कठपुतलियों की देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व. देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उदयपुर का भारतीय लोक कला मण्डल प...
कठपुतलियों की देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व. देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उदयपुर का भारतीय लोक कला मण्डल परम्परागत और नवीन कठपुतलियां तथा उनके समाज शास्त्रीय अध्ययन पर काफी काम कर रहा है। पुतलियां चाहे पुरातन हों अथवा नवीन, सैद्धान्तिक दृष्टि से एक ही नियम में बंधी हैं, और किन्हीं वास्तविक प्राणियों की नकल नहीं हो सकती। न्यूनतम अंग भंगिमाओं से अधिकतम भंगिमाओं का भ्रम उत्पन्न करना पारम्परिक एवं आधुनिक पुतलियों का परम धर्म है।
पुतली सिद्धान्त की दृष्टि से पुरातन पुतलियां जितनी आधुनिक हैं, उतनी आधुनिक पुतलियां नहीं। चित्रकला की तरह भारतीय पुतलियां अनुकृति मूलकता से हटकर आभासिक रही है। आन्ध्र, राजस्थान एवं उड़ीसा की पुतलियां इसी क्रम में आती हैं।
आधुनिक पुतलियां पारम्परिक पुतलियों का ही परिष्कृत रूप है। इन पुतलियों को पारम्परिक पुतली सिद्धान्त से ही जोड़ा जा सकता है। पारम्परिक पुतलियां अपने नियमों से बंधी होने के कारण विकास नहीं पा सकीं। राजस्थान के पारम्परिक पुतलीकार अमरसिंह राठौर या राणा प्रताप के ख्,ोल से आगे नहीं बढ़ना चाहते। उड़ीसा के पुतलीकार गोपीकृष्ण के कथानक को नहीं छोडते। आन्ध्र के छाया कठपुतलीकार रामायण एवं महाभारत के ही खेल करते है। यही कारण है कि यह परम्परा अब मृतप्रायः सी हो चुकी है। लेकिन पुतली कला के विषय अब प्रमुख रूप से शिक्षा, मनोरंजन, सामाजिक विंसंगतियों आदि से सम्बन्धित होते हैं। वसीला नामक कठपुतली नाटक ने भारत व सोवियत समाज को नजदीक लाने में मदद की।
भारत को कठपुतलियों का जन्म स्थल नहीं माना जाता हैं, लेकिन एशिया अवश्य ही कठपुतलियों का जन्म स्थल है। चीन, जापान, मलेशिया, इन्डोनेशिया, बर्मा आदि देशों में कठपुतलियों का विवरण वहां के प्राचीन साहित्य में मिलता है।
पुतलियां अपने विकास के समय से ही मानवीय नाटक से जुड गयी। विश्व के पुतली विशेषज्ञ इस बात पर एक मत हैं कि मानवीय नाटक के रंगमंचीय अवतरण से पूर्व ही पुतलियां विकास पर थीं पुतलियां मूल रूप मनुष्य की धार्मिक भावनाओं को ही विकसित करती रहीं।
यही कारण है कि पुतलियां प्रकृति से जुड गयी और धार्मिक व पारम्परिक प्रसंगों को पुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाने लगा। पुतली नाट्य लोक शैली का ही एक नाटक था जो लोक नाट्यों के रूप से विकसित हुआ। पुरातन शैली में प्रस्तुत करने वाले अधिसंख्य पात्र आज भी मुखौटा लगाते हैं। अफ्रीका, जावा, बाली, श्रीलंका, बर्मा में ऐसे नाट्य आज भी बहुत प्रचलित हैं। भारत में भी यही स्थिति है। मेवाड का गवरी, दक्षिण का यक्ष नाट्य आदि में मुखौटों का बड़ा महत्व है।
दक्षिण भारत के प्रायः सभी लोक नाट्यों की अंग भंगिमाएं, वेशभूषा आदि पुतलियों की तरह ही हैं।
यूरोपीय देशों में पुतली परम्परा 300 वर्ष की मानी गयी है। भारत में यह आदि मानव से जुड़ी है। सांस्कृतिक कार्यो में पुतली का प्रयोग और प्रतीकों का महत्व सर्वविदित है। यूनान, मिस्र आदि देशों में पुरातन समाधियों की खुदाई में अनेक ऐसे पुतले मिलें हैं जो मृतात्माओं की शांति के लिए गाड़े जाते हैं। भारत में भी इसके प्रमाण उपलब्ध हैं कि पुतलियों से ही नाटकों की उत्पत्ति हुई है।
पुराणों में कहीं कहीं पुतलियों का उल्लेख मिलता है। रामायण, महाभारत, पंच तंत्र आदि में भी इनका उल्लेख है। इन ग्रन्थों में पुतलियों से सन्देशवाहक का काम लिया जाता है। महाभारत में वृहन्नला द्वारा पुतलियां सिखलाने का उल्लेख है। इसी प्रकार चमड़े, कागज और कपड़े की पुतलियों का भी वर्णन है।
सातवीं शताब्दी में नीलकंठ के भाष्य मे छाया पुतलियों का वर्णन है। कथासरित सागर में एक दस्तकार का उल्लेख है जो बच्चों के मनोंरंजन के लिए पुतलियां बनाता है। पंच तंत्र में कठपुतलियों का वर्णन है। विक्रमादित्य की सिंहासन बत्तीीसी में पुतलियों के करतबों का वर्णन है।
आज भी राजस्थान के पुतली नट भाट, राव और भांडों की तरह भांभी, बलाई एवं रेबारी जाति मे पाये जाते हैं। जयपुर, उदयपुर व पश्चिमी राजस्थान में ये जातियां पाई जाती हैं। जयपुर में सैकडों परिवार कठ पुतलियां बनाते हैं, बेचते है और नाट्यों का प्रदर्शन करते हैं।
इसी प्रकार पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात में भी भाट व नट जातियां कठपुतलियां के खेल करती हैं। राजस्थान के भवाई, भोपों, मंगलिये, काबडिये, खरगडे, तेजोर आदि भी पुतलियों का खेल दिखाते हैं।
जयपुर के कठपुतली बनाने वालों ने अपनी एक कालोनी भी बनायी है, जहां पर कठपुतलियों के निर्माण, रंगाई, पुताई आदि का काम होता है। यहां से कठपुतलियां दुकानों, एम्पोरियमों तथा विदेशों को भेजी जाती है।
ये लोग होटलों, स्कूलों आदि में कठपुतलियों के खेलों तथा अमरसिंह राठौर या महाराणा प्रताप का प्रदर्शन करते हैं। एक प्रदर्शन के सौ रूपये तक लेते है। वे लकड़ी की विभिन्न प्रकार की कठपुतलियां बनाकर बेचते है एक कलाकार हरभजन ने बताया कि एक कठपुतली के निर्माण में पांच सात रूपये का खर्च आता है,ए और दस रूपये में दुकानदार लेता हैं कई दुकानदार इसे काफी ऊंचे दामों में बेचते हैं। एक कलाकार औसतन पच्चीस से तीस रूपये कमा लेता हैं। घर की स्त्रियां भी काम करती हैं। प्रदर्शन के समय कठपुतलियों मे सारंगी वाला, अनारकली, तबले वाला, सजना (नर्तक), जोगी और पिपलीशाह होता है। इसके अलावा साथ में गाना हारमोनियम भी चलता है। सामान्यतया धागों से कठपुतलियों को चलाया जाता है।
स्वं․ देवीलाल सामरजी ने कठपुतलियों के क्षेत्र में बहुत कुछ किया। उन्होनें पारम्परिक खेलों के अलावा नवीन कथा कृतियों, नाटकों कहानियों की कठपुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया।
कठपुतलियों के द्वारा शिक्षा देने की भी एक वृह्द योजना पूरी की गयी है।
कठपुतलियों के निम्न प्रकार हैं-
दस्ताना कठपुतली - इन कठपुतलियों को हाथ में पहनकर चलाया जाता है।
छड़ पुतली - छड़ों से चलायी जाती है।
सूत्र संचालित या धागों से चलने वाली कठपुतली।
छाया पुतली - चमड़ा गत्ता, कार्डबोर्ड आदि से बनती है।
लकड़ी, लोहे, गत्ते व कागजों से भी कठपुतलियां बनायी जाती है। सामान्यतः लकड़ी की कठपुतली ज्यादा प्रयुक्त होती है।
शैक्षाणिक कठपुतलियों से बच्चों को विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार के प्रयोग भारत व विदेशों में काफी लोकप्रिय हो रहें हैं।
विदेशों में भी कठपुतलियों पर काफी काम हो रहा है। कठपुतलियों के संसार से बाहर आते समय मेरे दिमाग में एक ही बात थी क्या हम सभी नियति के हाथों की कठपुतलियां नहीं हैं ?
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यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मी नगर ब्रहमपुरी बाहर,जयपुर-302002, फोनः-0141-2670596
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