नगरों का नगर अहमदाबाद महानगर। महानगर के पश्चिमी भाग में नवा वाडज - राणिप इलाका। इसी इलाके में स्थित है कृष्ण गोकुल अपार्टमेंट। यानी कृष्ण ...
नगरों का नगर अहमदाबाद महानगर। महानगर के पश्चिमी भाग में नवा वाडज - राणिप इलाका। इसी इलाके में स्थित है कृष्ण गोकुल अपार्टमेंट। यानी कृष्ण गोकुल को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी। आधुनिक महानगरों की संस्कृति के अनुरूप लगभग एक सौ फ्लेटों की सोसाइटी है। फ्लेटों के मालिक, फ्लेटों के स्वामी मध्यवर्गीय लोग, मध्यवर्गीय परिवार हैं। कुछ निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी हैं। आठ ब्लाकों में विभाजित तीन - तीन माले की बिल्डिगें हैं। दो- दो और तीन -तीन कमरे। किचन, बाथरूम और टायलेट सहित। ऐसा नहीं है कि तीन- तीन कमरों के फ्लैट वालों की आमदनी अन्यों से ज्यादा ही है। ऐसी कोई विशेष बात नहीं है। इन में से कुछ की आमदनी तो औसत ही है। लेकिन जब फ्लेट बिक रहे थे, उस समय उन्होंने तगड़ी मोटी रकम एक मुश्त बिल्डर को दे दी थी। इसीलिए अधिक आय नहीं होने पर भी उन के फ्लेट बड़े थे।
है तो यह गुजराती लोगों की हाउसिंग सोसाइटी। लेकिन सोसाइटी में दक्षिण के चैन्ने से ले कर सुदूर उत्तर भारत के हिमाचल प्रदेश तक के सभी प्रकार के लोग , उन के परिवार हैं। मिश्रित संस्कृति, मिश्रित रीति-रिवाज। निम्न जाति से ले कर सभी प्रकार, सब जाति- विरादरी के लोग हैं। लेकिन निम्न जाति के परिवारों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। और, वे लोग अधिकतर अपने में ही सिमटे रहते हैं। शायद सदियों के संस्कार, व्यवहार और आदत के कारण ! झिझक और शायद सामाजिक स्थिति, हैसियत भी इस की वजह हो सकती है। लेकिन अन्य वर्ग के लोगों, उन के परिवारों के साथ इन का आना- जाना, उठना -बैठना बहुत कम होता है। कृष्ण गोकुल में सब धर्म , जाति और तबके के लोग हैं। ब्राह्मण, राजपूत, पटेल, बनिया, जैन ,इसाई, नाई, धोबी आदि सभी रहते हैं। यह अलग बात है कि ये सभी विशेषकर औरतें हर वात में एक दूसरे से झगड़ती रहती हैं या तानाकशी करती रहती हैं। इस लिए इन में कोई एका नहीं है। बल्कि एक दूसरे की टांग खिचाई में ही उलझे रहते हैं और शायद उसी में उन को आनंद आता है।
आप सोच रहे होंगे कि इस में ऐसा क्या विशेष है ! ये सब तो सभी जगह, इसी प्रकार और इस से थोडे भिन्न रूप में कहीं भी होता है और हो सकता है। लेकिन इस कृष्ण गोकुल में ऐसे - ऐसे महारथी , ऐसे -ऐसे कलाकार और नेता हैं कि आप जानेंगे तो दंग रह जाएंगे।
ऐसे ही एक कलाकार से आप का परिचय कराते हैं। जी हां। प्रदीप शुक्ला जी ऐसे ही एक कलाकार हैं। आयु यही पैंतालीस वर्ष के आस -पास होगी। लंबा ,ऊंचा कद। लेकिन पीठ पर एक बहुत बड़ा कूबड। आंखें भेंगी। मुंह हमेशा पान या पान मसाला, गुटखे आदि से भरा रहता है। लोग शुक्ला जी को पीठ पीछे कुबडू ही कहते हैं। सामने भले ही प्रदीप भाई या शुक्ल जी कहें।
शुक्ल जी पेशे से एक को-ऑपरेटिव बैंक में प्रबंधक हैं। वैसे हैं बहुत मिलनसार। बातों ही बातों में किसी का भी दिल जीत लेने में माहिर हैं। अपने इसी कुदरती गुणों के कारण , अपने से आधी से भी कम उम्र की लड़की से शादी की है। लोग अक्सर धोखा खा जाते हैं। बेटी है या बीवी ? पर वह बेचारी बीस की उम्र में ही शुक्ला जी के बेटे की मां बन गई है। गरीब घर की लड़की। बाप का साया सिर पर न था। इस लिए शुक्ला जी ने उसे उबार लिया था।
शुक्ला जी की पत्नी का एक छोटा भाई और दो छोटी बहनें भी थी। वे अक्सर उन के घर में ही रहते। शुक्ला जी अपनी युवा सालियों पर खासे मेहरवान थे। कभी- कभी शुक्ल जी अपने घर में दिखाई नहीं देते। पता चलता, प्रदीप भाई अपनी सास के घर में हैं। सासू जी अकेली जो रहती है। उन की सास और उन की अपनी उम्र एक जैसी ही होगी। लेकिन सास उन से उम्र में बस थोड़ी सी बड़ी लगती थी। कहने वाले तो कहते हैं कि शुक्ला जी अपनी सास को भी अपनी सुदृढ़ बाहों का सहारा देते हैं। ... और वह उन के कूबड़ को सहलाने में कोई शर्म या झिझक नहीं करती। लेकिन शुक्ल जी की युवा पत्नी योवनोचित लावण्यमय, सौम्य लगने की बजाए बुढ़ाने लगी थी। जैसे बीस वर्ष की उम्र में ही बुढा गई हो !
शुक्ला जी ने सोसाइटी का भी भला करने का ठान लिया था। उन्होंने पहले सेटेलाइट टीवी चैनल शुरू किया। फिर कुछ बैंक से कुछ खालिस पठानों से भारी सूद में कर्ज ले कर अपने फ्लेट के टैरेस में केबल टीवी का डिश एंटेना लगा लिया। डिश एंटेना की तारें सोसाइटी के लगभग सभी फ्लेटों में बिछने के बाद आस-पास की अन्य फ्लेटों , टेनामेंटों और पास की
झोंपड़पट्टी में भी बिछ गई थी।
अब वे सोसाइटी में वाकई हीरो जैसे हो गए थे। चैनल पर कभी पिक्चर दिखाते कभी गाने ही गाने। आलम यह हो गया कि जब भी टीवी ऑन करो, कुछ न कुछ जरूर चलता होता। इस बीच उन्होंने एक नई कार भी खरीद ली थी। पान खाने जाना हो, तो भी कार से ही जाते। घूमने- फिरने जाना हो, तो भी कार से ही जाते। उन का वश चलता तो हगने -मूतने के लिए भी कार से ही जाते, घर के अंदर । जब कभी कार खड़ी दिखती, तो उन का साला उसे इधर - उधर दौड़ाता -घूमता। उदार ऐसे कि कोई भी कार या स्कूटर की चाबी मांगता तो बिना हील-हुज्जत के तुरंत चाबी पकड़ा देते। दस - पन्द्रह साल तक के छोकरे उन से लिपट- चिपट जाते और चैनल पर बढ़िया से बढ़िया पिक्चर दिखाने की जिद करते। और, शुक्ल जी कभी उन को निराश या नाराज नहीं करते !
इधर कई दिनों से शुक्ल जी के पास नए-नए लोग आने लगे थे। पता चला कि लोग अपने कर्ज की वसूली के लिए आते हैं। शुरू -शुरू में वे उन को बहाने बना कर टरकाने लगा। मगर कब तक ! फिर धीरे- धीरे वे अपने घर और सोसाइटी में ही दिखने बंद हो गए। पता चला, अपनी सास के साथ ही रहते हैं। बीस दिन, महीने में एकाध बार दोपहर को आते जब कोई नहीं होता। ... और आधे घंटे के भीतर ही खिसक लेते। घर में उन का साला, सालियां और कभी -कभी बीवी चैनल बदल- बदल कर पिक्चर लगाते, गाने सुनते ,सुनाते और महीना समाप्त होने पर वे लोग ही केबल कनैक्शन लिए हुए लोगों से पैसे वसूलते। सौ रूपये प्रति कनैक्शन।
लेकिन कर्ज का तकाजा करने वाले चुप बैठने वालों में नहीं थे। कभी दो सरदार जी आते , कभी सीधी। सलवार- कमीज पहने एक लंबा, तगड़ा पठान तो हाथ में मोटा डंडा लिए हर दूसरे- तीसरे दिन आने लगा। शुक्ला जी की पत्नी और संबंधी कर्ज की तकाजा करने वालों से खौफ खाने लगे थे। फिर उन की पत्नी भी दिखनी बंद हो गई। एक सप्ताह पश्चात उन का साला, सालियां भी घर के दरवाजे पर एक बड़ा सा ताला डाल, बाकी सब के पास चले गए थे शायद ? तकाजा करने वाले सुबह- शाम आते। लटकता हुआ ताला देखते, पड़ोसियों से पूछते और भुनभुनाते हुए वापस लौटते। शायद अपने आप पर ही खीजते हुए और शुक्ला जी को प्रकट, अप्रकट गालियां देते।
रूपये किसे अच्छे नहीं लगते ? और फिर आज के जमाने में रूपये- पैसे के बिना किसी चीज की कल्पना की जा सकती है ? महीने का पहला सप्ताह चल रहा था। एक रात चैनल पर बहुत अच्छी फिल्म दिखाई जाने लगी। मालूम हुआ शुक्ला जी के परिवार का कोई सदस्य उस रात अपने घर आया हुआ है। अपने ग्राहकों से कनैक्शनों के पैसे वसूलने।
लेकिन जैसा सोचा था हुआ उस से उलट ही। रात लगभग ११ बजे के आस- पास सोसाइटी में चीखने- चिल्लाने, रोने- धोने की आवाजें आने लगी। उन आवाजों को सुन कर सभी अपने फ्लेटों की बाल्कोनियों में आ जुटे थे। यह जानने के लिए कि माजरा क्या है ? फिर एक- एक कर काफी लोग कॉमन प्लॉट में इकट्ठे हो गए। पता चला, शुक्ला जी की सास उन के घर में है। फिर क्या था ! कर्ज वसूलने वालो में से कुछ ने उसे आज घर में धर लिया था। वह औरत पैसे कहां से देती ? तकाजा करने वाले शुक्ला जी की सास से धक्का- मुक्की करते हुए घर में पडी वस्तुएं उठाने लगे थे। इसी से वह चीख -चिल्ला रही थी। पर रात का मामला था। इस लिए लोगों ने अपने हाथ अघिक नहीं दिखाए। पूरी कालोनी में हंगामा मच जाने के पश्चात रात के दो बज चुके थे। शुक्ला जी की सास को शायद काफी हाथ पड़ गए थे। उस के गाल, सिर संभवतः दुखने लगे थे। क्योंकि वह अब भी बराबर रोये जा रही थी। लेकिन किसी ने उस के रोने की परवाह नहीं की।
सुबह का नजारा कुछ अलग ही था। लोग अभी अपने बिस्तरों से उठे भी नहीं थे कि कालोनी में स्कूटर, बाईक, कार और ऑटोरिक्शा आदि आने शुरू हो गए थे। वे शुक्ल जी के फ्लेट में जाते और जो भी भारी, कीमती सामान होता, उसे उठा लाते। अपने वाहन पर लादते और चलते बनते। जिन के हाथ कुछ नहीं लगा था, वे गालियां देते हुए खाली हाथ ही वापस गए। शुक्ला जी की सास केवल असहाय सी देखती ही रह गई थी। छत पर केवल डिश एंटेना भर बचा रह गया था। इस घटना के दो - तीन दिन बाद सोसाइटी के कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे कि शुक्ला जी अपना फ्लेट बेच रहे हैं। लेकिन उन को कोई ग्राहक नहीं मिल रहा है।
कृष्ण गोकुल हाउसिंग सोसाइटी के जोशी और पाटिल के बारे आप ने नहीं जाना तो फिर क्या जाना ! दोनों के फ्लेट ई -ब्लॉक में तीसरे माले पर हैं। दोनों फ्लेटों के दरवाजे आमने- सामने खुलते हैं। दोनों फ्लेटों के मुख्य द्वार यदि गलती से भी खुले रह जाते तो बड़े आराम से देख सकते हैं कि अपने -अपने घर में कौन क्या कर रहा है ? एक यदि जोर से सांस ले तो दूसरे घर में सुन ले। इतना नजदीक !
जोशी और पाटिल दोनों मित्र हैं। एक गुजराती तो दूसरा मराठी। दोनों बैंक में काम करते हैं। दोनों क्लर्क हैं। दोनों की उम्र भी एक सी है। ३२ से ३६ के बीच की आयु। पाटिल नाटे कद का मोटा और काला है। जोशी से उम्र में थोड़ा छोटा भी लगता है। वह अपनी नजरें हमेशा जमीन में गड़ा कर ही चलता है। सुबह बैंक को जाता है। लेकिन दोपहर दो -तीन बजे तक वापस घर को आ जाता है। शाम को ६ बजे के पश्चात घर से बाहर जाता है। शायद किसी दुकान में एकांउटिंग का पार्ट टाइम काम करता है।
जोशी मझौले कद, काठी का है। दुबला -पतला जिस्म। एक स्कूटर एक्सीडेंट में उस के माथे पर एक स्थायी गड्ढा बना हुआ है। कालोनी में जोशी के मित्रों का दायरा भी अजीब है। अधिकांश छोकरे ही। यानी कि सोलह से बीस की वय के छोकरों से उस की अच्छी पटती है। कारण , बड़े और वयस्क लोग उस को कोई महत्व ही नहीं देते हैं। एक तो झूठ बोलना और उस पर हर किसी से उधार मांगना उस का शगल है जैसे। इसी से , कोई भी उसे गम्भीरता से नहीं लेता है। अपने घर का अधिकतर काम वह स्वयं ही करता है। पानी लाना, सब्जी -भाजी खरीदना, बाजार से छोटे- मोटे सामान ले आना आदि। लेकिन सुबह जो बैंक को जाता है तो शाम को ही लौटता है।
पाटिल की पत्नी प्रभा का प्रथम प्रसव काल निकट आने लगा तो पाटिल उसे बड़ौदा में अपने मां-बाप के पास छोड़ आया। अब वह अपने घर में अकेला ही था। खाने- पीने की उसे अधिक चिता नहीं थी। क्योंकि उस का मित्र जोशी उस का पड़ोसी था। उस का सहकर्मी और उस का बहुत कुछ था। खाना आदि के लिए उस ने जोशी की पत्नी को कह दिया था। वह केवल पैसे दे देता था। जो भी उचित समझता। इस तरह पाटिल को कोई असुविधा या तकलीफ नहीं थी। एक प्रकार से वह जोशी का पेइंग गेस्ट हो गया था।
जोशी की पत्नी सुंदर और तीखे नैन-नक्श की दुबली, पतली सी औरत थी। वह अधिकतर अपने फ्लेट में ही रहती। सोसाइटी की अन्य औरतों के साथ उस का किसी ने उठना-बैठना नहीं देखा था। उस का एक नौ - दस वर्ष का बेटा था। दिन के समय वह स्कूल चला जाता और जोशी जी बैंक। वह घर में निपट अकेली होती। सोसाइटी की किसी औरत के साथ वह मेल-जोल रखती नहीं थी। इस लिए कोई महिला या लड़की उस के पास नहीं जाती थी।
लेकिन गुपचुप खिचड़ी पक रही है। इसे सोसाइटी के बहुत कम लोग जानते थे। पाटिल अपनी आदत के अनुसार दिन के समय घर आता। अकेला क्या करता ! वह जोशी के घर में जाता। उस समय जोशी की पत्नी घर में अकेली होती। और फिर महीना बीतते न बीतते उन के संबंधों की चर्चा कानाफूसियों में होने लगी। उन के ब्लॉक के तीसरे माले के अन्य पड़ोसी देखते कि जब वे दोनों एक ही घर में होते तो घर के दरवाजे बंद रहते। कुछ ने उन्हें आपत्तिजनक स्थिति में भी कई बार देख लिया था। लेकिन उन्हें जैसे किसी की परवाह नहीं थी। जब शाम को जोशी घर आता तब तक पाटिल अपने पार्ट टाइम काम पर निकल चुका होता।
इस बीच पाटिल की पत्नी बड़ौदा में कन्या को जन्म दे चुकी थी। पाटिल मुश्किल से पांच दिन उस के पास रह कर वापस अहमदाबाद कृष्ण गोकुल में लौट आया।
वापस आ कर वही काम, वही ताका- झांकी और वैसे ही चर्चे। जोशी इन सबसे अनभिज्ञ हो,यह असंभव था। हर कोई रस ले- ले कर इस का बखान करता ! परन्तु जोशी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। वह पहले की तरह ही अपने रोजमर्रा के काम करता। अपने छोकरे मित्रों से बातें करता, सरकार की नीतियों पर उन छोकरों के साथ बहस करता।
पर उस दिन जिस ने भी यह जाना, वह हैरान, चकित रह गया कि जोशी ने अपनी पत्नी और पाटिल को स्वयं कह कर माउंट आबू भेज दिया है। पांच दिन के लिए। जिस ने भी जाना, वह जोशी को हिजड़ा, फातड़ा आदि कह कर अपना गुस्सा और घृणा उतारने लगा। लेकिन जोशी तो किसी अलग ही मिट्टी का बना हुआ था। उस ने कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त नहीं की। कोई असर ही नहीं हुआ। जैसे सामान्य बात हो। पैसे का पुजारी था। और पैसे उसे पाटिल से मिल ही रहा था।
वे दोनों माउंट आबू से वापस आ गए। लेकिन किसी प्रकार की कोई हलचल ही नहीं हुई। सभी कुछ पूर्ववत चलता रहा। जैसे कुछ हुआ ही न हो। परन्तु सोसाइटी के लोगों को आपस में हंसने, मजाक करने का अच्छा विषय मिल गया था।
आठ महीने के पश्चात पाटिल की पत्नी बडौदा से वापस अपने घर आई। छः महीने की बेबी को गोद में उठाए। पर उस के आने से पाटिल के लिए व्यवधान खड़ा हो गया। जैसे किसी को ड्रग्स - अफीम की या शराब की लत लग जाती है,और वह किसी भी तरह से उस को पा कर दम लेता। कुछ ऐसा ही यत्न पाटिल अब जोशी की पत्नी से मिलने के लिए करने लगा था। पाटिल की पत्नी को जब इन सब की जानकारी हुई तो वह अपना माथा पीटने के अतिरिक्त क्या कर सकती थी ! वह वैसे ही दुबली , पतली सी थी। स्वभाव से भी डरपोक और दब्बू किस्म की औरत थी। अब तो वह अपने में ही घुट -घुट कर जैसे एक सूखी लकड़ी में बदलती जा रही थी। वह उन औरतों में से थी जो कुछ करने की बजाए केवल अपने में घुट कर, रो कर और अपने भाग्य को कोसती रहती हैं।
फिर जोशी की पत्नी का बेटा हुआ। सोसाइटी में फिर से चटखारे ले -ले कर चर्चाएं होने लगी। लोग सुनते और हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाते। मगर इतना ही काफी नहीं था। अभी बेटा एक साल का हुआ भी नहीं था कि जोशी की पत्नी ने एक और बेटे को जन्म दे दिया। लोग मजाक - मजाक में जोशी और पाटिल दोनों को बधाई देते। जोशी मग्न था। पाटिल लगन से उस की खीसे भर रहा था। लेकिन आखिर कब तक ?
और , अप्रैल की उस सुबह अभी लोग अपने बिस्तरों से उठे भी नहीं थे। जोशी की पत्नी पूरी सोसाइटी को अपनी गर्जना से हिलाए दे रही थी। जो औरत केवल अपने घर तक ही सीमित रहती थी, जिसे किसी के साथ बात करते, ऊंचा बोलते किसी ने भी नहीं देखा, सुना था, आज रणचंडी जैसी बनी पाटिल को लानत- मलामत भेज रही थी। पाटिल अपनी पत्नी के साथ कमरे में भीतर से दरवाजा बंद कर , भीगी बिल्ली बना सुन रहा था। मालूम हुआ, पाटिल अब पहले की तरह जोशी की पत्नी के साथ हंसता- बोलता नहीं है। उस को ज्यादा समय नहीं दे पाता है। अब उस की उपेक्षा भी करने लगा है। और तो और किसी दूसरी जगह अपने लिए एक नया फ्लेट बुक कर लिया है। जोशी की पत्नी इसी से भड़क उठी थी।
फिर एक सप्ताह तक लगातार जोशी की पत्नी का हर सुबह चीखना, चिल्लाना जारी रहा। लोग सुनते और पेट पकड़ कर हंसते।
अप्रैल महीने का वह दूसरा रविवार था। सोसाइटी के लोगों- जिस ने भी देखा और सुना ... सन्न रह गया। दिन के लगभग बारह बजे जब पाटिल को दो सिपाही, उस के दोनों हाथों में रस्सी की हथकड़ी लगा कर कॉमन प्लाट से पैदल चला कर पुलिस स्टेशन ले गए।
जोशी के करीब के लोगों से पता चला कि उस ने पाटिल को गिरफ्तार कर हाथकड़ी लगा , पैदल चला कर ले जाने के लिए पुलिस को पचास हजार रूपये दिए हैं। इलजाम लगाया था, बदकारी और चार सौ बीसी का। पुलिस ने पाटिल को दो दिन तक पुलिस चौकी में रखा और फिर छोड़ दिया था। लेकिन पाटिल खुद्दार निकला। वह फिर कभी वापस अपने फ्लेट में नहीं लौटा। ऐसे विरले लोग , ऐसी हाऊसिंग सोसाइटी ! ऐसा कृष्ण गोकुल !
परन्तु कृष्ण गोकुल के नेताओं की बात न करें तो उन क े साथ नाइंसाफी होगी। सोसाइटी के मेम्बर हर वर्ष कमेटी के कुछ सदस्य, नेता आदि चुनते हैं। लेकिन चुने वही जाते जो पहले से ही किसी न किसी पद पर होते। अपने- अपने गुट के। अपने -अपने मित्र ! और कभी - कभी अपने विरोधी को भी शामिल कर लेते हैं। ये नेता हर किसी को पाटना और पटाना जानते हैं। कोई राजनीतिज्ञ भी इन का क्या मुकाबला करेगा ! लोगों को बरगलाना और उन्हें आपस में लड़ा देना इन के बाएं हाथ का खेल है। स्वयं दूर से तमाशा देखते रहेंगे। उन की लड़ाई का आनंद लेते रहेंगे। सोसाइटी के कामों के लिए हजार रूपये खर्च करेंगे और दो हजार का बिल बनवा कर एक हजार खुद डकार जाएंगे।
यह हाऊसिंग सोसाइटी, कालोनी न हो कर मानो एक छोटा- मोटा कस्बा या शहर है। प्रतिदिन कुछ न कुछ देखने , सुनने को मिलता। फटले कपड़ों का डाक्टर क्रान्ति भंगी दारू पी कर हर पांचवे- छठे दिन अपने जवान बेटों को डंडे से पीटने लगता। उन्हें फ्लेट से बाहर खदेड़ देता। रात है या दिन, ये सब नहीं देखता। वैसे भी बूढा दिन भर ऊंची आवाज में बोलता ही रहता। छोटी- छोटी बातों पर ही लड़ने के लिए उतारू हो जाता। लेकिन सोसाइटी का कोई भी आदमी उस से सीधे मुंह बात नहीं करता। कोई उसे घास नहीं डालता।
कृष्ण गोकुल के नौजवान छोकरे, छोकरियों की बात न करें , यह भला आप को अच्छा लगेगा क्या ? भेंगी आंख वाला धोबी का बेटा भरत नया -नया कालेज में दाखिल हुआ। यह उन के खानदान का पहला चिराग है जो कॉलेज का मुंह देख रहा है।
भरत सुबह कॉलेज चला जाता। दोपहर को वापस आ कर सोसाइटी के लोगों के दिए कपड़ों पर इस्त्री करता रहता। शाम को कॉमन प्लाट में अन्य छोकरों के साथ क्रिकेट खेलता। या फिर स्कूटर ले कर बाहर निकल जाता। उस के परिवार के अन्य लोग कपड़े के मिलों में कपड़ों की धुलाई, सफाई , छंटाई के लिए चले जाते हैं। मिलों में उन की पक्की नौकरी है।
इधर कुछ दिनों से भरत के व्यवहार में कुछ अनोखापन नजर आने लगा था। उस की चाल - ढाल, पहनना - ओढ़ना भी बदल गया था। कभी ट्रेक सूट में होता, तो कभी टी शर्ट और हाफ पैंट में ! कहते हैं न कि जो बात पुरूष जल्दी नहीं पकड़ पाते, उसे औरतें तुरंत समझ लेती हैं। भरत वाले ब्लाक में तीसरे माले पर १२ नंबर के फ्लेट में नये किरायेदार आए थे। फ्लेट के मालिक ने एक कमरा अपने लिए बंद कर रखा था। एक कमरा और किचन, बाथरूम, संडास आदि अपने एक पहचान वाले को भाड़े पर दे दिया था। भाडे वाले का नाम भावसर था। उस का काफी बड़ा परिवार था। पति-पत्नी ,एक युवा लड़की और तीन नौजवान बेटे। पति और दो बड़े बेटे किसी कपड़े की मिल में काम करते थे। छोटा बेटा शायद स्कूल जाता था।
दिन के समय भावसर की पत्नी और बेटी घर में दो ही होती। श्रीमती भावसर तो खा पी कर काम आदि पता कर यानी खत्म कर उंघती -उंघती सो जाती। लेकिन युवा छोकरी क्या करे ! मां के सो जाने के पश्चात वह या तो हमउम्र छोकरियों से गप्पे लड़ाती रहती या बाल्कनी में खड़ी हो कर अंदर -बाहर देखती , झांकती।
देखने में वह सुंदर थी। लंबी और आकर्षक देहयष्टि। आते -जाते कोई लड़का या छोकरा उसे देखता तो वह अपनी उभरी छाती को और उभारने की कोशिश करती। कूल्हे मटका कर चलती। वह सत्रह- अठारह वर्ष से अधिक की नहीं लगती थी। चेहरा उस का बहुत मासूम दिखता था। जैसे जापानी गुड़िया हो।
और शायद भरत उस की इसी मासूमियत पर ही मर मिटा था। दोपहर के समय जब सभी अपने घरों के अंदर होते, ये दोनों तब मिलते। वह भरत के पास उस के घर में घंटों जा कर बैठती। जाने क्या -क्या करते। रूठना, मनाना, इजहार- इकरार ! साथ- साथ, जीने -मरने की कसमें खाते। एक दूसरे पर लट्टू होते। उन के हाव -भाव ही बदल गए थे। अपने मुकाबले दुनिया उन को बौनी लगती थी।
वो क्या कहते है न कि खांसी- खुशी , इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते। सोसाइटी में उन के प्यार की चर्चे धीरे -धीरे फैलने लगी थी। पर, सीमित रूप में ही। लड़की के परिवार वालों को भी इस की जानकारी हुई। लड़की जात ! वे भला चुपचाप कैसे देखते रहते !
पहले तो उन्होंने अपनी लड़की को ही समझाया। अनेक ढंग से। उसे डराया भी। मगर जैसे बिल्ली को दूध पीने की आदत हो जाए तो दूध को कितना भी छिपा, ढक कर रखें , बिल्ली चोरी -छिपे दूध तक पहुंच ही जाती है। दूध पी ही लेती है। कुछ ऐसी ही हालत लड़की की थी। अल्हड उम्र। ... और उस के सिर से इश्क का भूत भागता ही नहीं था। यद्यपि सूरत में किसी लड़के से उस की पहले ही मंगनी हो चुकी थी। एक दिन उस के दोनों भाइयों ने भरत को अकेले में कहीं समझाया। समझाया कम। धमकाया , डराया अधिक ! भरत पर इस का कुछ अधिक ही असर हुआ था शायद।
दूसरे दिन सुबह कॉलेज जाते समय वह नजरें जमीन पर गड़ाए- गड़ाए ही चला गया। तीसरे माले पर खड़ी न लड़की की ओर देखा ही और ना ही मुस्कराया। चुपचाप सिर झुकाए निकल गया। लेकिन लड़की उस की इस बेरूखी को सह न पाई !
सुबह लगभग साढे दस बजे सोसाइटी के सब लोग अपने- अपने काम पर जा चुके थे। या जाने की तैयारी में थे कि पूरी सोसाइटी का कलेजा कांप गया ! लड़की तीसरे माले पर अपने फ्लेट की बाल्कनी की बांऊडरी पर चढ़ , नीचे कूद गई थी। किसी बड़े बंडल की तरह लुढ़कती हुई ! क्षण भर में नीचे पक्की जमीन पर पीठ के बल पड़ गई। कूल्हे की , टांग की और रीढ़ की सभी हड्डियां किसी पतली, सूखी लकड़ी की तरह तड़ -तड़ कर चटखती हुई टूट गई थी। जो जहां था, वहीं से दौड़ा। फिर टेलीफोन, ऑटोरिक्शा, भाग-दौड़, रूपये -पैसे, अस्पताल , डॉक्टर ! जोड़-तोड़, खून, ग्लूकोज ...!
... और भरत घर से फरार हो गया। लड़की पर आत्म हत्या का केस न बने ... ! उसे उकसाने का दोष न लगे। इस डर से।
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परिचय
- शेर सिंह
जमः हिमाचल प्रदेश।
आयु ः ५४ वर्ष।
शिक्षा ः एम.ए.(हिदी) पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़।
संप्रति ः एक राष्ट्रीयकृत बैंक में नौकरी।
साहित्यिक अभिरूचि ः देश के विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कहानी , लघुकथा, कविता
एवं आलेख। कई कहानी एवं काव्य संकलनों में रचनााएं शामिल।
कुछ ई - पत्रिकाओं में भी रचनाएं।
पुरस्कार ः राष्ट्र भारती अवॉर्ड सहित कई पुरस्कार, सम्मान।
अनेक वर्ष अध्यापन, अनवादक के पदों पर कार्य करने के पश्चात गत २५ वर्षों से सिडिकेट बैंक में प्रबंधक (राजभाषा)। अब तक हिमाचल प्रदेश (कुल्लू ,कांगडा) चण्डीगढ़, उडुपि (कर्नाटक), भुवनेश्वर, अहमदाबाद, भोपाल, लखनाऊ , हैदराबाद में कार्य और जून - २००८ से नागपुर में पदस्थ। लगभग संपूर्ण भारत को देखने , जानने का अवसर।
संपर्क
अनिकेत अपार्टमेंट
प्लॉट २२, गिट्टीखदान लेआउट
प्रताप नगर, नागपुर - 440 022.
E-Mail- shersingh52@gmail.com
bahut khoobsoorat aur yathartik kahaanii
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