सुबह जब घन्टी बजी तो बजाने के लिहाज से ही मैं समझ गया ताऊ हैं। मैं अलसाया सा आंखें मलता किसी तरह से दरवाजे तक पहुँचा तब तक दना-दन ताऊ ने...
सुबह जब घन्टी बजी तो बजाने के लिहाज से ही मैं समझ गया ताऊ हैं। मैं अलसाया सा आंखें मलता किसी तरह से दरवाजे तक पहुँचा तब तक दना-दन ताऊ ने तीन चार बेल और ठोक दी। जा कर दरवाजा खोला आंखें फटी की फटी रह गई, ताऊ सजा धजा सफेद धोती कुर्ता पहने बगुला भगत बना खड़ा था। ताऊ बिना किसी अवरोध के स्टाक से सोफे पे जाकर सज गया, ताऊ में जवानी के लक्ष्ाण नजर आ रहे थे। सुना जरूर था, कि सो साल में बूढे आदमी के नये दांत निकल आते हैं। परन्तु यहां तो 95 साल में ताऊ की जवानी के साथ-साथ नई अंते भी निकला आई लगता हैं। आंखों में चमक, चेहरा जो कल तक रेगिस्तान की रेत की तरह ऊबड़ खाबड़ था, आज हवा का न जाने कौन से झोंका आया उसे सपाट और चिकना कर गया है। आंखें जो कल तक मोटे चश्मे से ढ़कीं थी, आज अचानक चस्माँ गायब हैं। न जाने कौन सी संजीवनी बूटी ने अपना कमाल दिखा दिया और जीवन में नई सजीवता भर दी। चेहरे पर फैली ताजगी और कोमलता उन झुरीयों को अपने अन्दर छुपा लेना चाहती थी। मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा था ये चमत्कार कैसे हुआ, मै दरवाजे के पास ही आवक मुहँ फाड़े खड़ा देखता रह गया। ताऊ ने आवाज देकर बुलाया पता नहीं मैं सोया था या खोया था ताऊ की मोहनी मुद्रा में।
‘’अर गजेन्द्र उत्त खड़ा कै कर से, इत आ के बैठ ।‘’
मैं अपने को सहज सम्हाल के सिमटा सिकुड़ा सा ताऊ के पास जाकर बैठ गया और किसी तरह से अपने आप को सहज करने की कोशिश कर उलटा ताऊ पर ही सवालों का हमला बोल दिया। ‘’ ताऊ बडी जल्दी में हो आज सुबह-सुबह कहां बन ठन के चल दिये, आज कहीं ससुराल तो जाने का इरादा नहीं हैं।‘’’
‘’कै बताऊ गजेन्द्र जीब तै यो राखी का स्वयंवर देखा से, भई मेरा ड़िमगा एक दम से हेग होगा, सोचा अपना गजेन्द्र समझदार से दुनियां दारी जाने सै, रोज हजार दो हजार तै मगज खपाई भी करे सै, हम ठहरे कुप्प मिढ़क, रात भर यहीं सोचता रहया पता ना तू घरा पाएगा कै ना।‘’’
‘’ ताऊ आप तो जानते हे मैं कहीं भी जाता हुँ तो आपको बता कर चाबी देकर जाता हूँ।‘’
‘’ हां या बात तेरी ठीक से पर कदै-कदै ईशा भी काम आन पड़ सै जिसके करण तै पहला शरम कै मारे बताते हिचक आजा सै, मन्न तै नुये अन्दाजा लगाया था।‘’
ताऊ ने अचानक कौन सा सुर लगा दिया पंचम या तीव्र मध्यम मेरी समझ मे नहीं आया। ‘’ ताऊ कोन सी पश्तो भाषा में बोल रहे हो।‘’ मैने विस्मय से ताऊ की तरफ़ प्रश्न भर निगाह से देख।
‘’ अरे यो राखी का स्वयंवर होने लाग रहा है ना तै मन्न नू सोची तू भी ऊत्त जरूर गया होगा। पर जीब तू को न्या दिखाई दिया टी0 वी0 में ते मेरा माथा ठन क्या । यो किसा स्वयम् बर ना कोई फिल्मी हीरो, ना कोई नेता, ना जाट जमींदार, ना कोई नामी पैसे बाला और ना अपने गजैन्द्र जिस्या पढ़ैया लिखा छोरा।‘’ मैं ताऊ को जो हलके फुलके अन्दाज से ले रहा था, ताऊ तो कहीं से दूर की कोड़ी खोज के लाये लगते है। ताऊ थोड़ी देर के लिए चुप हुए एक गहरी सांस ली और फिर हो गये अपना अधूरा व्याखान दागने।
‘’ भई देश में करोड़ो लब द्यु पड़े सो कंवारे, एक छोरी पुकार-पुकार के थारी जवानी नें चैलेंज देन लाग री से अर किसे के कान पै जू तक ना रेंगाती। कलजुग इब दिखाई देन लाग गा, वो छोरी मारे देश की सोई हुई परम्परा न जगान लाग रही है। इब कित राम, अर्जुन.... जिसे योद्वा रहे से जो स्वयंवर की लाज राख ले। संयोगिता ने एक अवाज मारी थी, दिल्ली वाला शेर पृथ्वी राज चौहान भरे दरबार ते ठा लाया था, सारा के मूं फाटे के फाटे रहगे थे, सब कान बौच के बैठ गे मजाल है कोई चु चबोड़ करता। पर इब तै बात कोना समझ मै आती। एक लाया भी त मरियल टटु सा धर आई इवाई लक्ष्मी घर तै जा लेन दी नाक कटवाँ दी दिल्ली की, अर पीऔ सो दिल्ली का पानी माना तम बनिया सो पर दिल्ली के नाम का कोए ते असर पड़ना चाहिए था। भाई गजैन्द्र मेरे तै त रय हा कौन्नी जाता तू मन्य एक बार उस स्वयम् वर मै ले चाल कै पता पुरानी परम्परा की र्स्मथक वा छोरी मन्य पसन्द कर ले। मैरा बचा खुचा पुराना खून ऊबा ले मारने लाग रय हा से, ‘’नया नौ दिन पुराना सौ दिन’’के पता पुरानी रमा गड़ी का अनुभव पसन्द आ जावै।
ताऊ एक दम रीढ़ सीधी कर के डोगे को जोर से पकड़ कर ऐसे बैठ गया मानो डोंगा ना हो राखी सावंत का हाथ हो। अपनी सफेद गदराई मूँछों पर दूसरे हाथ् से ताव देते ऐसे लग रहे थे, मानो ‘’सिंह गढ़’’ का किला जीत लिया हो। मैने देखा ताऊ जोश में होश खो बैठा हैं, कहां अपनी हडीयों का कचूमर निकलवाने के सपने बुन रहे है, जानते नहीं राखी सावंत के पल-पल बदलते चेहरे के फ्रेम कैसे फोटू से भी पहले चेहरे बदल लेती है। ताऊ के फूले गुब्बारे की हवा निकालने के लिहाज से मैने कहां‘’ जाने को तो मैं भी चला जाता, परन्तु ये एक नाटक था, ये स्वयम्वर-व्यम्बर कुछ नहीं था। फिर पुराने जमाने में जब स्वयम्बर होते थे, उस समय एक ही पैमाना था बहादुरी, की कौन अच्छा योद्घा है। परन्तु आज के इस वैज्ञानिक युग में आदमी ने श्रेष्ठता के अनेक आयाम विकसित कर लिए है। ताकत के अलावा, पढ़ाई-लिखाई, खेल, कला, जब आप ओलम्पिक देखते हो, तब कितने प्रकार के खेल होते हैं और सब में अलग अलग श्रेष्ठ खिलाड़ी को पदक मिलते हैं। फिर इसमें तो स्वयम्वर करने-कराने वाली को खुद भी नही पता कैसा दुल्हा चाहिये’’। मेरी बातों के प्रभाव से ताऊ की रीढ़ का सीधा पन धीरे-धीरे सोफे के आकार के साथ-साथ मुड़ता जा रहा था। चेहरे पर फैले जवानी के लक्षण काफ़ूर हो रहे थे। अन्दर से मुझे लगा कुछ ही मिनट में जवानी के बादल, मेरी बातों से कैसे छिटक रहे थे। सन्ध्या की लाली कैसे अन्धकार में डूब रही थी। बुरा भी लग रहा था, मैंने नाहक ताऊ के सपनों का संध हार कर रहा हुँ, कितने जोश के गुब्बारे पर बैठ कर आए थे। सपने भी हमारे जीवन मै कैसा रंग भर देते हैं, और सच्चाई को हम देखने सुनने से भी कैसे आंखे कतराते है। बात का हल्का फूलका करने के लिए मैने कहा ‘’छोड़ो ताऊ एक-एक कप चाय पीते है।‘’
‘’हां या बात मेरे ड़िमाग मै कोनिया आई, जीब वा डेट-वेट कर के छोरा ने भगान लाग री थी, उनके लियाए सारे उपहार तै सटा-सट्ट अपनी अलमारी में ठूसती जा रही थी। जिब्ब उनके घरा गई तै एक केले की फली भी लैके ना गई, भले मानस भरे घर में कौए सौन सामन खाली हाथ जाया कर से कुल छन तै ऊनें पहला ये कर दिये भाई गजैन्द्र। चल आच्छा रहा तू कौन्या गया, मन्नै तै वा रान्नी गावड़ी सी लागै से, जो ऊके पास जागा ऊनें ही सींग दिखन लाग री से।‘’ ताऊ और मैने इकट्ठी गहरी चैन की सांस ली। और मस्त गर्म चाय पी चटपटे पकोड़ों की जरूरत नहीं पड़ी वो तो पहले ही खा लिए थे,अदृश्य ।
मनसा आनन्द ‘मानस’
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