सु नीता आज फिर देर से घर लौटी थी. एक हफ्ते से यहीं हो रहा था. पहले छः बजे तक काम करके वापस आ जाती थी. अब साढ़े आठ बज जाते हैं... कभी-क...
सुनीता आज फिर देर से घर लौटी थी. एक हफ्ते से यहीं हो रहा था. पहले छः बजे तक काम करके वापस आ जाती थी. अब साढ़े आठ बज जाते हैं... कभी-कभी तो नौ भी... बच्चे भूख से बिलखते रहते हैं.रूखा-सूखा जो घर में होता है, खाकर पड़ रहते हैं. सुनीता जब भी वापस आती है, कुछ रोटियां, पका हुआ चावल, दाल और सब्जी ले के आती है. वहीं बच्चों को खिला देती है. फिर सारे घर के लिए खाना बनाने में जुट जाती है.
मंगतराम को यह पसंद नहीं था. वह खुद बेरोजगार था. बीवी की कमाई की रोटियां तोड़ता था, परन्तु बीवी रात को किसी के घर काम करने जाए, यह उसे पसन्द नहीं था. पहले सुबह-शाम काम करके लौट आती थी. एक ही सोसायटी के चार घर पकड़ रखे थे. उसी सोसायटी में पांचवां घर मिल गया था. उस घर का सारा काम करना पड़ता था. सुबह-शाम नाश्ता व खाना भी बनाना पड़ता था.
मंगतराम को इस बात से कष्ट नहीं था कि सुनीता ने पांचवां घर पकड़ लिया था. जब वह रात में घर आने लगी तो उसे शक हुआ. पूछा तो सुनीता ने बताया कि पांचवें घर में केवल एक साहब रहते हैं. सुबह-शाम झाड़ू-पोंछा के साथ-साथ नाश्ता और खाना भी बनाना पड़ता है. मंगतराम का मन शंकाओं से ग्रस्त हो गया. अकेला आदमी.... साथ में अकेली काम करनेवाली बाई. तीन बच्चों की मां बनने के बाद भी बदन में आकर्षण था. चेहरा भी भरा-भरा था. मेहनत करने से बदन में चर्बी नहीं चढ़ी थी. दो-तीन घण्टे अकेले साथ रहने पर क्या आदमी का मन उस पर नहीं रीझेगा ? उसका मन नहीं करेगा कुछ करने का ? मंगतराम बेरोजगार था, अतः कमाऊ बीवी पर शक करने का हक था. बेरोजगार, निकम्मे, निठल्ले और कामचोर पति अक्सर बीवियों पर शक करते हैं.
खपरैल की कोठरी थी उनकी. साथ में मां बाप भी रहते थे. जब उनकी शादी हुई तो बीच में मिट्टी की दीवार उठा दी थी. एक तरफ मां-बाप रहते थे. दूसरी तरफ मंगतराम अपनी बीवी और बच्चों के साथ...शादी-ब्याह में बाजे बजाता था. खुद उसका बैण्ड नहीं था. जहां काम मिलता था, कर लेता था. बाप भी यहीं काम करता था. अब बूढ़ा हो गया था, पाइप बजा नहीं पाता था. सांस फूल जाती थी. घर में बैठ गया था. यहीं काम मंगतराम ने सीख लिया था. परन्तु शादी-ब्याह का एक निश्चित समय होता है. पूरे साल उसकी कमाई पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था. दूसरा काम करता तो इतनी तंगी नहीं झेलनी पड़ती, परन्तु मंगतराम इतना आलसी था कि दूसरा काम उसे भाता ही नहीं था. लिहाजा घर में पड़ा मुफ्त की रोटियां तोड़ता रहता था.
सुनीता की कमाई से घर चलता था. चार घरों से उसे दो हजार रुपये मिलते थे. पांचवां घर उसने हजार रुपये में पकड़ा था, क्योंकि यहां खाना भी बनाना होता था. किसी न किसी घर से उसे खाने को मिलता रहता था. तीज-त्योहार पर पुराने कपड़े खुद और बच्चों के लिए मिल जाते थे. फिर भी घर में तंगी बनी रहती थी. खाने वाले सात प्राणी और कमानेवाली केवल एक... सुनीता. ऊपर से मंगतराम को पीने की भी लत थी. रोज बीवी से पैसे के लिए मुंहजोरी करता था. घर में चख-चख मचती थी. मां-बाप एक किनारे पड़े सुनते रहते. उनकी कोई अहमियत नहीं थी घर में. कुछ कमाकर तो लाते नहीं थे. बूढ़ा-बुढि़या दोनो अशक्त हो गए थे. जीवन की अन्तिम बेला थी. पता नहीं, कब दीपक बुझ जाए.
मंगतराम ने महसूस किया, सुनीता ने जब से नया घर पकड़ा है, कुछ खुश रहने लगी है. पहनने-ओढ़ने का भी सलीका आ गया है...शक का कीड़ा उसके दिमाग को कुरेदने लगा. कहीं नए घर के बाबू का रंग तो नहीं चढ़ने लगा. पता नहीं जवान आदमी है, प्रौढ़ है या बूढ़ा. बूढ़ा हो तो भी क्या ? औरत के लिए वह सदैव जवान रहता है. वासना का कीड़ा कभी बूढ़ा नहीं होता. कैसी भी औरत हो, सामने पड़ते ही उबलने लगता है. कहीं सुनीता उसके चंगुल में न फंस जाए ? तीन बच्चे हुए तो क्या हुआ ? बाबू तो पैसेवाला होगा ? अगर पैसे के लालच में आ गयी तो...? उसके दिमाग में झनझनाकर एक शीशा टूट गया.
मनोभावों को दबाते हुए जब भी मौका मिलता, वह सुनीता को कुरेदने लगता, ‘‘तू देर से घर लौटती है, बच्चे भूखे सो जाते हैं. क्या बाबू का खाना दिन में बनाकर नहीं रख सकती ?''
‘‘कैसी बात करते हो ? सात बजे तो बाबूजी ऑफिस से आते हैं. दिन में कैसे बना सकती हूं ? फिर बच्चे भूखे कहां रहते हैं ? जब से बाबूजी के यहां खाना बनाने लगी हूं, सबके लिए पूरा खाना लाती हूं. वह अकेले रहते हैं, मुश्किल से दो चपाती, थोड़ी सी दाल-सब्जी और चुटकी भर चावल खाते हैं. एक आदमी के लिए खाना बनाने पर कितना भी हाथ खींचो, ज्यादा बन ही जाता है. बाबू जी अपने लिए बचाकर बाकी मुझे ही तो दे देते हैं. उसी से अपने बच्चों का पेट भरता है.''
‘‘तू खाना बनाती है तो तेरे साथ किचन में रहते हैं ?''
‘‘किचन में क्या करेंगे मेरे साथ ? या तो वह टी.वी. देखते रहते हैं या कम्प्यूटर में काम करते हैं, या कुछ पढ़ते-लिखते रहते हैं.''
मंगतराम को लगा कि बात सही रास्ते पर नहीं आ रही है. उसकी कमर पर हाथ फेरते हुए पूछा, ‘‘तेरे साथ कभी बात नहीं करते ?''
‘‘करते हैं ?'' वह डिब्बे से आटा निकालते हुए बोली.
मंगतराम का दिल धड़क उठा. उसकी सांसें गरम हो गयीं. उसे कसते हुए बोला, ‘‘क्या बात करते हैं ?''
सुनीता ने उसे परे करते हुए थाली में आटा गूंथने के लिए पानी डाला, ‘‘यहीं कि एक कप चाय बना दो. एक गिलास पानी ला दो. ये कपड़े यहां रख दो. यह रूमाल धो देना. जाते समय नीचे धोबी को प्रेस के लिए कपड़े दे देना... और क्या ?''
‘‘बस...'' मंगतराम की शंकाओं पर ठण्डा पानी पड़ गया. बीवी के हाव-भाव से तो नहीं लगता था कि वह किसी और के चक्कर में पड़ी है. रात को भरपूर प्यार देती है. बातों में कहीं उसके लिए उपेक्षा या तिरस्कार नहीं झलकता. बच्चों को भी पहले की तरह प्यार करती है. फिर ... फिर भी उसके मन से शंका जाती क्यों नहीं ?
सुनीता में एक परिवर्तन आया है. पहले वह पुराने-गंदे कपड़े पहनकर काम करने जाती थी, अब साफ साड़ी पहनती है. बन-ठनकर सुबह निकलती है. क्या उस बाबू के लिए सजकर जाती है... और कौन होगा ? उसका मन होता, सुनीता की टांग तोड़कर रख दे. जरूर उसके मन में कोई बात है, वरना अचानक ऐसा परिवर्तन क्यों ?
मन को किसी तरह समझा नहीं पाया तो मंगतराम ने उस दिन पौने के बजाय अद्धा देसी की ठर्रा चढ़ाया. टुन्न हो गया तो घर में आकर बड़बड़ाने लगा, ‘‘औरत साली कुतिया होती है... हरामजादी का एक मर्द से मन नहीं भरता. बकरी की तरह इधर-उधर मुंह मारती रहती है...'' इसी तरह की फालतू बकवास... उसका दिमाग सनसना रहा था और वह इंतजार कर रहा था कि कब सुनीता आए और उस पर अपना गुस्सा उतारे. बच्चे एक तरफ सहमे से लेटे थे.
सुनीता आई. पन्नियों में लपेटा हुआ खाना निकालकर बच्चों को दिया. मंगतराम चारपाई पर पड़े-पड़े बुदबुदाया, ‘‘कुत्तेे के घर से पिल्लों के लिए खाना ले आई ?''
सुनीता ने मुंह उठाकर देखा. मंगतराम की आंखें ही नहीं, चेहरा भी लाल था. बड़ा भयानक और डरावना लग रहा था. सुनीता डर गयी. उठकर उसके पास आई और माथे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ? बुखार तो नहीं ... ज्यादा पी ली क्या आज ?'' एक साथ कई सवाल, ‘‘हां, माथा तो गर्म लग रहा है.''
मंगतराम को पता था, यह दारू और गुस्से की गर्मी है...साली, मन ही मन उसने एक गाली दी. कितना प्यार जता रही है. उसने सुनीता का हाथ झटक दिया, ‘‘ज्यादा नाटकबाजी नहीं. तेरी सब चाल समझता हूं. ऊपर-ऊपर से प्यार जता रही है. अन्दर से सोच रही होगी कि मर क्यों नहीं जाता ?'' वह उठकर चारपाई पर बैठ गया और आंखें तरेरकर सुनीता को घूरने लगा. वह अवाक् सी खड़ी रही. फिर बोली-
‘‘यह क्या तुम अनाप-शनाप बक रहे हो ? मैं तो सारा दिन खटकर थकी-मांदी आ रही हूं और तुम दारू पीकर पता नहीं क्या बके जा रहे हो.''
‘‘छोड़...तेरे लिए तो मैं मर ही गया हूं. सारा दिन दूसरों के साथ गुलछर्रे उड़ाती रहती है, तभी तो इतनी रात को आती है.''
‘‘तुम्हारे मन में ऐसी बात आई कैसे ?'' वह धम् से जमीन पर बैठ गई. मंगतराम उठकर खड़ा हो गया. मन हुआ कि जमकर एक लात जमा दे रण्डी को, परन्तु बापू बगल में थे और नशा इतना ज्यादा नहीं हुआ था कि हंगामा खड़ा कर दे. फिर भी सुनीता के सर को एक झटका दे दिया, ‘‘अगर ये बात सच नहीं है, तो एक हफ्ते से बन-ठनकर काम पर क्यों जाती है ? झाड़ू-पोंछा करनेवाली को साफ कपड़े पहनने की जरूरत क्या है ?''
सुनीता ने इत्मीनान की एक गहरी सांस ली. हल्के से मुस्कराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो ये बात है. अब पता चला, क्यों शंका की आग में सुलग रहे हो ? परन्तु तुम क्या जानो मेरे मन की बात... मर्द हो न्... तुम्हें तो केवल औरत के शरीर से मतलब होता है, भावनाओं से नहीं. जब से तुम्हारे साथ ब्याह हुआ है, शरीर के अलावा कौन सा सुख दिया है तुमने. रोटी और कपड़ों के लिए चार घरों में खटती हूं. कभी शौक-श्रृंगार नहीं किया. सजना-संवरना क्या होता है, काम के बीच कभी पता नहीं चला. बारह साल गुजार दिए तुम्हारे साथ... तीन बच्चे पैदा किए. तुम्हारे जैसे नाकारा-निठल्लू पति के साथ गुजर कर रही हंूं. तुम्हारे साथ तुम्हारे मां-बाप का पेट पाल रही हूं. बीवी दूसरों के घरों में काम करती है. तुम दारू पीकर पड़े रहते हो...शर्म नहीं आती है इस बात से. अब ये नौबत आ गयी है कि तुमको मेरे चरित्र पर शक होने लगा है. क्यों नहीं करोगे, बीवी घर से बाहर जाएगी तो हर पति को शक होगा. इतने ही मर्द हो तो घर में बिठाकर खिलाओ, फिर देखती हूं, कैसे शक करते हो ? कैसे मेरे ऊपर उंगली उठाते हो ? जाओ, घर से निकलकर मेहनत-मजदूरी करो. कमाकर लाओ, हम सबका पेट भरो. मैं बड़े घर की बहू-बेटियों की तरह सज-संवरकर बैठती हूं...कर सकोगे ?'' उसकी आवाज तेज हो गयी. वह रोने लगी थी.
मंगतराम का नशा हिरन हो गया. यही तो उससे नहीं हो सकता था. काम के बारे में सोचकर उसे जूड़ी चढ़ जाती थी. वह दुबककर बैठ गया, जैसे बिल्ली को देखकर चूहा दुबकता है. ज्यादा बोला तो बात बिगड़ जाएगी. कल से अगर सुनीता काम पर नहीं गयी तो... भूखों मरने की नौबत आ जायगी. आजकल बरसात का मौसम है. कहीं बजाने का भी काम नहीं मिलेगा.
सुनीता के मन को बहुत बड़ी ठेस लगी थी. मंगतराम के चुप रहने के बावजूद वह बोलती गयी, ‘‘आज तक सब घरों में झाड़ू-पोंछा किया. गंदगी में लिपटी रहती थी. किसी ने कभी नहीं टोंका. पहली बार बाबूजी के यहां खाना बनाने का काम मिला था. पहले दिन ही उन्होंने कहा था, ‘देखो, सुनीता, तुम किसी के घर में क्या और कैसा काम करती हो, इससे मुझे कोई मतलब नहीं; परन्तु तुम मेरे यहां खाना भी बनाती हो. अतः मैं चाहूंगा कि साफ-सुथरे कपड़े पहनकर आया करो. गंदे कपड़े पहनकर खाना बनाओगी तो किसी का भी मन उसे खाने के लिए नहीं करेगा. इसलिए कल से साफ कपड़े पहनकर आना.' यही सोचकर मैं थोड़ा साफ साड़ी पहनने लगी थी. मुझे क्या पता था कि तुमको मेरे चरित्र पर शक हो जाएगा. ठीक है, मैं कल से कहीं भी काम करने नहीं जाऊंगी. देखती हूं, कहां से कमाकर लाते हो और हम सबका पेट भरते हो.''
मंगतराम सन्न् रह गया. उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. अब उसे अपने आप पर गुस्सा आने लगा... क्यों सुनीता पर शक किया ? क्यों इतनी ज्यादा पी ली आज ? वह पछताने लगा, परन्तु बोला कुछ नहीं ? कहीं बात ज्यादा न बिगड़ जाए. चुप रहना ही बेहतर था. सुनीता अपने आप शान्त हो जाएगी. वह चुपचाप चारपाई पर लेट गया. मुंह दीवार की तरफ कर लिया. पीछे से थोड़ी देर बाद खटपट की आवाज आई. वह समझ गया कि सुनीता खाना बनाने में जुट गयी थी.
उस रात मंगतराम और सुनीता एक साथ नहीं लेटे. वह जमीन पर चारपाई बिछाकर लेट गयी. मंगतराम की हिम्मत नहीं हुई कि उसे बुला ले या हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच ले और अपने सीने से लगाकर बगल में सुला ले. वह शांत भाव से खपरैल की छत को ताकता रहा.
सुनीता का मन सुलग रहा था. दिल में पीड़ा का सागर लहरा रहा था. मंगतराम की बातों से दिमाग झन्ना रहा था, तो दिल के एक कोने में बाबूजी बैठे मुस्करा रहे थे. सुनीता का मन डोलने लगा था. आज तक मंगतराम के सिवा उसकी जिंदगी में कोई मर्द नहीं आया था. शादी के पहले मोहल्ले के लड़के उस पर फिदा थे. वह भी एक लड़के के पे्रमजाल में फंसी थी. यह स्वाभाविक था, परन्तु शादी के पहले का प्यार कच्चे घड़े के समान होता है. शादी के बाद वह टूट गया और वह पूरी तरह से मंगतराम की होकर रह गयी थी.
शादी के बारह सालों में उसने कोई सुख नहीं देखा था. अच्छा खाना-पहनना क्या होता है, सिर्फ देखा था, भोगा नहीं... दूसरी औरतों को सजा-धजा देखकर भी उसके मन में ललक नहीं जागी. उन लिपी-पुती औरतों को देखकर ईर्ष्या भाव भी नहीं जगा. उसे अपनी निर्धनता और मजबूरियों का पता था. होश संभालने के बाद से ही उसको अपनी नियति पता थी. किस माहौल में रहकर उसे जीवन-यापन करना है, उसे अच्छी तरह पता था. सुख के सपने कैसे होते हैं, उसने कभी न जाना.
परन्तु अब... उसका मन बाबूजी की तरफ भागने लगा था. मंगतराम की शंका का परिणाम था कि वह दूसरे मर्द के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो गयी थी. न चाहकर भी उसका मन बार-बार बाबूजी की तरफ चला जाता था. कितने सौम्य, सुसंस्कृत और भले लगते हैं. हमेशा गंभीर मुद्रा में कुछ न कुछ लिखते-पढ़ते रहते हैं. यह जीवन का वह रूप था, जहां सुनीता का प्रवेश वर्जित था. उसके और बाबूजी के जीवन में जमीन आसमान का अंतर था. परन्तु क्या स्त्री और पुरुष के जीवन में भी कोई अंतर होता है ? उसने पूछा अपने आप से और उसका कोई जवाब नहीं था उसके पास.
बाबूजी के बारे में सोचकर वह पुलक गयी. मन में एक झंकार सी उठी और सोते हुए सपनों के संसार में पहुंच गयी. वहां वह एक सुंदर परी बन गयी. फिर उसने देखा, हवा में एक घोड़ा उड़ता हुआ आया, उस पर एक सुन्दर राजकुमार बैठा हुआ था. उसने ध्यान से देखा... अरे, यह तो बाबूजी थे. वह शर्म, संकोच और रोमांच से सिहर उठी. तभी बाबूजी ने उसका दायां हाथ पकड़ा और उसे फूल की तरह उठाकर घोड़े पर अपने आगे बिठा लिया. फिर घोड़ा उड़ता हुआ आकाश में विलीन हो गया.
सुबह जब वह उठी तो रात का सपना ताजा लग रहा था. मंगतराम चारपाई पर बेसुध लेटा पड़ा था. बच्चे भी सो रहे थे. वह रोमांचित होकर दीवार में लगे शीशे के सामने खड़ी हो गयी. अपना मुंह देखा, बाल उलझे हुए थे. परन्तु चेहरे पर अनोखी अनजान अल्हलड़ता और जवानी का गुलाबी रंग बिखरा हुआ था. इतनी सुन्दर तो वह पहले कभी नहीं लगी थी. तब भी नहीं, जब उसकी शादी हुई थी और वह सज-धजकर सुहाग सेज पर बैठी थी.
क्या बाबूजी उसे प्यार करेंगे... वह सोचने लगी ? कहां बाबूजी...इतने बड़े आदमी और कहां एक घरेलू काम करनेवाली बाई...दोनों में कोई समानता नहीं थी. नहीं...नहीं... उसने अपने सिर को एक झटका दिया... दोनों में एक समानता है. वह औरत है और बाबूजी एक मर्द... औरत और मर्द के बीच कोई असमानता और दूरी नहीं होती.
मन ही मन तय किया उसने. वह बाबूजी और अपने बीच की दूरी मिटा देगी. ऐसा सोचते समय बाबूजी के प्रति उसका कोई प्रेमभाव नहीं था. वह एक आग में जल रही थी. वह आग थी... मंगतराम के अविश्वास की. वह उससे बदला लेना चाहती थी. जो कुछ उसने कभी सुनीता को नहीं दिया था, वह बाबूजी से पा लेना चाहती थी. एक उच्च शिक्षित, संस्कारवान, धनी और अच्छी नौकरी वाले पुरुष को प्यार करने की लालसा और कामना आज उसके मन में जगी थी. दूसरी दुनिया बहुत सुंदर लगती थी. आज वह अपनी दुनिया से निकलकर दूसरी दुनिया के प्यार को प्राप्त कर लेना चाहती थी. जो आज तक उसके मन में नहीं आया था, अब वह करने जा रही थी. कोई नहीं रोक सकता था उसे... मंगतराम भी नहीं, जो उसका मालिक था.
शीशे के सामने से हटकर उसने सोते हुए मंगतराम पर एक नज़र डाली. आज पहली बार उसे अपने पति से वितृष्णा हुई थी. उपेक्षा से उसने सिर घुमा लिया और काम पर जाने के लिए तैयार होने लगी. जैसे ही उसने पहनने के लिए एक अच्छी साड़ी निकाली, उसके मन में कल रात की बातें एक लहर की तरह सब कुछ हिला गयीं. मंगतराम की बातों को याद करके वह फिर सुलग उठी. उसकी बातें एक सांप की तरह डसने लगीं. धीरे-धीरे गुस्से से उसका मन उबलने लगा. उसने साड़ी एक तरफ पटक दी और दीवार के सहारे बैठकर रोने लगी... नहीं, वह काम पर नहीं जाएगी.
सुनीता उलझकर रह गयी थी. मन में रस्साकसी चल रही थी. डोर कभी एक तरफ खिंचती, तो कभी दूसरी तरफ. कुछ नया पाने और देखने की तमन्ना जोर मार रही थी, तो मंगत की जली-कटी बातें उसकी तमन्नाओं पर पानी फेर रही थीं. अन्ततः उसने तय किया कि मंगतराम को मजा चखाने के लिए वह काम पर तो नहीं ही जाएगी. घर में खाने को नहीं होगा, तो छटपटाएगा, उसे मनाएगा. परन्तु मानेगी नहीं वह.
परन्तु बच्चों के उठते ही उसका मन बदल गया. उठते ही वह खाना मांगने लगे. जल्दी-जल्दी उसने सब्जी रोटी बनाई, बच्चों को खिलाया. बापू और मां के लिए दो थाली में रखकर दे आई. मंगतराम के लिए एक थाली में ढंककर रख दिया. वह अभी तक सो रहा था. दारू का नशा दस बजे के पहले उतरने वाला नहीं था. वह चिंतामुक्त, बीवी-बच्चों से बेखबर सुख की नींद ले रहा था. परन्तु सुनीता को तो चिन्ता थी. बच्चों की चिन्ता थी, सास-ससुर की चिन्ता थी और साथ ही शक्की, निठल्ले, नाकारा और शराबी पति की भी चिन्ता थी. वह क्या घर में बैठी रह सकती थी, नहीं... परन्तु आज काम पर नहीं जाएगी. एक दिन के लिए ही सही, मंगतराम को दिखाकर रहेगी कि उसकी भी कोई अहमियत है, आत्मसम्मान है.
मंगतराम की नींद खुली तो सुनीता को घर में देखकर वह सारी बात समझ गया. कल रात की बातें एक-एककर उसके दिमाग में घुमड़ने लगीं. वह पछतावे से भरा सुनीता के पास गया और बिना किसी भूमिका के बोला, ‘‘देखो, मैं अपनी बातों के लिए शर्मिन्दा हूं. तुमसे माफी मांगता हूं. काम पर जाओ, नहीं तो हम सब भूखों मर जाएंगे.''
सुनीता कुछ नहीं बोली, तो वह उसे कंधे से पकड़कर उठाते हुए बोला, ‘‘अब उठो भी, क्या पैरों पर गिरकर माफी मांगू ?'' सुनीता के मन में मंगतराम के लिए चाहे जितनी घृणा रही हो, परन्तु पति के मुख से ऐसी बात सुनकर वह द्रवित हो गयी. स्वयं उठकर खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘आज तो देर हो गयी. अब कल जाऊंगी.''
उस दिन भी वह मंगतराम के साथ नहीं लेटी. उसने तय कर लिया था कि अब वह मंगतराम की नहीं रहेगी, किसी और की होकर रहेगी और तब तक मंगतराम उसके लिए वर्जित था. वह उसके शरीर को भोगना तो दूर, छू भी नहीं सकता था.
पति के अविश्वास से पत्नियों के कदम डगमगाते हैं.
दूसरे दिन जब वह बाबूजी के यहां काम पर गयी, तो उसके मनोभाव ही नहीं, उसकी नजरें भी पूरी तरह बदली हुई थीं. उसका मन मुस्करा रहा था. दिल पुलक रहा था. बदन में तरंगें तैर रही थी और आंखें चंचलता से बाबूजी को देख रही थी. बाबूजी का मंजन करना, दाढ़ी बनाना, बाथरूम जाना, नहाकर बाहर निकलना, कपड़े पहनना और बालों में कंघी करना... उस दिन कुछ भी उससे छिपा न रह सका. पहले जितना शांत भाव से काम करती थी, आज उतनी ही चंचलता से थिरक रही थी.
बाबू चन्द्रप्रकाश ने सुनीता की चंचलता को भांप लिया, परन्तु बोले कुछ नहीं. पुरुष थे... नारी के मनोभावों को पढ़ने में कितनी देर लगती. जवानी और प्रौढ़ावस्था पार कर चुके थे. जीवन के हर रंग से परिचित थे. स्त्रियां उनकी कमजोरी रही हैं और आज तीस बत्तीस साल की औरत, जवानी से लबरेज, उनके सामने चंचल लहरों की तरह पास आने को व्याकुल हो तो क्या वह स्वयं अविचलित रह सकते थे. उनके मन में भी जवानी की तरंगों ने हिलोरें लेना प्रारम्भ कर दिया.
सुनीता से एक-दो बार नजरें मिली तो वह मुस्करा दी. उसकी नजरों को भाड्ढा और चेहरे का गुलाबीपन उन्हें आमन्त्रण देता लगा. उन्होंने सुनीता के चेहरे और शरीर को गौर से देखा, वह उन्हें पहली बार सुंदर लगी. उनका मन-मयूर नाच उठा. पुरुष अकेला हो, तो हर औरत उसे सुंदर लगती है. स्त्री चाहे जैसी हो, वह किसी भी पुरुष को पागल बना सकती है और कौन पुरुष ऐसा होगा जो किसी स्त्री को देखकर पागल नहीं बन जाता है.
पहले सुनीता बाबूजी से कोई बात नहीं करती थी. वही दो-चार वाक्य बोल लेते थे. किसी सामान की आवश्यकता हुई तो अवश्य बोल देती थी. वह ला देते थे, परन्तु अब परिस्थितियां बदल गयी थीं. सुनीता उस घर पर ही नहीं, उसमें रहने वाले मनुष्य पर भी अपना अधिकार समझने लगी थी. अपना घर परिवार उसके लिए नगण्य और गौड़ हो गया था. बाबूजी के यहां काम करते हुए उसे अपने बच्चों और मंगतराम की एक बार भी याद नहीं आती... उसे लगता वह बाबूजी के घर की मालकिन है और वह उसके पति.
वह बाबूजी के घर परिवार के बारे में पूछती, बच्चों के बारे में बात करती. और भी तमाम तरह की बातें करती. चन्द्रप्रकाश हंसते-मुस्कराते उसकी बातों का जवाब देते. इस दौरान सुनीता अपने बच्चों को भूल जाती, भूल जाती कि वह एक ब्याहता है, उसका पति है और घर में सास-ससुर हैं. यह भूल जाती कि वह तीन बच्चों की मां है और उम्र के इस पड़ाव पर दूसरे पुरुष की तरफ आकर्षित होना क्या जायज है ?
समाज, परिवार और जीवन की किसी मर्यादा के कोई मायने नहीं रहे उसके लिए... वह कुछ नया प्राप्त करना चाहती थी, चाहे समाज की नज़रों में वह वर्जित ही क्यों न हो ?
ज्यादा समय नहीं लगा उसे वर्जित फल चखने में. किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा. दोनों ही एक दूसरे के मन की बात जानते थे. उस दिन छुट्टी थी. चन्द्रप्रकाश ने मन बना लिया था. सुनीता पहले से तैयार थी. वह बाबूजी की पहल का इंतजार कर रही थी. उस दिन जैसे ही सुनीता उनके घर पहुंची, उन्होंने उसे किचन में जाने से रोक दिया और इशारे से अपने बेडरूम में बुलाया. वह इशारा समझकर सिहर उठी. स्त्री चाहे कितनी बार भी पुरुष की बाहों में आ चुकी हो, परन्तु नये पुरुष के पास जाने की उत्सुकता और चाह उसको इस तरह सिहरा देती है, जैसे वह पहली बार पुरुष के संसर्ग में जा रही हो.
कमरे में आते ही चन्द्रप्रकाश ने उसे अपनी बाांहें में समेट लिया और वह अवलम्बन रहित बेल की तरह उनसे लिपट गयी. वह चन्द्रप्रकाश की बाहों में इस तरह सिमट गयी थी, जैसे मां की गोद में कोई अबोध बच्चा. वह अपने वांछित पुरुष की सांसों की गर्मी अपने चेहरे पर महसूस कर रही थी. उसकी आंखें बंद थी और वह आने वाले सुखद पलों का इंतजार कर रही थी, जब वह जीवन के एक नये और अनूठे अनुभव से गुजर रही होगी. स्त्री के लिए हर नया पुरुष नया अनुभव लेकर आता है. इस अनुभव से गुजरने के लिए वह सदैव रोमांचित रहती है.
मंगतराम की शंका निर्मूल थी, परन्तु सुनीता ने उसे क्रोध और ईर्ष्यावश सच में बदल दिया था. पर पुरुष की बाहों में जाने का भाव उसके मन में मंगतराम की शंका के पश्चात उपजा था. इसमें उसका कोई दोष नहीं था. मनुष्य कभी-कभी वह करना चाहता है, जिसे करने के लिए उसे रोका जाता है. सुनीता ने वहीं किया था, जो उसका पति नहीं चाहता था. बाबूजी के साथ संबन्ध बनाते समय उसे वर्जित फल चखने की जिज्ञासा कम, मंगतराम को जलाने का भाव ज्यादा था. वह आक्रोशित थी और आक्रोश में उसने वह कदम उठा लिया था, जो समाज को मान्य नहीं था.
आग ठंडी हो गयी. जब दोनों अलग हुए, तो चन्द्रप्रकाश की आंखों में तृप्ति का भाव था और सुनीता के मन में परम संतुष्टि का..... दोनों को ही अपना प्राप्य मिल गया था.
इसके बाद सुनीता की दुनिया बदल गयी.
सुनीता ने अभी तक अभावग्रस्त जीवन जिया था. दूसरों के घरों में काम करती थी. दो पैसे हाथ में आते थे, परन्तु इससे उसके जीवन में कोई बहार नहीं आ सकती थी. बंधी-बंधायी मजदूरी मिलती थी. संपन्न घरों की औरतें पुराने कपड़े-लत्ते और तीज-त्यौहार पर दस-बीस रूपये दे देती थीं. इससे उसकी कोई जरूरत पूरी नहीं होती थी... न तो वह अच्छा खा सकती थी, न अच्छा पहन सकती थी. बच्चे गली में भिखमंगों की तरह घूमते थे. पढ़ने भी नहीं जाते थे. पति के पास उनकी तरफ ध्यान देने के लिए समय ही नहीं था. या तो वह नशे में धुत्त रहता था या मोहल्ले में गंजेडि़यों के साथ बैठकर गांजे के सुट्टे लगता था या कहीं बैठकर ताश खेलता रहता था.
आज जब तन और मन दोनों से उसने बाबूजी को अपना बना लिया था तो मन के किसी कोने में भौतिक सुख भोगने की लालसा भी जाग उठी थी. बाबूजी को समर्पित हो जाने के बाद क्या वह उसके लिए कुछ नहीं करेंगे ? क्यों नहीं करेंगे... इतने बड़े आदमी हैं. पैसे वाले हैं, उस गरीब के लिए कुछ न कुछ तो करेंगे ही. वह अपना सर्वस्व उनको सौंप चुकी है. यह समर्पण व्यर्थ नहीं जाएगा.
अब उस घर में चन्द्रप्रकाश अधिकारी या बुद्धिजीवी नहीं थे. सुनीता काम करनेवाली बाई नहीं थी. वह दोनों स्त्री-पुरुष थे. हमारे सामाजिक ढांचे में चाहे जितनी बुराइयां हों, जातियों के बीच असमानताएं और छुआ-छूत हो; परन्तु स्त्री-पुरुष के संबंधों में कोई जाति-पांति, दूरी और छुआ-छूत नहीं होती.
कहना न होगा कि बाबूजी से संबंध बनाने के बाद सुनीता के जीवन में जबरदस्त परिवर्तन हुआ था. बच्चे अच्छे स्कूल में भर्ती होकर पढ़ाई करने लगे थे. मंगतराम को रात-दिन दारू पीने के लिए पैसे मिलने लगे थे. घर में सुख-सुविधाओं की भरमार हो गयी थी. मंगतराम और उसके मां-बाप को सब बातों का पता था. उन्हें पता था कि पैसा और विलासिता तथा सुख-सुविधा की चीजें कहां से आ रही थी, परन्तु उन्होंने आंख मूंद ली थी. जीवन में पहली बार उन्हें सुख और विलासिता के दर्शन हो रहे थे. अच्छा खाने और पहनने को मिल रहा था. कोठरी में रंगीन टी.वी. के साथ-साथ सीडी प्लेयर भी आ गया था. मन चाही फिल्में देखने लगे थे. बच्चों के चेहरों पर रौनक आ गयी थी और अब वह मोहल्ले में अच्छे कपड़े पहनकर ठाठ से घूमते थे. उनमें अनोखा आत्मविश्वास जाग उठा था और वह अपने मोहल्ले के बच्चों से अपने को श्रेष्ठ समझने लगे थे. यह पैसे से उपजने वाली प्रवृत्ति थी, जो हर मनुष्य में जागती है. बच्चे भी इससे अछूते नहीं थे. पैसा मनुष्य के मन में बहुत सारे कुसंस्कार पैदा कर देता है. अचानक आए पैसे से अगर सुनीता के बच्चों में बड़प्पन और अहम् का भाव जाग्रत हुआ था, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी.
सास-ससुर मन ही मन बहू को आशीर्वाद देते कि उसने उनके जीवन में खुशियों की बहार ला दी थी. मंगतराम बेगैरत हो गया था. जिस असंगत और बेबुनियाद बात को लेकर उसने बीवी से झगड़ा किया था, वह अब प्रत्यक्ष रूप से उसके सामने हो रही थी. जब तक बीवी ने कोई दुराचार नहीं किया था, तब तक वह उसके लिए संदिग्ध थी और आज जब वह खुलकर वही काम कर रही थी, तो वह इतना बेगैरत हो गया था कि उससे ऊंची आवाज में बात करना तो दूर उसकी तरफ देख तक नहीं सकता था. उसके घर में आते ही वह बाहर चला जाता था और देर रात को दारू के अड्डे से गिरते-पड़ते आता था. कोठरी में पहुंचते ही चारपाई पर गिर पड़ता था. कुछ होश होता तो खा लेता, वरना बिना खाये ही सो जाता था. सुनीता भी चिंता नहीं करती थी...मरने दो...हरामी कहीं का. वह मन ही मन उसे गाली देती.
मंगतराम की सेहत सुधरने के बजाय गिरती जा रही थी. घर में खाने-पीने की कमी नहीं थी. सुनीता समय से खाना भी बना देती थी, परन्तु वह खाना कम खाता था, दारू ज्यादा पीता था. सुनीता उसे पीने से मना भी नहीं करती थी. क्यों करे वह.... मंगतराम ने उसके लिए किया क्या था, जो वह उसके बारे में सोचे. उसके मन में मंगतराम के लिए कोई ममता, प्यार व स्नेह नहीं बचा था. मन ही मन अब भी वह उससे बदला ले रही थी. उसी जलन में उसने अपने आपको दूसरे मर्द को सौंप दिया था. इस बात का उसे कोई पछतावा नहीं था.यह न करती तो भूखों मरती... आज बाबूजी की वजह से वह सुख की रोटी तो खा सकती थी.
सुनीता अब किसी दूसरे घर में झाड़ू-पोंछा नहीं करती थी. वह केवल पांचवें घर की होकर रह गयी थी.
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(राकेश भ्रमर)
संपादक प्रज्ञा मासिक
24, जगदीशपुरम्, लखनऊ मार्ग,
निकट त्रिपुला चौराहा, रायबरेली-229316
koi bhi aurat janam se buri nahi hoti, MARD hi aurat ko burai sikhata hai fir vo kisi bhi roop me kyon na ho?
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