वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में राष्‍ट्रीय एकता एवं सामाजिक न्‍याय के लिए बौद्धधम्‍म की सार्थकता

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वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य की बात करें तो आज भारतीय समाज के सामने राष्‍ट्रीय एकता को बनाए रखना और समाज के सभी नागरिकों को सामाजिक न्‍याय उपलब्‍...

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वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य की बात करें तो आज भारतीय समाज के सामने राष्‍ट्रीय एकता को बनाए रखना और समाज के सभी नागरिकों को सामाजिक न्‍याय उपलब्‍ध कराना किसी चुनौती से कम नहीं है। बौद्ध धम्‍म के माध्‍यम से किस प्रकार हम अपने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त कर सकते हैं अथवा बौद्ध धम्‍म हमें अपने इस परम उद्‌देश्‍य को उपलब्‍ध कराने में कहां तक सार्थक है, यह आज का ज्‍वलंत प्रश्‍न बना हुआ है।

समसामयिक परिवेश की बात करे तो स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के 61 वर्षों के बाद भी हम राष्‍ट्र को एकता के धागे में नहीं पिरो पाये हैं क्‍योंकि मात्र स्‍वतंत्र होने से देश मजबूत एवं राष्‍ट्रीय एकता नहीं आती बल्‍कि राष्‍ट्रीय एकता के लिए बंधुत्‍व और दुःख-दर्द में सहभागी होने की आवश्‍यकता होती है। यही नहीं हमें राष्‍ट्रीय एकता एवं सामाजिक बंधुत्‍व में आने वाली रुकावटों को समाप्‍त करना होगा। इसके साथ ही सामाजिक न्‍याय के अर्थ, स्‍वरूप और उसके निहितार्थों को गहराई से समझना होगा। आज हमें सामाजिक न्‍याय के विचार को व्‍यावहारिक रूप देने की आवश्‍यकता है। उसे वोट की राजनीति से अलग रखना होगा। वास्‍तव में देखा जाए तो राष्‍ट्रीय एकता और सामाजिक न्‍याय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। राष्‍ट्रीय एकता बनाए रखने के लिए सामाजिक न्‍याय के लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने की आवश्‍यकता है। एक ओर जहां आज देशभक्‍ति और राष्‍ट्रप्रेम की आवश्‍यकता है वहीं सामाजिक न्‍याय की आवश्‍यकता है। जब तक कमजोर वर्ग, पिछड़े और निर्धन लोग भारतीय समाज में रहेंगे और जब तक उनके साथ सामाजिक न्‍याय नहीं होगा, तब तक देशभक्‍ति और राष्‍ट्रवाद की भावनाएं सुदृढ़ नहीं होंगी और हमारा राष्‍ट्रीय एकता एक स्‍वप्‍न अधूरा ही रहेगा। आज तब विश्‍व भर में विघटनकारी प्रवृत्‍तियां किसी न किसी बहाने उभर रही हैं, वैश्‍विक परिप्रेक्ष्‍य में चारों ओर आतंकवाद फैल रहा है, तब फिर हमारा देश इस बदलाव को अनदेखा नहीं कर सकता। जहाँ एक ओर देशभक्‍ति की भावना हमें अपने राष्‍ट्र से जोड़ती है वहीं राष्‍ट्रवाद हमें बन्‍धुत्‍व की भावना में बांधता है। बंधुत्‍व हमें सभी नागरिकों के साथ न्‍याय हो ऐसे दृष्‍टिकोण की ओर ले जाता है। बंधुत्‍व हमें सच्‍चा देशभक्‍त और सुदृढ़ राष्‍ट्रवादी बनाता है। सभी नागरिक भाई-भाई हैं, यह तथ्‍य तथा सम्‍बन्‍ध सामाजिक न्‍याय का मूल है। सामाजिक न्‍याय उन सभी तत्‍वों का निष्‍ोध करता है जो परम्‍परागत रूप में जन्‍माधारित प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त किये हुए हैं। सामाजिक न्‍याय की धारणा और व्‍यवहार समस्‍त भारतीय राष्‍ट्र को एक नये दृष्‍टिकोण से देखता है। उसमें क्रान्‍तिकारी परिवर्तनों की मंशा अन्‍तर्निहित है। बौद्ध धम्‍म का अभ्युदय समाज के क्रान्‍तिकारी परिवर्तनों के उद्‌देश्‍य से ही हुआ। यद्यपि सामाजिक न्‍याय विशुद्ध रूप से धर्माधारित विषय नहीं है परंतु उसे गैर धार्मिक भी नहीं कहा जा सकता। सामाजिक न्‍याय के उद्‌देश्‍य को प्राप्‍त करने में धर्म का बहुत बड़ा हाथ है और बौद्ध धम्‍म इसे उपलब्‍ध कराने में पूरी तरह सार्थक है। सामाजिक न्‍याय की धारणा सापेक्ष है उसका सम्‍बन्‍ध मानव-समाज विश्‍ोषकर निर्बल, निर्धन उपेक्षित तथा पददलित, पीड़ित और शोषित, असहाय लोगों से है। इन्‍हीं से सामाजिक न्‍याय को जोड़ना, उसे व्‍यवहार में प्रभावी बनाना कहीं अधिक सार्थक होगा। वास्‍तव में सामाजिक न्‍याय वह न्‍याय है जो मानव समाज से सम्‍बन्‍धित ऐसे आदर्शों को निर्धारित करता है जिनके अनुपालन में व्‍यक्‍ति, परिवार, समाज एवं राज्‍य का अस्‍तित्‍व बना रहता है और उसके द्वारा अभावग्रस्‍त लोगों के हितों की समुचित संरक्षा करके मानव जीवन खुशहाल बने और हम आदमी अपनी-अपनी क्षमता एवं योग्‍यता के आधार पर राष्‍ट्र की सत्‍ता एवं सम्‍पत्‍ति में भागीदार बनकर सामाजिक प्रतिष्‍ठा ग्रहण करने का अवसर प्राप्‍त करें अतीत की बात करें तो प्राचीन भारत की वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था एवं जातिवाद ने सामाजिक न्‍याय को सर्वाधिक चोट पहुंचाई जिससे राष्‍ट्रीय एकता प्रभावित हुई और देश गुलाम बना। तथागत बुद्ध के धम्‍म आन्‍दोलन ने मानव प्राणियों को वर्णों में विभाजित करने का कोई औचित्‍य नहीं माना क्‍योंकि मानव स्‍वरूप विलक्षण होता है। उसे निश्‍चित वर्ग में बांधा नहीं जा सकता। सामाजिक न्‍याय के लिए किसी दिव्‍य शासन को उन्‍होंने स्‍वीकार नहीं किया और न ही न्‍याय को ईश्‍वरीय व्‍यवस्‍था तथा पूर्व जीवन के कर्मों से जोड़ा। उन्‍होंने सामाजिक न्‍याय की प्रक्रिया में व्‍यक्‍ति की भूमिका को ही निर्णायक बताया। बौद्ध जीवन पद्धति में सामाजिक न्‍याय का सिद्धान्‍त शुद्धतः मानववादी एवं लौकिक है। बौद्ध दृष्‍टिकोण सामाजिक न्‍याय को सदाचरण से जोड़ता है। व्‍यक्‍तियों के निर्मल मन और सदाचरण समाज को शान्‍तिप्रिय एवं न्‍याय संगत व्‍यवस्‍था स्‍थापित करने में समर्थ होगा। समाज में वर्ग विभाजन के बिना पारम्‍परिक कर्तव्‍यों का निर्वाह सम्‍भव है। न्‍याय संगत समाज में भिक्षु एवं उपासक अपने-अपने दायित्‍यों को भलीभाँति समझकर, उसको निभाते हैं। समाज में बौद्ध भिक्षु और उपासक अथवा सामान्‍य नागरिक ही प्रमुख होते हैं। उपासक भिक्षुओं का अपने कार्य, वाणी तथा विचार से आदर करते हैं, उनका स्‍वागत करते हुए उन्‍हें भौतिक आवश्‍यकताओं की सम्‍पूर्ति कराते हैं ताकि वे अपना समय नैतिक धार्मिक चिन्‍तन-मनन, शिक्षा-दीक्षा एवं राष्‍ट्रहित में लगा सकें। इसके बदले में बौद्ध भिक्षु उपासकों अर्थात्‌ साधारण नागरिकों के प्रति स्‍नेह प्रकट करते हुए उन्‍हें सभी प्रकार की बुराइयों से दूर रहने की सलाह देते हैं। भिक्षु उन्‍हें समझाते हैं कि शुभ, न्‍यायसंगत और सम्‍मानजनक जीवन क्‍या है? उनको ज्ञान और संचारण का मार्ग बतलाते हैं। भिक्षु विविध प्रकार के शीलों के लाभों से उन्‍हें अवगत कराते हैं, उनके सन्‍देह को दूर रहने की सलाह देते हैं, भिक्षु उन्‍हें समझाते हैं कि शुभ, न्‍यायसंगत और सम्‍मानजनक जीवन क्‍या है? उनको ज्ञान और सदाचरण का मार्ग बतलाते हैं। भिक्षु विविध प्रकार के शीलों के लाभों से उन्‍हें अवगत कराते हैं, उनके सन्‍देह को दूर उनकी कठिनाइयों का निवारण करते हैं एवं मार्ग दर्शन करते हैं। बौद्ध दृष्‍टि के अनुसार यदि उपासक (नागरिक) पंचशील-प्राणी हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना, व्‍यभिचार न करना और शराब आदि नशा न करना अनुसरण करे तो सामाजिक न्‍याय के आदर्श को व्‍यवहारिक रूप आसानी से मिल सकता है। एक ओर भिक्षु अनेक प्रकार के शीलों का जीवन जीते हैं तो दूसरी ओर उपासक (साधारण नागरिक) भी निश्‍चित शीलों का पालन करने के लिए प्रेरित किये जाते हैं ताकि समाज की सम्‍पूर्ण व्‍यवस्‍था शीलों के व्‍यवहारों से ओत-प्रोत हो। प्रत्‍येक शील का व्‍यवहार वैयक्‍तिक है पर उसमें सामाजिक सम्‍मान और न्‍याय की भावना अन्‍तर्निहित है। शील ही समाज को धारण करने वाला तत्‍व है। उनका अनुसरण स्‍त्री-पुरुष दोनों द्वारा समाज के लिए कल्‍याणकारी होता है। बौद्ध धर्म का सामाजिक न्‍याय का सिद्धान्‍त व्‍यापक रूप में शीलों के व्‍यवहार से जुड़ा है। राज्‍य की जनतांत्रिक व्‍यवस्‍था इन शीलों के निष्‍पादन में बहुत सहायक होती है। शीलों का जीवन मध्‍यम मार्ग पर आधारित है। शांत और न्‍यायप्रिय जीवन मध्‍यम मार्ग में निहित है। अतियों का जीवन दुःखदायी एवं पीड़ाजनक होता है। बौद्ध सामाजिक जीवन किसी दिव्‍य शासन अथवा कठोर नियमों से मुक्‍त है। मनुष्‍य का अपना आचरण ही कुशल अथवा अकुशल, अच्‍छी या बुरी व्‍यवस्‍था के उत्‍तरदायी है। कुशल व्‍यवस्‍था के मूल तत्‍व मध्‍यम मार्ग, अहिंसा, चोरी न करना, सत्‍यवाणी, व्‍यभिचार मुक्‍त, नशामुक्‍त परस्‍पर आदरभाव, सहयोग, सद्‌भाव, करुणा, मैत्री, शुद्धमन और दया आदि है। इसके विपरीत आचरण अकुशल व्‍यवस्‍था का ही पोषक है। संक्षेप में बौद्ध सामाजिक न्‍याय की धारणा में सदाचरण की निर्णायक भूमिका है जिसका किसी विधि संगत शासन से कोई विरोध नहीं है। यह धारणा नैतिकता और मानव मैत्री से ओत-प्रोत है। इसका अति प्राकृतिक शक्‍तियों से कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। पूज्‍य बाबा साहेब के शब्‍दों में, ‘‘बुद्ध का तरीका मनुष्‍य के मन को परिवर्तित करना, उसकी प्रवृत्ति व स्‍वभाव को परिवर्तित करना था ताकि मनुष्‍य जो भी करे, वह उसे स्‍वेच्‍छा से बल प्रयोग या बाध्‍यता के बिना करे। मनुष्‍य की चित्‍तवृत्‍ति व स्‍वभाव को परिवर्तित करने का उनका मुख्‍य साधन उनका धम्‍म था तथा धम्‍म के विषय में उनके सतत्‌ उपदेश थे। बुद्ध का तरीका लोगों को उस कार्य को करने के लिए जिसे वे पसंद नहीं करते थे, बाध्‍य करना नहीं था, चाहे वह उनके लिए अच्‍छा ही हो। उनकी पद्धति मनुष्‍यों की चित्तवृत्ति व स्‍वभाव को बदलने की भी, ताकि वे उस कार्य को स्‍वेच्‍छा से करें जिसको वे अन्‍यथा न करते।''

उपरोक्‍त विश्‍लेषण से स्‍पष्‍ट है कि सामाजिक न्‍याय को प्राप्‍त करना भगवान बुद्ध के मध्‍यममार्गीय बौद्ध धम्‍म से ही सम्‍भव है जहां मानव को स्‍वेच्‍छा से न्‍यायवादी प्रकृति की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। सामाजिक न्‍याय ही राष्‍ट्रीय एकता की ओर नागरिकों को अग्रसर करता है क्‍योंकि जहां सामाजिक न्‍याय नहीं होता वहां व्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, चिंतन और अभिव्‍यक्‍ति का नितांत अभाव होने लगता है, समाज अन्‍दर से टूट जाता है, सरकार दमनकारी बन जाती है और अन्‍य संस्‍थायें संकीर्णता में परिणत हो जाती हैं। इन सबसे राष्‍ट्रीय एकता प्रभावित होती है। अतः इससे बचने के लिए सामाजिक न्‍याय के लक्ष्‍य को प्राप्‍त करना आवश्‍यक है और इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में बौद्ध धम्‍म पूरी तरह सक्षम एवं सार्थक है। इसलिए आज राष्‍ट्रीय एकता एवं सामाजिक न्‍याय के लिए बौद्ध धर्म की सार्थकता परम आवश्‍यक हो गई है।

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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सम्‍पर्क -वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग

डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र.

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रचनाकार: वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में राष्‍ट्रीय एकता एवं सामाजिक न्‍याय के लिए बौद्धधम्‍म की सार्थकता
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में राष्‍ट्रीय एकता एवं सामाजिक न्‍याय के लिए बौद्धधम्‍म की सार्थकता
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