रिपोर्ट से पता चला, मेरे दोनों फेलोपिन ट्यूब खराब हैं! दिल को एक धक्का-सा लगा। आंखों में आंसू उभर आए। पति ने दिलासा दिया, 'कोई बात ...
रिपोर्ट से पता चला, मेरे दोनों फेलोपिन ट्यूब खराब हैं! दिल को एक धक्का-सा लगा। आंखों में आंसू उभर आए।
पति ने दिलासा दिया, 'कोई बात नहीं... हम कोई बच्चा एडॉप्ट कर लेंगे।'
मुझे उन पर दया आने लगी। पिछले दो साल से वे बहुत प्रयासरत् थे। पर मैं नज़रें नहीं मिला सकी। जैसे- आप सचमुच अयोग्य, अक्षम घोषित कर दिए गए हों तो फिर...।
घर आकर उन्होंने रिपोर्ट अपने जरूरी कागजों की फाइल में छुपा कर रख दी। वे एकदम फिट थे, मुझे बच्चा नहीं हो सकता कैसे-भी; यह जानकर उनकी बच्चा पाने की चाहत और भी बढ़ गई होगी, यह मैं जानती थी। ...मगर मेरे हाथ की पतंग तो जैसे कट चुकी थी!
तात्कालिक औपचारिकता के बाद हमारे बीच एक ठहराव आने लगा। बिस्तर के बीचोंबीच जैसे, दीवार-सी बनने लगी। दैहिक उत्तेजना उस बैटरी की तरह डिस्चार्ज होती गई जिसकी प्लेटें गल चुकी हों।... वहां सिर्फ मुर्दा स्पर्श, मुर्दा सांसें भर रह गईं। मानो मन की गुदगुदाहट नदी के जल की तरह सूख गई और खोखली हंसी, खोखले संवादों का रेत भर रह गया। सृष्टि में नाकारा रहे अवशेष तत्वों की तरह करवट बदलते-बदलते भोर हो जाती। अपने होने का कोई अर्थ रह गया नहीं लगता।... खुले दिमागों वाले दोस्त भी यही सलाह देते कि हम कोई बच्चा गोद ले लें। मगर घर वालों की मंशा दूसरी शादी की होती।... मुझसे छुप-छुपकर योजनाएं बनतीं, अचानक पहुंच जाती तो चुप्पी छा जाती! अपमानित और भार-सी उठकर चली आती। सोचती, लगातार सोचती कि यह कैसी अनहोनी हो गई जो मैं अप्रासंगिक और लगभग विकलांग सिद्ध हो गई।... हृदय हमेशा शोक-समुद्र में डूबा रहने लगा। छह-सात महीने बिस्तर में पड़े-पड़े सारी ठसक मिट गई मेरी। साड़ियां और दूसरे लिबास धूल से अँट गए। गहनों में ज़ंग लग गई।... आहत् होते-होते एक दिन पीहर लौट आई और फिर यहीं रहने लगी। बड़ी धूमधाम से करुणा दुबे से मिश्र हुई थी, फिर करुणा दुबे रह गई- गहरे अवसाद और विराट खामोशी से भरी हुई।
इस दुर्घटना से मम्मी-पापा, भाई-भाभी इत्यादि भी खिन्न रहने लगे। चिंतित भी। मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। विषाद और अतीत से मुक्ति का उपाय सिर्फ काम हो सकता था। मैंने एक-दो ठौ एप्लाई किया था पर कोई एप्रोच नहीं थी। फिर पापा एक दिन पूर्व मिनिस्टर के यहां ले गए। पता चला- दो-ढाई घंटे तक पूजा से निबटेंगे, फिर राजधानी के लिए निकलेंगे। आज शायद ही मिलाई करें। कोठी में तमाम लोग भरे थे। लॉन भी खाली नहीं। इतने सवेरे इतने-इतने लोग आ जाते हैं, क्यों आ जाते हैं! और यह सोचते ही मुझे खुद पर भी दया आने लगी। पापा के पूर्व परिचित थे वे इसलिये चली आई थी, वरना मेरा तो न यकीन था न स्वाभिमान स्वीकार कर रहा था।... मगर धैर्य टूटने से पहले हमें बुला लिया गया। पूजा कक्ष में ही बुला लिया गया। जाते हुए पापा उत्साह में फुसफुसाये, 'ब्राह्मणों का मान समझो इसे। अब सिर्फ क्षत्रियों में ही यह क़ायदा बचा है।...'
मैं कुछ नहीं बोली।
पूजा कक्ष के नाम पर हमें ड्राइंगरूम में बिठाया गया। दो मिनट बाद वे घरेलू लिबास में वहीं प्रकट हुए। पापा ने उठकर हाथ जोड़े तो उन्होंने राम की तरह बांहों में भर लिया। कृतज्ञ पापा ने गद्गद् कंठ से कहा, 'मेरी बेटी है।...'
'अच्छा!'
'एग्रीकल्चर में एप्लाई किया है... पहले आपके पास था।'
'हां!' वे थोड़े चिंतित दिखे, फिर मुस्कराने लगे, 'देखो, भविष्य में फिर आ जाए... पहले नहीं कहा। अगली बार कहीं न कहीं देख लेंगे। आप भी लग जाइये... इस बार सांप्रदायिक शक्तियों को नेस्तनाबूद कर देना है, बस!'
वहीं मेरे मन में एक तीखा प्रश्न उठा, सो थोड़े साहस के साथ पूछ लिया मैंने, 'अंकलजी! आप इतनी-इतनी देर पूजा करते हैं, और!'
'अरे-नहीं!' वे हंसने लगे, फिर पापा की ओर उन्मुख हो फुसफुसाए, 'अस्ल में मुझे पाइल्स की प्रॉब्लम है। टॉयलेट में ज्यादा वक़्त लग जाता है और लोग हैं कि सुबह से... फिर पूजा के नाम से कुछ तो हवा बनती है फेवर में।'
पापा मुस्कराने लगे। और मैं पता नहीं क्या सोचने लगी कि- अचानक उन्होंने फिर चौंकाया,
‘तुम तो एक्टिविस्ट रही हो... आजकल क्या चल रहा है?'
'बैठी हूं!' मैंने गला साफ करते हुए कहा।
'बैठने से तो... नई सिलाई मशीन भी रख देने से भारी चलने लगती है। पढ़ी-लिखी हो, पार्टी ज्वाइन करो-न! अगर कम्यूनल लोगों के खिलाफ सेक्यूलर फोर्सेस का मोर्चा बने तो देश बच सके, शायद!'
मुझे रोमांच हो आया।
और विषाद् और अतीत से मुक्ति का जो उपाय था, मैंने खोज लिया। उनकी पार्टी की महिला शाखा ज्वाइन कर ली। पापा की आशा पक्की हो गई कि चुनाव के बाद सफल होने पर वेे मुझे कहीं न कहीं चिपका देंगे! एक तरह से हम लोगों ने गहरी गंगा में ‘जौ' बो लिये थे इस बार। पार्टी के लिये मैं खासी तेज-तर्रार और सक्रिय कार्यकर्ता साबित हो रही थी। चुनाव नजदीक आए तो सोम से नजदीकियां बढ़ने लगीं। वह उन्हीं निवर्तमान विधायक और पुनः पार्टी प्रत्याशी श्री पुरवंशी जी का इकलौता पुत्र। मैं अक्सर उसी की गाड़ी में प्रचार के लिये जाती। मंच से भाषण देती। पोस्टर, पर्चे, बैनर हर काम में हाथ बंटाती। काम में खुद को इसकदर डुबो देना चाहती थी कि पिछला कोई निशान न रहे।
इस बीच एक बार सास-ननद दोनों याचक की तरह आईं और वापसी का झूठा निहोरा करने लगीं।
पापा सचमुच बेपेंदी के लोटे, फौरन राजी हो गए। भाभी ताकत लगाने लगीं। भाई गुड़ भरे हँसिया। सिर्फ मां का दिल रोया। जैसे, स्त्री आनुवांशिकता में ही सौत के त्रास की पीड़ा घुली हो!
मैंने इन्कार कर दिया। कह दिया पापा के मुंह पर कि आप नहीं रखेंगे तो किराये के घर में रहूंगी, अब नहीं जाऊंगी।...'
भीतर विद्रोह का लावा पिघल रहा था। पहले जबरन भेज दिया था। किसी से प्रेम नहीं करती थी, तब भी कम से कम अजनबीयत में नहीं जाना चाहती थी। लेकिन भाई की शादी हो जाने के कारण सबको मेरे हाथ पीले करने की पड़ रही थी। जैसे, बोझ थी। जैसे, लाश! जिसे अब घर में रखा नहीं जा सकता!
दो घंटे बाद अकेले में सास ने सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटा! तुम समझदार हो... यहां रहो या वहां! हो तो उसी घर की, वो घर तुम्हारा ही रहेगा। तुम्हें झोली पसार कर लिया था। तुम्हीं तो इकलौती थीं, तुम्हीं से वंश चलना था...'
उनका गला भर आया, पल्लू से आंखें पोंछने लगीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था- क्या हैल्प करूं!
दो क्षण बाद वे फिर बोलीं, 'अब सब लोग मिल के सोचो कि आगे का दिया कैसे जले?'
'आप दूसरी बहू ले आएं।' मैंने तल्खी से कहा।
‘हांं, और क्या उपाय है- भाभी!' ननद बेरहमी से बोली।
सास ने दिल पर हाथ रख कर पूछा, 'तो तुम खुशी से कह रही हो, आत्मा नहीं दुखाओगी?...'
‘नहीं।' मैंने बमुश्किल कहा, गले में कोई गोला-सा फँस गया था।
थोड़ी देर में ननद अटैची से टाइपशुदा कागज निकाल लाई।
हस्ताक्षर बनाते हुए मुझे फिर एक धक्का-सा लगा। मगर बना दिये।
फिर भरे गले से सास ने कहा, 'हमें तो भरोसा है तुम पर लेकिन...'
'बगैर डायबोर्स के सेकंड मैरिज हो नहीं सकती, न...' ननद झुंझलायी।
मैं आंखों के आंसू छुपाए, ओठ काटती हुई वहां से उठकर चली आई।
बाद के दिनों में भी मैंने कोई अधिकार नहीं जताया, न गिला-शिकवा किया। मैं संभवतः दूसरी राह पर चल पड़ी थी। ...जीत के बाद सोम के पिता मंत्री बन गए थे और मैं खुद को बेहद ताकतवर समझने लगी थी। अब मैं खुलेआम सोम के साथ सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान तो कभी बोरी के वन्य जीव अभयारण्य में मुक्त भाव से विचरण करने लगी। मुझे बाघ, तेंदुआ, सांभर, चीतल, हिरन आदि नजदीक से देखने का बचपन से ही बड़ा चाव था।... पहले पिता के साथ जाती थी, बाद में स्कूल-कॉलेज की सहेलियों के साथ जाने लगी और शादी के बाद पति के साथ... अपने पशु-प्रेम के लिए घर-बाहर, सबदूर विख्यात थी! सब कहते, रोटी मत दो उसे... सहेलियां, भाभियां और ननदें तो यहां तक कहतीं कि हस्बैंड भी मत दो उसे, हिरन-हाथियों के झुण्ड में छोड़ दो! सचमुच वन्य जीवों के साथ मैं दिन-दिन भर बनी रह सकती थी।... वश चलता तो रातों में भी!
उस दिन सतपुड़ा में घूमते-घूमते हाथियों का एक झुण्ड हमारी जीप के पीछे पड़ गया था। लगभग दो-तीन किलोमीटर तक जीप भगाते-भगाते वह पसीना-पसीना हो आया! मेरे मन में हर तरह के ख्याल चक्कर काट रहे थे।... मानो जीप बिगड़ गई! मानो टायर पंक्चर हो गया! मानो ये या वो तो फिर... तभी मुझे याद आया कि- हाथी जल्दी नहीं घूम पाते! मैं चीखी, ‘पेड़ का चक्कर लगा कर निकल चलो...' उसका मुंह लाल पड़ गया था। उसने हड़बड़ी में स्टीयरिंग घुमाकर पेड़ का चक्कर लगाया और जीप एक पगडंडी पर डाल दी! हाथी पीछे छूट गए।...
मगर उस लंबे राउण्ड के कारण जीप सिवनी मालवा लौटने के बजाय उस फार्म हाउस पर आ लगी जो तवा बांध के उत्तरी छोर पर इटारसी के नजदीक रानीपुर में स्थित था! अपना यह फार्म दिखाने की पेशकश वह पहले भी एकाध बार कर चुका था। आज मौका पा गया। और परिस्थिति का ख्याल कर मैंने भी कोई एतराज नहीं जताया। जैसे, संग-साथ एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना सिखा देता है! मैं न सिर्फ उस खूबसूरत जगह की तारीफ कर रही थी, वरन् खासी उत्साहित भी थी।... शायद, बुद्ध पूर्णिमा थी उस दिन। दिन में थोड़ी तपिश रही पर शाम होते ही ठंडी हवाएं बहने लगीं। छत पर लगे टेलिस्कोप से मैंने तवा की अपार जलराशि देखी जो चांद के दूधिया उजास में आकाश तले एक और आकाश की भांति ओरछोर फैली थी। विशाल निर्मल आकाश में पूर्णिमा का चांद और सिर्फ एक तारा चमक रहा था। और मैं मुक्त मन से जमीनो आसमान के करतब देख रही थी। फिलहाल लौटने की कोई फिक्र न थी न मन में कोई शंका। पहले भी एक बार बोरी में चीते की खोज में हम गहरे जंगल में उतर गए थे। तब रात को वहीं फॉरेस्ट की एक चौकी पर रुकना पड़ा। ...और वह एक बार अपने रूम में घुसा तो भोर के उजाले में ही वापस निकला। उसके साथ सदा घर जैसी सुरक्षा महसूस होती थी।
नीचे खाना तैयार हो रहा था। थोड़ी देर में खा-पीकर हम सो जाने वाले थे, बस! पर मन में पता नहीं कैसे-कैसे अजीबोगरीब खयाल आ रहे थे! जैसे- सदा के लिए वहीं बस जाने की एक हसरत-सी मचल रही हो।...
थोड़ी देर में वह ऊपर आ गया और झिझकता-सा बोला, ‘तुम बुरा नहीं मानो तो जरा-सा शौक करलूं?'
मैं अचरज में पड़ गई कि वह ऐसा क्या शौक करता है! पूछने वाली ही थी कि- सेवक उसके शौक का सामान लेकर वहीं आ गया।...
‘तुम दबे-छुपे व्हिस्की भी,' मैंने चुटकी ली, ‘बड़े छुपे रुस्तम निकले!'
वह शर्म से हंसने लगा। चेहरा लाल पड़ गया। मगर थोड़ी देर में ढिठायी पर उतर आया। ...और मुझसे सिर्फ चखने का हठ करने लगा!
पति को अकेले पीते देख कई बार इच्छा हो आती थी, पर हर बार भीतर से वर्जना आती कि तुम पुरुष नहीं हो, स्त्रियों की तरह रहो। कुलवधुओं की तरह।...
सोम के आगे मैंने फिर एक बार अपनी वही पुरानी ‘ना' टेक दी।
पर उसने हार नहीं मानी। इशारे से बीयर मंगा ली और भावुक होकर कहने लगा, ‘साथ नहीं दोगी तो कैसे चलेगा...'
‘क्या!' मैंने शरारत से पूछा।
‘जीवन... मेरा जीवन,' वह राजनैतिक चोग़ा उतार कर विशुद्ध प्रेमी बन गया, ‘यह तुम्हारे बिना अब तक कितना अधूरा था... तुम नहीं होतीं तो जंगली जीवों की जीवन लीलाओं के बारे में शायद ही कभी कुछ जान पाता... उनका मुक्त विचरण, आहार-विहार!'
सोम सच कह रहा था। कोई दिल से कहता है तो खालिस सच ही निकलता है। मुझसे मिलने से पहले वह एक शुष्क राजनीतिज्ञ था। जिसे अपने कार्यकर्त्ताओं और तिकड़मों से फुससत न थी। मैंने भी चांदनी रात पहले कभी इतनी सुहावनी नहीं देखी थी। सबकुछ कितना अद्भुत्! तवा का जल तक चांदी-सा झिलमिलाता हुआ। हम जैसे, देवताओं से कल्पनालोक में उपस्थित थे उस क्षण। भीतर से कुछ उग रहा था, जैसे- ऊपर से अमृत की घनी वर्षा हो रही हो।... मगर मैंने बीयर भी पहली बार चखी थी... हलक कड़वा गया। जीभ ऐंठने लगी। नमकीन का सहारा लेकर गिलास जैसेतैसे निबटाया और यह ‘शो' नहीं होने दिया कि- अनाड़ी हूं! मगर उसने फिर भर दिया तो मैं उठ कर खड़ी हो गई।...
पर मुझे पता नहीं था कि- मेरा इन्कार अब विकलांग हो चुका है! सोम ने उठ कर गिलास मेरे ओठों से अड़ा दिया।... और उस दूसरे पैग के बाद मैं अपने आप से बाहर निकल आई। लगा, जैसे- पंचमढ़ी चढ़ादी किसी ने उछाल कर! रुई के गाले से बादल नीचे तैरते रह गए! दिल में एक मस्ती-सी छाने लगी। और मैं पुरानी से पुरानी बातें निकाल कर उससे सहेलियों की तरह बतिया उठी।...
खाना खत्म होते-होते चांद आधे से जियादः छुप गया। कुदरत का करिश्मा नशे में हम समझ नहीं पा रहे थे। बादल भी नहीं थे जो संभ्रम होता। वह बार-बार झपक जाता। फिर जैसे, याद करके कि- कोई ट्रेन पकड़नी है, एकदम चौकन्ना होकर मुझे देखने लगता। कुछ कहना चाहता, मगर पंजे आपस में फंसाकर गर्दन के पीछे बांध लेता और आसमान की ओर ताक उठता।
शनैः शनैः अंधेरा और गाढ़ा हो गया। हवाएं और ठंडी। चांद आकाश की कोख में पूरी तरह छुप गया। तब जाकर मुझे समझ आया कि उसे राहु ने ग्रस लिया है! एक समूचा देवासुर संग्राम मेरे भीतर दुंदभी की भांति बज उठा। डर और सर्दी से मैं हौले-हौले कांपने लगी।
'नीचे चलो, सोम!' मैंने उसे जगाया।
वह विस्मय से कुछ देर इधर-उधर ताकता रहा। फिर अपनी कुर्सी से उठ कर मेरी कुर्सी के पीछे आ गया। मैंने पलट कर देखा तो हथेलियां सीट की पुश्त पर जमा लीं। मासूमियत से बोला, ‘मैंने शेर को दहाड़ते नहीं देखा-कभी!'
मैं हौले से हंसती हुई बोली, ‘कान कुछ तन जाते हैं, गर्दन फूल जाती है और पूंछ थोड़ी उठ जाती है,' उंगली उचका कर दिखायी, ‘ऐसे!'
उसने बांहें उठा कर गले में डाल दीं! कान पर मुंह रख कर फुसफुसाया, ‘और शेरनी अपनी पूंछ कहां छुपा लेती है?'
मैं अचरज में पड़ गई, ‘कब?'
‘अंतरंग क्षणों में...'
पार्टी ज्वाइन करते वक़्त मैंने सोचा भी नहीं था कि- उनके इस पुत्र से भेंट भी होगी मेरी! और यह मुझे जंगल दिखाते-दिखाते एक रोज यहां ले आएगा!
संवाद की गुंजाइश नहीं बची। देह अपनी भाषा बोल रही थी।... फिर पता नहीं चला कि कब महादेव पहाड़ियों का जल ढलक कर तवा में बाढ़ ले आया, सहसा एक शक्तिशाली विद्युत संयंत्र हजारों किलोवाट बिजली बना उठा और हजारों फीट लंबा और सैकड़ों मीटर ऊंचा बांध यकायक दरक उठा! अलबत्ता, तवा अब नर्मदा से होती हुई समुद्र तक पछाड़ खाती चली जायेगी।
ससुराल से लौटे कई बरस गुज़र गए थे। और उससे भी पहले, जबसे पता चला कि मेरे फेलोपिन ट्यूब खराब हैं, देह काठ हो गई थी। मजे की बात यह कि उसके पहले भी पति ने कभी मुझे इस तरह टूट कर प्यार नहीं किया था। न दिल धड़कता और न बुलबुले से फूटते उसके भीतर। बस, एक भूख-प्यास सी महसूस होती जिसे चुटकियों में बुझा लेते हम लोग। जैसे, रसोई घर में खाना-पानी तैयार रखा हो। कभी किसी अतृप्ति, अभाव का आभास नहीं होता था, न यह भय कि पूर्ति दुःसाध्य है।... मगर अब तो दिल खुद-ब-खुद प्यासे पंछी की भांति तड़पने लगा था।
राजनैतिक प्रभाव के कारण क्षेत्र में इस बीच मेरी अहमियत काफी बढ़ गई थी। अपनी कान्सीट्वेन्सी में मंत्रालय लगभग मैं ही चलाती थी। बैठक कार्यालय में बदल गई थी। पापा की भी साख और पूछ खूब बढ़ गई थी। अफसर मुझसे सतत् संपर्क बनाये रखते। दुनिया भर के आवेदन आते जिन्हें मैं रैफर करती रहती। मिलने वाले दिनभर घेरे रहते। दिन में दसियों बार सोम को फोन करती। उस पर इतना अधिकार समझने लगी, जितनी कोई साम्राज्ञी अपनी स्टेट पर।...लोकतंत्र और संविधान की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को लागू कराने में हृदय निरंतर विस्तार पाता जा रहा था।
उसे अक्सर राजधानी में रहना पड़ता। अप्रत्यक्ष रूप से मंत्रालय वही चलाता था। मैं ऐसा खालीपन महसूस करती जैसा ससुराल और पति को छोड़कर भी नहीं किया पहले कभी।... उसके साथ रहने की इच्छा बलवती हो उठी थी। ओल्डसेक्रेट्रियेट स्थित एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट की विज्ञप्ति पर मैंने चुपके से एप्लाई कर दिया था। मौका पाकर उसे बताने ही वाली थी-बस! साथ रहने का इससे अच्छा बहाना और क्या बन सकता था! मुझे यकीन था वह धरती-आसमान एक करके भी यह नियुक्ति दिलायेगा!
बीच-बीच में वह आता तो दिल में झींसियां-सी बज उठतीं। मन मोर की भांति बादलों की आहट भर से कुहुक उठता। हर मुलाकात यादगार होती। भावुकता में मेरी आंखों से बहते आंसू इस सिद्धि की गवाही देते कि स्त्री महज बच्चे बनाने वाली मशीन नहीं, वास्तविक प्रेम के आदान-प्रदान का ठोस आधार है।
सोम हमेशा की तरह फिर एक बार अचानक आ टपका, जैसे- मैं मन ही मन बुला रही थी। मगर दिन भर इतना व्यस्त रहा कि- मैं एक स्माइल तक पास नहीं कर पायी। जैसे- एक बड़े युद्ध से पहले छोटे युद्ध की तैयारी चल रही हो! इस बार सैनिक, सेनापति भी नवीन नज़र आये। ...देश एक ऐतिहासिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था, यह मैं पिछले दस साल से महसूस कर रही थी, जब कॉलेज में थी। जब सोवियत यूनियन और बाबरी मस्ज़िद ढही।... वामपंथियों के हौसले पस्त पड़ने लगे। और हम सब मध्यमार्गियों का साथ देने की सोचने लगे ताकि कम्युनल फोर्सेस को रोक पाएं। मगर कुछ नहीं कर पाए। और वे केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हो गए। अब धीरे-धीरे राज्य सरकारों के पैर उखाड़ते जा रहे हैं।... हो सकता है अगले चुनावों से पहले ही कुछ बड़ा फेरबदल हो जाए।
शाम होते ही सर्किट हाउस छोड़कर हम लोग फिर क्षेत्रीय संपर्क के बहाने रानीपुर स्थित फार्म हाउस पर चले आए। सर्दियां थीं। इसलिये बाहर घूमने-फिरने की बात तो दूर छत और टैरेस पर भी अड्डा जमाने की हिम्मत न हुई। सीधे बेडरूम में घुस गए और रजाई में दुबक कर एक-दूसरे से भिड़कर सबसे पहले सर्दी छुड़ाने का मंसूबा बांधने लगे। बातोंबातों में उसने सर्दी की खास दवा बोदका के दो पैग तैयार कर लिये थे! आज मैं अंतरंग क्षणों के दौरान कहने ही वाली थी कि- अब यहां और नहीं रहूंगी, अकेली! अपने साथ रखो सदा के लिए! वहीं पोस्टिंग दिला दो मुझे! ...मगर पहला घूंट भरकर उसने अचानक कहा, 'हम लोग इस तरह खुल कर खेलते रहते हैं, देखना- तुम कहीं पेट से मत हो जाना... गोलियां-वोलियां लेती हो?' तो मेरी आत्मीयता सहसा घायल हो गई।...
'तुम इतने कायर हो? मैंने तल्खी से पूछा।
'तुम इसे साहूकारी समझती हो?' वह अपमान से तिलमिला गया।
'सोम...' मुझे रोना आ गया, 'मोहब्बत की ऐसी तौहीन तो न करो-यार।'
'तौहीन नहीं- नहीं, वह भावुक हो आया, सावधानी वाली बात है, तुम समझ सकती हो...'
मैंने खामोशी से अपना गिलास उठा लिया।
'हम सार्वजनिक जीवन से जुड़े हैं। अंदर कुछ बाहर कुछ! क्या करें, यही तो विडम्बना है।' कहकर उसने अपना गिलास तेजी से खाली कर लिया।
मैं अभी शुरू नहीं कर पाई थी... यही स्थिरता है मेरी, मैंने सोचा- इतने दिन हो गए, आदी नहीं हुई!
उसने दूसरा पैग ढाल लिया।
घूंट भरने से पहले नमकीन चबाता हुआ बोला, 'तुम्हारा बीजेपी के बारे में क्या ख्याल है?'
-क्या!' मैं यकायक चौंक गई।
'मेरा मतलब... कैसी पार्टी है, वह।...'
मैं हैरत में थी, क्या कहती?
वह फिर बोला, उसका ‘अनुशासन, सिद्धांत, राष्ट्रीय भावना, सेवाभाव और मानाधिकार।...'
'किसका मानाधिकार, कैसा सेवाभाव,' मैं जैसे, फट पड़ी, 'तुम्हे पता भी है, वे घोर साम्प्रदायिक और संविधान विरोधी हैं। अवैज्ञानिक और मनुवादी।'
'इन चीजों में बुराई नज़र आती है तुम्हें!' वह निराशा से बोला, 'संवैधानिक संशोधन और वर्ण व्यवस्था बुरी चीज कैसे? सम्प्रदाय से ही तो पहचान बनती है समाज की, देश की।...'
'मैं समझ गई- तुम्हारे दिमाग में सिर्फ भूसा भरा है,' मैंने जोर से अपने दांत पीसे, 'जब हम अंतरतारकीय युग में प्रवेश कर रहे हैं- वे वैदिक गणित, वैदिक ज्योतिष शास्त्र पढ़ाना चाहते हैं। कर्मकाण्ड द्वारा रोजगार के द्वार खोलेंगे! तंत्र-मंत्र, भभूत से इलाज और आविष्कार करायेंगे। पुरातत्व विज्ञान के नाम पर सारे राष्ट्रीय स्मारकों को खुदवाकर मंदिर और आर्यसभ्यता ढूंढ़ेंगे। और संस्कृत थोपेंगे। तब हम कहां पहुंचेंगे? क्या तुम्हें नहीं लगता कि वे हिटलर और मुसोलिनी के नक्श्ोकदम पे चलकर मनुष्यता को मिटा देना चाहते हैं!'
वह खामोशी से अगला पैग ढालने लगा। उसके पास तर्क और कोई ज्ञान नहीं है। वह तो भोंपा है। जिसने जैसे फूंक दिया! उसे यही नहीं पता कि इन्होंने लूट में शामिल कर दलित चेतना को ही उलट दिया? अब वह अपने शोषकों अर्थात् द्विजजातियों से टक्कर लेने के बजाय अपने ही वर्ग के गैर हिन्दुओं की हत्यारी बन गई है। वे अपनी हिन्दू दादागीरी से हिंदू जाति के बहुलतावादी स्वभाव को ही नष्ट कर देना चाहते हैं।...
'कहीं उन्हें दो-तिहाई बहुमत मिल गया तो संविधान के चीथड़े कर देंगे।...' तमाम रोष के साथ नमकीन चबाती हुई मैं बेमन से अपना पैग निबटाने लगी। उसने फिर मुझसे पहले निबटा लिया और सहसा एक गहरा चुम्बन भरकर बोला, 'तुम गुस्से में एकदम चण्डी लगती हो, जी में आता है तुम्हारा 'रेप' करूं?'
'क्या ऽ!' मैं गिलास छोड़कर उठ खड़ी हुई।
‘हां!ऽ' दहाड़ कर वह भी उठ खड़ा हुआ। आंखें लकड़बग्घे-सी चमक उठीं। और बाज-सा झपट्टा मार कर हठात् उसने मुझे दबोच लिया! चिड़िया के परों की तरह पलांश में मेरे वस्त्र नोच डाले। फिर दैंयत से दांत निकाल कर स्तन कुतरने लगा। यह बहुत हिंस्र तरीका था। मैं बिफर उठी। तो उसने सहसा गर्दन भींच दी! फिर दायें-बायें दोनों ओर के बाल मुट्ठियों भर कर खींचता हुआ ओठ चबा-चबा कर सचमुच ‘रेप' करने लगा! भय और पीड़ा से मेरे प्राण सूख गये थे। गुजरात मेरी आंखों में नाच रहा था। बदहवास-सी कुछ देर विरोध करती रही फिर सहम कर चुपचाप आंसू बहाने लगी। ...मुझे नये चारागाह की तलाश में नदी पार करती वह हिरनी याद हो आई जिसे मगर ने एक झटके में अपने जबड़ों से फाड़कर नदी में लाल रंग घोल दिया था। दिल में शूल-सा उठने लगा।
यह एक ऐसी घटना घट गई थी जिसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। रात में कहीं जा नहीं सकती थी इसलिये रुकी थी, मगर मैंने खाने को हाथ नहीं लगाया। थोड़ी देर सिसकती रही और सो गई। अपमान के एहसास ने मुझे हिलाकर रख दिया था। और मैं अब उसके साथ कभी आने वाली नहीं थी, यह तय था। वह सचमुच हिंसक, बर्बर और आतताई है, मैं समझ नहीं पाई।
सुबह वह मुझसे पहले उठ गया और माफी मांगने लगा।
मैं मुंह फेरे रही।... वह कहता रहा, ‘तुम कम्युनिस्ट माइंडेड हो, इसलिये बुरा लगा। पर कम्युनिज्म तो निबट गया!'
'कदापि नहीं...' सहसा मैंने फिर फूत्कार छोड़ी, 'समाजवाद मनुष्य की समानता का अमर विचार है, वह कभी नहीं मर सकता।...'
'छोड़ो- यार', वह मनाने लगा, 'मैं तो यह जानता हूं कि हमारे बाप-दादे कांग्रेसी थे, हम भाजपाई हैं और कम्यूनिज्म आया तो हमारे ही बच्चे कम्युनिस्ट होंगे। यह तो समय का परिवर्तन है। पार्टी का नाम, विचारधारा वगैरा बदल जाती है। मनुष्य तो वही रहता है। हमीं राम थे- हमीं रावण... सोचो-सोचो!'
तुम सचमुच घूर्त हो!... मेरी आंखों में आंसू डबडबा आये। मैं कभी तुमसे, स्वप्न में भी संबंध नहीं रखूंगी।...
मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया था। उठकर बाहर निकल आई।
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लेखक-परिचय
दिस. 26, 1955
ए.असफल जन्मजात लेखक नहीं हैं, यह हुनर उन्होंने साधना से हासिल किया है। धर्मयुग, सारिका के जमाने से लेकर नया ज्ञानोदय और पुनर्प्रकाशित हंस तक उनका सफ़र बेहद श्रम-साध्य रहा। संगठन और प्रचार साहित्य से दूर दलित, स्त्री, प्रेम और दर्शन जैसे सरल किंतु जटिल विषयों पर निरंतर खोजपूर्ण लेखन करते वे अकेले जरूर पड़ते गये पर अपनी सृजनात्मक ऊर्जा, लेखन शैली, अनुभव संसार तथा भाषायी सौंदर्यबोध के कारण गुमनाम होने से बच गये। अपनी इसी खोजी प्रवृत्ति के बल पर संस्कृति और ऐतिह्य से लेकर उत्तर आधुनिक समाज तक वे गहरी पड़ताल कर सके। वैविध्य और मौलिकता उनके साहित्य की खास पहचान है।
कृतियाँ
कथा संग्रह- जंग, वामा, मनुजी तेने बरन बनाए, बीज।
उपन्यास- बारह बरस का विजेता, लीला, नमो अरिहंता।
संप्रतिः स्वतंत्र लेखन।
संपर्कः 20, ज्वालामाता गली, भिण्ड (म0प्र0)
ताली बजाऊँ?
जवाब देंहटाएंबलात्कारी किस विचारधारा के होते है? यह साबित करना चाहा है या कुछ और? समझ में नहीं आया....क्या यह एक बौधिक बेईमानी है? हम असाहित्यिक लोग शायद नहीं समझ सकते.