वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – मीरा : सामंती अभिजात्‍य की विद्रोही प्रवक्‍ता

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  बदलते परम्‍परा के प्रतिमानों में मध्‍यकाल की कवयित्री मीरा अपनी लोकप्रियता में बेमिसाल हैं। इनका महत्‍व उस विद्रोही चेतना की अभिव्‍यक...

 

बदलते परम्‍परा के प्रतिमानों में मध्‍यकाल की कवयित्री मीरा अपनी लोकप्रियता में बेमिसाल हैं। इनका महत्‍व उस विद्रोही चेतना की अभिव्‍यक्‍ति में है जो उस समय सामन्‍तवाद के विरुद्ध पनप रहा था। मीरा अपनी जीवनचर्या और कविता दोनों से परम्‍परावादी, सनातनी व्‍यवस्‍था की जड़ता, थोथी कुल मर्यादा और जाति-पाँति की जकड़बन्‍दी को तोड़ती हैं। सामन्‍ती आभिजात्‍य को ठोकर मारकर विद्वतजनों का सत्‍संग करती है और जनसाधारण के बीच बेधड़क विचरण करती हैं। मीरा की असाधारण लोकप्रियता का रहस्‍य जनसाधारण से तादात्‍म्‍य में है। जनसामान्‍य मीरा के गीतों में अपनी भावनाओं की सीधी-सच्‍ची अभिव्‍यक्‍ति पाता है। मीरा की लोकप्रियता का आलम यह है कि उनके नाम पर हजारों पद भक्‍तों ने रच डाले हैं। निर्गुण पंथ के अनुयायियों ने क्षेपक डालकर अपने सम्‍प्रदाय के अनुकूल अर्थापन करने की कोशिश की है, जबकि मीरा साम्‍प्रदायिक आग्रहों से एकदम मुक्‍त हैं। उनकी विद्रोही चेतना को अपने साम्‍प्रदायिक घेरे में बाँधने की कोशिश निर्गुणमार्गी रैदास और नाथपंथी योगी ही नहीं करते, चैतन्‍य महाप्रभु के भक्‍त उनको ‘गौरांग कृष्‍ण की दासी' बनाने की कोशिश करते हैं तो बल्‍लभ सम्‍प्रदाय के अनुयायी पुष्‍टिमार्ग पर लाने और महाप्रभु की सेविका बनाने का प्रयत्‍न करते हैं और असफल होकर ‘वार्त्ता साहित्‍य' में ऊलजलूल बातें उनके खिलाफ लिखते हैं। मीरा सफलतापूर्वक इन साम्‍प्रदायिक सीमाओं का अतिक्रमण करती हैं। उनकी विद्रोही चेतना किसी ढ़ांचे में नहीं बँधती। भक्‍ति के मार्ग में मीरा कुल मर्यादा और अभिमान को काई की तरह चीरकर प्रेम की निर्मल गंगा बहाती है जिसमें पूरी जातीय अस्‍मिता सराबोर हो जाती है। सन्‍त-सम्‍प्रदाय विश्‍व-सम्‍प्रदाय है और उसका धर्म विश्‍व धर्म है। इस विश्‍व धर्म का मूलाधार है, हृदय की पवित्रता। पवित्रता-सम्‍मत स्‍वाभाविक और सात्त्विक आचरण ने ही यहाँ धर्म का बृहत रूप गृहण किया। समस्‍त वासनाओं, इच्‍छाओं एवं द्वेषों से रहित हृदय की निःसीमाओं में विशाल धर्म का प्रवेश और समावेश सम्‍भव है।''

सामाजिक परिप्रेक्ष्‍य में मीरा की भूमिका का जब हम मूल्‍यांकन करते हैं तो मीरा की पहली टकराहट सामाजिक रूढ़ियों से होती है। वे सती प्रथा का वैयक्तिक स्‍तर पर विरोध करती हैं। इससे पूरा परिवार उनके खिलाफ हो जाता है। पारिवारिक प्रताड़नाओं से तंग आकर मीरा वृन्‍दावन चली जाती हैं। वहाँ विपत्तियाँ और बढ़ जाती हैं। वहाँ राणा के आदमी पीछे पड़े रहे और उनको सही रास्‍ते पर लाने की कोशिश करते रहे। चैतन्‍य महाप्रभु और बल्‍लभाचार्य के शिष्‍य अपने-अपने सम्‍प्रदायों में खींचने की जबर्दस्‍त कोशिश करते हैं। मध्‍यकाल में स्‍त्री की दयनीय स्‍थिति और निरीहता मीरा में साकार है। राणा सामंती दंभ और अहंकार का प्रतीक है, महाप्रभुओं के सेवक साम्‍प्रदायिक पाखंड और संकीर्णता के प्रतीक हैं। मीरा के पदों में विह्‌वल भाव से गिरधर नागर की पुकार सांसारिक विपत्तियों से उन्‍मोचन के लिए है। मीरा की जीवनगाथा भारतीय स्‍त्री पर होने वाले अत्‍याचारों की जीवन्‍त करुण कथा है। जीव गोस्‍वामी का स्‍त्रीमात्र को न देखने का प्रण छुड़वाना, कई अर्थों का संकेत करता है। ‘नारी महाविकार' वाली दृष्‍टि अधूरी, एकांगी और नारी जाति का अपमान करने वाली है। किसी कृष्‍ण भक्‍त का ऐसा कहना तो और ज्‍यादा अनुचित है। मीरा के जीवन का यह प्रकरण जीवन को उसकी सम्‍पूर्णता में देखने का आग्रह करता है तथा साधु-सन्‍यासियों और विरक्‍तों के मानसिक स्‍तर का भी बोध कराता है।

मीरा को वापस राजमहल लौटा लाने की कोशिशों में किसी प्रकार लगाव-जुड़ाव नहीं, झूठी मान मर्यादा की सामंती रूढ़िवादी जकड़न है। अंतिम समय में रणछोड़ जी में समा जाने का संकेत आत्‍महत्‍या का है जिस पर आध्‍यात्‍मिकता का रंग चढ़ाया गया है। मीरा के विद्रोह की करुण परिणति भारतीय जीवन में स्‍त्री की दुखद, हीन और दयनीय स्‍थिति को भरपूर प्रमाणित एवं प्रकाशित करता है।

निर्गुण भक्‍ति के संतों का सबसे महत्‍वपूर्ण आयाम एकत्‍व की भावना थी जिसमें ‘‘मानव को एक ऐसे विश्‍वव्‍यापी धर्म के सूत्रों में निबद्ध करना जहाँ जाति, वर्ग और वर्ण सम्‍बन्‍धी भेद न हो। साधना का यह द्वार सब के लिए उन्‍मुक्‍त था, इस क्षेत्र में हिन्‍दू-मुसलमान का भेद भी विलुप्‍त हो गया और भक्‍ति के क्षेत्र में सब समान प्रभावित हुए। निर्गुण भक्‍ति का पंच तत्‍व है-सहज साधना। सन्‍तों की भक्‍ति-प्रणाली आनन्‍द और शान्‍ति में संयुक्‍त शुद्ध अन्‍तः करण की वह स्‍वाभाविक शक्‍ति है जहाँ कृत्रिमता स्‍वतः विलीन हो जाती है सहज साधना का यह मार्ग सर्वथा अभिनव और क्रान्‍तिकारी था-इसने धार्मिक-जीवन की दुरुहताओं को सदैव के लिए हटा दिया।

मीरा ने भक्‍ति को एक नया अर्थ दिया। समूचे भक्‍तिकाल में उनका व्‍यक्‍तित्‍व सबसे विलक्षण है। केवल चैतन्‍य महाप्रभु से उनकी तुलना हो सकती है। भाव विभोर होकर कीर्त्तन करना, नाचते हुए होशो-हवास खो देना। भक्‍तिकाल मीरा से एक नया अर्थ पाता है। उनके काव्‍य में जहाँ कृष्‍ण का रसमय प्रेम है परम्‍परा से हटकर देखें तो मीरा के काव्‍य में वही सांसारिक विपत्तियों और विडम्‍बनाओं से मुक्‍ति के लिए व्‍याकुल, भयातुर पुकार भी है। जैसे मीरा की भक्‍ति वैयक्‍तिक है, पीड़ाएँ और कष्‍ट भी वैयक्‍तिक हैं। उनकी अपार लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि जनसाधारण उनकी वैयक्‍तिक पीड़ाओं और कष्‍टों से आसानी से जुड़ जाता है और उसे अपने कष्‍टों से मुक्‍ति का रास्‍ता भी उनके पदों में दिखता है।

मीरा ने अपने काव्‍य और आचरण के द्वारा पारम्‍परिक सामाजिक ढ़ाँचे और सामन्‍ती मूल्‍यों को जबर्दस्‍त चुनौती दी। परम्‍परावादी पुरुषतंत्रात्‍मक समाज और खोखला सामंती अहंकार कितना क्रूर और अमानवीय हो सकता है, यह मीरा की दारुण शारीरिक-मानसिक पीड़ा के चीत्‍कार में समाहित है। आध्‍यात्‍मिक तड़प के समानान्‍तरण सांसारिक ताप उनको दग्‍ध करता रहा और मीरा गिरधर नागर की पुकार लगाती रहीं। पारिवारिक और सामाजिक स्‍तर पर मीरा द्वारा रूढ़ियों को दी गयी चुनौती सामाजिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। मेवाड़ के राणाओं के प्रशस्‍तिगीत गाने के प्रति हिन्‍दी कवियों की उपेक्षा और उदासीनता का एक यह भी कारण हो सकता है। साम्‍प्रदायिक कट्‌टरता और सामंती क्रूरता का सफल प्रतिरोध करते हुए मीरा ने जीवन की अर्थवेत्ता मानवीय प्रेम और कृष्‍ण भक्‍ति में तलाशा। दुनियावी चकाचौंध की निस्‍सारता का संकेत उनकी कविताएँ करती हैं। उसमें आध्‍यात्‍मिक संकेत के साथ सामाजिक संदर्भ भी गुँथे हैं। यह दुनिया झूठी मान-मर्यादा और आदर्शों को लेकर चल रही है जिससे अपना तथा दूसरों का जीवन नरक हो गया है। सांसारिक चकाचौंध में खोये हुए व्‍यक्‍ति की समझ में केवल संसार की बात आती है। मनुष्‍य धरती पर विचरण करता है जिसे मूलाधार चक्र कहा गया है। सहस्‍त्रदल कमल वाला चक्र सातवाँ है जो गगन मंडल है। ये साधना की गूढ़ और रहस्‍यात्‍मक बातें है। चेतना के चतुर्थ आयाम में प्रविष्‍ट होने पर इनकी प्रतीत होती है। वैसे मीरा की साधना सगुण परम्‍परा ही है पर संत मन की पारिभाषिक शब्‍दावली का उन्‍होंने बेहिचक प्रयोग किया है। इस संसार के सारे नाते-रिश्‍ते झूठे हैं, मिट जाने वाले हैं। केवल कृष्‍ण जीवन-मरण का साथ निभाने वाला सच्‍चा साथी है।

संसार दुनियादारी और दुनियावी रिश्‍तों में नहीं, इस आशा में है कि कल सुख मिलेगा। यह संसार का विज्ञान है। मनुष्‍य निरंतर इसी के कारण द्वन्‍द्व की स्‍थिति में है। यह दुविधा ही माया है। यही भीतर तनाव और शोर पैदा करती है, जिसमें परमात्‍मा खो जाता है। साधना निर्द्वन्‍द्व होने का नाम है तभी भीतर परमात्‍मा प्रकट होता है, मीरा के गीतों में भक्‍ति का पूरा शास्‍त्र छिपा है। हृदय के माध्‍यम से प्रवेश करने पर इन पदों के अर्थ खुलते हैं। एक अन्‍य पद में मीरा कहती हैं-मुझे नींद नहीं आती। यह सामान्‍य नींद नहीं है। न तो यह कामवासना की विकलता है। यह जागरण है। ‘तलफै बिन बालम मोर जिया' जब कबीर कहते हैं तो वह इसी तरफ संकेत करते हैं। जो जाग गया है उसकी समझ में संसार का विज्ञान आ गया। यह संसार आकांक्षाओं से भरा है। मनुष्‍य सपनों और आकांक्षाओं की मृगमरीचिका के पीछे निरंतर दौड़ रहा है। यही वास्‍तविक नींद है। इस नींद से जाग जाना असाधारण है। गीता में श्रीकृष्‍ण का कथन ‘या निशा सर्व भूतायां तस्‍य जागर्ति संयमी' का संकेत इसी तरफ है। मीरा कहती हैं-‘मैंने इस संसार के मर्म को उसकी वास्‍तविकता में पहचान लिया है। अब सोना मेरे लिए संभव नहीं है। प्रियतम का रास्‍ता देखते-देखते रात का अंधेरा छंट गया-सवेरा हो गया। जैसे मछली जल के बिना तड़पती है वैसे ही उस कृष्‍ण के लिए मैं तड़प रही हूँ।

वैसे देखा जाए तो सभी संत मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद के विरोधी थे, परन्‍तु जाने-अनजाने रूप से इनमें कुछ की रचनाओं में सगुण तत्‍वों का समावेश हो गया है। कबीर जैसे अद्वैतवादी और निर्गुण-दर्शन के सबल प्रतिपादक कवि के काव्‍य में भी कहीं-कहीं सगुण-तत्‍व के दर्शन होते हैं। रैदास, मलूकदास जैसे सन्‍तों की रचनाओं में यह तत्‍व बहुलता से पाये जाते हैं। सगुणोपासक की प्रवृत्‍ति इनकी इतर-उतर कई रूपों में स्‍पष्‍ट दिखती है, जैसे लगभग हर सम्‍प्रदाय में सद्‌गुरु को अवतार की श्रेणी में रखा गया है, जिसमें पूजा-पाठ एवं उपासना माला, तिलक आदि उपकरणों का प्रारम्‍भ में सभी निर्गुण सन्‍त निन्‍दा करते हैं, परन्‍तु गैर परम्‍परा आगे चलकर कहीं न कहीं इन तत्‍चों की स्‍तुति करते प्रतीत होते हैं। परम्‍परा की इस प्रासंगिकता में निर्गुण वादी एवं कालान्‍तर में सगुण-तत्‍व की ओर उन्‍मुख नजर आते हैं। डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव की टिप्‍पणी है कि भक्‍ति आन्‍दोलन ने भी दलितवर्गीय चेतना को जागृत किया था। भक्‍ति समुदाय में वर्ण व्‍यवस्‍था तथा जाति-पांति को कोई स्‍थान नहीं दिया था। दक्षिण के आलवारों द्वारा प्रवर्तित भक्‍तिधारा रामानुजाचार्य तथा रामानंद के तात्‍विक विवेचन से परिपुष्‍ट होकर वर्ण जाति, ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ती हुई प्रखरता के साथ मध्‍यकालीन भक्‍ति काव्‍य में प्रवाहित हुई। दलित चेतना के विकास में मध्‍यकालीन साहित्‍य का सबसे अधिक योगदान है। कबीर, नानक, दादूदयाल, मलूकदास, हरदास, निरंजन, धर्मदास, रज्‍जब, बाबरी साहिब, सदना, पीपा, सेन, धन्‍ना, श्‍ोखफरीद आदि संत कवियों में अधिकांश दलित वर्ग के थे। इन संतकवियों ने धार्मिक रूढ़िवाद बाह्‌य आडम्‍बर, सामाजिक संकीर्णता का तीव्र विरोध किया।

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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सम्‍पर्क -वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग

डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र.

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रचनाकार: वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – मीरा : सामंती अभिजात्‍य की विद्रोही प्रवक्‍ता
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – मीरा : सामंती अभिजात्‍य की विद्रोही प्रवक्‍ता
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रचनाकार
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