विभा रानी की कहानी : इंट्रोड्यूसिंग माधवी मेनन

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रो लिंग- कैमरा- ऐक्शन - कैमरा ऑन, रील की घर्र-घर्र शुरू और शुरू हो गई माधवी मेनन - सधे, नपे-तुले कदमों से वह अपमान व क्षोभ में डूबी बड़ी म...

Vibha Rani

रोलिंग- कैमरा- ऐक्शन - कैमरा ऑन, रील की घर्र-घर्र शुरू और शुरू हो गई माधवी मेनन - सधे, नपे-तुले कदमों से वह अपमान व क्षोभ में डूबी बड़ी मालकिन की ओर बढ़ी। बड़ी मालकिन के चेहरे पर दुखी, कातर और उससे भी बढ़कर 'मुझे समझो, मैं गलत नहीं।' के भाव आए। पनीली आंखों से वे नौकरानी बनी माधवी मेनन की ओर चार पल देखती रहीं। माधवी मेनन भी 'समझ रही हूं आपको' की भावना के साथ उन्हें देखती रही। फिर वह आगे बढ़ी, कंधे पीछे से थामे और हाथों का दवाब कन्धे की ओर बढ़ाते हुए बड़ी मालकिन को अपने में समेट लेना चाहा।

       ' कट!' बड़ी मालकिन बड़ी तेजी से छिटकी - 'व्हाट इज़ दिस नॉन्सेन्स डूइंग! इडियट!' और तमतमाती हुई अपने मेकअप रूम में चली गईं। पूरी यूनिट भौंचक! इतना अच्छा भाव-प्रवण दृश्य! जितनी कुशलता और सधे लिहाज में बड़ी मालकिन के रूप में नसीम जहाँ अपना किरदार निभा रही थीं, उतनी ही कुशल और सहज थी माधवी मेनन। चेहरे पर आत्मविश्वास का नूर, ऑंखों में कुछ बढ़िया करने की चाहत।

माधवी मेनन की यह पहली फिल्म है। पहली ही फिल्म का ब्रेक मोहन जी के साथ। संग में आश्वासन भी -'आई विल इंट्रोडयूस यू।' इंडस्ट्री में इसका असर तो होगा ही। खुशी के झूले में आसमान की ऊंचाई नाप रही थी माधवी मेनन ।

फिलहाल यूनिट शांत थी। कैमरामेन कैमरों पर कपड़े डाल चुके थे। मोहन जी नसीम जहाँ के मेकअप रूप में जा चुके थे। सभी अपने-अपने कयास लगा रहे थे। सभी नसीम जहाँ के मूड से वाक़िफ़ थे।

       " झाला रे झाला! आजच्या दिवस संपला। मॅडमच्या मूड माहिते ना तुमि? मग?' यूनिट के लोग आपस में अपने- अपने कयास लगा रहे थे।

       " जब सीन के मुताबिक उसे मेरे कन्धे छूने भर थे, तो उसने दबाए क्यों और गले लगाने के लिए आगे क्यों बढ़ी? डज शी वांट टू सुपरसीड मी?' नसीम जहां समुद्र की उत्ताल तरंग की तरह उफ़न रही थीं।

       " नॉट एट ऑल! मोहन जी का स्वर भी शांत, धीर, गम्भीर समुद्र की तरह शांत था- 'समझ में नहीं आया होगा। इमोशनल सीन्स में तो आप जानती ही हैं, जितना ज्यादा इमोशन्स प्ले करेंगी, ऑडिएंस भी उतनी ही ज्यादा रिएक्ट करती है।'

       " तो अब वह मुझे बताएगी कि मुझे क्या करना है?' नसीम जहाँ तमतमाईं।

मोहन जी हल्की मुस्कान के साथ नसीम जहाँ का तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उन्हें अपने बीस साल पुराने दिन याद आ गए। तब वे इंडस्ट्री के लिए बिल्कुल कोरे थे- माधवी मेनन की तरह ही। रियलिस्टिक सिनेमा की सोच थी। आम बंबइया फिल्में बनाना नहीं चाहते थे। पता था, इतने बड़े-बड़े दिग्गजों और शो-मैनों के बीच वे कही खो जाएंगे। मोतीलाल, बलराज साहनी, अशोक कुमार, देविका रानी, मीना कुमारी, मधुबाला उनके आदर्श थे। चार्ली चैप्लीन, सत्यजित रे, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन और अब के श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी उनके रोल मॉडल्स थे। बावजूद इन सबके, वे किसी की कॉपी करने नहीं, अपने मिजाज की, अपनी सोच की फिल्में बनाने की इच्छा व इरादे रखते थे।

कला फिल्मों की बेताज़ मलका इसी नसीम जहां को तब उन्होंने अप्रोच किया था। शक्ल सूरत से निहायत साधारण, मगर अभिनय में संवेदनशील, रियलिस्टिक। कला, अदब और आज़ादी की लड़ाई के दीवाने उनके परिवार का भरपूर असर उनकी अपनी प्रतिभा को संवारने, सुधारने में पड़ा। जैसा कि हर वक्त और हर काल में होता है, उस समय भी दो-चार और अभिनेत्रियां थीं, जो अपने अभिनय के लिए इंडस्ट्री में जानी - पहचानी जाने लगी थीं। लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता है, सबकी पहली पसंद चोटी पर पहुंचे लोगों को लेने की ही होती है। मोहन जी भी इसके अपवाद न थे।

लेकिन, तबतक नसीम जहां अपने समकालीन अभिनेत्रियों की तुलना में रियलिस्टिक फिल्मों से आगे बढकर पॉपुलर फिल्मों, जिन्हें तब बंबइया फिल्में कहा जाता था, में प्रवेश कर चुकी थीं। न केवल कर चुकी थीं, बल्कि मीना, नर्गिस, मधुबाल, वहीदा आदि के बाद के आए सटीक अभिनय के खालीपन को भरने में कामियाब भी हो गई थीं। कला और फॉर्मूला फिल्मों की सफलता ने उन्हें अनायास ही उस समय की प्रसिद्ध, ख़ूबसूरत व चोटी पर पहुंची हीरोइनों के बराबर ला खडा कर दिया था। अब उनके दोनों पलड़े भारी थे। रियलिस्टिक व पॉपुलर - कला व फॉर्मूला! बरास्ते कला फिल्में राष्ट्रीय पुरस्कार और संजीदा अभिनेत्री की पहचान और फॉर्मूला फिल्मों के झरोखों और बॉक्स ऑफ़िस से आती लक्ष्मी व प्रसिद्धि की सुनहरी हवा के मधुर- मीठे बयार ।

मन तो अब मोहन जी का भी ऊब चुका था कला फिल्मों से। कला फ़िल्मवाले की छाप के सहारे जी रहे थे- मुख्य धारा से जुड़ने की छटपटाहट भरी बेचैनी से लबरेज। अब तो समय, माहौल, तकनीक, सिनेमा को देखने का अंदाज- सबकुछ बदल चुका था। तथाकथित कला फिल्में अब क्लासिक की श्रेणी में आ गई थीं - उत्सवों, समारोहों के लिए, बुद्धिजीवियों, आलोचकों, कलाकारों के लिए। आम बी ग्रेड फ़िल्में छोड़ दें तो अब आर्ट और पॉपुलर फिल्मों का मिश्रण होने लगा था। बड़े-बड़े कला-फिल्म गुरू भी आज के बड़े-बड़े और चमकते सितारों को लेकर फिल्में बनाने लगे थे।

मोहन जी ने भी यही किया। तब नसीम जहां के मना करने पर नवोदित नायिका को लेकर फ़िल्म बना ली। फ़िल्म ने बॉक्स ऑफ़िस पर तो कोई बिजनेस नहीं किया, लेकिन समीक्षकों द्वारा उसे बेहद सरहाना मिली। उसे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा भी गया। पता नहीं, नसीम जहां इससे कुछ विचलित हुईं या नहीं, लेकिन मोहन जी की पहचान इंडस्ट्री में बन गई। किसी समारोह में नसीम जहां ने उन्हें देख कर 'हाय' भी किया और कहा भी कि कोई अच्छी स्क्रिप्ट हो तो वे ज़रूर काम करना चाहेंगी। मोहन जी मुस्कुरा पड़े। इंडस्ट्री की ज़बान और मिजाज़ वे कुछ -कुछ समझने लगे थे।

बीस साल बाद कला फ़िल्मों से संन्यास लेकर अब उन्होंने व्यावसायिक, बल्कि हृषिकेश मुखर्जी की ज़बान में कहें तो अच्छी फ़िल्म बनाने की घोषणा की। न केवल घोषणा की, बल्कि उस समय के चोटी के कलाकारों को लेकर फ़िल्म बना भी डाली। लेकिन, इस देश की पब्लिक की नब्ज़ समझने में बड़े बड़े फ़िल्म गुरू और समीक्षक भी मात खाते रहे हैं। इसलिए मोहन जी की पहली फ़िल्म ने जहां उन्हें पैसे नहीं, पर ख्याति ज़रुर दी, वहीं इस फ़िल्म ने उनके नाम और दाम दोनों को डुबो दिया। घाघ समीक्षकों ने तो उनकी ऐसी मिट्टी पलीद कर दी कि बस! कमजोर दिलवाले तो सब छोड़-छाड़कर कैलाश-मानसरोवर का ही रुख कर लें।

पिछली फिल्म के पिटने को उन्होंने अपने को नए साँचे में ढालने के एक्सरसाइज की तरह लिया। अब इस फिल्म पर उनकी पूरी नजर केन्द्रित थी - महत्वाकांक्षा की रेशमी डोर में लिपटी सपनों की रंगीन झालर की तरह। यह पिट गई तो समझो, वे मिट गए। गर मिटना ही है तो अमिट होकर मिटो कि मिट भी गए और अमिट भी बने रहे। एक-एक कदम फूँक कर। एक-एक सीन कई-कई बार पढकर। पूरी की पूरी स्क्रिप्ट अपने कई मित्रों, विश्वस्तों से पढ़वाकर, एक-एक कलाकार चुनकर- सभी मँजे हुए- कई बरसों से इंडस्ट्री में अपने को खपा रहे कलाकार।

सिर्फ माधवी मेनन ही नई थी- एकदम नई। पूरी यूनिट चौंकी थी। सभी कलाकार चौंके थे- नामचीन नहीं हो पाए थे, ना सही, मगर संघर्ष की धूप- माटी- रेत में तपकर पक तो गए ही थे। ऐसे दिग्गजों के बीच एकदम कच्ची माटी की तरह माधवी मेनन। दिग्गजों में भी दिग्गज नसीम जहां और उसी के साथ, उतना ही लंबा उसका भी रोल। नसीम जहां के लगभग हर फ्रेम में माधवी मेनन।

       " इसे कहते हैं लक! क्या चमकेगी ये तो! इतना बड़ा ब्रेक!'

       " मान गए मोहन जी को! भई, ढलते हैं तो इस कदर, बिदकते हैं तो भी इस कदर।'

बिदकी थीं नसीम जहां। बीस साल पहले इंडस्ट्री में नए-नए आकर अपनी स्क्रिप्ट के साथ नसीम जहां के यहां पहुंचे थे, स्क्रिप्ट भी कहां सुनी- बस, अप्रोच सुना और 'आर्ट फिल्म, लो बजट फिल्म' सुनकर बिना उनकी ओर देखे 'नो थैंक्स' कहा और उठकर चल दीं। नसीम जहां को डर था कि कला फ़िल्म की दुनिया में दुबारा लौटने से उनका बाजार भाव न गिर जाए। फिलहाल तो वे कला-फिल्मों से मिले पुरस्कार और पॉपुलर फिल्मों से मिले पैसे और शोहरत और अब चंद अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्मों के बल पर सातवें आसमान पर थीं- अपनी समकालीन, मादक, खूबसूरत अभिनेत्रियों से कहीं और कई गुना ज्यादा। वे सब केवल खूबसूरत गुड़ियां थीं, जबकि नसीम जहां में जुझारू माता-पिता की संतान होने के कारण बौद्धिकपना भी था। विश्व-युद्ध से लेकर साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, शोषण, कला, साहित्य आदि पर वे घंटों बहस कर सकती थीं। इसके लिए उन्हें बहुत अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी थी। ये सब उन्हें विरासत में मिली थी- अपने माता-पिता की बदौलत। फ़िल्म संसार की शोहरत के शीर्ष पर बैठे हुओं को राजनीतिज्ञ भी सूंघ लेते हैं। वाम पक्ष और जन-कल्याण का झंडा लेकर वे भी उठ गईं। फिल्म स्टार और जन कल्याण - भला कवरेज कैसे ना हो। पलक झपकते वे ग़रीबों, वंचितों की रहनुमां के रूप में विख्यात हो गई। राजनीति अब उन्हें रास आने लगी। वे अपनी हर चीज को अपने हिसाब से मोड़ने, समेटने, चपेटने में कुशल बाज़ के रूप में जानी जाने लगीं।

सेवा, संसद, फ़िल्म, फैशन, मॉडल, ग्लैमर- मगर इन सबके बावजूद बीस साल के अंतराल ने उम्र के हिसाब से उनकी स्थिति बदल दी। हिन्दी फिल्मों के हीरो तो बीस साल बाद भी हीरो ही बने रहते हैं, जबकि हीरोइनें उन्हीं की मां बनकर अगली फिल्में करती नजर आने लगती हैं। बीस साल के अंतराल ने नसीम जहां को भी यह कहने पर मजबूर कर दिया कि अब वे चुनींदा फिल्में ही करेंगी- अपनी उम्र और गरिमा के मुताबिक।

बीस साल में मोहन जी की स्थिति भी काफी बदल गई। अब इंडस्ट्री की नामचीन हस्तियों में उनकी नामशुमारी थी। मीडिया और अखबार उन पर स्टोरी करने या लिखने को तवज्ज़ो देते। वे अभी चढ़ान पर थे और अपनी इस पोजीशन को संभालना उन्हें अच्छी तरह आ गया था। इसलिए इस बार तो वे गए भी नहीं। फोन पर ही नसीम जहां से बातें हुई। फोन पर ही उन्होंने रोल सुनाया, फ़ोन पर ही नसीम जहां ने रोल को लड्डू की तरह लपक भी लिया। फ़ोन पर ही मोहन जी मुस्कुराए।

पैकअप माने पैकअप। मोहन जी भुनभुनाए -'साली, बुड्ढ़ी हो गई है, फिर भी नखरे मल्लिका की तरह दिखाती है।' नहीं। वे जानते हैं, ये केवल नखरे नहीं हैं। यह, यहां का सबसे बड़ा तत्व है- यहां की असुरक्षा, इनसिक्योरिटी .. फक्कड़ भी और करोड़ों में खेलनेवाले भी, गुमनाम भी और चोटी पर पहुंचे हुए लोग भी - सभी के सभी भयानक भय और रीढ तोड़नेवाली असुरक्षा के सघन, काले मेघ से घिरे हुए।

अपने आठ बाई दस के खोलीनुमा कमरे में माधवी मेनन करवटें बदल रही थीं। भय और असुरक्षा ने उसके भी दिल और दिमाग को जकड़ लिया था। कल क्या होगा? पैकअप के बाद वापस होते समय वह मोहन जी के सामने खड़ी हुई, मगर उनका अतिशय गंभीर चेहरा देखकर लौट आई। अभी इस एकांत में उसका मन जोर-जोर से रोने का कर रहा था, अपने अच्छन-अम्मा के पास उड़ जाने का जी हो रहा था। वह चाह रही थी कि वह नसीम जहां को फोन करके उन्हें सॉरी बोले। मोहन जी को बताए कि उसने कुछ भी जानबूझकर नहीं किया है। उसने तो अपनी अम्मा को देखा है, इसतरह से सहारा देते हुए- उसे, उसकी बहनों को, नाते-रिश्तेदारों को।

मोबाइल ने उसकी सोच को बेतरतीब कर दिया - मोहन जी? उसका गला रूंध गया। आंखों से धार फूट पड़ी। हिचकियों पर काबू न रहा -'रिलैक्स माधवी, रिलैक्स! जिंदगी में इसतरह के वाकयात होते ही रहते हैं। आई नो, नथिंग हैड बीन डन इंटेंशनली। व्हेन यू लिव अ कैरेक्टर, भाव अपने-आप आ जाते हैं। डोंट स्केयर माइ चाइल्ड। आई नो हर वेरी वेल एंड आइ ऑल्सो नो, हाऊ टू हैंडल हर। ..कल सुबह छह बजे शूट है। आ जाना!'

टुकड़े-टुकड़े जीवन बीत रहा था माधवी मेनन का। धुंधली सी याद - केरल की, अपने गांव की। समुद्र के दूसरे पार उसका घर, बल्कि ठीक समुद्र में - वहां उसके अच्छन-अम्मा का धंधा - मछली पकड़ना, नारियल और केले बेचना। केरल में बैकवे वाटर का लुत्फ उठाते सैलानी यहां आते। यह एक छोटा सा हॉल्ट था - समुद्र की लहरें, उसके विस्तार और पेड़ों की गहरी हरियाली में उनकी सांसें, बांहें, नजरें, कैमरे सब छोटे पड़ जाते। वे विमुग्ध निहारते रहते- प्रकृति के इस अद्भुत सौंदर्य को।

माधवी के माता-पिता उन्हें नारियल-पानी पिलाते, केले खिलाते। सरल, सीधे-साधे अच्छन-अम्मा ने कभी किसी से ज्यादा पैसे नहीं लिए। माधवी छोटी थी। स्कूल उस पार था। स्कूल क्या, पूरा जीवन ही। अपनी बहनों के साथ वह भी उस पार स्कूल जाती। कोई-कोई सैलानी उसका नाम, उसकी पढ़ाई पूछते। मां के पीछे छुपती-लजाती वह सब बताती - केरल गाथा कविता से लेकर अन्य कविताएं सुना जाती। मां प्रोत्साहित करती - इंग्लिश, यस। माधवी सुनाती -

डिंपल चिन, रोजी लिप्स ..

माधवी मेनन डिंपल चिन, रोजी लिप्स के मायने समझने लगी थी। टीवी पर वह हिन्दी फिल्में भी देखती। इत्ती गोरी, सुंदर हीरोइनें - नसीम जहां की फिल्में भी देखी थीं। कभी-कभी वह सपने देखने लगती - वह भी अभिनय कर रही है - मछली की तरह छलबलाती, तैरती, मचलती, हाथ से फ़िसलती। स्कूल के नाटकों में भाग भी लेती, वाहवाही भी लूटकर आती। तब वह खुद को नसीम जहां और दूसरी अन्य अभिनेत्रियों के बरअक्स समझने लगती।

केले के पेड़ की तरह बहनें तुरंत-तुरंत बड़ी होने लगीं। अच्छन-अम्मा परेशान होने लगे - चार बहनें, शादी का खर्चा, खिलाना-पिलाना, ढेर सारा सोना - केवल नारियल-केले से तो छह जने का पेट भी भरना मुश्किल.. बाकी जरूरतें, शादी ..

       " दिल्ली आ जा।' दिल्ली में रह रही अम्मा की एक बहन ने सलाह दी -'छह जन हो। एक-एक घर में बर्तन भी मांज लोगी तो भी बहुत मिल जाएंगे। यहां ईमानदार लोगों की बड़ी खोज रहती है। दोनों मियां बीबी अच्छा खाना बनाते हो .. या घूम-घूमकर इडली ही बेचो .. आओगे तो बीसियों रास्ते निकल आएंगे ..'

बैकवे वाटर से बैक होते हुए पूरा परिवार दिल्ली आ गया - बंधे-बंधाए पैसे की चाहत - व्यवसायी से बंधुआ - फ़िल्म 'दो बीघा जमीन' बरबस माधवी के जेहन पर छा गई। फिल्म के दोनों पात्रों में उसे अम्मा- अच्छन दिखाई पड़े ..

सुबह छह बजे माधवी का माथा बहुत भारी था। रोने और नींद पूरी न होने के कारण पलकें सूजी हुई थीं। आंखों के पपोटे भारी हो गए थे। उसने जान-बूझकर बाल खुले रखे, ताकि चेहरा अगल-बगल से ढंक जाए। वैसे भी आज के दृश्य में उसे नसीम जहां के एकदम पीछे रहना है। तय चर्चा के अनुसार वह उनसे दो गज की दूरी पर खड़ी रहेगी - केवल धुंधली आवृत्ति की तरह।

रोलिंग-कैमरा-ऐक्शन - पति द्वारा बॉझ कहे जाने से क्षुब्ध व अपमानित बड़ी मालकिन बावरी-बौखलाई सी कमरे में दाखिल होती है, विक्षिप्त की तरह कमरे में इधर-उधर भटकती है, बेमतलब ही सामान इधर-उधर रखती-उठाती, रखती है। फिर बिस्तर पर पड़े तकिए को देखती है और गुस्से में एक तकिया उठाकर फेंकती है और बिस्तर पर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगती है। उसका फेंका तकिया दूर खड़ी माधवी मेनन पर गिरता है। वह तकिए को संभालकर उसे ही सहलाना शुरू कर देती है। रोते-रोते भी नसीम जहां यह देख लेती हैं। शॉट शुरू होने से पहले उसने कमरे और कैमरे दोनों के एंगल्स देख लिए थे। शॉट शुरू होने पर वह घूम तो रही थीं, मगर इस तरह कि कैमरे का हर एंगल बस उन्हीं पर फोकस हो। ऐसे में माधवी मेनन मोटे शीशे पर पड़े पानी के पीछे खड़ी साए सी नजर आ रही थी। फिर भी, तकिए का सहलाना उन्हें खल गया। फ़िर से शॉट पूरा किए बिना ही गुस्से से फनफनाती वे मेकअप रूम में चली गईं। फिर से यूनिट अवाक, फिर से मोहन जी नसीम जहां के मेकअप रूम में।

       " यू रिमूव दिस गर्ल फ्रॉम द फिल्म ऑर गिव हर सम अदर रोल।'

       " नसीम जी, सीन के मुताबिक आपको तकिया फेंकना नहीं था। आपने एक सिंबल का इस्तेमाल किया। आई नो कि आपने उसकी ओर नहीं फेंका, मगर भावावेश में ऐसा हो जाता है, एंड दैट इज द नैचुरल एक्टिंग। इसी इफेक्ट के लिए तो हम आपके पास आए हैं। शी इज न्यू एंड ट्राइंग टू डू हर लेवेल बेस्ट। हाथ में कुछ आने पर इंसान रिएक्ट तो करेगा ही। वैसे भी वह एकदम बैकग्राउंड में है - फार अवे फ्रॉम कैमरा - एक्शन रिप्ले करके देख लें।'

माधवी मेनन तय नहीं कर पा रही थी कि वह किसी चीज पर रिएक्ट न करके पत्थर कैसे बनी रहे? उसे केरल और समुद्र के बीच बसा अपना घर बहुत पसंद था। तब उसे दिल्ली आना पसंद नहीं था और इस बात पर उसने काफ़ी ज़ोर से रिएक्ट किया था। दिल्ली के बारे में उसने सुन रखा था। यह तो तय था ही कि केरल और इसके बैकवे वाटर जैसा पानी, समुद्र, हरियाली और मछली उसे दिल्ली में नहीं मिलनेवाली। और जब ये सब हैं ही नहीं, तब दिल्ली में रहने से फ़ायदा? बर्तन मांजने के काम पर भी उसने रिएक्ट किया था। अच्छन जब बीमार पड़े थे, तब भी उसने रिएक्ट किया था। दिल्ली आने के बाद भी अच्छन की खाने-पीने की आदतें नहीं बदली थीं - वही रसम, सांभर, चावल - सब्जी के नाम पर कभी-कभी आलू। मछली तो जैसे इतिहास हो गई। एक तो मंहगी, दूसरे नदी वाली। समुद्री मछली जैसा तंज कहां!

बहनें, अम्मा, अच्छन - सभी ने कई-कई घर पकड़ लिए - बर्तन मांजने से लेकर खाना बनाने तक। सब दिल्ली और काम की लय-ताल में ढलने लगे, माधवी मेनन के अलावा। वह जिस घर में काम करती, वहां के बच्चों को स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप तक छोड़ती। उनके बैग अपने कंधे पर ढोती। उसका मन उन बैगों के संग-संग स्कूल पहुंच जाता, उनके साथ इतिहास, भूगोल, ज्यामिति पढने लगता।

       " तू पढ़ेगी?' मालकिन देख रही थी माधवी मेनन को हमेशा कुछ न कुछ बड़बड़ाते, पानी की धार से कुछ -कुछ आकृतियां बनाते, बर्तनों को कलात्मक तरीके से सजाते.. माधवी सकुचा उठी। तनिक डर भी गई। अम्मा-अच्छन कहां से इत्ते पैसे .. इसी पैसे के लिए तो केरल छोड़ा, नारियल- हरियाली, समुद्र छोड़ा, मछली छोड़ी ..। उसने सर झुका लिया।

       " चल, तेरा नाम लिखवा देती हूं। लेकिन तुझे मेरा काम नहीं छोड़ना होगा।'

       " अइसा जी। आंटी कितना अच्छा।' धुले-पोछे फर्श की तरह माधवी मेनन का चेहरा निखर आया। अब वह काम में और ज्यादा मन लगाने लगी। किसी तरह से मालकिन से कह सकी कि वह दिल्ली बोर्ड के बदले केंद्रीय विद्यालय में पढ़ना चाहती है। केंद्रीय विद्यालय से लेकर विश्व विद्यालय तक मालकिन उसके साथ रही। माधवी मेनन ने 70 प्रतिशत से दसवीं पास की तो मालकिन ने उसे कलाई -घड़ी प्रेजेंट की। आज भी वह घड़ी उसके पास सुरक्षित है, उसकी सबसे अनमोल थाती।

तीनों बहनों की शादी दिल्ली में ही हो गई। जवान मां अधेड़ हो गई। अच्छन ज्यादा बीमार रहने लगे। शादी के कारण अम्मा- अच्छन कर्ज में नाक तले डूब गए। ऐसे में माधवी की पढ़ाई का खर्चा! समाधान मालकिन ने ही निकाला- 'अब तू मेरा काम रहने दे। इसके बदले मेरी दुकान में पार्ट-टाइम जॉब कर ले।'       गहरी सांवली सूरत, काली घनी आंखें, काले, मोटे अध -घुंघराले केश और बैंगनी रंग का कुमकुम - अपने पात्र के लिए गढ़ी गई सूरत माधवी मेनन के रूप में मोहन जी के सामने थी - बोलने का लहजा दिल्ली में रहने के बावज़ूद अभी भी दक्षिण भारतीय ही था। लेकिन उससे कहां कोई फ़र्क़ पड़नेवाला था। हिन्दी दर्शक यूं भी जबान पर ध्यान देने के मामले में उदासीन ही रहते आए हैं, वरना शर्मिला टैगोर से लेकर हेमामालिनी, जयाप्रदा, श्रीदेवी और आज की कैटरीना कैफ, तारा शर्मा तक को खारिज कर चुके होते। वैसे भी यहां, इस चरित्र के किए माधवी मेनन के पास केवल एक ही डायलॉग था -'मालकिन।' वह भी केवल दो दृश्यों में।

कास्टिंग में लिखा रहेगा -'इंट्रोडयूसिंग माधवी मेनन।' माधवी मेनन के रोम-रोम ने मोहन जी का वंदन किया। उसकी ऑन द जॉब ट्रेनिंग शुरू हो गई - उठने, बैठने, चलने-फिरने से लेकर खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तक की ट्रेनिंग।

माधवी मेनन कडा अभ्यास करने लगी। विश्वविद्यालय में उसने एक विदेशी भाषा विभाग में दाखिला लिया। स्टडी टूर पर विदेश भी हो आई। विदेश में ही थी, जब वहां पर भी भारत की तरह एक बार छात्र-आंदोलन हो गया, जिसका प्रभाव दूर-दूर तक पड़ा। वहां से दिल्ली लौटने पर पत्रकारों ने उसे घेर लिया। कच्ची उम्र, कच्ची अक्ल। केरल का 'क' तो वह जानती थी, मगर राजनीति के 'क' से भी वह पूरी तरह महरूम थी। उसने तो बस, जो वहां देखा और जितना समझ पाई, उतना बयान भर कर दिया। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं द्वारा उसे बढा- चढाकर छाप देने से विश्वविद्यालय और संबंधित राजनैतिक दल में कहर बरपा हो गया। वह घबड़ा उठी। राजनीति का सामना करने की उसमें न ताब थी, न लियाकत। न अंग्रेजी पर अधिकार, न हिन्दी पर। न कोई अकादमिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि, न कोई गॉडमदर- गॉडफ़ादर। अपनी कुव्वत के बल पर गर लेक्चरार बन भी गई, तो क्लास के छात्र ही उसे उखाड़ फेकेंगे। उसे अपने सपने याद आए- मछली की तरह छलबलाती अभिनय करती माधवी मेनन। नसीम जहां को उसने कई फ़िल्मों में देखा था। मन ही मन उसे पसंद भी करती थी। सपने तो देखे थे अभिनय के, पर ऐसा नहीं कि पूरे ही हों, और वह भी नसीम जहां के साथ ही काम करने के अवसर के साथ।

अनुबंध के मुताबिक फिल्म पूरी होने तक माधवी मेनन दूसरी कोई भी फिल्म साइन नहीं कर सकती थी। मोहन जी की यूनिट में काम उसके लिए बहुत बड़ा ब्रेक था। फिर आश्वासन का चंदोबा भी -'आ'ल इंट्रोडयूस यू। बट.. ' इस 'बट' की कोई काट नहीं थी यूनिट में।

       " व्हाट? यू आ' फ्रॉम जेएनयू? एंड हैव कम फॉर एक्टिंग इन फिल्म्स?' केरल के ही एक सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर नायर के पास फोटो सेशन कराने पहुंची माधवी मेनन के बारे में जान कर वे चौंके -'जेएनयू तो इंटेलेक्चुअल्स का अड्डा है। यहां से तो प्रोफेसर्स, पॉलीटिशियन्स, राइटर्स, फ़िलॉसफ़र्स निकलते हैं - एकाध आईएएस, आईपीएस भी .. मगर फिल्म ..'

       " बहुत हैं सर फिल्म लाइन में भी। यहां के अल्युम्नाई में परिचय होने पर पता चला.. '

कभी जेएनयू में पढ़ने-पढाने की चाहत से भरे नायर ने जेएनयू और अपने प्रदेश के सम्मान में माधवी मेनन से तयशुदा आधी फीस भी नहीं ली। फोटो-सेशन के दौरान सिखाते रहे .. हाऊ टू फेस कैमरा, कैमरे के एंगल्स। किस एंगल से आप कैसे दिखते हैं, यह हर व्यक्ति की शारीरिक बनावट पर निर्भर करता है। नायर ने उसके टिपिकल मॉडलवाले सेशन नहीं लिए - 'यू डोंट लुक लाइक देम। सो, डोंट कॉपी देम। तुम्हारी ओरिजिनैलिटी खतम हो जाएगी।' उन्होंने रंगीन कम, श्वेत-श्याम तस्वीरें ज्यादा लीं - 'यू हैव वेरी फोटोजेनिक फेस। मेंटेन इट।'

इसी फोटोजेनिक फेस में मोहन जी को अपना पात्र दिखाई दे गया। 'शी इज बीइंग इंट्रोडयूस्ड बाइ मोहन जी।' इस ऐलान से लोगों की नजरें उसके प्रति बदल गईं। कुछ प्रशंसनीय तो कुछ विषाक्त -'इस इंडस्ट्री में कुछ 'लिए' बगैर कोई किसी को कुछ 'देता' नहीं।'

मोहन जी ने कुछ 'लिया' तो नहीं, मगर माधवी मेनन को अब उलझन होने लगी। दो महीने की आउटडोर शूटिंग थी। यूनिट के साथ आना, जाना, रहना-खाना - अपने पैसों की जरूरत नहीं पड़ी। मगर मुंबई में शूटिंग - रोजाना के आने-जाने, रहने-खाने के लिए पैसे?

       " मोहन जी और पैसे?' सभी हंसे -'उनके पास लोग पैसे नहीं, बैनर और ब्रेक के लिए आते हैं।'

       " लेकिन, उसका तो सारा दिन इसी में निकल जा रहा है। कांट्रेक्ट के मुताबिक कहीं और साइन भी नहीं कर सकती। पैसे कोई विद्या और ज्ञान तो है नहीं कि खर्च करने पर भी बढते ही जाए। लगभग अपने सभी परिचितों के यहां वह ठहर चुकी है। मगर वहां भी रहना-ठहरना ही तो हो सकता है। दिल्ली में तो मालकिन का काम था, अम्मा-अच्छन भी थे। पर, यहां?'

इन सबके अलावे यहां की पॉलिटिक्स। इसी पॉलिटिक्स से घबड़ाकर तो वह यहां भागी थी, विश्वविद्यालय छोड़कर। लगा था, कला आदि के क्षेत्र में यह सब नहीं चलता होगा। समुद्र के बीच में रहनेवाली माधवी मेनन को पता नहीं था कि हिन्दुस्तान में पॉलिटिक्स समुद्र के पानी में नमक की तरह घुला हुआ है।

       " सर, फिल्म तो .. '

       " हां! शिडयूल से कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया। कुछ तुम्हारे कारण और कुछ दूसरी वजहों से .. बट डोंट वरी, मुझे मेरा प्रॉमिस याद है।'

       " थैंक यू वेरी मच सर, मगर .. '

मोहन जी उठ गए। पॉकेट में हाथ डाला - पाँच सौ का एक नोट पकड़ाया, कंधे थपथपाए और एडिटिंग रूम में घुस गए।

माधवी मेनन ने घर-घर बर्तन मांजते समय भी ऐसी लिजलिजाहट महसूस नहीं की थी। पिछले पांच महीने से वह यूनिट के साथ है। पांच महीने का पारिश्रमिक .. ! वह एडिटिंग रूम की ओर बढ़ी।

       " हाथ आए पैसे को छोड़ना नहीं चाहिए।' मां की सीख थी।

       " मुझे एक पत्रिका ने तीन सौ रूपए भेजे कि यही मेरी औकात है। मैने वापस भेज दिए कि मेरी यह औकात नहीं है। एक हजार का चेक आ गया।' एक सुप्रसिद्ध लेखिका ने कहीं लिखा था।

माधवी मेनन क्या करे? वह उस लेखिका की तरह सुप्रसिद्ध तो थी नहीं। अभी तो उसकी एंट्री ही हो रही है। फिल्म एडिट हो रही थी। कास्टिंग के कैप्शन तैयार हो रहे थे। माधवी ने रशेज देखे थे- 'इंट्रोडयूसिंग माधवी मेनन।' पढा था. उसे रोमांच हो आया। आंखें भर आईं। श्रद्धावश उसने मोहन जी के पैर छू लिए।

नायर का फोन था -'एक फॉरेन फिल्म है। तुम्हारी तस्वीरें उन्हें दी थीं। पसंद आईं। नाऊ दे वांट अ' सिटिंग विद यू। कम बजट है, फिर भी यहां की फिल्मों से ज्यादा ही पैसा मिलेगा। इंटरनैशनल बैनर भी। डिसाइड एंड फोन।' माधवी मेनन उलझन में थी। कैसे वह कहे नायर से या किसी और से कि इन सब पतों पर जाने-मिलने के लिए बस-ऑटो के पैसे, ढंग के कपड़े चाहिए।

       " ज्वॉइन देम!' नायर ने सुझाया -'मैं यहां पिछले पचीस सालों से हूं। कोई गारंटी नहीं कि तुम्हें इंट्रोडयूस किया ही जाए। बाहर की फिल्मों से नाम और दाम दोनों मिलेंगे। एट लीस्ट इतना कि एक छोटा- मोटा घर ले सको। मुंबई में एक घर हो तो आधी स्ट्रगल ऐसे ही खत्म हो जाती है। किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं।'

       " इसी दुनिया में हरेक की दुनिया है और वह दुनिया इतनी छोटी है कि सभी को सबकुछ मालूम हो जाता है। तुम्हें मैंने ब्रेक दिया है। इंट्रोडयूस कर रहा हूं अपनी फिल्म में। तुम्हें बताना चाहिए था। .. एनीवे, क्या शिडयूल है?' मोहन जी सबकुछ पूछते रहे। माधवी मेनन सबकुछ बताती रही - प्रशिक्षण शिडयूल, डायट चार्ट, फिटनेस कोर्सेस, मेकअप किट, कॉस्टयूम .. मोहन जी बड़े चाव से सुनते रहे। फिर से पांच सौ का एक नोट थमाया। माधवी मेनन ने इस बार कोई लिजलिजापन महसूस नहीं किया।

नई फिल्म का कांट्रैक्ट और साइनिंग अमाउंट लेकर माधवी मेनन नायर के पास पहुंची थी -'सर! इसमें से आप अपनी फीस.. ' नायर ने प्यार से उसका सर सहला दिया । माधवी मेनन को अच्छन की याद आई - उनका इलाज बेहद जरूरी है।

माधवी मेनन के शरीर पर नए डिज़ाइन के कपड़े थे - नई एसेसरीज़, मैचिंग सैंडिल, मैचिंग पर्स.. पुराना था तो सिर्फ़ उसके खुले बाल, गहरी काली आंखों का गहरा काला काजल और बैंगनी रंग की कुमकुम! आज उसकी, हां वह कह सकती थी कि यह फ़िल्म केवल मोहन जी की ही नहीं, उसकी भी फ़िल्म है। आज उसी फिल्म का प्रीमियर है। पहचान के लोग उसे बधाई व शुभकामनाएं दे रहे थे। वह सभी से हंस-बोल तो रही थी, मगर कलेजा अंदर से धक-धक कर रहा था। कैसे खुद को देख पाएगी इत्ते बड़े स्क्रीन पर, इतने लोगों के साथ 'इंट्रोडयूसिंग माधवी मेनन' के कैप्शन के साथ।

नसीम जहां आ गईं। पूरा मीडिया उधर को लपक पड़ा। पब्लिक ने तालियां बजाई - हर्षुल ध्वनि की, अपने कैमरे ऑन किए, ऑटोग्राफ़ बुक्स, स्लैम बुक्स खुल गए। मीडिया के कैमरे, माइक सब ऑन हो गए। नसीम जी मीडिया के सवालों के जवाब दे रही थीं, गुजर रहे परिचितों से हाए, हैलो कर रही थीं, अपरिचितों के अभिवादन पर भी चौड़ी मुस्कान बिखेर रही थीं। माधवी मेनन भी वहां से गुजर रही थी। नसीम जी ने ऊंची आवाज में कहा -'हाय माधवी! हाऊ आर यू माई डार्लिंग!'

       " जी ठीक हूं।' माधवी मेनन ने विनम्रता से जवाब दिया। उसने सोचा कि इसका मतलब, सब ठीक-ठाक है। होता है काम के दौरान .. । आखिर इतनी बड़ी एक्टर हैं।

माधवी मेनन ने मोहन जी के पैर छुए। उन्होंने क्षणांश के लिए उसे गले लगाया, पीठ थपथपाई और नसीम जहां की ओर लपक लिए। माधवी मेनन ने उनके इस व्यवहार को उनकी व्यस्तता समझा।

ड्रिंक्स, स्नैक्स का माहौल चरम पर था। आजकल प्रीमियर भी पेड होने लगे हैं। बड़े-बड़े धनपति टिकट से बीस-तीस गुना ज्यादा पैसे देकर प्रीमियर के लिए आते हैं। अपनी सज-धज में वे फिल्मी सितारों से भी ज्यादा सेलिब्रेटी नजर आते।

नायर भी थे -'यूजुअली आई डोंट गो एनीवेयर। यहां मैं केवल तुम्हारा काम देखने आया हूं।' हॉल में नायर ने उसे अपने पास बिठाया था।

फिल्म शुरू हुई .. फिर कास्टिंग .. फिर फिल्म .. माधवी मेनन घनघोर एसी में भी पसीने से तर-ब-तर हो गई। कहां है उसका नाम? कहां है वह? कहां है 'इंट्रोडयूसिंग माधवी मेनन' का कैप्शन? पूरी फिल्म में वह कभी मात्र एक धुंधली सी छाया तो कभी एक बिन्दु सी नजर आ रही थी। पूरी स्क्रीन पर थीं केवल और केवल नसीम जहां। उसके कानों में नसीम जहां के वाक्य उनकी तिरछी मुस्कान के साथ झनझना उठे -'हाय माधवी! हाऊ आर यू माई डार्लिंग!'

       " सर! मैं जाना चाहती हूं।'

       " डोंट लूज यो' हार्ट बेबी। पूरी फिल्म देखो। कई बार फिल्म के बाद में नए लोगों को क्रेडिट दिया जाता है।' माधवी की फुसफुसाहट का जवाब नायर ने दिया।

       " सर, आपको लगता है, ऐसा होगा?'

       " जस्ट वेट एंड वॉच।'

वेट एंड वॉच की घड़ी खतम हो गई। माधवी मेनन भागी जा रही थी - मन-मन भर वजनी पैरों के बावजूद - उस माहौल से, मोहन जी से, नसीम जहां से .. यहां केवल माया है, छलावा है, दिखावा है - ऊपर से कुछ, भीतर से कुछ ..'इंट्रोडयूसिंग माधवी मेनन! हुंह!'

माधवी मेनन के चेहरे पर एक कटु मुस्कान आई। आंखों में पानी भर आया। मोबाइल पर एक मेसेज चमक रहा था - 'इट वॉज यो' ट्रायल बेबी। जस्ट फर्स्ट कट! इरेज दिस फ्रॉम यो' मेमोरी चिप्स। यू आ' गोइंग टू बी इंट्रोडयूस्ड बाइ थ्री लैंड फिल्म प्रोडक्शन्स, साउथ कोरिया।'

धुंधली आंखें तनिक साफ हुईं। कटु मुस्कान मीठी नदी में बदली। मेसेज के रिप्लाई पर उसका अंगूठा गया और 'थैक्स फॉर यो' काइंड कन्सर्न' लिखने में व्यस्त हो गया।

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(कथाक्रम अप्रैल-जून 2009 में पूर्व प्रकाशित, विभा रानी - हिंदी और मैथिली की सुपरिचित लेखिका। रंगकर्मी। नाटककार। मुंबई में रहती हैं और अवितोको नाम की एक साम‍ाजिक संस्‍था का संचालन करती हैं। मूलत: मिथिला क्षेत्र से आने वाली विभा रानी बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। छम्‍मकछल्‍लो उनका मशहूर ब्‍लॉग है।)

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रचनाकार: विभा रानी की कहानी : इंट्रोड्यूसिंग माधवी मेनन
विभा रानी की कहानी : इंट्रोड्यूसिंग माधवी मेनन
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