भारतीय लोकतंत्र अनेक कमियों के बावजूद विश्व का सबसे शक्तिशाली एवं वृहद लोकतंत्र है। भिन्न-भिन्न जातियों, धर्मों संस्कृतियों का ...
भारतीय लोकतंत्र अनेक कमियों के बावजूद विश्व का सबसे शक्तिशाली एवं वृहद लोकतंत्र है। भिन्न-भिन्न जातियों, धर्मों संस्कृतियों का संगम होने के साथ-साथ विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले यहाँ निवास करते हैं। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विश्ोषता यह रही है कि इसने समय-समय पर यहाँ आई हुयी सभी संस्कृतियों आर्य-अनार्य, द्रविण, यवन, शक, हूण, आदि संस्कृतियों के। उदार-उदरा मन से इन सभी संस्कृतियों को आत्मसात करके अपने साथ ऐसा घुला-मिला लिया कि पार्थक्य का कोई भी चिह्न दिखाई नहीं देता, किन्तु इस्लाम का आगमन भारत में भिन्न परिस्थितियों में हुआ। इस्लाम एक ऐसा विजेता बनकर इस देश में आया जिसका आरम्भिक उद्देश्य तो केवल लूट-पाट तक ही सीमित था किन्तु बाद में जिसने अपनी विजय के वैभव की छाया में ही इस देश में अपनी जड़ें जमा ली। यहाँ एक बात मैं स्पष्ट तौर पर कहना चाहूँगा कि जितना कम समय में अत्यधिक सुदीर्घकालीन प्रचार और प्रसार भारत में इस्लाम ने किया उतना कोई अन्य आक्रमण करने वाली (आक्रान्ता-जाति) जाति या संस्कृति ने नहीं किया, यहाँ तक कि अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में आने वाली पश्चिमी - पुर्तगाली, फ्रान्सीसी, बिट्रिश जातियाँ और ईसाई धर्म संस्कृति भी उतना प्रचार-प्रसार नहीं कर पाईं लेकिन इन साम्राज्यवादी शक्तियों ने हमारे समाज में भारतीयों के बीच फूट डालने के लिए प्रत्येक अवसर का लाभ उठाते हुए उन्हें दो परस्पर शत्रु खेमों में विभाजित कर दिया। पश्चिमी शक्तियों (अँग्रेजों) की इस कुटिल पृथकतावादी मनोवृत्ति से जो लोग आकर्षित हो सके, वे मातृभूमि का विभाजन करके अपने लिए एक अन्य देश बनाने में सफल हो गये तथा इस समुदाय के जिन लोगों ने अपने जन्म स्थान में रहने का निर्णय किया वे ही मुस्लिम अल्पसंख्यक कहलाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुसलमान भारतीय राष्ट्र के एक अभिन्न एवं महत्वपूर्ण अंग हैं। जनसंख्या की दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान एवं मुस्लिम संस्कृति का विश्ोष महत्व है ही भारत वर्ष में भी कम महत्व नहीं है क्योंकि मुसलमान भारत की सबसे बड़ी अकलीयत (अल्पसंख्यक जाति) है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो विश्व का शायद ही ऐसा कोई कोना हो जहाँ इस्लाम-धर्म के अनुयायी न रहते हों। अपने आविर्भावकाल से लेकर आज तक लगभग तेरह सौ वर्षों से अधिक के इतिहास में इस्लाम का आधिपत्य, अरब, एशिया, मध्य एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों पर स्थापित हुआ। यही नहीं इस्लाम ने अनेक संस्कृतियों को प्रभावित किया है। भारतीय संस्कृति पर इस्लाम की अमिट छाप आज भी अंकित है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है क्योंकि इसने समाज के हाशिए पर पड़े समूहों समेत विभिन्न वर्गों वाली शक्तियों को जीवन्त/संजीदा और सुदृढ किया है। अन्तर लोकतन्त्रीकरण (समाज में समान दर्जे की अनुभूति) एवं लोकतन्त्रीकरण (सामाजिक और श्ौक्षिक स्थिति में सुधार) की इस प्रक्रिया ने दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं में नयी जान दी है। कुछ विद्वत जनों एवं प्रगतिशील सोच के लोंगो का मानना है कि इस प्रक्रिया ने भारतीय मुसलमानों को खास प्रभावित नहीं किया है , क्योंकि मुस्लिम समुदाय के अन्दर अपने कार्य-व्यापार को बदलने और उनके कामकाज में लोकतंत्रीकरण करने वाली शक्तियों को अभी तक मजबूत नहीं किया जा सकता है इसलिए मुस्लिम समुदाय के अन्दर जितनी व्यापक आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और श्ौक्षिक सुधार की पहल होनी चाहिए थी, वह नहीं हो पायी है। वहीं दूसरी ओर साम्प्रदायिकता, शोषण, पारस्परिक दुराव, जाति-पांति, धर्म व भाषा, क्षेत्रीयता की बढ़ती दूरियाँ अल्पसख्ंयकों की विकास रूपी मानसिकता को अवरूद्ध कर रही हैं।
भारत विभाजन के बंटवारे ने हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमानों की मुश्किलों को और बढ़ाया। पीढ़ी दर पीढ़ी मुसलमानों के सामने एक बड़ा सा सवाल लटकता रहा और हर बार मुसलमानों को अपनी देशभक्ति का सबूत देने के लिए तरह-तरह के जतन करने पड़े। यही नही भारत में निरन्तर बढ़ती आतंकवादी घटनाओं ने भी उनकी मुश्किलों को बढ़ाया। कहीं भी कोई विस्फोट होता, देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाला मुसलमान अपने आपमें शर्मिंदा महसूस करने लगता। देश की कानून व्यवस्था से जुड़े लोग भी हर दाढ़ी वाले व्यक्ति को एक अनजाने शक से देखते। यही शक आज हर भारतीय मुसलमान के समक्ष एक ऐसे यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है जो बार-बार उसे अपनों से अलग किये दे रहा है। इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जो भी आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं वे मुसलमान हैं, परन्तु कई घटनाएं इस बीच ऐसी भी घटित हुई हैं जब इस तरह की घटनाओं में अगर कोई हिन्दू पकड़ा जाता है तो न तो मीडिया अधिक उत्साहित होता है और न ही मुसलमानों पर सवाल उठाने वाले विश्ोष संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले लोग। मैं यहॉँ एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं यहाँ किसी भी आतंकवादी, अपराधी या मुसलमानों के पक्ष में खड़ा होकर दलील या वकालत नहीं कर रहा हूँ बल्कि सत्ता के शिखर पर बैठे उन अपने आकाओं से एक प्रश्न पूछॅना चाहूॅगा कि ‘‘जब आप आतंकवादियों को मेहमानों की तरह ले जाकर कंधार छोड़ आते हो तब आपकी निष्ठा एवं देश के प्रति भक्ति और प्रेम कहाँ चला गया और मीडिया को कौन सा सांप सूंघ गया कि इसमें आप चुप बैठे रह गये। मेरा केवल उनसे (मीडिया से) यह सवाल है कि आप आतंकवाद को किसी खास धर्म के साथ जोड़कर पूरी कौम को कटघरे में खड़ा कर देते हो?'' इस प्रश्न पर आज शिद्दत के साथ मनन की आवश्यकता है।
आज का राजनीतिक परिवेश एक तरह से मध्यवर्गीय भारतीय के धार्मिक ग्लोबलाइजेशन का एक घिनौना प्रेरक तत्व बन चुका है, जहां वोट बटोरने के लिए साम्प्रदायिक नीचता की निःकृष्टतम गहराई में गोते लगाये जा सकते हैं। हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए धर्म या जाति के प्रति उदासीन या असम्प्रक्त होना एक पोलिटिकली इन करेक्ट व्यवहार साबित हो चुका है। और मकबूल फिदा हुसैन से लेकर आमिर खान तक कोई भी बहुत आसानी से हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाकर हमें दंगों और तोड़-फोड़ के लिए प्रेरित कर सकता है! क्योंकि इसके लिए राजनीतिक सत्ताएं धर्म के प्रतिनिधियों का विश्ोष खयाल रखती हैं और वक्त आने पर उन्हें अपना साम्प्रदायिक कूड़ा-करकट उगलने की खुली छूट भी देती हैं। 9/11 के बाद अमेरिका ने एक परिभाषा गढ़ी। उसने दुनिया के सामने इस्लामी आतंकवाद का नया शिगूफा खड़ा किया और भारत में भी इसे प्रसारित करने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि कोई भी धर्म आतंकवाद की राह पर चलने की सीख नहीं देता है। एक मुसलमान आतंकवादी हो सकता है पर एक धर्म को आतंकवाद के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है। धर्म/मजहब चाहे कोई भी हो, वह कभी भी किसी को गला काटने की इजाजत नहीं देता और इस्लाम तो कतई ऐसा नहीं करता। आज जब डीकंस्टे्रक्सन और रीकंस्टे्रक्सन की बातें की जा रही हैं तब हम मानव सभ्यता के लिए नये वायु विकल्पों की बात क्यों नहीं सोच सकते? कब तक मरी हुईर् बंदरियों को सीने से चिपकाये हम लोग विनाश की सरहदों (न्यूयार्क‘11 सितम्बर 2001 और गुजरात 2002) पर उछल कूद करते रहेंगे?
भारतीय मुसलमानों के प्रति आम जनमानस (भारत के विश्ोष परिप्रेक्ष्य में) में अनेक गलतफहमियाँ और पूर्वाग्रह आज भी बने हुए हैं। प्रायः इस समुदाय के बारे में अनेक सवाल आज भी उछाले जाते हैं कि मुसलमान भारत के बाहर से हमलावर की तरह आये थे इसलिए ये विदेशी मूल के स्त्री-पुरूष हैं। यही नहीं मुसलमान ही भारत-पाकिस्तान के विभाजन के जिम्मेदार हैं। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि मुसलमान भारत की मुख्यधारा से जुड़कर कार्य नहीं करते हैं और मुसलमान उग्रवादी जिहादी एवं आतंकवादी होते हैं। और पूरी दुनिया को मुस्लिम बनाना चाहते हैं? कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मुस्लिम समाज और धर्म को हिन्दू समाज और धर्म की तुलना में बंद मानते हैं; यही नहीं खेल विश्ोषकर क्रिकेट में भारत-पाकिस्तान मैच के समय यह फब्तियॉ अक्सर सुनने को मिलती हैं कि खाते है हिन्दुस्तान की गाते हैं पाकिस्तान की। समाज, संस्कृति एवं धर्म पर कुछ टिप्पणी आपने की तो सर कलम कर दिया जायेगा या फतबा जारी हो जायेगा। यह भी अक्सर लोग कहते नजर आते हैं कि मुस्लिम भारतीय मुसलमानों को विश्व मुस्लिम बिरादरी का अभिन्न अंग मान लिया जाता है और पूरे विश्व में मुसलमान जो कुछ कर रहे हैं, उसे भारतीय मुसलमानों का स्वभाव या जातिगत विश्ोषता बताया जाता है। उदाहरण के लिए यह कहा जाता है कि मुसलमान जहाँ बहुमत में हैं वहाँ तानाशाह हैं और जहाँ अल्पसख्ंयक हैं वहाँ वे बहुमत के लिए सिरदर्द बने हुए है। मुस्लिम विरोध या मुसलमानों के प्रति प्रचलित इन गलतफहमियों एवं घृणा के इस मनोविज्ञान के पीछे शायद एक कारण हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच संवादहीनता या एक दूसरे को न समझने की प्रवृत्ति भी हो सकती है। जहाँ तक फतवों की बात है मौलाना फतवे अपने-अपने मसलक (पंथ) के हिसाब से देते हैं। ससुर के बलात्कार की पीड़ित इमराना ने अपने बारे में दिए गये फतवे को नहीं माना। आज भी वह अपने शौहर के साथ रह रही है। शौहर ने भी उस फतवे को स्वीकार नहीं किया। इसी से समझा जा सकता है कि फतवा कितना बाध्यकारी है। मेरी समझ से फतवा महज एक राय है, जो किसी आलिम द्वारा किसी खास मसले पर दिया जाता है। कोई माने न माने, यह उसकी आजादी का सवाल है। इसलिए यह कहा जाता है कि इस्लाम में प्रीस्टहुड नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता है कि फतवा मानना ही पड़ेगा।
मुसलमानों के प्रति साम्प्रदायिक, एवं कटट्रता की धारणा रखने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से हम एक प्रश्न पूछना चाहेंगे कि जब यूरोप या अमेरिका में रहने वाला हिन्दू अगर अस्थि विसर्जन के लिए इलाहाबाद के संगम तट पर या मोक्षदायिनी काशी में आते है तो हम प्रसन्न होते हैं कि उसने अपने पुरखों एवं धर्म को याद रखा लेकिन जब एक मुसलमान मक्का मदीना या पाकिस्तान स्थिति अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाना चाहता है तो इससे वे साम्प्रदायिक और आतंकी हो जाते हैं? आखिर क्यों? आज इस पर निरपेक्ष एवं पूर्वाग्रह से हटकर शिद्दत के साथ चिंतन की आवश्यकता है।
पूर्वाग्रह से हटकर यदि हम निरपेक्ष भाव से आकलन करें तो , इस्लाम धर्म व्यक्ति के हृदय में मतभेद रूपी अंधकार को दूर करके एकता का सूर्य उदय करता है। इस्लसम ने मानव एकता की विस्तृत और सार्वभौमिक स्पष्ट धारणा प्रस्तुत की है और उसके बहुत ही ठोस आधार स्थापित किए हैं। प्रथम सारे मानव एक ईश्वर की सृष्टि और बंदे हैं। द्वितीय उनका मूल एक है, इसलिए वह अपने समस्त वाह्य आदर्शों के बावजूद एक इकाई हैं। इस्लाम इन आधारों पर सम्पूर्ण मानव जाति के सभी वर्गों को जोड़ता है। इसके साथ ही इस्लाम यह भी कहता है कि सारे मनुष्य वास्तव में एक ही माँ-बाप की संतान हैं। वे एक दूसरे के भाई हैं, जो संसार के एक भाग से दूसरे भाग तक फैले हुए हैं। अल्लाहतआला ने उनके बीच बन्धुत्व और भाई-चारा का जो सम्बंध स्थापित कर दिया है, उसे तोड़ने की इस्लाम हरगिज अनुमति नहीं देता और इस दिशा में जो भी कदम उठाए जाएं उनका इस्लाम विरोध करता है। अर्थात् इस्लाम खून-खराबे की इजाजत नहीं देता, अमन का पैगाम इसकी पहचान है। मानव प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा एवं विश्वास, परोपकार एवं सामाजिक समसता आदि महत्वपूर्ण तत्व हैं, जो इस्लाम (मुस्लिम) धर्म से मूलरूप से जुड़े हैं। इस्लाम के अनुसार जीवन का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति, वर्ग और कौम एवं देश का नहीं, बल्कि सारी मानव जाति का उद्देश्य है-अमीर, गरीब, विकसित/अविकासशील भी अर्थात् इस श्रेणी में हिन्दुस्तानी, चीनी, एशिया या यूरोप का भी! अर्थात् संसार के विभिन्न संघर्षरत राष्ट्रों एवं समूहों को केवल इसी आधार पर जोड़ा जा सकता है, स्पष्ट है कि इस्लाम आंतरिक लोकतंत्र और सामाजिक समानता की हिमायत करने वाला मजहब है। कुरान में स्पष्ट रूप से लिखा है-‘लकुम दीन कुम वलेय दीन' यानी उन्हें उनका धर्म मुबारक हो और हमें हमारा वैचारिक आदान-प्रदान और मश्विरे की बात इस्लाम में बार-बार कही गई है। पर इस्लाम की अच्छाइयों का जिक्र बहुत ही कम किया जाता रहा है,जब आज कि इस्लाम धर्म के इस मानवतावादी एवं वसुधैव ‘कुटुम्बकम' की भावना को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।
भारतीय समाज में इस्लाम धर्म के विरुद्ध बहुत सारी गलत फहमियाँ हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है, मुसलमानों के तथाकथित रहनुमा ऐसी अनेक चर्चा का विषय बनाते हैं जिनका मुसलमानों के आम जीवन से कोई सम्बंध नहीं होता। वास्तव में यह समस्याओं को सुलझाने के बजाय उन्हें और अधिक मुसीबतों में डाल देते हैं। अपने क्षुद्र निहित स्वार्थ की प्राप्ति के लिए स्वयं मुसलमान इसकी महानता को पैरों तलें रौद रहें है। फलस्वरूप हर क्षेत्र में इसकी उन्नति एवं रोशन सिद्धांतों (मानवतावादी अवधारणा) वाली पुरातन की उच्च सम्पत्ति आज जर्जर एवं क्षीण होती जा रही है। मैं यहाँ मुसलमानों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, कार्यकारिणी के सदस्य रशीद फिरंगी महली का कथन उद्धृत करना चाहूँगा-‘‘आपका मानना है कि ‘‘मजहब के नाम पर जो लोग भी मासूमों का खून बहा रहे हैं, वे मुसलमान हो ही नहीं सकते क्योंकि इस्लाम ऐसा करने की इजाजत ही नहीं देता है''। इसके साथ ही कुरान यह शिक्षा देता है कि जीवन एक प्रगतिशील रचनात्मक क्रिया है, जो इस बात पर जोर देता है कि हर पीढ़ी को अपने पूर्वजों के कामों से पृथक अपनी समस्याओं को खुद सुलझाने की आजादी होनी चाहिए। कुरान भी यही कहता है कि अल्लाह कभी उस सम्प्रदाय की दशा नहीं बदलता, जो खुद अपनी दशा बदलना नहीं चाहता। क्या भारतीय मुसलमान इस चुनौती को कुबूल करते हुए अपने आपको परिवर्तित/बदलने का प्रयास करेंगें? इस्लाम में जिन समस्याओं का सीधा जबाव कुरान हदीश में नहीं मिलता, उसके लिए इज्जेहाद यानी जमाने के हिसाब से इस्लाम के उसूलों की रोशनी में विचार-विमर्श कर मसले का हल तय करने की परम्परा रही है। हालांकि यह प्रक्रिया आज के दौर में बिल्कुल बंद हो गयी है। मैं यहॉ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि यदि हम धर्म को विवके के रूप में इस्तेमाल करेंगे तो बेहतर नतीजे सामने आयेंगे। कुछ मामलों में आज मीडिया ने इतने लोगों को बिचानवान बना दिया है कि धर्म के अंधविश्वास को सभी समझने लगे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जो राजनीतिक वातावरण और परिस्थितियाँ इस समय देश में हैं, उसमें मुसलमानों के सामान्य जीवन से जुड़ी अनेक समस्याएं एवं घटनाएं जुड़ी हुई हैं। अतीत, वर्तमान में भारत के मुसलमानों को दो शब्दों ने बहुत ही नुकसान पहुँचाया है। धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक, इन दो शब्दों ने मुसलमानों के सामने हर बार कई-कई सवाल तो खड़ें ही किये हैं, इन दो शब्दों का सहारा लेकर ही भारतीय सियासत ने मुसलमानों को बार-बार बरगलाया है, इसके साथ ही मुसलमानों की अस्मिता, विश्वसनीयता और देशभक्ति की कसौटी पर सदैव परखने की कोशिश्ों की गई हैं, फिर भी मैं कदापि यह नहीं चाहूँगा कि भारतीय मुसलमान, सरकार अथवा बहुसंख्यक समाज से विश्वसनीयता के प्रमाण-पत्र की आकांक्षा करे। हम तो सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि आप संयुक्त भारतीयता के लिए किये गये अपने योगदानों को उत्तरोत्तर इसी क्रम में जारी रखें। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जो विरासत आपने दी है उसे भारत का भाग्य नहीं तो और क्या कहा जायेगा?
समय के जिस मुकाम पर मुसलमान आज खड़ा है। वहाँ अब उसे तय करना होगा और साथ ही उन राजनीतिक दलों को बताना होगा कि वह महज राजनीतिक मोहरा नहीं हैं। उसे अल्पसंख्यक जैसे शब्दों के भ्रमजाल से भी खुद को निकालना होगा और उन राजनीतिक दलों को बताना होगा कि वह देश का दूसरा बहुसंख्यक है। आज समय की माँग है कि मुस्लिम समुदाय को अपने आपको एवं अपने वजूद, अपनी पहचान के लिए इन छद्म धर्मनिरपेक्ष दलों बौर नेताओं से खुद को अलग करना होगा और उन बैसाखियों के इस्तेमाल से बचना होगा क्योंकि बैसाखियों अपंग और कमजोर लोग इस्तेमाल करते हैं। और मेरा मानना है कि भारत का मुसलमान किसी भी रूप में कमजोर एवं अपंग नहीं है।
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(शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम् प्रतिभा का अदभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवम् पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं। )
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डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव
वरिष्ठ प्रवक्ता-हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
उरई जालौन उ0 प्र0
डा.वीरेन्द्र यादव जी,मुसल मानो की दसा दिशा पर आप का सार गर्भित आलेख दृष्टिकोण की व्यापकता लिए हुए है.आप को बधाई. 09818032913
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