रामरतन ने दधि में शालिग्राम को नहलाया फिर दूर्वादल से पानी डाला और उन्हें कपड़े से पोंछकर वस्त्र पहनाये। फिर टीका लगाकर अक्षत चढ़...
रामरतन ने दधि में शालिग्राम को नहलाया फिर दूर्वादल से पानी डाला और उन्हें कपड़े से पोंछकर वस्त्र पहनाये। फिर टीका लगाकर अक्षत चढ़ाये। उन्होंने प्रसाद भी लगाया। अपनी पूजा समाप्त कर वे कमरे से बाहर निकल ही रहे थे कि उन्हें आवाज सुनाई दी -‘‘ देखो पिताजी आज भाई साहब फिर से सब्जी ले जा रहे हैं , इन्हें रोकते क्यों नहीं '' कहकर राधिका ने रामरतन की ओर देखा। पास में ही सविता खड़ी थी। रामरतन ने राधिका को प्यार से समझाते हुए कहा - ‘‘ ले जाने दे बेटी तेरा भाई ही तो है। ''
राधिका मुँह बिचकाती हुयी बोली -‘‘हाँ भाई है तो क्या हुआ ? अभी बड़के भाईसाहब ले जा रहे हैं फिर छुटके भाई साहब ले जायेगें। तुम यों ही कमा -कमाकर कंगाल होते रहना। फिर थोड़ा रूककर तनिक क्रोध में बोली -‘‘ सब्जी - भाजी यहीं से लेनी थी तो अलग ही क्यों हुए थे ? इनके यहाँ कभी लेने जाओ तो प्याज की गाँठ भी नहीं मिलती।''
रामरतन ने सविता की ओर देखा। सविता ने अपनी नजरें धरती में गढ़ा दी। वह बाप - बेटी के बीच में कुछ नहीं बोली। रामरतन ने हँसते हुए कहा - ‘‘ अरे बेटी हिसाब लिखती जा तेरी शादी में लगा देगा। ''
अपनी बात को तूल न मिलते देखकर राधिका सविता की ओर मुखातिब होकर बोली - ‘‘ अम्माँ भी कम नहीं हैं। ये ही नौत आयी होंगी बड़के भाई साहब को , कि बेटा आज लौकी के कोफ्ते बने हैं तुझे पसंद है ले लियो।
सविता बिना कुछ उत्तर दिए कमरे से बाहर निकल गयी। रामरतन राधिका को समझाते हुए बोले - ‘‘ राधिका हरेक माँ के लिये पहली संतान बहुत प्यारी होती है तू अपनी अम्माँ से कुछ मत कहाकर , तू नही समझ सकती माँ की ममता। ''
वह खीझते हुए बोली - ‘‘ और सबसे छोटी संतान प्यारी नहीं होती ?''
‘‘ ......नहीं ऐसी बात नहीं है सबसे छोटी संतान और अधिक प्यारी होती है। वैसे तो माँ को सब बच्चे प्यारे होते हैं। हम अपने शरीर के सभी अंगों को प्यार करते हैं। एक हिस्से में भी तकलीफ होती है तो बेचैन हो जाते हैं। फिर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले - ‘‘ तू अब बड़ी हो गयी है तू कब समझेगी। कल को तेरा ब्याह होगा। ऐसे ही लड़ती - झगड़ती रही तो लड़ने की आदत पड़ जायेगी। ''
राधिका समझ गयी कि पिताजी सब बातों की लीपा - पोती करने में लगे हैं। वह पैर पटकती , बड़बड़ाती हुयी कमरे से बाहर चली गयी - ‘‘ मेरा क्या है ? भुगतना आप सब। पूरे घर को खिलाते रहो और महीने के आखिरी में हाथ मलते रहना।
राम रतन सोच रहे थे राधिका अपनी जगह सही थी। वह कुछ गलत भी तो नहीं कहती। लेकिन एक बाप का स्नेह अपने बेटों को कैसे मना कर सकता है। फिर बड़कू तो उन्हें और अधिक प्यारा है। सबसे पहले उसने ही तो ‘पिता' होने का अहसास कराया था। उन्हें वे दिन याद आने लगे जब वे सविता को व्याह कर लाये थे। सविता का पहला पति असमय ही गुजर गया था। सविता दो माह के गर्भ से थी। सविता के घरवालों को उसके विवाह की बहुत चिन्ता थी। वे जल्दी ही उसका दूसरा विवाह कर देना चाहते थे। शादी को अभी 6 महीने भी पूरे नही हुए थे। ससुराल वालों के लिए वह मनहूस थी। इसलिए उन लोगों को उसकी संतान से और उससे कोई मतलब नहीं था। रामरतन सविता के बड़े भाई के खास दोस्तों में से थे। उन्हें जब यह बात मालूम हुयी तो वे जल्द ही शादी के लिए तैयार हो गये। बस उनकी शर्त थी कि उनकी माँ को सविता के गर्भवती होने की बात नहीं बतायी जाये। वे नहीं चाहते थे कि आने वाला कल उनकी संतान और उनके बीच ‘‘ सौतेला '' शब्द ले आये।
बड़का उनकी शादी के सात माह बाद पैदा हुआ। उनकी माँ ने अचरज से कहा कि यह तो समय से पहले ही पैदा हो गया। पूरे मुहल्ले में वह ‘‘सतमासा जन्मा '' ही जाना जाने लगा। लेकिन माँ के मन में शंका घर कर गयी। दो ढाई महीने तक उन्होनें नाती को ढंग से नहीं खिलाया। उनकी निगाहें हमेशा यही निर्णय करने में लगी रहतीं कि यह उनके ही कुल का दीपक है या नहीं ? वे तो छठी भी पूजने को तैयार नही थी। रामरतन की जिद ने उन्हें पिघला दिया। फिर तो धूमधाम से दष्टौन भी मना और जोर शोर से कुआं भी पूजा गया। लेकिन उनकी खोज जारी रही बड़के की मालिस करते समय वो हमेशा उसके नाक - नक्श की तुलना रामरतन से करती। उसकी हरकतों को रामरतन के बालरूप से मेल बिठाती रहती। पर शंका थी कि समाप्त ही नहीं होती थी। धीरे - धीरे बड़के की अठखेलियाँ अम्माँ का मन जीतने में सफल हो गयी। अब वे एक पल भी उसके बिना नहीं रह पाती। उसे अपने संग सुलाती , मंदिर ले जाती , यहाँ तक कि सविता मायके जाती तब भी वे उसे अपने ही पास रखती। यह सब देखकर रामरतन के मन को अजीब शांन्ति मिलती।
बाद में उनकी भी दो औलादें छुटकू और राधिका हुए। माँ का भी देहान्त हो गया। सबको यही पता था कि उनकी तीन संतानें है। बड़के वाली बात सविता और रामरतन ने अपने हृदय में दफन कर दी थी।
रामरतन के आँगन में दूर्वादल फैले हुए थे। आस पड़ोस के लोग पूजा के लिए दूब माँग कर ले जाते थे। रामरतन सोचते थे कि जिस प्रकार पूजन सामग्री में दधि , अछत और दूर्वा आवश्यक है वैसे ही मेरे इस परिवार में ये तीनों बच्चे भी जरूरी हैं। तीनों में से एक भी एक दो दिन के लिए कहीं चला जाता तो रामरतन बेचैन हो जाते थे। वे तीनों बच्चों में बड़के को अधिक प्यार करते थे। वे हमेशा सचेत रहते कि इसके प्रति उनसे कहीं अन्याय न हो जाये।
छोटी सी तनख्वाह में घर चलाते हुए उनके बच्चे बड़े हो गये। ‘ बड़का ' ग्रामीण बैंक में नौकरी करने लगा था। उसके लिए खूब रिश्ते आ रहे थे। एक सुन्दर पढ़ी , लिखी लड़की से उसकी सगाई कर दी गयी। घर में पहली शादी थी सो शादी भी धूमधाम से हुयी। बड़का जब सेहरा बाँधकर आया तो सविता ने पल भर को अपने पहले पति को याद कर लिया।
शादी का कर्ज चढ़ गया था और घर में एक सदस्य के बढ़ जाने से खर्चा भी बढ़ गया था। महीने के आखिर में जेबें खाली हो जाती थी बड़का नौकरी करता था लेकिन सारा वेतन अपनी अंटी में दबा जाता। सविता ने दबी जुवान में बड़के से कहा - ‘‘ तेरे पिताजी का हाथ तंग पड़ता है छोटे भाई -बहन की पढ़ाई भी है तू पिताजी को महीने के खर्च के लिए रूपये दे दिया कर। उसने कोई उत्तर नहीं दिया जैसे कुछ सुना ही न हो।
उसने घर खर्च में तो रूपये नहीं दिये अलबत्ता हर माह वह घर के लिए सजावटी सामान खरीदकर लाने लगा। पहले रेडियो ले आया , फिर पंखा ले आया , कुछ दिनों बाद टेपरिकार्ड भी ले आया। कुछ सामान जो ज्यादा कीमत के थे उन्हें किश्तों में खरीद लिया। धीरे - धीरे मिक्सी ,अलमारी ,सोफा, व टी.वी. भी खरीद ली।
घर में सभी लोग खुश थे। घर सजने से आने वालों के सामने स्टैण्डर्ड भी बढ़ रहा था। सविता बेहद खुश थी। रामरतन को यह सब अजीब लग रहा था लेकिन वे शांत रहे।
धीरे - धीरे बड़के द्वारा ,खरीदे गये सामानों पर बहू का एकाधिकार होने लगा। सविता तो कुछ न कहती लेकिन राधिका और छुटकू कहाँ मानने वाले थे। वे अपना विरोध समय -समय पर जताते रहते।
बच्चे बड़े हो रहे थे तो पढ़ाई का खर्च भी बढ़ रहा था। कमाने वाला एक और खाने वाले छह व्यक्ति थे। खाने में ऊपरी सामान फल - फ्रूट तो कुछ होता नहीं था इसलिये अनाज पर ही पूरा भोजन टिका रहता था। कई बार माह के अंत में अनाज की कमी पड़ जाती लेकिन बड़का अपने रूपये चाँपें रहता। वह कुबूलता ही नहीं कि उसके पास रूपये हैं।
हर बार उसका उत्तर होता - ‘‘ मेरे पास रूपये नहीं हैं।'' तरह - तरह के हिसाब बताकर वह स्पष्ट कर देता कि तनख्वाह खर्च हो गयी है। लेकिन यहाँ वहाँ से रामरतन कें कानों में खबर आ ही जाती कि बड़का बैंक में रूपये जमा कर रहा है।
कुछ समय बाद छुटके की भी कम्प्यूटर ऑपरेटर की नौकरी लग गयी और उसका भी विवाह हो गया। छुटका गृहस्थी चलाने में एक मुश्त अल्प राशि दे देता था और सब जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता था। महीना समाप्त होने से पहले ही रामरतन की जेबें पूरी खाली हो जाती थी। उन्हें अपनी ही जरूरत पूरी करने के लिए पैसे नहीं बचते थे। उधर दोनों बेटों के बैंक बैलेंस बढ़ रहे थे। सब कुछ जानकर भी रामरतन चुप थे। संयुक्त परिवार जो चल रहा था। बेटे आँखों के सामने थे। बड़के को तो वो किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं कर सकते थे। मोमबत्ती की मानिंद जलकर वे घर को रौशन करने में लगे थे।
धीरे - धीरे छोटी बहू के दिमाग में यह बात पलने लगी कि मेरा पति घर में पैसे देता है तो मै अधिक काम क्यों करूँ ? उसने सुबह देर से उठना शुरू कर दिया। घण्टे भर तक अपने कमरे की झाड़ा - पोंछी करती। आराम से नहाना - धोना होता। वह रसोई में आती तब तक सविता खाना तैयार कर लेती थी। बड़ी बहू भी होड़ करने लगी आखिर माउन्टआबू के दिलबाड़ा मंदिर में देवरानी जिठानी का मंदिर भी तो होड़ के प्रतीक है। बड़ी बहू भी काम से जी चुराने लगी।
मजबूरी में दोनो बहुओं के बीच काम का बँटवारा कर दिया गया। सविता को दोनों के साथ खटना पड़ता था। वह कहती कुछ नहीं शांत , निस्तब्ध अन्दर ही अन्दर पारे के समान घुलती जा रही थी। बहुओं का ‘पारा' उसके शरीर को गलाता जा रहा था। वह बीमार रहने लगी और बहुओं को सहयोग करने में असमर्थ हो गयी।
सुबह का खाना बनाना बड़ी बहू की जिम्मेदारी थी और रात का खाना बनाना छोटी बहू की। राधिका घर के ऊपरी काम निबटा लेती थी।
मार्च का महीना था। राधिका की परीक्षाएँ चल रही थीं। छुटके और बहू किसी परिचित को देखने अस्पताल चले गये।
कुछ देर तक तो उनके लौटने की प्रतीक्षा हुई। जब वे लोग नहीं आये तो बड़ी बहू और सविता ने मिलकर खाना बनाया। बड़ी बहू की भवें तनी हुयी थीं। वह बड़बड़ाती जा रही थी -‘‘ ये भी कोई समय है अस्पताल जाने का। फिर इतना टाइम लगता है क्या ? '' .............गये होगें कहीं और घूमने। हैं तो सही घर में नौकर काम करने वाले .........उन्हें काहे की फिकर ......।'' फिर सविता की ओर देखते हुए बोली ..........‘‘ देखो मम्मी जी आज मैंने दोनों टाइम का खाना बना लिया है। कल उससे दोनों टाइम का खाना बनवाना। ''
रामरतन और सविता चिन्ता में थे कि वे लोग अब तक लौटे क्यों नहीं हैं ? एक पत्ता भी खड़कता तो रामरतन के कान खड़े हो जाते थे। जब तक दोनों बेटे घर नहीं लौट आते थे रामरतन खाना नहीं खाते थे। वे बड़े शौक से दोनों बेटों के साथ खाना खाते थे। राधिका भी जल्दी खाना खा लेती फिर वह अम्माँ और भाभियों को खाना खिलाती थी।
देर रात गये छुटकू और बहू वापस आये। रामरतन बेटे - बहुओं से प्रत्यक्ष कभी कोई बात नहीं करते थे वे हमेशा पर्दे की मर्यादा बनाये रखते थे। जब भी कभी ऐसे मौके आते , सविता ही सेतु का काम करती थी। रामरतन के मनोभाव समझते ही सविता ने छुटके से चिन्तित स्वर में पूछा - ‘‘ बेटा इतनी देर कहाँ कर दी ? हम सब चिन्ता कर रहे थे।''
छुटके ने आव देखा न ताव तुरन्त कह दिया - ‘‘ अम्माँ हम बड़े हो गये हैं अब हमारी चिन्ता नहीं किया करो........कहीं जाते हैं तो टाइम तो लग ही जाता है। ''
यह सुनकर सविता अवाक् रह गयी। उसे छुटके से ऐसी उम्मीद नहीं थी। कुछ भी हो बड़के ने कभी जवाब नहीं दिया। माँ - बाप की ममता को ये लोग क्या समझेंं ? घण्टा - आध घण्टा ज्यादा होते ही दिल कैसा धड़कने लगता है। रामरतन को भी अच्छा नहीं लगा। वे खून का घूँट पीकर रह गये।
दूसरे दिन शाम को बड़का रोज की तरह पिताजी के पास आकर बैठा। थोड़ी देर में बहू भी आ गयी। रामरतन को खटका लगा कि आज क्या बात है जो बहू भी आ खड़ी हुयी है।
बड़का धीरे से बोला -‘‘ पिताजी कल छुटके किसी को देखने अस्पताल नहीं गया था। वो दोनों पिक्चर देखने गये थे।''
रामरतन ने संक्षिप्त प्रश्न किया -‘‘ तुझे कैसे मालूम ?
......'' सुरेश कह रहा था। वह भी कल शाम को पिक्चर देखने गया था। ''
रामरतन को मालूम है सुरेश कभी झूठ नहीं बोलता। उन्होनें ऊँची आवाज में सविता को बुलाया। उन्होने सविता से पूछा - ‘‘ कल छुटके ने क्या कहा था अस्पताल जा रहे हैं ? ''
सविता कुछ समझ नहीं पा रही थी उसने ‘हाँ' में गर्दन हिला दी। बड़ी बहू को रामरतन के कमरे में देख वह सकपका गयी। जब कभी शिकवा शिकायत करना होती हैं तब ही बहुएँ उसके कमरे में आती हैं।
सविता का उत्तर पाते ही बड़ी बहू फट पड़ी -‘‘ पिक्चर जाना ही था तो झूठ क्यों बोल गये। कोई रोकता थोड़े ही है। कह जाते तो काम भी जल्दी निबटा लेते। उन्हें लगा होगा कि पिक्चर की कहेंगे तो सबको चलने के लिए पूछना पड़ेगा। छोटी काम से जी चुराती है। इसलिये तो शाम का शो गयी। मैटिनी शो नहीं जा सकती थी ? माँ जी की तबियत खराब थी दीदी की परीक्षाएँ चल रही थी। ऐसे में पिक्चर का शौक चर्राया था। '' फिर हाथ नचाती हुयी बोली -‘‘ न बाबा न ऐसे माहौल में मैं उसके संग नहीं रह सकती।''
रामरतन रात भर ऊहापोह में रहे। उन्होने छुटके और बहू को अपने से अलग करने का फैसला कर लिया सुबह जब वे पूजा करने बैठै तो मन में बेचैनी थी। राम और लक्ष्मण के बीच दूरी दिखाई दे रही थी। उन दोनों की आँखों में अपनत्व की गहराई नहीं ईर्ष्या - द्वेष की चिंगारियाँ नजर आ रही थीं। रामरतन ने अपनी दृष्टि वहाँ से हटा ली। पूजा की थाली उठाने के लिए उन्होनें हाथ बढ़ाया। हाथ काँप जाने से थाली हिल गयी। दधि की कटोरी दूर्वा के साथ एक तरफ खिसक गयी थी और अछत बिखरे पड़े थे।
लेकिन छुटकू ने यह मुद्दा उठा ही लिया कि भाईसाहब तो रूपये भी नहीं देते फिर उन्हें संग क्यों रखा जा रहा है ? उस दिन सविता पहली बार बोली थी और निर्णय भी कर दिया था कि दोनों बेटों को अलग कर दिया जाये।
एक ही घर में तीन चूल्हे हो गये थे। पूजा की थाली में दधि ,अछत और दूर्वा एक दूसरे से छिटक गये थे। रामरतन हाथ बढ़ाकर उन तीनों को एक साथ रखने की कोशिश करते लेकिन उनके हाथ काँप जाते। वे मायूस हो भगवान की मूरत निहारने लगते।
रामरतन दिन में तो अकेले खाना खा लेते थे ,रात में अकेले खाना नहीं खा पातेे थे। दोनों बेटों की चौकियाँ खाली नजर आती थी। दिल में एक हूक सी उठती थी। मुँह में पड़ा कौर बाहर निकलने को होता। वे सविता का चेहरा देखते और जबरन कौर को अंदर निगलने की कोशिश करते। इस प्रक्रिया में एक जोर का ठसका लगता और खाँसी दम निकाल देती , आँखों से पानी बहने लगता।
हवा के वेग के साथ बहुओं की बातें भी कान के पास होकर गुजरती -‘‘ अकेले में अम्माँ खूब घी और खूब तला बनाकर खिला रही होगी। इसीलिये तो खाँसी आ रही है। ''
बेटों के अलगाव ने उन्हें समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया। मन में प्रायश्चित ,हृदय में उद्वेलन , आँखों में पीड़ा और वाणी में विराम आ गया था।
बड़का लिमिट में सब्जी - भाजी लाता था। वह सुबह - शाम ‘ मुख्य घर ' से ही एक कटोरी सब्जी ले आता और उसका काम चल जाता। एक दिन बड़ी बहू ने उसे अकेले सब्जी नहीं खाने दी। दूसरे दिन से कटोरी की जगह कटोरे ने ले ली। सविता मूक बनी बनने वाली सब्जी की मात्रा बढ़ाती जा रही थी।
आज राधिका कॉलेज से जल्दी आ गयी थी। उसने बड़के को सब्जी ले जाते देख लिया था और विवाद खड़़ा हो गया।
समय गुजरता गया दौनों लड़कों के बच्चे हो गये थे। रामरतन और सविता दादा दादी बन गये थे। वे दोनों पोते -पोतियों को बहुत प्यार करते थे। मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता ही है। जब भी किसी बात पर घर में विवाद हो जाता तो बहुएँ बच्चों को उन लोगों के पास नही आने देतीं। वो लोग भी जानती थी कि इन बच्चों को खिलाये बिना उन लोगों को नींद नहीं आयेगी। वे अप्रत्यक्ष रूप से रामरतन को परेशान करती थी। वे दोनों खून का घूँट पीकर रह जाते थे।
धीरे - धीरे नल और बिजली के बिल भुगतान को तीन हिस्सों में बाँटा जाने लगा। एक दिन तो सिर से पानी ही गुजर गया। कुलदेवी की पूजा होनी थी। कमरे की पुताई व सफाई होना थी। कोरे बिछाने के लिए पूड़ियाँ भी बनाना थी। इधर दोनों बहुओं में होड़ मची थी कि काम कौन करे। अन्त में सविता ने ही हिम्मत करके सफाई की। पूजा के समय दोनों बहुएँ भी अपने -अपने कमरे से पूड़ियाँ ले आयी। यह देखकर सविता गुस्से में बोल पड़ी -‘‘ माता की पूजा के लिए क्या मैं अलग -अलग कोरे बिछाऊँगीं। आज के बाद पूजा में बटवारा मत करना '' - कहते हुए उसकी आँखें बरसने लगी।
अलसुबह रामरतन पूजा में बैठे। उन्होनें पूजा की थाली उठायी। दधि में से खटांध आ रही थी, अछत में घुन पड़ा हुआ था और दूर्वा दल सूख रहे थे , उनकी नम्रता उनकी कमनीयता न जाने कहाँ विलुप्त हो गयी थी।
रामरतन का रिटायरमेन्ट करीब आता जा रहा था। उन्हें राधिका की शादी की चिन्ता थी। जी0पी0एफ0 में से कुछ रूपये मकान खरीदने में लगा दिये थे। शादी में दो - ढाई लाख रूपये लगना आसान बात थी। रामरतन के पास इतने रूपये नहीं थे।
उसने एक दिन दोनों बेटों को बुलाया और अपनी बात रखते हुए कहा -‘‘ राधिका की शादी करना है। लड़का ढूँढ़ें उससे पहले हमें अपना संकल्प भी तय करना होगा। सभी लड़के वाले यही पूछते है ‘‘ शादी कितने की करोगे ? '' रामरतन उन दोनों के चेहरों को पढ़ते हुए फिर से बोले -‘‘ आज के जमाने में दो ढाई लाख रूपये से कम में तो शादी की सोच भी नही सकते। मै जानना चाहता हूँ कि तुम दोनों कितने रूपये लगाओगे ? उस हिसाब से मैं सोचूँ।
बड़का कुछ कहना चाह रहा था लेकिन छुटके को देखकर शांत रह गया। वह मन ही मन अजीब सी पसोपेस में पड़ गया। छुटके को सपने में भी अनुमान नहीं था कि किस बात के लिए बुलाया जा रहा है नहीं तो अपनी बीबी से सलाह - मशविरा करके आता इसलिए वह बड़के का ही मुँह ताकने लगा और सोचने लगा कि जितने रूपये की ये कहेंगे उतने मैं भी दे दूँगा। वह सोच रहा था कि बड़ा भाई ज्यादा रूपये तो लगायेगा नहीं।
मन ही मन गुत्थियाँ सुलझाते हुए थोड़ी देर बाद बड़के बोला -‘‘ एक दो दिन में बता देंगे। फिर संकल्प से क्या होता है ? लड़के के हिसाब से कम बड़त तो हो ही जाती है। अच्छा लड़का मिलेगा तो ज्यादा रूपये लगाना पड़ेगें।''
रामरतन समझाते हुए बोले -‘‘ वही तो मैं कह रहा हूँ एक आइडिया तो लग जाता।''
...........‘‘हाँ तो बता देंगे अभी ऐसी क्या जल्दी है '' कहते हुए बड़का चलने को उद्यत हो गया।
सविता भी देहरी पर बैठी सबकी बातें सुन रही थी उन लोगों के जाते ही उसका लावा फूट पड़ा - ‘‘ ऐसे बेटों को जना है मैने , जिन्हें अपनी कोख का जाया कहते भी लाज आती है। दोनों दब्बू और लुगाइयों के गुलाम है उनसे पूछे बिना एक कदम नहीं रखेंगे।'' फिर निर्णय सा लेते हुए बोली - ‘‘.........सुनो जी ! अरे हमने लड़की पैदा की है तो हम ही निबटायेंगें। इन लोगों के भरोसे थोड़े ही पैदा किया है। ''
रामरतन आज स्तब्ध था। सविता को क्या हो गया। यह तो कभी उफ् तक नहीं करती आज इतना क्यों गुस्सा किये जा रही है। उसने समझाते हुए कहा -‘‘ सब व्यवस्था हो जायेगी तू अपनी कोख को मत कोस। औलाद भी तो किस्मत से होती है। हम अपना सब कुछ लगा देंगे। ऊपर वाले ने चोंच दी है चुगने को भी वही देगा।''
वह आँखें पोंछते हुए बोली -‘‘ खुद के लिए खरच करने को कमी नहीं आयेगी। इतने वर्षों में रूपये देने की बात कही तो चुप रह गये। ''वह धीरज बँधाते हुए बोला -‘‘ चल अब ठीक है उनके खाने -पीने , पहनने -ओढ़ने के दिन हैं। अभी वे खरच नहीं करेंगे तो क्या बुढ़ापे में करेंगे। वे लोग खुश हैं यह देखकर ही हम क्या कम सुखी है।''
रात का समय था। रामरतन टी.वी. देख रहा था। बड़का भी आया और पिताजी के पास बैठ गया। जमीन पर बैठी सविता खाना खा रही थी। सविता गुस्से में थी इसलिए बड़के को सब्जी लेने को भी नहीं कहा। रामरतन ने कनखियों से बड़के को देखा और ताड़ लिया कि वह कुछ कहना चाह रहा है लेकिन सूत्र नहीं जुड़ पा रहे है।
रामरतन ने ही पहल करते हुए कहा -‘‘ और बेटा आफिस में सब ठीक -ठाक चल रहा है ? ''
उसने अम्माँ की ओर दृष्टि फेंकते हुए संक्षिप्त उत्तर दिया .........हूँ।
कुछ देर निस्तब्धता छायी रही। वह कुछ कहना चाह रहा था। उसने कहने के लिए मुँह खोला तब तक बड़ी बहू भी दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गयी। वह शांत हो गया। मन मसोसकर उसने एक नजर पिताजी पर डाली और पत्नी की ओर देखने लगा। पत्नी ने उसे आँख मटकाकर इशारा किया। बड़के ने पहल करते हुए कहा - ‘‘पिताजी हम दोनों (पति -पत्नी ) ने विचार कर लिया है कि हम पाँच हजार रूपये लगा देगें।''
रामरतन को काटो तो खून नहीं। वे तो सोच रहे थे दोनों बेटे तीस चालीस हजार रूपये तो लगा ही देगें।
उस रात रामरतन को नींद नहीं आयी। सविता भी जानती थी कि रामरतन बहुत दुःखी है। रात और अधिक स्याह लग रही थी ......चंदा में दाग दिखाई दे रहा था , चाँदनी में तपन महसूस हो रही थी , सर्द बयार में अगन लग रही थी।
रामरतन करवटें बदल रहे थे। उनके मस्तिष्क में द्वन्द्व चल रहा था ........ ऐसी ही होती है औलादें ? किसको दोष दूँ ? सविता के खून को या अपने खून को ? नहीं नहीं समय ही ऐसा है ............. इसमें बच्चों का क्या दोष ? बचपन से आज तक इन बच्चों को सहारा दिया। आज बुढ़ापे में उनको सहारा देने वाला कोई नहीं ? कैसे करेंगे बेटी की शादी ? विचार उसके शरीर को गीले आटे सा लथेड़ने लगा , गारे के घोल सा मथने लगा।
सविता के प्रश्न ने उनकी विचार श्रृखलां तोड़ दी -‘‘ क्यों नींद नहीं आ रही क्या ?''
नहीं बस ऐसे ही ........
‘‘ टालो मत मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ। ''
सहसा वह एक हल निकालते हुए बोली -‘‘ राधिका की शादी की चिन्ता मत करो ये घर बेच दो। बेटे अपना इन्तजाम खुद करेंगें।
वे चौंकते हुए बोले - ‘‘ नहीं अपने बच्चों को दर - दर की ठोकरें खाने के लिए कैसे छोड़ दूँ। मेरा भी तो इनके प्रति कोई फर्ज है। पहले फर्ज है फिर कर्ज है। अभी तो सिर छुपाने को जगह है फिर कहाँ जायेंगे ये लोग ? छोटे - छोटे बच्चे कहाँ रहेगें। अपना घर अपना होता है। अपनी छत के नीचे भूखे - प्यासे , नंग - धड़ंग पड़े रहे कोई उंगली नहीं उठायेगा। ''
सविता करवट लेकर लेट गयी। जागते हुए रात भी कितनी भयानक लगती है रामरतन ने उसी रात जाना था। काली आकृतियाँ उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। वे उसे खींच रही थीं किसी ने उसके हाथ पकड़ लिए किसी ने पैर। सब अपनी - अपनी ओर खींच रहे थे। वह हिल -डुल भी नही पा रहा था। वह कीलें - सा गढ़ गया था । पैर की तरफ अधिक बल लगने से शरीर को एक झटका लगा। हृदय से तेज रक्त की फुहार निकली। उसका शरीर काँप गया। वह अर्धनिद्रा से जग गया था। उसका शरीर पसीने से तरबतर था। वह हाँफ रहा था जैसे मीलों दौड़ा हो।
घर में एक अजीव सी लक्ष्मण रेखा खिंच गयी थी। सब साथ रहते हुए भी कोंसों दूर थे। बड़के का सब्जी ले जाना बन्द हों गया था। रोज रात को दस - दस मिनट दोनों बेटे रामरतन के पास बैठ जाया करते थे। वह भी बन्द हो गया। सब ताल के पानी की तरह शांत - मूक थे। कोढ़ लगे हिस्से की तरह बिना अहसास के ...........एनीसथीसिया के नश्ो में लिप्त बेहोश ..........।
अचानक रात में बड़ी बहू के पेट में दर्द होने लगा। उसे रात में ही अस्पताल में एडमिट करा दिया गया। डॉक्टर ने बताया अपेंडिक्स का दर्द है जल्दी ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। अधिक से अधिक एक सप्ताह तक रूका जा सकता है। रामरतन ने चुपचाप जी0पी0एफ0 के लिए एप्लाय कर दिया। चार - पाँच दिन बाद रामरतन ने बड़के से पूछा - ‘‘डॉक्टर से बात हुयी ऑपरेशन कब होगा ?''
बड़के ने कहा -‘‘ अभी पैसों का इन्तजाम नहीं हुआ है।'' रामरतन ने ठंडी साँस भरकर कहा -‘‘ मैं दूँगा रूपये। कल ऑपरेशन के लिए बात कर लो।''
ऑपरेशन होने के बाद बड़ी बहू सकुशल घर आ गयी। छोटी बहू पड़ोसियों की तरह उसे देखने आयी। एक माह तक सविता ने ही उसकी सेवा की और बच्चों को संभाला। यह देखकर छोटी बहू की भृकुटी में बल पड़ते रहे।
सविता को जब ज्ञात हुआ कि ऑपरेशन में रामरतन ने रूपये दिये हैं तो वह बहुत नाराज हुयी। रामरतन ने ही उसे समझाया - ‘‘रूपये बच्चों से बढ़कर थोड़े ही हैं। रूपया तो हाथ का मैल है। बच्चे सुखी रहें इसी में हमें संतुष्टि है। जहाँ तक राधिका का सवाल है उसकी किस्मत होगी तो अपने आप सब इन्तजाम हो जायेगा। कम रूपये रहेंगे तो छोटी नौकरी वाला लड़का देख लेंगे।'' रामरतन के तर्कों के आगे सविता चुप हो गयी।
कुछ दिनों बाद राधिका के लिए अच्छा लड़का मिल गया और सगाई पक्की हो गयी। विवाह के दो मुहूर्त निकले - एक फरवरी का और दूसरा अप्रैल का। बड़का जिद पर था कि शादी अप्रैल में हो। उसका तर्क था कि अप्रैल में सबकी परीक्षाएँ निबट जायेगीं। आखिर बड़के की ही बात मानी गयी।
शादी की तैयारियाँ जोरों पर थी। शादी ने दोनों बेटों ने बहुओं की इच्छानुसार पाँच - पाँच हजार रूपये व्यवहार में लिखवा दिये। पैर पखारने व अन्य नेगों के समय पिताजी से ही रूपये लिये गये ताकि राशि पाँच हजार से अधिक न हो जाये।
राधिका के जाने के बाद घर सूना हो गया था। सविता और रामरतन बहुत दुःखी थे। वह रहती तो घर में चहल -पहल बनी रहती थी। बहू -बेटे उनके कहाँ थे। वे अपने -अपने कमरों के थे। रामरतन को कई लोगों को रूपया देना था। उन्हें हिसाब में लगना पड़ा।
शाम का समय था। सविता और रामरतन टी. वी. देखकर अपने मन को बहला रहे थे। अचानक बड़के का दोस्त सुरेश आया। वह उन लोगों के पास ही चारपाई पर बैठ गया। अपनी जेब से एक चैक निकाला और रामरतन की ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘‘ चालीस हजार का चैक बड़के ने आपके लिये पहुँचाया है। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी आपको देने की।''
रामरतन प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखने लगे। वह फिर बोला -‘‘ जबसे उसने कमाना शुरू किया है वह राधिका के नाम रूपये जमा कर रहा था। उसे मालूम था कि आपका हाथ खर्चीला है घर में जितना रूपया आयेगा वह खर्च हो जायेगा। इसीलिये वह अपनी बीबी से छिपाकर एफ0डी0 करता रहा। बहू के ऑपरेशन के समय भी उसने एफ0डी0 नहीं तुड़वायी। उसका कहना था कि वो पैसा राधिका का है उसमें से एक रूपया भी वह खर्च नहीं करेगा। उसने कई बार आपको बताने की कोशिश की कि वह चालीस हजार रूपये दे देगा। लेकिन यह सोचकर शांत रह जाता कि देने से पहले ही घर में विस्फोट न हो जाये। आज ही इसका समय पूरा हुआ है इसलिये वह अप्रैल में शादी करने की जिद कर रहा था।
रामरतन की आँखों से आँसू ढुलक कर हाथ पर आ गिरे। उनमें कलुष था , पश्चाताप था , खुशी थी या फिर बेटे को न पहचान पाने का दुःख यह वो भी नहीं समझ पाये।
यह सब सुनकर सविता की छाती चौड़ी हो गयी। उसने सिर से सरक आये पल्ले को गर्व से अपने सिर पर डाला और एक लम्बी साँस खींची। वह बुदबुदा उठी -‘‘ बेटा आज तुमने अपना फर्ज निभा दिया। ''
रामरतन ने आँगन की ओर देखा। दूधिया निश्चल चाँदनी में दूर्वादल हर भरा - सा स्निग्ध चंचल , वायुवेग में लहराता झूम रहा था।
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डॉ. पद्मा शर्मा (सहा.प्राध्यापक हिन्दी)
शा.श्रीमंत माधव राव सिंधिया स्नात.महाव़िद्यालय शिवपुरी (म.प्र.)
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(चित्र – साभार मानव संग्रहालय चित्र प्रदर्शनी, भोपाल)
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