सरलता, बोधगम्यता एवं व्याकरण सम्बन्धी विशेषताओं के कारण हिन्दी भारत की आत्मा है, क्योंकि इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति, आध्या...
सरलता, बोधगम्यता एवं व्याकरण सम्बन्धी विशेषताओं के कारण हिन्दी भारत की आत्मा है, क्योंकि इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता, नैतिक चिन्तन, सार्वभौमिक दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषी मन्थन किया जाता रहा है। हजारों वर्षों की इस भाषा परम्परा ने भारत के विभिन्न, प्रान्तों, धर्मों, सम्प्रदायों एवं भाषाई प्रयोगों की बहुरूपता को एकताबद्ध किया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् एवं इसके पूर्व हिन्दी भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक बन गई क्योंकि विदेशी भाषा अंग्रेजी को बलपूर्वक और छलपूर्वक यहां प्रतिष्ठित करके, देशवासियों को जिस प्रकार दासता के जाल में जकड़ने का प्रयास किया गया उससे जागरूक लोकचेता मनीषियों का चौकन्ना होना स्वाभाविक था।
हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में आधुनिक युग का आरम्भ सन् 1850 ई. के आसपास से माना जाता है। यद्यपि इससे पहले (एक सौ वर्ष) ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में अंग्रेजों (विदेशियों) ने अपनी भाषाई कूटनीति का जाल फैलाना आरम्भ कर दिया था तथापि अनेक वर्षों तक उनका यह षडयंत्र भारतीय जनता समझ नहीं पाई। ईसाई मिशनरियों ने पहले से ही अपने प्रचार का अखिल भारतीय माध्यम हिन्दी को बनाया था। उन्होंने अनुभव किया कि जनसाधारण तक पहुंचने के लिए हिन्दी ही मात्र एक साधन है। उन्होंने हिन्दी के व्याकरण लिखे, शब्दकोष तैयार किए और अपने धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद किए। मिर्जापुर, सिरीरामपुर, इलाहाबाद और आगरा उनके विशिष्ट केन्द्र थे। सन् 1801 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने यह घोषणा की कि प्रशासनिक सेवा में केवल उसी व्यक्ति को जिम्मेदार पद पर नियुक्त किया जाय जिसे गवर्नर जनरल द्वारा बनाए गए कानूनों को अमल में लाने के लिए हिन्दुस्तानी (अर्थात् खड़ी बोली हिन्दी) का भी ज्ञान हो। इसलिए विलियम प्राइस, फ्रेडरिक जॉन झोर, वैलंटाइन मैटकॉफ, फ्रेडरिक पिल्कॉट आदि ने हिन्दी सीखी। महत्वपूर्ण यह है कि यह सब काम भारत के एक हिन्दी भाषा क्षेत्र (कलकत्ता) में हो रहा था। दिल्ली या मध्य प्रान्त के किसी इलाके में नहीं। स्पष्ट है कि आधुनिक काल की वास्तविक शुरूआत से पहले ही, हिन्दी प्रकारान्तर से राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य हो चुकी थी। मद्रास के लेफ्टीनेन्ट टॉमस रोबक ने हिन्दी (हिन्दुस्तानी) को हिन्दुस्तान की महाभाषा कहा और अपने शिक्षा गुरू जॉन गिलक्रिस्ट को लिखा। 29 अगस्त 1896 के रूप में लिखे पत्र का प्रारूप इस प्रकार है- ‘भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लाहौर तक, कुमांऊ के पहाड़ों से नर्मदा तक, अफगानों, मराठों राजपूतों, जाटों, सिखों और उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहां मैंने यात्रा की है, मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा हैं जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी थी। मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते हैं।' (जे. बी. गिलक्रिस्ट ः ए वैकुबलरी हिन्दुस्तानी एण्ड इंग्लिश, इंग्लिश एण्ड हिन्दुस्तानी से अवतरित)। यहां हिन्दुस्तानी से अभिप्राय सहज-सुबोध खड़ी बोली हिन्दी से है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेज शासकों को सम्पूर्ण राष्ट्र भारत में जिस भाषा का अधिकतर प्रयोग, प्रसार और प्रभाव दिखाई दिया वह हिन्दी (उनके शब्दों में हिन्दुस्तानी) थी।
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में दो तरह की संस्थाओं का योगदान है। प्रथम वर्ग में वे संस्थाएं आती हैं जिनका महत्वपूर्ण/प्रमुख लक्ष्य सामाजिक सुधार तथा सांस्कृतिक पुनर्जागरण था। स्वदेशी भाषा के महत्व की सहज स्वीकृति सांस्कृतिक-सामाजिक नवजागरण में होती है। दूसरी और हिन्दी प्रचार-प्रसार में स्वैच्छिक संस्थाएं भी जोर आजमाइश कर रहीं थीं। वास्तविकता यह है कि इन संस्थाओं ने प्रान्तीयता/क्षेत्रीयता को हाशिये में रखकर देशहित में हिन्दी प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण कार्य किया और आज भी उस निरन्तरता को कायम किए हुई हैं। वाराणसी में नागरी प्रचारिणी, इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, ओड़िया राष्ट्र भाषा परिषद, पुरी; कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति बेंगलूर; केरल हिन्दी प्रचार सभा, तिरूवन्तपुरम; कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति; मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद, बेंगलूर; दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास; गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद; बम्बई हिन्दी विद्यापीठ, बम्बई; हिन्दुस्तानी प्रचार सभा; महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणे; हिन्दी विद्यापीठ, देवधर; हिन्दी प्रचार-सभा, हैदराबाद; असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी; प्रयाग महिला विद्यापीठ, इलाहाबाद; मिजोरम हिन्दी प्रचार सभा, आइजोल; मणिपुर हिन्दी परिषद, इम्फाल; राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा, सौराष्ट्र हिन्दी प्रचार समिति, राजकोट; हिन्दी प्रचार-प्रसार संस्थान, जयपुर; हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद; ओड़ीसा शिक्षा परिषद, कटक; बेलगांव विभागीय हिन्दी शिक्षा समिति, हुगली; अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ, नई दिल्ली इत्यादि संस्थाओं ने हिन्दी भाषा को आमजन तक लाने में सृजनात्मक सेतु का कार्य किया है। भाषा और साहित्य को अपूर्व रचनाएं, संस्थाएं और व्यक्तित्व देने वाले शहर बनारस में सबसे पहले 1893 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। इस सभा के संस्थापक प्रारम्भिक संभ्रान्त संरक्षक गोपाल प्रसाद खत्री, रामनारायण मिश्र, बाबूश्याम सुन्दर दास थे। समय-समय पर इन लोगों ने हिन्दी की प्रगति में महान योगदान दिया। आगे चलकर मदनमोहन मालवीय, अम्बिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, श्रीधर पाठक, बद्रीनारायण चौधरी, प्रेमधन आदि नाम महत्वपूर्ण है। यहाँ हिन्दी के लिये ऐतिहासिक महत्व के विपुल कार्य और समारोह हुये। यहाँ ‘हिन्दी शब्द सागर' तैयार किया गया और इसी शब्द सागर की भूमिका के रूप में हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य शुक्ल ने लिखा। ‘सरस्वती' और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका' सरीखी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यहीं से शुरू हुई। इसी सभा ने हिन्दी की अनेक योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू किया जैसे पुस्तकों का सम्पादन और प्रकाशन, हिन्दी शब्द कोश निर्माण, भाषा और साहित्य लेखन एवं अनुसंधान की योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया। सभा का अपना एक समृद्ध पुस्तकालय भी है जिसमेें प्राचीन एवं नवीन प्रकार की रचनाएं सहज रूप में उपलब्ध हैं। इस सभा ने कुछ मानक ग्रन्थों (शब्द सागर, पृथ्वी राज रासो, परमाल रासो) का प्रकाशन भी कराया है। नागरी प्रचारिणी ने अपने नाम से ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका' भी प्रकाशित की है।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थापना 1910-11 में की थी। राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन सम्मेलन की स्थापना के समय से ही इसके मंत्री थे, आपको ‘सम्मेलन के प्राण' नाम का विशेषण दिया गया था। हिन्दी साहित्य के समस्त अंगों को स्पष्ट करना साथ ही देवनागरी लिपि का प्रचार-प्रसार करना। नागरी लिपि को लेखन तथा मुद्रण की दृष्टि से बढ़ावा देना है। वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषी राज्यों में भाषा के प्रयोग का प्रचार-प्रसार करना और हिन्दी के लेखकों/विद्वानों को पदक/उपाधि/पारितोषिक से सम्मानित करना लक्ष्य रखा गया। सम्मेलन का सबसे महत्वपूर्ण विभाग परीक्षा से सम्बन्धित है। सम्मेलन के द्वारा प्रथमा एवं उत्तमा की परीक्षाएं संचालित होती हैं। हिन्दी और हिन्दीतर क्षेत्रों में अनेक केन्द्रों पर ये परीक्षायें सम्पन्न होती हैं। ‘उत्तमा' परीक्षा को बी.ए. ऑनर्स के समकक्ष दर्जा प्राप्त है। ये परीक्षा गुआना, फिजी, सूरीनाम, मॉरिशस में होती हैं। यहाँ पर शोधपरक पुस्तकों का विशाल/समृद्ध पुस्तकालय है और शोधार्थी को निःशुल्क पुस्तकें पढ़ने हेतु सहज उपलब्ध हो जाती हैं। ‘सम्मेलन पत्रिका' नाम से एक त्रैमासिक शोध पत्रिका का प्रकाशन हिन्दी साहित्य सम्मेलन से सन् 1915 से किया जा रहा है। किसी जमाने में बालकृष्ण राव के सम्पादन में ‘माध्यम' का प्रकाशन हुआ करता था, समकालीन साहित्य पर केन्द्रित इस पत्रिका का पुर्नप्रकाशन सत्य प्रकाशन मिश्र के सम्पादन में प्रारम्भ हो गया है। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की स्थापना महात्मा गाँधी के सुझाव पर सन् 1936 ई. में नागपुर में हुई। इसमें प्रारम्भ में पन्द्रह सदस्यों की एक प्रचार समिति बनाई गई। महात्मा गाँधी, टण्डन, राजेन्द्र बाबू, जवाहर लाल नेहरू, जमुनालाल बजाज, आचार्य नरेन्द्र राव, शंकरराव देव, माखनलाल चतुर्वेदी, वियोगी हरि इत्यादि इसके संस्थापक सदस्य थे। इसका कार्यालय वर्धा में रखा गया। समिति ने तीन उद्देश्य रखे। प्रथम के तहत समस्त भारत में राष्ट्रीय भावनाओं को उद्बुद्ध करना तथा उन्हें एक सूत्र में बांधना। इसका उद्घोष ‘एक हृदय हो भारत जननी' है। सम्मेलन की तरह यह समिति भी, राष्ट्रभाषा, प्राथमिक राष्ट्रभाषा प्रारम्भिक, राष्ट्रभाषा प्रवेश, राष्ट्रभाषा परिचय, राष्ट्रभाषा कोविद, राष्ट्रभाषा रत्न, राष्ट्रभाषा आचार्य आदि परीक्षाएं इसके द्वारा आयोजित होती है। यह समिति देश एवं विदेश में हिन्दी प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। वर्धा समिति के तत्वाधान में ‘राष्ट्रभाषा' नाम से एक मासिक पत्रिका प्रकाशित होती है जिसमें राष्ट्रभाषा से सम्बन्धित विचारों को प्रकाशित किया जाता है, साथ में परीक्षा से सम्बन्धित विवरण भी उपलब्ध रहता है। यहाँ पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। अनुवाद की व्यवस्था भी यहाँ की मुख्य विशेषता है। असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी की स्थापना सन् 1938 में गोपीनाथ बरलै जी के आग्रह में असम हिन्दी प्रचार समिति नामक संस्था के तत्वावधान में हुआ था। यहाँ पर छः प्रकार की परीक्षाओं (परिचय, प्रथमा, प्रवेशिका, प्रबोध, विशारद और प्रवीण) का आयोजन होता है। यहाँ पर पुस्तकों के छपने की व्यवस्था है तथा एक समृद्ध पुस्तकालय भी है। त्रैमासिक पत्रिका ‘राष्ट्रसेवक' का प्रकाशन भी होता है। ओड़िया राष्ट्रभाषा परिषद, पुरी की स्थापना अनुसूया प्रसाद पाठक तथा रामानंद शर्मा के प्रयास से हुई। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की सहायता से सन् 1954 तक कार्यरत रही। इसके बाद इसका अलग अस्तित्व हो गया। आदिवासी एवं अहिन्दी भाषी लोगों को हिन्दी सीखाना इसका प्रमुख लक्ष्य था। इसके द्वारा प्राथमिक, बोधिनी, माध्यमिक, विनोद, प्रवीण और शास्त्री परीक्षाएं ली जाती हैं। इस संस्था के माध्यम से हिन्दी विश्वविद्यालय भी चल रहे हैं। यह संस्था आन्ध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असम आदि राज्यों में भी हिन्दी प्रचार का कार्य करती है। परिषद के अधीन कई समृद्ध बड़े-छोटे पुस्तकालय भी हैं। कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति-बेंगलूर की स्थापना सन् 1952 ई. में माता आऊबाबाई तथा शिवानंद स्वामी ने किया। इसके द्वारा परीक्षाओं का आयोजन (प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा, हिन्दी भाषा-भूषण, हिन्दी भाषा प्रवीण) होता है। इस संस्था के अन्य आकर्षण साहित्य सृजन, प्रकाशन, हिन्दी भाषण प्रतियोगिता का आयोजन, नाटक, मंचन, कला प्रदर्शनी है। इस संस्था की एक विशेषता यह है कि यहाँ के सभी पदाधिकारी महिलाएं हैं परन्तु कार्यक्षेत्र का दायरा विस्तृत है। केरल हिन्दी प्रचार सभा, तिरुवन्तपुरम सन् 1934 ई. में के. वासुदेवन पिल्ले द्वारा की गई। यह संस्था स्वयं अपनी परीक्षाओं (हिन्दी प्रथमा, हिन्दी प्रवेश, हिन्दी भूषण, साहित्यचार्य) का आयोजन करती है। इसका प्रमुख कार्य हिन्दी की प्रगति एवं समृद्धि से है। यहाँ पर विद्यालय/महाविद्यालयों के साथ ही एक समृद्ध पुस्तकालय भी है। इस सभा की ‘केरल ज्योति पत्रिका' भी निकलती है। कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति की स्थापना 1949 में हुई। यह समिति परीक्षाएं (राजभाषा-हाईस्कूल, राजभाषा प्रकाश-इन्टर, राजभाषा विद्वान-
बी.ए.) भी आयोजित करती है। यहाँ पर पचास हिन्दी विद्यालय खोले गये, जिसमें प्रारम्भिक तथा उच्चतर हिन्दी शिक्षा की व्यवस्था है। कर्नाटक दर्शन, कर्नाटक साहित्य का इतिहास आदि पुस्तकों का प्रकाशन भी किया गया है। त्रैमासिक पत्रिका ‘भाषा पियूष' का प्रकाशन भी किया जाता है। मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद, बैंगलूर की स्थापना सन् 1934 ई. में हुई। इस परिषद के प्रमुख आकर्षण हिन्दी तथा प्रांतीय भाषाओं में पारस्परिक आदान-प्रदान को बढ़ाने के साथ-साथ अहिन्दी भाषियों में हिन्दी का प्रचार करना और हिन्दी साहित्य के प्रति उनमें रुचि पैदा करना है। इस परिषद के द्वारा ‘हिन्दी प्रवेश, हिन्दी उत्तमा और हिन्दी की परीक्षाएं' आयोजित होती हैं। इसकी अपनी मासिक पत्रिका भी निकलती है। मद्रास-दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना सन् 1918 ई. में (एनीबेसेन्ट और सी. पी. रामास्वामी की अध्यक्षता) की गई। सभी को पांच शाखाएं धारवाड़, दिल्ली, हैदराबाद, एरणाकुलम्, त्रिचुरापल्ली में स्थापित की गई। प्रवेशिका विशारद और प्रवीन इस संस्था की उच्चस्तरीय परीक्षाएं हैं। इस सभा के द्वारा हिन्दी प्रचार-प्रसार समाचार और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। यहाँ पर शोध संस्थान भी हैं। बम्बई-हिन्दुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना हिन्दी-उर्दू के संघर्ष समाप्त करने के लिये महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1918 ई. में हुई। इस प्रचार सभा के द्वारा प्रवेश, लिखावट, पहली, दूसरी, तीसरी, काबिल और विद्वान आदि परीक्षाओं का आयोजन होता है। यहाँ पर ‘पर्सियन लिपि' को सिखाने की व्यवस्था भी है। यह सभा हिन्दुस्तान जबान त्रैभाषी, द्विभाषी मासिक पत्रिका भी प्रकाशित करती है। गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद की स्थापना 18 अक्टूबर, 1920 ई. को हुई। विद्यापीठ द्वारा हिन्दी तीसरी, हिन्दी विनीत एवं हिन्दी सेवक परीक्षाएं संचालित होती हैं। महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणे की स्थापना काका साहब कालेलकर की अध्यक्षता में सन् 1937 ई. में ‘महाराष्ट्र महासभा' के रूप में अस्तित्व में आई। इस सभा के द्वारा (प्रवेश-हाईस्कूल, प्रवीण इण्टर तथा पंडित बी. एड.) परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। बम्बई, हिन्दी विद्यापीठ, बम्बई की स्थापना 12 अक्टूबर 1938 में हुई। इसका प्रमुख आकर्षण पाठ-पुस्तकों का प्रकाशन, प्रचार परीक्षाओं के परीक्षा केन्द्रों का निर्धारण आदि से है। विद्यापीठ के द्वारा (हिन्दी उत्तमा-मैट्रिक, हिन्दी भाषा रत्न को इण्टर, साहित्य सुधारक-बी.ए.) परीक्षाओं का आयोजन भी होता है। इसका अपना प्रकाशन विभाग भी है, साथ में एक समृद्ध पुस्तकालय भी है। देवधर-हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना देवनागरी लिपि तथा हिन्दी भाषा के विकास तथा राष्ट्रीय भावनाओं के विकास हेतु सन् 1929 ई. में हुई। विद्यापीठ के विद्यालय में गणित, तेलगू, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास विषयों का समायोजन है। यहाँ शिक्षा की प्रारम्भिक से लेकर महाविद्यालय तक की व्यवस्था है। इसका अपना समृद्ध पुस्तकालय भी है। हैदराबाद हिन्दी प्रचार-सभा, हैदराबाद की स्थापना सन् 1932 ई. में हुई। इसके अपने शिक्षण संस्थान हैं। इस सभा के द्वारा विशारद, भूषण तथा विद्वान की परीक्षाओं का आयोजन होता है। इस सभा में परास्नातक स्तर के अध्ययन की सुविधा दी गई है। यहाँ अनुवाद (तेलगू, मराठी, संस्कृत एवं कन्नड़ भाषाओं की हिन्दी में और हिन्दी की पुस्तकों को प्रादेशिक भाषाओं तेलगू, उर्दू, मराठी आदि) की सुविधा भी है। अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ की स्थापना सन् 1964 ई. में दिल्ली में हुई। इसका प्रमुख उद्देश्य प्रान्तों एवं क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं की मदद करना है। अखिल भारतीय हिन्दी संघ के द्वारा सम्पूर्ण भारत की स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के कार्यकलापों का अध्ययन के साथ उनकी समस्याओं का अध्ययन करना है। इसके लिये यह संघ उसका समाधान भी खोजता है। हिन्दी का प्रचार-प्रसार कैसे हो, साथ ही योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु क्षेत्रीय हिन्दी प्रचारकों, कार्यकर्ताओं के शिविरों का आयोजन भी किया जाता है। इसके बाद शिविरों के माध्यम से हिन्दीकर्ताओं को अखिल भारतीय स्तर पर जोड़ा जाता है। इसके बाद यह संघ देश के सभी हिन्दी विद्वानों को भाषणों के जरिये परिचय करवाता है, साथ ही उन्हें सद्भावना यात्रा हेतु यात्राओं में सम्मिलित करवाने की व्यवस्था भी करवाता है। सभी स्वैच्छिक संस्थाओं के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास यह संघ करता है। संघ का सबसे महत्वपूर्ण कार्य हिन्दी से इतर लेखकों की पुस्तकों की प्रदर्शनी का आयोजन कराना है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इन स्वैच्छिक हिन्दी संस्थानों ने राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में मील के पत्थर का कार्य किया है और हिन्दी भाषा का एक नया वातावरण भी निर्मित किया है और हिन्दी भाषा में दलित ऊर्जा/वंचित वर्ग की ऊर्जा को शामिल कर एक नया प्रतिमान हासिल किया है। आज हिन्दी की सूरत व सीरत बदली है। जनभाषा के रूप में हिन्दी का भविष्य उज्जवल है।
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श्ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवम पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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सम्पर्क -
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय; उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
Good research article congratulations.
जवाब देंहटाएंराष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में आपने बहुत खुब लिखा है । बहुत बहुत बधाई । कृपया ईमेल या फोन के रूप में अपना सम्पर्क सम्भव हो तो अवश्य देवें ।
जवाब देंहटाएंद्वारा - उमेश कुमार यादव, राजभाषा का अतिरिक्त प्रभार, भारतीय रिज़र्व बैंक नोट प्रेस, शालबनी, पश्चिम बंगाल। फोन - 9474825877,03227280029, ukyadav4u@gmail.com
mai ak naya lekhak hu . mai ak upanyash likha hu jise mai pablish karana chahata hu. mai kya karu kishase milu bataye. email-nirajkumarkushawaha3@gmail.com
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