अकहानी : अकहानी वह है जो न तो कहानी है और न ही जिसमें ‘अ' अक्षर का प्रयोग होता है । वास्तव में अकहानी असफल अकहानीकारों की आंतरिक व...
अकहानी :
अकहानी वह है जो न तो कहानी है और न ही जिसमें ‘अ' अक्षर का प्रयोग होता है । वास्तव में अकहानी असफल अकहानीकारों की आंतरिक व्यथा है ।
अकविता :
कविता के नाम पर जो कूड़ा-कचरा दिमाग से बाहर फेंका जाता है, उसे अकविता कहते हैं । वास्तव में अकविता वह है, जिसे स्वयं कवि भी नहीं समझ सकें ।
अभिनन्दन :
किसी लेखक की लेखन-क्रिया बंद कराने हेतु सबसे उपयुक्त हथियार ही अभिनन्दन कहलाता है । किसी का भी अभिनन्दन कर दो, सरेआम पता चल जाएगा कि अमुख लेखक चुक गया है । आजकल हर बड़े शहर में अभिनन्दन करने हेतु दुकानें खुली हैं, कई शहरों में एक साथ अभिनन्दन कराने पर एक छोटे कस्बे में अभिनन्दन मुफ्त किया जाता है । (बिल्कुल वैसा ही मामला कि दो बड़ी कब्रों के साथ एक छोटी कब्र मुफ्त खोदी जाती है ।)
आलोचक :
वह असफल लेखक जो किसी भी लेखक को सफल होते नहीं देखना चाहता, आलोचक कहलाता है । वैसे आलोचक खटमलों की तरह लेखक का खून चूस-चूसकर मोटाता है ।
कवि :
वह व्यक्ति जो सचमुच में बेरोजगार है, हिन्दी का कवि है । बिखरे बाल, फटे कपड़े, और कपड़ों में पड़ी जुएं हिन्दी कवि की चल-अचल सम्पत्ति मानी जाती है । कई बार कवि के पीछे ठेला भर रचनाएं भी चक्कर लगाती रहती हैं । मच्छरों और कवियों की जनगणना जारी है । आंकड़ों की तलाश है ।
कवि-सम्मेलन :
हास्यास्पद रस का ऐसा वृहद आयोजन जो क्रिकेट के खेल को भी मात करता है। मंच पर आसीन हास्यास्पद-रस-सिक्त कवि संचालक से मोटा लिफाफा प्राप्त करने हेतु गलेबाजी करते हैं, मुजरा करते हैं, फिकरेबाजी करते हैं और कई बार कवयित्रियों को साथ लाकर अपना तथा संचालक दोनों का यह लोक और परलोक सुधारते हैं ।
कहानी :
वह रचना जो प्रेमचन्द के बाद लिखी ही नहीं गई, कहानी कहलाती है । वैसे आज बेचारी कहानी की दशा और दिशा दोनों ही गायब हैं । विधवा कहानी को किसी नये प्रेमचन्द की तलाश है ।
गीत :
सुरीले गले से गाई जाने वाली गद्य रचना जो अक्सर लोकगीत से उड़ाई जाती है, गीत कहलाती है, कवि सम्मेलनों तथा फिल्मों में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है, ऐसा आलोचकों का कहना है ।
घृणा :
वह प्रक्रिया जो लेखक, लेखक से करता है घृणा कहलाती है । वास्तव में आज हर लेखक दूसरे लेखक से जितनी घृणा करता है, वह एक रिकार्ड है । कहावत भी है, घृणा का फल मीठा होता है । अक्सर लेखक सम्पादक से कहते हैं, ‘यदि अमुक की रचना इस अंक में जा रही है, तो मेरी रचना को रोक दें ।'
नई कविता :
जो न तो नई हो और न ही कविता हो, उसे यार लोग नई कविता कहते हैं । इस झण्डे का परचम इन दिनों आधा झुका हुआ है । कई बार तो नई कविता पुराने जूतों की तरह ही फटी दिखाई देती है । है कोई मोची जो इसे सी कर ठीक करे ।
नई कहानी :
जो कुछ नहीं कर पाता वह नई कहानी से दिल बहलाता है । वैसे नई कहानी आजकल वैसे ही गायब है जैसे गधे के सिर से सींग ।
प्रकाशक :
वह जन्तु जो लेखक के फटे जूतों को बुरी तरह फाड़ कर उसके हाथ में दे देता है । कभी-कदा-कभार पन्द्रह रूपये का चेक भी भेज देता है जिसे बैंक में जमा कराने और संकलन में बीस रूपये खर्च हो जाते हैं । वैसे अक्सर प्रकाशक सब्ज बागों कें बादशाह माने जाते हैं ।
पांडुलिपि :
जिसे प्रकाशक लौटाता रहे और लेखक बगल में दबाए दरियागंज के चक्कर काटता रहे, उसे सामान्य जन पांडुलिपि के नाम से जानते हैं । अक्सर पांडुलिपियां घर पर सिगड़ी जलाने के काम आती हैं । ऐसा रचनात्मक प्रयोग विदेशों में अभी शुरू नहीं हुआ है । वे हम से अभी भी बहुत कुछ सीख सकते हैं ।
पापुलर साहित्य :
जो बिके वह पापुलर साहित्य कहलाता है, हां ये बात दीगर है कि वह दुकानों पर नहीं फुटपाथ पर बिकता है । वैसे भी साहित्य और साहित्यकार दोनों ही फुटपाथ पर ही ज्यादा पाए जाते हैं सो जानना रे मेरे अज्ञानी पाठक ।
पारिश्रमिक :
प्रकाशक व सम्पादक इसे पुरस्कार कहते हैं, लेखक इसे मजदूरी कहते हैं, कुल मिलाकर स्थिति ये है कि यह मृग-मरीचिका रेगिस्तान के अलावा भी काफी मात्रा में पाई जाती है ।
पाठक :
वह गधा जिस पर हर कोई लदने की कोशिश करता है, लेकिन दुलत्ती खाकर चित्त गिरता है ।
पुरस्कार :
जो मुझे मिलना चाहिए था और दूसरों को मिल गया, वही पुरस्कार है ।
भूमिका :
जो रूपये देकर अन्य लेखकों से अपनी पुस्तक हेतु लिखवाई जाए उसे भूमिका कहते हैं । भूमिका-लेखन एक ऐसा रोजगार है, जो आजकल किराये की दुकान की तरह प्रचलित है ।
मौलिक :
जो हिस्सा अच्छा होता है, वह मौलिक कभी नहीं होता और जो मौलिक होता है, वह अच्छा कभी नहीं होता है । वैसे जो चोरी का लेखन पकड़ा नहीं जा सकता है, उसे ही मौलिक लेखन कहते हैं ऐसा शास्त्रों में लिखा है ।
यात्रावृत :
बिना विदेश गए विदेशों का विवरण लिख देना ही यात्रावृत्त कहलाता है, इसी प्रकार बिना पहाड़ों को पवित्र किए पहाड़ों का अधिकृत विवरण लिख देना यात्रावृत्त कहलाता है ।
रायल्टी :
सौ प्रतिशत की पुस्तक में से पांच प्रतिशत का भाग रायल्टी है, जिसे पाने में लेखक कापीराइट बेच देते हैं । कई बार लेखक का अंतिम संस्कार करने का कापी राईट भी प्रकाशक खरीद लेते हैं, और उसका भी मुनाफा प्राप्त करते हैं ।
रद्दीवाला :
लेखन-समुदाय की अंतिम लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी, हर लेखक कर्ज में मरता है, प्रकाशक मामूली मुनाफे में मरता है, लेकिन हर रद्दीवाला लखपति मरता है (मेरी एक पुस्तक की हजार प्रतियां एक बार एक रद्दी वाले ने इकट्ठी खरीद लीं । तब से मैं उसका शुक्रगुजार हूं ।)
लेखक :
भारतवर्ष में जीवित रूप में फटीचर और मरने के बाद महान हो उसे लेखक कहते हैं । (मरणोपरान्त महान बनने की यह परम्परा मेरे ऊपर भी लागू होगी ।)
विज्ञापन :
भूमिका, प्राक्कथन, सम्मतियां आदि ही विज्ञापन के विविध रूप हैं । कई बार इन स्थानों पर अर्धनग्न नारियों के अनावृत आकारों से भी काम चलाया जाता है ।
व्यंग्य :
जो और कुछ नहीं लिख सकता है, वह जो कुछ भी लिखता है, वही व्यंग्य है । और जो और कुछ नहीं पढ़ सकता, वह जो भी पढ़ता है वह व्यंग्य हो जाता है । वास्तव में शुद्ध व्यंग्य हेतु आरक्षण की आवश्यकता है । यदि चन्दा किया जाए तो मैं इस आन्दोलन का नेतृत्व करने को तैयार हूं ।
शोध :
इस शब्द का सही उच्चारण ‘षोथ' है । जो अक्सर विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों के चेहरे पर पाई जाती है । शोध वह है जिसे बिना किए ही पांच सौ पन्नों की पुस्तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मदद से प्रकाशित की जाती है ।
सम्पादक :
वह शख्स जो सखेद साभिवादन कई बार अपनी पत्नी को भी लौटा देते हैं । अयाचित या पूर्व स्वीकृति के अभाव में ये अपनी संतानों का भी दायित्व निर्वाह नहीं करते हैं । वैसे इनके हाथ में एक कैंची रहती है । सामान्यतया सभी सम्पादक भूतपूर्व लेखक होते हैं और कई तो अभूतपूर्व होते हैं ।
समानान्तर कहानी :
जो रेलवे की पटरियों की तरह समानान्तर चले उसे समानान्तर कहानी कहते हैं । कई बार क्षितिज पर जाकर ये मिल जाती है और ऐसी गडमड होती है कि कुछ समझ में नहीं आता है ।
साहित्य :
जो पढ़ा नहीं जाए वो साहित्य है और जो पढ़कर समझ में नहीं आए वह सत्साहित्य है । वैसे जो थोड़ा-बहुत भी समझ आ जाए वह घटिया साहित्य कहलाता है ।
सम्मतियां :
अपनी पुस्तक का ऐसा अचूक विज्ञापन जो चूरण की गोलियों के विज्ञापन को भी मात करता है । कई बार पुस्तक लेखक स्वयं ही सम्मतियां लिखकर प्रकाशित कर लेता है ।
साहित्यिक समाजवाद :
वह चीज तो चौराहे से चल चुकी है और अब मेरे घर में पहुंचने ही वाली है, साहित्यिक समाजवाद है ।
हिन्दी साहित्य की यह आखिरी किताब मैंने अपने दुरूस्त होषोहवास के साथ लिख दी सो सनद रहे और वक्त जरूरत काम आवे ।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर 302002 फोन 2670596
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