : जातीय लोक जीवन के प्रहरी
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