कोई स्वप्न नहीं , मेरी आँखों में सिर्फ़ आँसू थे। चेहरे पर खीज और मन में भूखे सो जाने की जिद।... वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर...
कोई स्वप्न नहीं, मेरी आँखों में सिर्फ़ आँसू थे। चेहरे पर खीज और मन में भूखे सो जाने की जिद।...
वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु मुझे दीदी कहते और उन्हें सर। हम लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो वे फेज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर हम अक्सर भावुक हो उठते, गोकि दिल से जुड़े थे!
जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकर्ताओं व ग्राम-समाज के उत्साह-बर्द्धन के लिए हमें प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।
...और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते हम भाव विभोर हो गए थे। ...मैं उनके कंधे से टिक गई थी और वे रोमांचित से मुझी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने हमारा वह पोज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खब़र प्रतीत हुआ? जो उसने एक स्थानीय अख़बार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण हम लोग अपने आप से बेखबर अपने लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!
बाद में उस अख़बार की कतरन एक दिन आकाश ने मुझे दिखलाई तो मैं तपाक से कह बैठी-
‘यह तो मृत है- जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!'
वे हतप्रभ रह गए।
पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली पुलिया पर बैठे मिले।... माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ शुरू हो गई। वही एक धौंस कि- कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! यानी हाँक देंगे जल्दी-जल्दी में किसी स्वजातीय के संग जो भले तुझसे अयोग्य, निठल्ला, काना-कुबड़ा हो!
और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा ने क्रोध में रण्डी तक कह दिया!
रोते-रोते मैं भूखी सो गई।... आँख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर मैंने माँ के फूले हुए चेहरे को नज़रअंदाज कर धीरे से कहा, ‘मैं रिक्शा ले आती हूँ।'
उसने कौड़ी-सी आँखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। मैं सिर खुजला कर रह गई। फिर छोटी की तड़प और तेज़ हो गई तो, मैंने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया। पीछे से माँ ने अचानक गरज कर कहाः
‘केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!'
मैं निशस्त्र हो गई। अचानक आँखों में बेबसी के आँसू उमड़ आए।
‘पापा?' मैंने मुश्किल से पूछा।
‘गये... उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,' वह बड़बड़ाने लगीः
‘हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में नहीं गया। जब देखो ड्यूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री-फंत्री आ रहे हैं, कहीं डकैत खून पी रहे हैं!'
वह पहले ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-ऐक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। ...फिर दूसरी गाज गिरी पापा के निलंबित होकर लाइन हाजिर हो जाने से।... पुलिस की छवि जरूर खराब है, पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार स्वयं और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, हमारे लिए यही बहुत है। इकलौते बेटे का ग़म और दो बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! मेरी समाजसेवा सुहाती नहीं...
और मैं सुन्न पड़ गई। ...आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!
क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। हम दोनों ही की-पर्सन थे। मास्टर ट्रेनर्स प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलकर प्रशिक्षण देना था। वे रोज़ सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।
‘क्या हुआ?' उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।
‘सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पीटल के लिए रैफर कर दिया है...' आवाज बैठ रही थी।
‘पापा?' उन्होंने माँ से पूछा।
उसने मुँह फेर लिया।
वे एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फण्ड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर वे प्रतिबद्ध थे। क्योंकि- परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ता जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिस पर साइकिल-बाइक थी, वह उससे, आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तक सब मिलजुल कर एक परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था।... मगर माँ अक्सर उनका विरोध किया करती थी। ...परीक्षा से पहले मैं एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। मेरे जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी उसने कोई आपत्ति नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रातबिरात लौटने से उसे चिढ़ थी।
और मैं प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायं। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर तुरंत साथ चलने का निर्णय ले लिया!
माँ यकायक ऋणी हो गई।...
मैं खुश थी। बहुत खुश।
ज़रूरत का छोटामोटा सामान जीप में डालकर, बैग में केस के परचे रख मैं तैयार हो गई। ...उन्होंने माँ को आगे बिठाया, बहन उसकी गोद में लेटा दी। ड्रायवर से बोले, ‘गाड़ी संभाल कर चलाना।' मैं उड़ती-सी दरवाजे पर ताला लगाकर पीछे बैठ गई। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बग़ल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर अपना हाथ रख लिया, जैसे- सांत्वना दे रहे हों! उनके सहयोग पर दिल भर आया था।... जबकि शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और मैं घर में होते हुए मना करवा देती, क्योंकि शुरू से ही मेरा उनसे कुछ ऐसा बायां चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद हम समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे।... तकरीबन एक-डेढ़ साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैम्प कर रहे थे; मैं अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद मैंने एक कैम्प किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधान डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को भी नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया मुझे! एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को मेरी टीम का सहारा लेना पड़ा। और मैं चुपचाप कान दबाए चली तो गई उनके साथ पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए अपने शहर चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए थे।
फिर अली सर ने कहा, ‘नेहा, सुना है- तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रहीं? यह कोई अच्छी बात नहीं है...'
वे मेरे जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड... मेरी नज़र झुक गई। हमने राजौरी तक कैम्प किया था। मैं उनका सम्मान करती थी।
मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर ज़ोर डाला तो मैंने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डालाः
‘मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर सकती...'
और यहीं मात खा गई। वे बोलेः
‘तुम जाओ तो सही, तुम्हारी धारणा बदल जाएगी!' उन्होंने विश्वास दिलाया, ‘नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... वह तो एक एन.जी.ओ. है- स्वयंसेवी संगठन! वहाँ सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।'
मैं अख़बारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही... समिति ने मुझे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? उन्हीं के साथ हो ली।
...उन दिनों वे मुझे आगे बिठा देते और खुद पीछे बैठ जाते। सिगरेट पीते। मुझे स्मैल आती। पर सह लेती। पिता घर में होते तब हरदम धुआं भरा रहता। नाक पर चुन्नी और कभी-कभी सिर्फ दो उंगलियाँ सटाए अपने काम में जुटी रहती। हालाँकि बचपन में मैंने भाई के साथ बीड़ी चखी, तम्बाकू चखी, चौक-बत्ती खाई... पर अब उन चीजों से घिन छूटने लगी थी। ...तीन-चार दिन में आकाश ने मुझे नाक मूँदे देख लिया। ...उसी दिन से जीप में सिगरेट बंद। वे दूसरे कार्यकर्ताओं को भी धूम्रपान नहीं करने देते। वे वाकई अच्छे साबित हो रहे थे।
उन दिनों मैं एक वित्त विकास निगम के लिए भी काम करती थी। आकाश दाएं-बाएं होते तब कार्यकर्ताओं को अपनी प्लान्टेशन वाली योजनाएँ समझाती।... धीरे-धीरे तमाम स्वयंसेवकों को निगम का सदस्य बना लिया। पर एक बार जब एक मीटिंग के दौरान प्रोजेक्ट पर बात करते-करते निगम का आर्थिक जाल फैलाने लगी तो वे एकदम भड़क उठे। कुरसी से उठकर जैसे दहाड़ उठे, ‘नेहा-जीऽ! सुनिये-सुनिये, ये ऐजेंटी- जुआ-लॉटरी यहाँ मत चलाइये। ये लोग एक स्वयंसेवी संगठन के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं! इन्हें मिस गाइड मत करिये! यहाँ सिर्फ प्रोजेक्ट चलेगा... समझीं-आपऽ?'
समझ गई... मैंने मुँह फेर लिया। कल से बुलाना! अपमान के कारण चेहरा गुस्से से जल उठा। उठकर एकदम भाग जाना चाहती थी, पर वह भी नहीं कर पाई। रात में ठीक से नींद नहीं आई। बार-बार वही हमला याद हो आता! पर दो दिन बाद एक किताब पढ़ी, ‘यह हमारी असमान दुनिया' तो सारा अपमान, सारा गुस्सा तिरोहित हो गया। मैं फिर से पहुँच गई उसी खेमे में। ...और गाँव-गाँव जाकर पुरुष कार्यकर्ताओं की मदद से महिला संगठन बनाने लगी। मुझे अच्छा लगने लगा। वित्त विकास निगम की ऐजेंटी एक सहेली को दान कर दी। जैसे- लक्ष्य निर्धारित हो गया था और उपस्थिति दर्ज हो रही थी। ...समाज में स्त्री की मौलिक भूमिका।
जीप इण्डस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुज़र रही थी। हॉस्पीटल अब ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन छोटी दर्द के कारण इठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, ‘गाड़ी और खींचो जरा!' मैं खामोश नज़रों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि- चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।...
कुछ नहीं होगा!' उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया।
मैंने पलकें झुका लीं। ...वापसी में हमलोग अक्सर लेट हो जाते थे। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती...। और वह कभीकभी ठप्प पड़ जाती तोे सारी जल्दी धरी रह जाती! मुझेे लगातार वही डर सता रहा था।... मगर इस बार उसने धोखा नहीं दिया। ...बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर हमने सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन सुनिश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।
वे बोले, ‘चलो- जरा घूमकर आते हैं।'
मैंने माँ से पूछा, ‘कोई जरूरत की चीज़ तो नहीं लानी?'
उसने ‘न' में गर्दन हिलादी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नज़रअंदाज कर मैं आकाश के साथ चली गई।...
चौक पर पहुँच कर हमने पाव भाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रौशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। ...चहलक़दमी करते हुए हम फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर जोड़े आपस में लिपटे हुए बैठे थे। अनायास सटने लगी तो, वे विनोदपूर्वक बोले, ‘योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'
लाज से गड़ गई कि आप बहुत खराब हैं!
फिर मुझे वार्ड में छोड़कर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुज़ारने चले गए। मैं तब भी उन्हें आसपास महसूस कर रही थी। मानो, करीब रहते रहते कोई भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम सर पर मंडराती थी।
सुबह वे जल्दी आ गए और दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। बहन को खुद अपनी बाँहों में उठाकर ओ.टी. तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई स्ट्रेचर न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, ‘नेहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?'
बहन को फिलहाल दवाइयों की जरूरत थी, ना जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्त गिर रहा था। सहयोग के लिए वे ड्रायवर को छोडे़ जा रहे थे।... वह एक शिष्ट लड़का, मुझे दीदी कहता और मानता भी। पापा का फोन आ चुका था, घंटे-दो घंटे में आने वाले थे, बस! पर उनके जाते ही मैं खुद को अस्वस्थ महसूस करने लगी।...
ज़हन में तमाम नई-पुरानी घटनाएँ आ रही थीं। ...एक बार वे कहीं फंस गए और मुझे लेने नहीं आ पाए। दुपहर तक प्रतीक्षा करने के बाद बस से और फिर पैदल चल कर खुद स्पॉट पर पहुँच गई।... टीम दुपहर के प्रदर्शन के बाद तालाब किनारे वाले मंदिर पर लौट आई थी। उस दिन उन्हें खाना नहीं मिला था। गाँव में पार्टीबंदी थी। दल प्रमुख ने स्थानीय राजनीति में उलझने के बजाय शाम का प्रदर्शन निरस्त कर खाना खुद पकाने की योजना बनाई हुई थी। सुबह उसने टीम को गाँव की दूकानों से छुटपुट नाश्ता करवा दिया था। अब- आटा, तेल, मिर्च-मसाला, सब्जी, बर्तन, ईंधन आदि का जुगाड़ किया जा रहा था। पीपल के नीचे चंद इंटों का चूल्हा बना लिया गया था।...
मुझे हँसी छूटी। बोली, ‘खाना मैं पका लूँगी। तुम लोग नाटक नहीं रोको...'
‘अरे-दीदी, आप क्यों चूल्हे में सिर देंगी... छोड़ो, एक प्रदर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा!' लड़के खिसियाए हुए थे।
‘मैं क्या पहली बार चूल्हा फूँकूँगी... कई बार गैस की किल्लत हो जाती है तब स्टोव और कभी-कभी लकड़ी का चूल्हा चेताना पड़ता है। जाओ- तुम लोग नाटक करो, हार नहीं मानते...' मैंने समझाया।
थोड़ी देर में वे राजी हो गए। शाम का नाटक वहाँ के शाला भवन में रखा गया था, जहाँ रामलीला होती, सारा गाँव जुड़ता। मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर थी। सहायता के लिए एक लड़का मेरे पास छोड़कर वे सब चले गए। शाम घिर आई थी। बिजली सदा की तरह गुल थी। मंदिर का दीपक उठाकर हमने अपने चूल्हे के पास रख लिया। यह भी एक विचित्र अनुभव था। ...इतने लोगों का खाना मैं पहली बार बना रही थी। जैसे- किसी शादी-समारोह में हलवाई बन के लगी होऊँ! खूब बड़े भगौने में आलू और बैंगन मिलकर चुर रहे थे। नीचे ईंटों के चूल्हे में सूखी लकड़ी और उपले भक्भक् जलते हुए... पसीने से लथपथ मैं बड़े से परात में आटा गूँद रही थी, दुपट्टा गले में लपेट रखा था।
तभी अचानक आकाश आ गए। जैसी कि उम्मीद थी। ...वे दिन में नहीं आए थे। प्रत्येक टीम के पास दिन में एक बार जरूर पहुँचते थे। इसी सम्बल के कारण अभियान अपने शिखर पर था।... मुझे इस तरह सन्नद्ध पाकर इतने भावुक हो गए कि ड्रायवर और उस लड़के के सम्मुख ही झुककर सिर पर हाथ फेरने लगे।... यह शाबाशी थी मेरे तईं। मेरे सहयोग, और प्रतिबद्धता के प्रति उनका हार्दिक आभार। मेरी जगह कोई लड़का होता तो वे ठोड़ी चूम लेते।...
‘नाटक चालू हो गया?' मैंने मुस्कराते हुए पूछा।
‘अभी नहीं- लड़के गैसबत्ती और माइक वगैरह चालू कर रहे हैं।'
बिजली क्यों नहीं है?' मैं चिढ़ गई।
‘यहाँ भी ट्रांसफार्मर फुँका पड़ा है...'
‘कब से?'
‘पता नहीं... रिलैक्स,' वे मुस्कराए, ‘हम इसी जागृति के लिए कटिबद्ध हैं! मोक्ष और जातीय पहचान दिलाने वालों और अपन में यही फ़र्क है। वक्त लगेगा, पर एक बार फिर नहरों में पानी, तारों में बिजली, पाँवों में सड़क, हाथों में काम, शाला में टीचर और पंचायत में धन और न्याय होगा- हमें इसी तरह लगे रहना है, बस!'
मैंने आँखें झुका लीं। मुझे यकीन है, वे यह चमत्कार एक दिन अवश्य करके दिखा देंगे इस धरती पर। भगौने से सब्जी पकने की महक आने लगी थी। मैंने ढक्कन खोला तो खदबदाहट धीमी पड़ गई। चूल्हे की लौ से आकाश का चेहरा नवोदित सूर्य-सा दमक रहा था। दाढ़ी और सिर के बालों के बीच जैसे- भोर के कुहासे में उगता सूरज।...
चमचे द्वारा सब्जी इधर उधर पलटने के बाद मैंने कहा, ‘लड़कों को बुलवा कर खाना खिलवा देते... प्रदर्शन में समय लगेगा। सुबह से भूखे हैं- बेचारे!'
घूम कर उन्होंने ड्रायवर और उस लड़के की ओर देखा।
‘बुला लाएँ-सर!' वे दोनों एक साथ बोले।
हाँ। आकाश ने सिर हिला दिया और वे दौड़ गए।... पीपल के बग़ल में हनुमान जी का पुराना मंदिर था। उन्होंने चुटकी ली, ‘इनकी बहुत मान्यता है...'
‘होनी चाहिए,' मैं स्वभावतः धार्मिक, तुरंत एक वैज्ञानिक कयास जोड़ती हुई बोली, ‘हमारे पूर्वज हैं! आखिर हम मनुष्य वानर जाति से ही तो...'
‘वे केशरी नंदन, पवन देव के औरस पुत्र हैं!' आकाश मुस्कराए।
‘क्या-हुआ! उस युग का समाज ही ऐसा था,' मैंने हमेशा की तरह उन्हें हराने की सोची, ‘दशरथ का पुत्रेष्ठ-यज्ञ और कौरव-पाण्डवों की वंश परंपरा...'
‘वही तो...' वे खुल कर हँसने लगे। और अर्थ समझ कर मैंने अपनी जीभ काट ली! फिर भगौना उतार कर चूल्हे पर तवा चढ़ा दिया और टिक्कर ठोकने लगी। सेंकने के लिए वे उकड़ूँ बैठ गए। दोनों इतने चौकस तालमेल के साथ काम कर रहे थे, जैसे- अपने बच्चों के लिए खाना पका रहे हों।... यह बात सोचकर ही मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगी। चेहरे पर स्थाई मुस्कान विराजमान हो गई थी, जिसे निरख कर आकाश अभिभूत थे। उस सघन मौन में हम एक-दूसरे से मन ही मन क्या कुछ कह-सुन रहे थे, खुद को ही नहीं पता! उस बेखुदी से गुज़रते हुए दिल को जिस सच्चे आनंद की अनुभूति हो रही थी, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, शायद!
थोड़ी देर में चिल्लपों मचाती टीम आ गई। अधिकांश किशोर वय के भोले साथी। और गरम गरम सब्जी और मेरे हाथ के टिक्करों पर टूट पड़ी। ...खिलाने का वह अद्वितीय सुख मैने पहली बार भोगा। एक-एक थाली में चार-चार हाथ... बाद में अनायास हम दोनों ने भी एक ही थाली में ग्रास तोड़े! आनंद में मैंने अपनी पलकें मूँद रखी थीं। लग रहा था, माँ ने यह एहसास कभी जिया ही नहीं... पिता को देखकर यह लगता ही नहीं कि उनके भीतर भी कोई पूर्ण चंद्र है और माँ के भीतर अतल-अछोर समुद्र! जो होता तो जीवन मिठास से लबरेज होता।...
तीन-चार दिन बाद वे अचानक फिर अस्पताल पहुंच गए। मेरी आंखों में चमक और आवाज में चहक भर गई। थोड़ी देर में मां ने उनसे कहा, ‘ये इंजेक्शन यहां आसपास कहीं मिल नहीं रहा।...'
परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, ‘चलो- नेहा! चौक पर देख लें, वहां तो होना चाहिए!'
मैं जैसे उपासी-सी बैठी थी! चुन्नी और चप्पलें बदल कर झट साथ हो ली।
चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्क्शन हमें पहली दूकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश मेरा हाथ पकड़ कर लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्त्रां में ले गए। वहां हमने ताज़ा नाश्ता करके दही की लस्सी पी।... इस बीच उन्होंने बताया कि- आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसेतैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं- उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।...'
वार्ड में लौट कर वे जाने लगे तो मैं अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही।
पहले मुझे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मज़े से जिए जा रहे हैं... लोग तीज-त्यौहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं...। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया करायी जा रही है!
वे कहते- हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नश्ो में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।...
एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन मैंने ड्रायवर से कहा, ‘तुम्हें पता है- अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं...'
‘सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोेई और इंतजाम कर लिया होगा!'
‘नहीं,' मैं मुस्कराई, ‘गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... खूब पचते रहते हैं!'
‘अरे!' वह आश्चर्य चकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतुहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, ‘अपन लोग चलें-वहाँ? छोटी दीदी की हालत में अब तो काफी सुधार है, मम्मी-पापा हैं-ही!'
...मैं जैसे, इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह फोड़ कर बोली, ‘आप देखते रहे हैं- हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम अपने प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...'
उन्होंने बेटी की आँखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, आँसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते हुए धीरे से बोले, ‘चली जाओ...' फिर माँ को कसने लगे, 'इससे कहो- रात में अपने घर में आकर सोए!'
मुझे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो आँसू पलकों में लटक गए।
लेट होने पर माँ प्रायः बखेड़ा खड़ा कर देती थी। कभी-कभार जुबानदराजी हो जाती तो रांड, रण्डो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती... ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। नेहा को बच्चा-बच्चा जानता... चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं- देश में ग़र बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...' किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता- बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!' कोई कहता- इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें' ...और मैं खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, ‘ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के...'
बैग में वापसी योग्य सामान ठूँस कर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। मैं किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। नेहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में पूरी चपलता से गाड़ी चला रहा था। वे अब आधेअधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर इतना बड़ा संचालन अकेले दम करते चले आ रहे थे।...
पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर हम लोग फील्ड में निकल आए। घूमते घूमते शाम हो गई। बारिश रुक-रुक कर हो ही रही थी। पर सोच रहे थे, जितने केन्द्रों से सम्पर्क सध जाय अच्छा! इसी चक्कर में जीप एक कच्चे पहुँच मार्ग में फँस गई। और ड्रायवर आगे-पीछे कर करके हड़ गया तो उसने उसका इंजन बंद कर दिया।
घबराकर मैंने आकाश से पूछा, ‘अब?'
‘कोई ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय!' वे हिम्मत से बोले।
‘लाइट बंद कर लेते...' मैंने सुरक्षा की दृष्टि से कहा।
उन्होंने छत की ओर हाथ बढ़ाकर हुड में लगी बत्ती का स्विच दबा दिया।
आसमान साफ नहीं था। आसपास झींसियाँ बोल रही थीं। संझा-आरती का वक़्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी।... मुरली बजाते श्याम और उन पर मुग्ध राधा मेरे जे़हन में नाच उठे।
‘गाड़ी यहीं छोड़कर मेनरोड तक निकल चलें... अभी तो कोई साधन मिल जाएगा!' मैंने मुस्कराते हुए कहा।
वे पसोपेश में थे।
अचानक ड्रायवर ने मोर्चा संभाल लिया, ‘सर! दीदी को लेकर आप निकल जायं।'
तब मैदा-सी झरती उस बारिश में हम निशब्द साथ साथ चलते हुए मुहाण्ड तक आ पहुँचे! वहाँ से ट्रक में चढ़कर शहर। लगता था, ट्रक ड्रायवर ने मुझे देखकर ही लिफ्ट दी थी! सड़क से बार-बार नज़रें हटाकर वह इधर ही टिका लेता, जहाँ वोनट के पार मैं भीगी हुई बैठी थी! आकाश उसके भोलेपन पर रह-रहकर मुस्करा लेते।...
अब से पहले मैं रात में कभी उनके घर नहीं आई थी। कपड़े गीले हो रहे थे। झिझकते-झिझकते उनकी पत्नी से लेकर बदल लिए। फिर हम बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। उन्होंने अखबार बिछाते हुए कहाः
‘यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'
मैं मुस्कराती रही।
भाभी जी प्रसन्नता के साथ खिला रही थीं। ...बीच में उन्होंने इम्तिहान-सा लेते हुए पूछाः
‘अच्छा-नेहा, बताओ- काहे की सब्जी है?'
मैंने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोलीः
‘चौल्लेइया की...'
‘तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं...।' मुस्कराते हुए उनकी आँखें चमकने लगीं।
मैं पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर में जाकर सोना है...। सुबह वे मुझसे भी पहले उठ कर फील्ड में निकल गए। तब मैं अपने घर पहुँची। बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या हुआ था-मुझे! सारे फर्श झाड़पोंड डाले। ढेर सारे कपड़े भिगो लिए। बेडसीट्स, चादरे, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की-दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े। माँ होती तो कहती, जिस काम के पीछे पड़ती हूँ- हाथ धोकर पड़ जाती हूँ...।
पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केन्द्रों पर पहुँचने वाले थे। दुपहर तक जीप आ गई और मैं ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केन्द्रों को सजग करना था।
...रात नौ-दस बजे तक हम सब लगाम खिंचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते-दौड़ते पस्त पड़ गए। ...मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, ‘...हमें प्रोजेक्ट की सफलता के लिए पूरे देश में आप जैसे वॉलिन्टियर्स चाहिए!'
-अरे!' मेरे तो हाथपाँव ही फूल गए! आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।
वे मुझे आकाश से भी अधिक पसंद कर रहे थे, क्योंकि- असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था, कि हमारे मौजे का रक़बा इतना कम क्यों होता जा रहा है? और वह अड़ गया कि हमें परियोजना नहीं ज़मीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'
ज़ाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते।... हकला गये बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहज़ोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए।... तब मैंने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए... मैंने कहा था कि आपकी ज़मीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है।... बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे।... ज़रा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जानें... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं!'
आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था मेरा। सभा में सन्नाटा खिंच गया।
वे मुझे अपनी कार से घर छोड़ने को राजी थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि प्रोजेक्ट के बारे में उन्हें अपने अनुभव सुनाऊँ तो वे दीगर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को लाभान्वित कर सकेंगे! ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़ कर इस वक्त मैं कहीं जाना नहीं चाहती थी।
उनकी रवानगी के बाद हम केन्द्र प्रमुख के यहाँ भोजन के लिए गए। कम से कम आधे गाँव की औरतों ने मुझे घेर लिया। इतनी उत्साहित कि आने नहीं दें। रतजगा करने पर आमादा! मुझे भी कुछ ऐसी भावुकता ने घेर लिया कि उसी घर में पनाह ढूँढ़ने लगी। इच्छा हो रही थी कि रातभर साथ रहकर जश्न मनाऊँ! शहर पहुँचते ही अपने-अपने दरबों में गुम हो जाना था।...
मगर जीप स्टार्ट हो गई और मैं अपनी जगह पर आ बैठी। हृदय की उमंग हृदय के भीतर ही दफ़्न हो रही। मैंने निराशा में भरकर कहा, ‘मंजूरी के बाद तो हमें उनके निर्देशन में यह आंदोलन चलाना पड़ेगा!'
‘हाँ।'
‘फिर आपके परिवर्तनकामी सोच का क्या होगा?'
‘हम वही करेंगे...' उनकी आँखें हँस रही थीं।
नदी-पुल पर आकर इंजन यकायक गड़गड़ा उठा।
ड्रायवर बोला, ‘सर- गाड़ी गरम हो रही है!'
-क्या!' मैं यकायक चौंक गई। एक क्षण के भीतर रात और जंगल का भय मन के भीतर भर गया। एक बार इसी तरह चेम्बर कहीं टकरा गया था, सारा ऑयल निकल गया और फिर इंजन सीज...
‘स्पीड डाउन करो... स्पीडऽ!' आकाश बौखला रहे थे, ‘रोकना मत, अब स्टार्ट नहीं होगी- फँस जाएँगे... तुमने ध्यान नहीं दिया, रेडिएटर लीक था!'
फिर थोड़ी देर में अपनी विश्ोषता मुताबिक धैर्यपूर्वक कहने लगे, ‘दस मिनट और खींचों जैसेतैसे, पहले तुम्हारा ही घर पड़ेगा, वहीं रोक लेना, हम लोग पैदल निकल जाएँगे।'
मैंने घड़ी देखी। अलबत्ता, ऑटो रिक्शा भी नहीं मिलेगा! फिर ध्यान इंजन की ध्वनि पर केन्द्रित हो गया। पहले जब सीज हो गया था, आकाश को बारह हजार भरने पड़े। उस रात मैं साढ़े तीन बजे घर पहुँची।... मन हजार कुशंकाओं में फँस गया। पर इस बार वह दुर्घटना नहीं घटी। और हम पहुँच गए अंततः। शहर में घुसते ही उन्होंने पंजा दायीं ओर मोड़ कर गाड़ी ड्रायवर के कमरे की ओर मुड़वा दी। ...थोड़ी देर में वह रूम के आगे ब्रेक लगाकर बोला, ‘स-र! साइकिल निकाल दूँ?'
उन्होंने एक पल सोचा और हाँ में सिर हिला दिया।
और वह खुशी से साइकिल निकाल लाया तो वे पैडल पर पाँव रखकर सीट पर बैठ गए, मैं जम्प लेकर कैरियर पर।... इस तरह बचपन में पापा और भैया के साथ जाया करती थी। राह में गश्त पर सिपाही मिले, वे भी कुछ नहीं बोले। उस वक़्त वे सचमुच फैमिली मेम्बर ही लग रहे थे। घर आकर मैंने ताला खोला तो उन्होंने साइकिल अंदर गैलरी में लाकर रख ली।
दिल धड़कने लगा।
देर से रुकी थी, सीधी बॉथरूम के अंदर चली गई। ...घर में इस छोर से उस तक मेरे और उनके सिवा एक चिड़िया न थी! मैंने सोचा जरूर था कि दो पल एकांत के मिल जायं और मैं बधाई दे लूँ! पर इतना अरण्य एकांत और क्षणों का अम्बार...। यह तो कुन्ती जैसा आह्वान हो गया! भीगी बिल्ली बनी जैसेतैसे निकली।... साइकिलिंग की वजह से पसीने से लथपथ वे शर्ट के बटन खोले पंखे के नीचे बैठे मिले!
नज़रें मिलीं तो उठकर करीब आ गए! फिर हथेली थामकर सहमे से स्वर में पूछने लगे, ‘मे आइ गो..?'
घर बहुत सख्त हो आया था, तब मैंने डूबते दिल से ताजिए के नीचे से निकल कर मुराद माँगी थी। साथ के लिए, सिर्फ साथ के लिए! तब मुझे खबर नहीं थी कि- मुहब्बत इतनी विचित्र शह है! लाख घबराहट के बावजूद मुस्करा पड़ी, ‘कॉन्ग्रेच्युलेशन्स ऑन योर सक्सैस।'
‘ओह! सेम-टु-यू!!' वे गहरे भावावेश में फुसफुसाए। फिर अचानक चेहरा हथेलियों में भरकर ओठ ओठों पर रख दिये!
‘आऽकाश...'
मेरा स्वर भहरा गया। जैसे, होश में नहीं थी। मैंने कभी उन्हें नाम से नहीं बुलाया। हमेशा सर या भाईसाहब!... वे दो पल यूँ ही बाँधे रहे, जिनमें बीती बरसातें, सर्दियाँ-गर्मियाँ, माँ की जलीकटी बातें और पापा का तमतमाया चेहरा सब बिला गया। ...मगर मैं यथार्थ से भयभीत उन आखिरी लम्हों में भी उनसे बचने की कोशिश कर रही थी, ‘आप उनसे दूर जा रहे हैं...'
‘किससे...?'
‘नज़रें उठाकर मैं मुस्कराने लगी। रात सघन एकांत के दौर से गु़ज़र रही थी। ...दो पल बाद वे एक निश्वास छोड़कर कांधे में सिर दिए सुबकते से बोले, ‘नेहा-आ! मुझे पता नहीं, यह सब क्या है? पर लगता है, तुम नहीं मिलीं तो अब बचूँगा नहीं...'
‘तुम- निरे बच्चे हो आकाश!' आखिर मैं सख़्त हो आई।... फिर वे लाख मायूस हुए, दामन छुड़ा ही लिया!
रात करवटों में बदल गई। अजीब-सी नर्वनैस और गुस्से ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। अगले दिन कोई जीप लेने नहीं आई। वह तो अच्छा रहा कि पापा छोटी की छुट्टी करा लाये! मैं पूर्ववत् उसकी तीमारदारी में जुट गई। ...लेकिन उसके बाद पता नहीं क्यों, आकाश ने जीप पहुँचाना ही बंद कर दी। दिन-बदिन मेरा अफसोस गहराने लगा। अनायास सोचने लगी कि मेरी नादानियों का कोई अंत नहीं है। अव्वल तो मुझे एक विवाहित पुरुष की ओर बढ़ना नहीं था और बढ़ रही हूँ तो उनके पूर्व सुरक्षित क्षेत्र को अतिक्रमित करने का क्या हक़ है मुझे! वे अपनी बीवी से दूर हुए या मुझसे आकृष्ट, ये ऐसी घटनाएँ नहीं हैं जो इकहरी हों।... इनके कोई निश्चित कारण भी नहीं हो सकते। पिछले दो-ढाई साल से हम जिस तरह सब-कॉन्शसली एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे हैं, उसका अंतिम परिणाम यही था, शायद!
मुझे घर में और लगातार घर में पाकर घर खुद हैरान था, क्योंकि- घर तो मुझे काटने को दौड़ता था। रेलमपेल काम निबटा, सदा रस्सी तुड़ाकर गाय-सी भागती रही थी। दिन छह महीने का होता तो शायद, छह-छह महीने न लौटती! वह तो रात की आवृत्ति ने पैर बाँध रखे थे, घर की चौखट से। ...पापा ताज़्ज़ुब से पूछते, ‘तुमने काम छोड़ दिया?' मैं रुआँसी हो आती।
माँ टोह लेती। भीतर खुशी, बाहर चिंता जताती, ‘बैठे से बेगार भली थी... दिन भर घर में घुसी रहती हो।'
तब शायद, उसकी बनावटी पहल की दुआ से ही एक दिन उनका फोन आ गयाः
‘नेहा! कैसी हो-तुम...'
‘जी- अच्छी हूँ...' मेरा दिल धड़कने लगा।
‘देखो,' वे हकलाते-से बोले, ‘तुम्हें रिप्रिजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है!'
‘मुझे!' जैसे, यकीन नहीं आया।
‘हाँ! हमें...। मंत्रालय से फैक्स मिला है... मैंने रात की गाड़ी में रिजर्वेशन करा लिया है!'
‘नहीं!' मेरा स्वर काँप गया।
‘क्यों?' वे जैसे, आफत में पड़ गए।
‘जा नहीं पाऊँगी...' मैंने फोन रख दिया।
मैं अपने पापा को जन्म से जानती थी। हालांकि, वे पापा ही थे जो मेरे लेट होने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की पुलिया पर रात दस-दस, ग्यारह-ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता पर मुँह से एक शब्द नहीं निकलता। मुझ पर यक़ीन भी था और मुझे पुरुषों के समान अवसर देने का ज़ज़्बा भी।... पर उनके पास एक पुलिसिये की आँख भी है।... वे कभी इज़ाज़त नहीं देंगे। मेरा दिल बैठ गया था।... मगर शाम को एक दूसरा ही चमत्कार हो गया! आकाश मौसी जी को लेकर घर आ गए! वे मॉनीटरिंग सैल में थीं। उनके होने से ही मुझे इतनी छूट भी मिली हुई थी। उन्होंने आते ही पापा को झाड़ा, ‘आपने उसे रोक क्यों दिया?'
‘किसे?' उन्हें कुछ पता नहीं था।
मौसी ने आकाश की ओर देखा, वे सकपका गए, ‘जी- वो नेहा ने खुद मना किया है...'
‘नेहा का दिमाग़ ख़राब है-क्या! कोई बच्ची है जो इतनी गैर जिम्मेदारी दिखाती है! प्रेजेंटेशन के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हम लोग कब से लगे हुए हैं...'
मैं अंदर छुपी हुई सारा वार्तालाप सुन रही थी। खुशी से दिल में दर्द होने लगा। माँ ने आकर टेढ़ा मुँह बनाया, ‘जाओ अब! इसी के लिए इतने दिनों से बहानेबाजी हो रही थी।...'
और मैंने उसकी बड़बड़ाहट को नज़रअंदाज कर सफ़र की तैयारी शुरू कर दी। ऐसे उपालम्भों की तो जनम से आदी थी।... लेकिन संकोच के मारे रास्ते भर उनसे हाँ-हूँ के सिवा कोई खास बात नहीं हुई। मुझे लोअर बर्थ देकर वे खुद सामने की ऊपर वाली पर चढ़ गए थे। वहीं से रात भर नज़़र रखे रहे। सोते-जागते मुझे बराबर एहसास होता रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।...
कन्जेक्शन के कारण ट्रेन दो घंटे लेट पहुँची। ...और हमें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब हमारे परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर मेरे और आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा। ...लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से मुझे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि मैं चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और मुझी को चैलेंज करने लगा, ‘येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया। आपका एचीव्हमेंट भी सेंटपर्सेन्ट रहा। मगर क्या ग्यारन्टी है कि आफ्टर सम-टाइम रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जायेगा?'
‘नो-सरऽ इसकी तो कोई ग्यारन्टी नहीं है...' मेरा श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे। आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल मैंने साहस जुटा कर आगे कहाः
‘लेकिन-सर! इतिहास साक्षी है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था... गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आम्बेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा।... पर हम देख रहे हैं- सब उल्टा हो रहा है। सर... मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है-सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। सेक्रेटरी ने कहा, ‘आपकी साफ़गोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव्ह पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचना है, दोस्तो! ओ.के.। अटेन्ड टु योर वर्क!'
जाते समय हमें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्ट्स पर आज नाइट मेें ही मंत्रालय की मुहर लग जायेगी। वे लोग आज डैली में ही रुकें।... और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी, इसलिए हमने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई।...
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। गिले-शिकवे सब ध्वस्त हो चुके थे। मेरे रोल से आकाश तक इतने इम्प्रैस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी।...
फ्रेश होकर हम वी.आई.पीज. की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे।... बैरे तहज़ीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि मुझे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। इम्प्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग़ में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब मैं समझ सकती थी कि तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।...
आकाश ने जोड़ा- अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें। बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि- जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली...'
एन्जॉयमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।...
-मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग़ को ऊर्जा मिल सकती है! होटल तभी आबाद हैं...।' मैंने विनोद किया।
वे झेंप कर मुस्कराने लगे। मौसम बेहद खुशगवार हो गया।
डाइनिंग हॉल से निकल कर हम होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यु सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे।... मुझे देखकर खासे चपल हो उठे। थोड़े से नश्ो के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, ‘इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी ऑर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु एविल ए चांस!'
और आकाश हर बात पर जी-जी कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमन्डेशन पर मिलने जा रही थी।... और वे बीच में शायद, किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ कर चले गए तो मैथ्यु सर मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछने लगेः
‘ नेहा, मेरे साथ सोओगी-तुम?'
‘..............'
‘बोलो-तो!' नश्ो में वे अड़ गये। पेंसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़े पन पर मैं मुस्कराने लगीः
‘... अभी बिगनिंग नहीं हुई, सर!'
‘माय ग्रेशस!' वे सिर पर पैर रखकर नाच उठे, फिर हँसते हुए बोले, ‘उसके लिए मुहूर्त निकलवाओगी?... ओ.के. यू मीट मी आफ्टर मैरिज!'
रूम में आकर मैं सीरियस हो गई। थोड़ी देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद कपड़े बदल कर अपने बिस्तर पर आकर लेट गई।... बीच में एक खूबसूरत-सा सोफा लगा था। आकाश उस पर अधलेटे होकर न्यूज देखने लगे। ...टीवी की आवाज, रात-दिन की थकान और भोजन के नश्ो के कारण मेरी पलकें झपने लगीं। कुछ देर तो आँखें तान-तानकर देखती रही, फिर मुझे गहरी झपकी लग गई। अचानक सपना देखने लगी कि घर में ग़ज़ब की भीड़भाड़ है... और मेरी उनसे शादी हो रही है! ...और मम्मी मान नहीं रहीं। ...मैं रो रही हूँ! फिर देखा कि वे अचानक बहुत छोटे हो गये हैं... मुझसे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँस कर मान गई हैं! पर मैं घबरायी हुई पड़ोस के घर में जा छुपी हूँ... वे ढूँढ़ते फिर रहे हैं।...
फिर नींद अचानक टूट गई। टीवी पर लव‘यू लव‘यू... किस‘मी किस‘मी... का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके मुझी को ताक रहे थेे!
स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई-सी उठकर बॉथरूम के अंदर चली गई। लग रहा था, अधूरा अध्याय अब पूरा होने जा रहा है।... इसे मैं रोक नहीं सकती। इसे मेरे मम्मी-पापा, उनकी पत्नी और सारी दुनिया भी मिलकर नहीं रोक सकती...। इसका लिखा जाना आदि-अनादि से तय है!
काँपती-सी लौटी तो वे पूर्ववत् तपस्यारत् बैठे मिले। जाने क्या सूझा कि करीब आकर हठात् मुस्कराने लगी, ‘व्हेन डु यू गो टु बैड?'
दो पल स्थिर दृष्टि से ताकते रहे। फिर धीरे से हाथ पकड़कर बाजू में बिठा लिया।
दिल में झींसियाँ-सी बज उठीं। दिन का घटना-प्रसंग याद करती हुई बोली, ‘ये लोग कितने श्रूड हैं... कैसा चकमा दे रहे थे!'
वे मुग्ध भाव से निहारते रहे।... फिर अचानक सीने में सिर देकर भावुक स्वर में बोले, ‘तुमने सचमुच कर दिखाया, और किसी की सामर्थ्य नहीं थी... और कोई था ही-नहीं!'
सीने में गुदगुदी-सी भर उठी। मैंने मदहोशी में मज़ाक-सा किया, ‘आपने तो सिगरेट तक छोड़ दी, यहाँ लोग जाम लड़ा रहे हैं!'
हठात् वे आँखों में झाँकते हुए धीरे से बोले, ‘क्यूँ- एन्जॉय करना है, क्या!'
स्क्रीन पर संभोग का दृश्य चल रहा था! दिल ज़ोर से धड़कने लगा...।
सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और मैं थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि- अब शायद मैं एक ऐसी स्त्री बन जाऊँ जो उनसे सम्बंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद- उसे सफलता मिले!
परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रान्ति के बीज मेरे मन में उपज रहे थे। और मेरे चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे।...
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लेखक-परिचय
दिस. 26, 1955
ए.असफल जन्मजात लेखक नहीं हैं, यह हुनर उन्होंने साधना से हासिल किया है। धर्मयुग, सारिका के जमाने से लेकर नया ज्ञानोदय और पुनर्प्रकाशित हंस तक उनका सफ़र बेहद श्रम-साध्य रहा। संगठन और प्रचार साहित्य से दूर दलित, स्त्री, प्रेम और दर्शन जैसे सरल किंतु जटिल विषयों पर निरंतर खोजपूर्ण लेखन करते वे अकेले जरूर पड़ते गये पर अपनी सृजनात्मक ऊर्जा, लेखन शैली, अनुभव संसार तथा भाषायी सौंदर्यबोध के कारण गुमनाम होने से बच गये। अपनी इसी खोजी प्रवृत्ति के बल पर संस्कृति और ऐतिह्य से लेकर उत्तर आधुनिक समाज तक वे गहरी पड़ताल कर सके। वैविध्य और मौलिकता उनके साहित्य की खास पहचान है।
कृतियाँ
कथा संग्रह- जंग, वामा, मनुजी तेने बरन बनाए, बीज।
उपन्यास- बारह बरस का विजेता, लीला, नमो अरिहंता।
संप्रतिः स्वतंत्र लेखन।
संपर्कः 20, ज्वालामाता गली, भिण्ड (म0प्र0)
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