पिछले 50-55 वर्षों में भारतीय विद्याओं के स्तर में निरन्तर ह्रास हुआ है। लम्बे गुलामी के दौर के बाद देश आजाद हुआ तो यह आशा बनी थी अब...
पिछले 50-55 वर्षों में भारतीय विद्याओं के स्तर में निरन्तर ह्रास हुआ है। लम्बे गुलामी के दौर के बाद देश आजाद हुआ तो यह आशा बनी थी अब सरकारें भारतीय विद्याओं के उद्भव और विकास के प्रति प्रतिबद्ध होकर काम करेंगी, मगर ऐसा नहीं हुआ। भारतीय विद्याओं में विशेषकर आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद, कर्मकाण्ड, वास्तु, योग, आध्यात्मिक आदि विषयों का समावेश होता है। इन सभी विषयों के संवर्धन, संशोधन, परिवर्धन तथा संरक्षण का काम समाज ने एक वर्ग विशेष को दिया और यह तय किया इस वर्ग का मुख्य कार्य पठन-पाठन, अध्ययन, अध्यापन तथा भारतीय विद्याओं के संरक्षण का होगा तथा इस वर्ग की वृत्ति की व्यवस्था समाज, राज्य तथा श्रेष्ठी वर्ग करेगा, लेकिन समाज का यह वर्ग भारतीय विद्याओं के उन्नयन में गतिशील नहीं हो सका। धीरे-धीरे समाज में इस वर्ग के लोग अन्यान्य कार्यों में व्यस्त होते चले गये। परिणाम स्वरूप भारतीय विद्याएं निरन्तर और नियमित रूप से पतन की और चली गई। समय समय पर कुछ लोगों ने भारतीय विद्याओं के उन्नयन हेतु व्यक्तिगत प्रयास किये, मगर ये प्रयास नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह ही रहे।
राज्याश्रय या सेठाश्रय के चक्कर में भारतीय विद्याओं का एक नये प्रकार से दोहन शुरू हुआ, हर कोई भारतीय विद्याओं को कामधेनु समझने लगा। हर व्यक्ति अधिक से अधिक दोहन करने के चक्कर में भारतीय विद्याओं के मूल स्वरूप को नष्ट करने की राह पर चलने लगा। इस कारण समाज में भारतीय विद्याओं के नीम-हकीम पैदा होने लगे। रही-सही कसर पाश्चात्य संस्कृति तथा वैश्वीकरण ने पूरी कर दी। आज से सौ पचास वर्ष पहले आयुर्वेद, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, योग, वेद, अध्यात्म आदि विषयों के गिने-चुने विशेषज्ञ थे तथा वे वाकई में विद्वान थे, मगर आज हर तरफ नये विद्वान हो गये है। वास्तुशास्त्र का उदाहरण लीजिए, हर वास्तुशास्त्री दूसरे वास्तुशास्त्री को गलत ठहरा देगा। आयुर्वेदीय विज्ञान का जो ज्ञान सौ-पचास वर्ष पहले था वो आज दुर्लभ हो गया है। वेदपाठी तो कष्टोपलब्ध हो गये है। अध्यात्म के क्षेत्र में भगवान इतने हो गये है कि पूछिये मत सब मिलकर अपना प्रचार-प्रसार तो कर रहे है, मगर भारतीय विद्याओं के विकास की तरफ सामूहिक रूप से ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
राज्याश्रय के चलते समाज में बदलते परिवेश के कारण जिन लोगों पर भारतीय विद्याओं के संरक्षण का कार्य था, उन्होंने नई वृत्तियों पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया। इन आर्थिक वृत्तियों के चक्कर में भारतीय विद्याएं बहुत पीछे रह गई। समाज इसे समय की नियति समझ कर स्वीकार कर लिया।
भारतीय न्याय, भारतीय ज्योतिष, भारतीय वास्तु, भारतीय स्वास्थ्य विज्ञान, योग, कर्मकाण्ड, वैवाहिक पद्धति आदि सैकड़ों विषय धीरे-धीरे नष्ट होने लगे। पाश्यात्य संस्कृति के आने से भारतीय विद्याओं के स्तर में और भी ज्यादा गिरावट आ आई। लम्बी गुलामी के कारण भी भारतीय विद्याओं के स्तर पर विपरीत प्रभाव पड़ा।
सम्पूर्ण भारतीय सांस्कृतिक परिवेश पर नजर दौड़ाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय विद्याओं पर चिन्तन के स्थान चिन्ता व्यक्त करने की एक लम्बी परम्परा बन गई, मगर स्थिति बिगड़ती चली गयी।
केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकारियों को भारतीय विद्याओं के अध्ययन से कोई सरोकार नहीं है। वे तो विलायती चश्में, विलायती भाषा और विलायती विद्याओं के दीवाने हैं। भारतीय विद्याओं के विकास के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को अलग से के बिना मंत्री नियुक्त करने चाहिये, ताकि भारतीय विद्याओं के पराभव को रोका जा सके तथा विश्व में भारतीय विद्याओं की पताका फहरा सके। इसके साथ ही भारतीय विद्याओं के नीम हकीमों पर भी रोक लगाया जाना आवश्यक है। भारतीय विद्याओं को किसी धर्म, पंथ या जाति से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिये। धर्म, अध्यात्म भारतीय विद्याओं का एक प्रकार है, सम्पूर्ण भारतीय विद्याएं नहीं।
भारतीय विद्याओं के उद्भव से देश में एक सांस्कृतिक एकता का भी विकास होगा। उदारता, सहिष्णुता, क्षमा, करूणा और दया भारतीय विद्याओं में मूलभाव रहा है। उदारता से चिन्तन कर भारतीय विद्याओं के विकास में योगदान किया जाना चाहिए। सामाजिक समरसता से ही भारतीय विद्याओं का विकास होगा। सम्पूर्ण भारतीय समाज आज की सामन्ती विचारधाराओं के अन्तर्विरोध से ग्रस्त है इस कारण भी भारतीय विद्याओं का पराभव नियमित रूप से होता रहा है। कोई विदेशी मेक्समूलर आता है और भारतीय विद्याओं का अध्ययन कर विदेशों को भारत की विराट संस्कृति से परिचित कराता है।
भारतीय विद्याएं अस्तित्व के संकट से जूझ रही है, अस्तित्व का यह संकट सम्पूर्ण भारतीय समाज पर भी लागू है और अस्तित्व बचाये रखना राज्य की जिम्मेदारी है। यदि विद्याओं का चरित्र नष्ट हो जायेगा तो फिर देश, समाज, संस्कृति, आदि का क्या होगा।
स्वतन्त्रता के पचपन वर्षों के बाद भी भारतीय विद्याओं के विकास के लिए अलग से कोई केन्द्रीय विभाग या मंत्री का न होना शर्मनाक है। हमें एक वैज्ञानिक दृष्टि के साथ भारतीय विद्याओं को पुनः प्रतिष्ठित करने की दिशा में समग्र रूप से काम करना चाहिये। बुद्धिजीवी सरकार, श्रेष्ठीवर्ग तथा राजनैतिक नेतृत्व को इस कार्य हेतु आगे आना चाहिये।
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यशवन्त कोठारी
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इतने सुन्दर सार्थक आलेख पर कोई टिप्पणी नही जबकि बेवकूफ़ी की भावुक सी चार लाइनों पर( वह भी महिला द्वारा लिखी हो तो) ४०-४० टिप्पणीयां---बडा अन्धेर है....
जवाब देंहटाएं---हमारा यही राष्ट्रीय चरित्र रह गया है, भारतीय विद्या का तो अर्थ ही अन्धविश्वास, पौन्गा पन्थी, पिछडेपन की निशानी है---जो कुछ है अमेरिका का ग्यन ही ग्यान है....कहां की संस्क्रिति कैसी संस्क्रिति जी....वहुत जल्द ही हम नन्गे होकर आर्टीफ़िसिअल जंगल में, आटीफ़िसियल नदी के किनारे, कम्प्यूटर पर मकली आग जला रहे होगे...