---------------------------------- (प्रविष्टि क्रमांक - 6) कलयुग में लगने वाली कलयुगी कक्षायें। कभी पढ़ने वाले नदारद तो कभी पढ़ाने वाले ...
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(प्रविष्टि क्रमांक - 6)
कलयुग में लगने वाली कलयुगी कक्षायें। कभी पढ़ने वाले नदारद तो कभी पढ़ाने वाले पर आज कक्षा में कुछ छात्र-छात्रायें मौजूद हैं जो अपने प्रोफेसर साहब का इंतजार कर रहे हैं। आज साहब गायब हैं। इन सबके पीछे भी कोई न कोई कारण काम कर रहा है। कार्य के पीछे कारण का सिद्धान्त यहाँ बेहतरीन तरीके से काम करता है। छात्र इसलिए उपस्थित हैं क्योंकि छात्रायें उपस्थित हैं और छात्रायें इस कारण उपस्थित हैं कि कालेज के बहाने से घर के काम से बचा जा सके। जहाँ तक प्रोफेसर साहब के गायब होने का कारण है तो वह है घर पर चलता दूसरा ‘मिनी कालेज’ यानि कि ट्यूशन। फिलहाल यह तो सभी के होने न होने का कारण रहा, अब जरा होने वालों की स्थिति और कक्षा के दृश्य का अवलोकन भी तो कर लें।
जहाँ-तहाँ धुँए के गोले उड़ रहे हैं। दीवारों पर ‘पिच्च संस्कृति’ की अमिट छाप मौजूद है। छात्रायें फिल्मी अन्त्याक्षरी में व्यस्त हैं। कापी-किताबें मेज पर हैं पर दिमाग में सलमान, आमिर घूम रहे हैं। छात्रों का समूह भी अपने स्तर के क्रियाकलापों में मगन है। कुछ छात्र क्रिकेट मैच पर ‘डिस्कस’ कर रहे हैं तो कुछ नेता टाइप छात्र राजनीति की उठापटक करने में लगे हैं। इसी उठापटक के बीच लगभग हड़बड़ाते हुए प्रवेश होता है एक महान शख्सियत का; छात्र-छात्राओं के प्रोफेसर साहब का।
‘गेट’ से अन्दर आते ही ‘सर’ ने बड़े जोर से खकार कर गले को साफ किया (इसके पीछे भी कारण, छात्र-छात्राओं को इस बात का संकेत कि हम पधार चुके हैं) और दीवार के कोने का सदुपयोग करते हुए ‘कालेज आपका है इसे स्वच्छ रखें’ की परम्परा का निर्वाह किया। पान से सने होंठ, दाँत सफेद से लाल और लाल से काले होते हुए। चित्रकारी का एक नमूना शर्ट पर भी अंकित है। आँखों पर चढ़े चश्मे को हाथ में लेकर रूमाल से साफ करते हुए एक सरसरी निगाह ‘क्लास’ पर डाली। ‘पिच्च प्रक्रिया’ को पुनः दोहराते हुए अपने मुख को खोल चश्में के पीछे से झाँकते हुए प्रश्न फेंका-‘‘हाँ, तो मैं कल कहाँ पढ़ा रहा था?’’
‘‘कल आप यहीं पढ़ा रहे थे।’’ पीछे से किसी छात्र की आवाज ने पूरी कक्षा में हँसी की गूँज फैलवा दी।
‘‘खामोश...।’’ एक हल्की सी, बहुत ही हल्की सी आवाज प्रोफेसर साहब के मुख से निकली जो शायद पहली पंक्ति के छात्र-छात्राओं ने भी न सुन पाई होगी।
तब तक अपने मुँह में भर आई पीक से थोड़ी बहुत सफेद बची दीवार पर ‘माडर्न आर्ट’ बना कर प्रोफेसर साहब छात्र-छात्राओं की ओर पलटे तो देखा कि एक छात्र भी बाकायदा दीवार पर चित्रकारी कर रहा है।
‘‘खड़े हो जाओ महेश, क्लास में गुटका खाना अच्छी बात नहीं है, चलो थूक कर आओ।’’ प्रोफेसर साहब का अंदाज कुछ डाँटने जैसा समझ में आया।
‘‘पर साहब, हम तो पान खा रहे हैं।’’ महेश का ढ़िठाई भरा जवाब सुनकर सारी कक्षा में हँसी फिर तैर गई।
‘‘ठीक है, ठीक है, पर क्लास में पान खाना भी ठीक नहीं, समझे।’’ अबकी लगा जैसे समझाया जा रहा हो।
‘‘लेकिन साहब आप भी तो....।’’ आगे के शब्दों को मुँह की बजाय आखों से कहा गया।
प्रोफेसर साहब अपनी बात का असर न होता देख थोड़ा गुस्से में आये-‘‘तुम.....महेश तुम मेरी बराबरी करोगे? अरे मैं तुम्हारा प्रोफेसर हूँ, तुम लोगों को शिक्षा देता हूँ। बड़ों से जुबान चलाते तुम्हें शर्म नहीं आती?’’
‘‘शरम काहे की साहब, हम भी तो आपके ही चेले हैं। आप के ही पदचिन्हों पर चल रहे हैं।’’ लगभग छकाने के अंदाज में बात कहकर महेश ने बगल वाले दोस्त की ओर देख कर बाँयी आँख दबा दी।
गुस्से में प्रोफेसर साहब ने बाहर आकर अपना पान थूका तो देखादेखी महेश ने भी पान थूक दिया और आकर अपनी सीट पर जा बैठा। प्रोफेसर साहब घड़ी देखकर बोले-‘‘अभी भी बीस मिनट बाकी हैं, तुम लोग सारा समय बर्बाद कर देते हो। पढ़ना-लिखना तो है नहीं बस चौबीसों घंटे खीं-खीं करते रहते हो।’’
जैसे-तैसे प्रोफेसर साहब पढ़ाने के मूड में आये तभी एक छात्रा ने खड़े होकर पूछा-‘‘सर, इस बार परीक्षायें कब होंगी?’’
प्रोफेसर साहब ने कड़ी ही कोमलता से जवाब दिया-‘‘देखो, अभी कोई सूचना नहीं है, सम्भवतः मार्च अन्त में या अप्रैल के शुरू में हों?’’
‘‘लेकिन सर अभी तो हम लोगों के नोट्स भी नहीं बन पाये हैं। दो महीने बाद पेपर हैं। क्या परीक्षायें आगे नहीं बढ़ सकतीं हैं?’’ एक और छात्रा का परेशानी भरा स्वर उभरा।
‘‘देखो कुछ कहा नहीं जा सकता है।’’ साहब का जवाब देने का अंदाज बड़ा ही मायूसी भरा था, मानों इन्हें भी कष्ट हो रहा हो। अभी साहब और कुछ भी कह पाते उससे पहले एक और छात्र ने सवाल दागा-‘‘साहब, नकल अध्यादेश के हट जाने से इस बार नकल हो सकेगी? पिछली बार तो बड़ी कड़ाई थी।’’
‘‘चुपचाप बैठकर पढ़ाई करो और फालतू बातें बन्द करो। नकल करते पकड़े गये तो पूरी साल बर्बाद हो जायेगी।’’
‘‘अरे साहब, जब पिछली बार नकल अध्यादेश होने के बाद भी आपके कारण से बच गये थे अब इस बार तो अध्यादेश भी नहीं है।’’ एक आवाज उभरी।
‘‘नहीं, इस बार तो पिछले साल से ज्यादा सख्ती रहेगी। नकल कानून तो किसी न किसी रूप में लागू है, मैं कोई मदद....।’’ प्रोफेसर साहब की बात को बीच में काटते हुए एक स्वर गूँजा-‘‘सर, ट्यूशन विरोधी कानून भी लागू है।’’
प्रोफेसर साहब खिसियानी सी हँसी अपने चेहरे पर लाकर बोले-‘‘अच्छा पढ़ो, परीक्षाओं की बातें परीक्षाओं के समय। अभी अपने विषय पर ध्यान दो। आज आपको बतायेंगे समाज में फैलती अव्यवस्था के जिम्मेवार घटकों के बारे में। तो समाज में.........।’’
टन...टन....टन....पीरियड समाप्त होने की घंटी ने प्रोफेसर साहब को शान्त होने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने उस विषय पर घर से पढ़कर आने को कहा तो फिर आवाज गूँजी-‘‘इस विषय का जवाब है ‘फिल्में’ तो कल सब लोग फिल्मों के बारे में चर्चा करेंगे।’’
छात्र-छात्रायें समवेत हँसी के साथ कक्षा से बाहर निकल लिये और प्रोफेसर साहब अपने आपको पुनः ‘पिच्च प्रक्रिया’ के लिए तैयार करने लगे।
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
9793973686
e-mail : dr.kumarendra@gmail.com, shabdkar@gmail.com
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शिक्षा व्यवस्था की असलियत पर अच्छा व्यंग्य .
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